Teri Kurbat me - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

तेरी कुर्बत में - (भाग-10)

दोनों उसी पुरानी जगह पर बैठ गए । बैठते ही बिना समय जाया किए संचिता ने सवाल पूछा ।

संचिता - अब बताओ ऋषि , क्यों चुप हो , क्यों इग्नोर कर चले जा रहे थे तुम???

ऋषि अब सोचने लगा , "सच कहूं या झूठ । अगर सच कहा , तो यह मेरी बात को समझ पाएगी या नहीं , कहीं मुझे गलत तो नहीं समझ लेगी? और अगर कहीं फिर रोने लगी तो !!??? या परेशान हो गई तो ?? " ।

संचिता ने दोबारा सवाल दोहराया , तो उसने झूठ ही कह दिया ।

ऋषि - कुछ जरूरी काम था , इस लिए जल्दी में था ।

संचिता ( ने बात पकड़ ली और कहा ) - और अब जरूरी काम नहीं हैं, अब जल्दी में नहीं हो तुम??

संचिता के सवाल पर ऋषि सकपका गया । क्या बोले अब , उसका झूठ पकड़ा गया । उसने उठते हुए जल्द बाजी में कहा ।

ऋषि - है न...., है । चलता हूं मैं फिर ।

उसने अपने कदम बढ़ाए और दो कदम चलते ही उसके कानों में संचिता की तेज़ आवाज़ पड़ी , जो वहीं बैठे - बैठे ही बोली ।

संचिता - स्टॉप ....। झूठ भी ऐसा बोलो , जो पकड़ा न जाए । और तुमसे झूठ बोलते नहीं बनता ऋषि । इस लिए चुप चाप यहां आकर वापस बैठ जाओ , और सच्चाई बताओ । मैं सिर्फ सच्चाई सुनना चाहती हूं ।

संचिता की बात सुनकर ऋषि की कुछ पल को मुट्ठी कस गई , लेकिन अगले ही पल उसके हाथ पैर ढीले पड़ गए । अब उसके पास वापस बैठने के अलावा और कोई चारा नहीं था । वह वापस बैठ तो गया , लेकिन अंदर ही अंदर डरा हुआ था , कहीं सच बताते ही संचिता उस दिन की तरह दोबारा न परेशान हो जाए । लेकिन उनसे अपने चेहरे पर ये भाव आने नहीं दिए ।

संचिता - बिना लाग लपेट के सीधे से पूछूंगी । क्या वजह है तुम्हारे मेरे सामने से, मुझे ही इग्नोर कर निकलने की ।

ऋषि - गलत सोच रही हो तुम , मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था ।

संचिता - तो मेरी सोच को गलत ही साबित कर दो न ऋषि ।

संचिता ने ये बात उसके चेहरे को ध्यान से देखते हुए कही थी , जैसे वह वजह जानने के लिए उत्सुक हो । ऋषि ने एक नज़र उसे देखा और फिर नज़रें घुमाकर कहा ।

ऋषि - नहीं थी कोई वजह ।

संचिता - झूठ , वरना तुम मुझे यहां लेकर नहीं आते ।

ऋषि ( रुख मोड़ने के उद्देश्य से बोला ) - मैं उठाकर तो नहीं लाया था , खुद अपने पैरों से चलकर आई हो ।

संचिता ( सधी हुई आवाज़ में बोली ) - मैं बेवजह की बहस नहीं चाहती और न ही तुम बात को दूसरा रूप देने की कोशिश करो ।

ऋषि अब चुप हो गया कुछ नहीं बोला । समझ गया था , कि सच अब बताना ही होगा । उसने अब नज़रें झुका कर कहा ।

ऋषि - मैं जान बूझकर दो महीनों से तुमसे बचता फिर रहा हूं । आज भी जान बूझकर नहीं रुकना चाहता था , इसी लिए सामने से ही इग्नोर कर भाग रहा था ।

संचिता ( हैरानी से ) - लेकिन क्यों...???

ऋषि ( एक नज़र उसे देख , दोबारा नज़रें झुकाते हुए बोला ) - क्योंकि उस दिन के बाद से मैं खुद को माफ नही कर पाया हूं संचिता । गुनहगार बन चुका हूं मैं तुम्हारा । मेरी जिद की वजह से तुमने मुझे अपना अतीत बताया , वो अतीत ...., जो शायद तुम किसी को नहीं बताती , जिससे तुम्हें बेतहाशा तकलीफ होती है , उसे बताने को तुम्हें मजबूर किया । मैं दोषी हूं तुम्हारा इस बात के लिए संचिता , अब मैं कभी खुद को माफ़ नहीं कर पाऊंगा ।

संचिता ( भरी आंखों से ) - और अगर मैं कहूं , तुमने ठीक किया था उस दिन , तो..????

ऋषि उसे अचंभे से देखने लगा और कहा ।

ऋषि - बट व्हाय...??? मुझे तुम्हें फोर्स नहीं करना चाहिए था , तुमसे तुम्हारे बारे में जानने के लिए । तो फिर मेरा ऐसा करना , ठीक कैसे हो सकता है????

