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शहरीकरण के धब्बे

समीक्षा

शहरीकरण के धब्बे

[ लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, कवि व लेखक, हैदरबाद ]

मैं कहानी का बहुत अच्छा पाठक नहीं हूं। कारण ये है कि हिन्दी कहाँनियों में संवेदना का समावेश बहुत ज्यादा रहता है विषय भी अक्सर वही वही रहते हैं। आज के बदले हुए युग में जहॉ इन्सान मक्कारी की सारी हदें पार करता जा रहा है, एक भिखारी, एक गरीब, अपाहिज या स्त्री होने के कारण उसे भोला या सज्जन समझा लेना अब गले से नहीं उतरता। समय आ गया है जब हर वर्ग के चेहरे के पीछे चेहरे पर कलम चलाई जाए । इसलिए जब नीलम कुलश्रेष्ठ का कहानी संग्रह "शेर के पिंजड़े में मेरे' हाथ आया तो समय रहते हुए भी कई दिन तक शुरू ही नहीं कर सका। एक दिन मुझे ख्याल आया कि नीलम जी समाज सेवी संगठनों पर लिखती रही हैं और उनके पास समाज को अन्दर से देखकर अनुभवों का भंडार है इसलिए जरूर कहानियों में समाज का वास्तिविक चित्रण होगा, ये ख्याल आते ही संग्रह पढ़ना शुरू किया तो मेरा अनुमान सही निकला और कहानियां पढ़कर खुशी भी हुई कि लेखिका ने संवेदना का नहीं अपने अनुभवों का सहारा लेकर ये कहानियां लिखी हैं। चूंकि नीलम बहुत दिन तक औद्योगिक शहर बड़ौदा में रहीं हैं इसलिए ये कहानियां शहर में कारर्पोरेट शोषण और ग्लैमर के दबाव में मूल्यों और संस्कारों का छोड़ने को तैयार बैठे मध्यम वर्ग की सशक्त कहानियां हैं। 

पहली कहानी "शेर के पिंजड़े में'' एक तरफ कारपोरंट जगत है जिसकी अंग्रेजी तमीजदार व्यवहार और मधुर मुस्कान के पीछे उसके खूनी जबड़े छुपे हैं तो दूसरी तरफ नैतिकता, मूल्यों और संस्कारों का बोझ ढोते ढोते थक चुका भारत का मध्यम वर्ग है जो बड़े शहर में आते ही पैसे की चमक से चुंधियाकर सुविधा पूर्ण जिन्दगी जीने के लिए हर तरह के समझौते करने को अब तैयार है। कहानी की नायिका कुमुद पहली बार बड़े शहर जाकर कम्पनी का चमचमाता आफिस और मालिक जुनेजा की स्मार्टनेस देखकर दबाव महसूसू करती है। जुनेजा उससे पहले की लड़कियों का शारीरिक शोषण कर चुका है, ये पता होते हुए भी वो शोषण कराने को तैयार हो जाती है । कहानी की विशेष बात ये है कि लेखिका ने कहीं भी अश्लील वर्णन के बिना अपनी बात सफलता पूर्वक सम्प्रेषित की है। कहानी में तीन बातें ऐसी आ गई हें जो शायद लेखिका ने भी नहीं सोची थीं । पृष्ठ 10 पर जुनेजा को लेकर आफिस की अन्य स्त्रीयों की बातों में शहर में कामकाजी स्त्रीयों की शादी से बाहर सेक्स सम्बंधों को लेकर सोच में बदलाव दिखता है । वहीं दूसरी ओर जुनेजा द्वारा कुमुद से ये कहना कि मेरी जगह अगर तुम्हारे बाप, भाई को बिठा दो तो वो भी यही करेगें, इन्सान की फितरत पर सटीक बयान है, कटु सत्य है कि कुर्सी पर बैठते ही हर शोषित शोषक बन जाता है। तीसरा बिन्दु बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण है जहॉ कुमुद बिना दहेज मिल रहे दूल्हे को देखकर उसे "हिन्दी स्कूल प्राडक्ट' कहती है जोकि एक सरल सीधे व्यक्ति के प्रति अंग्रेजी समाज में शामिल हो चुके लोगों की घटिया सोच का प्रतीक है। मुझे लगता हे कि यही सोच महानगरों में नौकरों की समाप्त होती वफादारी, उनके द्वारा बढ़ते अपराध के लिए जिम्मेदार है। शहर की स्मार्ट लड़कियों के पिछड़े वर्ग के लोगों द्वारा बलात्कार के मामलों में भी कहीं यही सोच भी किसी हद तक शामिल हो सकती है। 

कारपोरेट जगत से ही जुड़ी हुई कहानी है "बस फटाफट' जिसमें सुन्दर और स्मार्ट लड़कियों और विज्ञापन की शक्ति का इस्तेमाल करके ठगी की जाती है। पृष्ठ 49 पर प्रिया और एक कम्पनी के मालिक के बीच संवाद स्वाभाविक न होते हुए भी कहानी अपना संदेश देने में सफल है। इसी तरह नौकरी के नाम पर ठगी की अच्छी कहानी है दसवीं कहानी "जीवन की डाटा एंट्री'। दुख की बात ये है कि जिन बच्चों तक ये कहानी पहुंचनी चाहिए वो हिन्दी साहित्य से दूर हैं और ये दूरी बढ़ती ही जा रही है।

कारपोट जगत में केवल पुरूष ही भोली लड़कियों का शोषण नहीं करते, स्त्रीयां भी पीछे नहीं है। कहानी "बड़ी मछली 'में यही चित्रण है। एक उद्यमी महिला मध्यम वर्ग की स्त्रीयों के डिजाइन छल से प्राप्त करके उस पर करोड़ों कमाती है। सीधी साधी महिलां हाथ मल कर रह जाती हैं क्योंकि उनके पास अंग्रेजी व्यवस्था के इन कारपोरेट डकैतों से निपटने के लिए न तो साधन हैं न ही ज्ञान। आज भी भारत की 90ऽ भोली भाली महिलाओं को नहीं मालूम की पेटेंट क्या होता है। 

कहानी "हेवेनली हेल 'उद्योग जगत के एक अन्य घिनौने पक्ष को अजागर करती है जिसमें व्यापार की दुनिया में औरत होना ही एक मुसीबत बन जाता है। पुरूष उसको पाने की जिद्द करता है पुरूष से लड़ने के लिए वो अपनी एक सहेली की मदद लेती हे पर वो भी लालच में धोखा दे जाती है। औरत भी ओरत को नहीं बक्शती हें, उसकी मजबूरी में वि·ाासघात करती है। पूरे एक चक्रव्यूह में एक स्त्री के अकेले लड़ने की कहानी है।

दूसरी कहानी "मातम पुर्सी' भी सम्पन्नता आने के बाद शहरों में मध्यम वर्ग के बदलते चरित्र और बढ़ती संवेदनहीनता की सुन्दर कहानी है। चार दोस्त जब अमीर नहीं थे एक बस्ती में रहते थे तो छोटी से छोटी तकलीफ में भी एक दूसरे का दर्द बांटते थे पर सम्पन्न होने के बाद शहर में अलग फ्लैटों में चले गए। उनमें से एक बेटी की