संचिता अब ऋषि से नजरें हटा कर , सामने क्यारी में लगे गुलाब के पौधे को देखते हुए बोली , जिसमें अभी गुलाब का फूल नहीं आया था ।

संचिता - वो गुलाब का पौधा देख रहे हो । ( ऋषि ने उसकी बताई दिशा अनुसार उस तरफ देखा ) उसमें जमी धूल की परत भी तुम्हें दिख रही होगी फिर तो !!?? ( ऋषि ने उस पौधे में जमी धूल देख , हां में सिर हिलाया ) मानती हूं , वह धूल अगर नहीं भी हटेगी उस पौधे की पत्ती से , तो पौधे को कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा । लेकिन होगा ये...., कि पत्ती का कलर चेंज हो जायेगा और वो शायद जल्दी सूख जाएगी , क्योंकि एक तो इतनी तेज़ धूप और ऊपर से ये रेत मिश्रित धूल जो उसमें बैठी हुई है , दोनों की तपन वह पत्ती सहन नहीं कर पायेगी , और अगर उसे वक्त पर पानी नहीं दिया गया , तो वह धूल को खुद से हटाएगी नहीं , इस लिए वह जल्दी ही सूख जाएगी ।

ऋषि - हम्मम , कह तो सही रही हो तुम । लेकिन हमारी सारी बातों के बीच , उस पौधे , धूल और पत्ती का क्या काम??

संचिता ( ऋषि की तरफ देखकर ) - तुम पानी हो ऋषि ।

ऋषि - मैं कुछ समझा नहीं ।

संचिता - मैं उस गुलाब के पौधे की पत्ती हूं । और वो तपता सूरज , मेरे जीवन में लोगों के तरह - तरह के मिले तानों से कहीं कैद ज़ख्म । वो धूल , उन जख्मों में जमने वाली परत , जिसे हटाने का साहस मैंने कभी किया ही नहीं । वो सूरज नुमा लोग अपनी किरणों ( तानों ) से बार - बार मेरे जख्मों को कुरेदते रहे हैं , लेकिन उन्होंने कभी पानी देने का साहस नहीं किया । लेकिन तुमने मेरे जख्मों को कुरेदा भी , उनमें जमी वो धूल नुमा परत को मुझे अपने जख्मों से अलग करने पर मजबूर किया और फिर मुझे पूर्णतः सूखने से बचाने के लिए , तुमने मुझे पानी भी दिया । मतलब कि सालों से मेरे मन के अंदर कैद जज्बात रूपी बर्फ को पिघलने दिया । और फिर मुझे अपना पन भी दिया, उस वक्त , जिस वक्त मुझे इसकी बेहद जरूरत थी । वरना शायद मैं फिर कभी वो सब किसी से नहीं कह पाती , जब तक मुझे तुम सा कोई इंसान नहीं मिलता । और फिर उन्हें सोचते हुए हमेशा घुटती रहती और फिर एक दिन इतनी सख्त हो जाती , कि दुनिया मुझसे कुछ कहने से भी डरती । इस लिए तुमने कुछ गलत नहीं किया ऋषि , बल्कि बहुत अच्छा किया । तुम खुद को गुनहगार मत समझो , बल्कि ये सोचो कि समय रहते तुमने सालों का मेरे अंदर का भरा हुआ गुबार निकाल दिया , जिसे मेरे घर वाले भी कभी न समझ पाए और न ही कभी निकाल पाए ।

ऋषि को अब संचिता की बातें समझ आई । उसने मुस्कुराकर कहा ।

ऋषि - थैंक्यू संचिता , थैंक्यू सो मच , मुझे ये बात समझाने के लिए । तुमने मुझे मेरे गिल्ट से बाहर निकाला है । वरना शायद तुम्हें दुख पहुंचाने का ये गिल्ट मुझे कभी जीने नहीं देता । इतने अच्छे से तुमने मुझे ये बात समझाई है , कि मैं क्या ही कहूं । अब समझ आया , कि मन में भरे गुस्से को , सालों के गुबार को निकलना कितना जरूरी होता है ।

संचिता - थैंक्यू तो तुम्हारे लिए बनता है ऋषि , वरना शायद मैं उसे अपने अंदर लिए - लिए जल्द ही मर जाती। क्योंकि सहन नहीं होता था मुझे कई बार ये सब । कोसती थी खुद को , मुझे क्यों भगवान ने जिंदा रखा । चुभती थी मुझे वो कड़वी यादें नुकीली बर्फ की नोक की तरह । लेकिन तुमने उस बर्फ को पिघलाया भी और मुझे सहारा भी दिया। थैंक्यू सो मच ऋषि , इन सबके लिए । मैं इसके अलावा तुम्हें कैसे थैंक्यू कहूं , नहीं जानती मैं ।

ऋषि - लाइक वैसे ही , जैसे मैं तुम्हें थैंक्यू कैसे कहूं , ये समझ नहीं पा रहा हूं । ( कुछ पल सोचकर ) अच्छा उसके बदले में , तुम मुझसे कुछ भी मांग लो , मुझे लगेगा कि उसके थ्रू ही मैने तुम्हें थैंक्यू बोल दिया है , और तुम भी यही समझना , कि तुमने मेरी ये बात मानकर मुझे थैंक्यू कह दिया ।

संचिता - पक्का , कुछ भी मांग लूं???

ऋषि - हां , मैंने मना नहीं किया ।

संचिता ( कुछ पल सोचने के बाद बोली ) - क्या हम दोस्त बन सकते हैं..??? हमेशा के लिए??

ऋषि उसे हैरानी से देखने लगा, कि आखिर इसने ये क्या मांग लिया .....।

क्रमशः

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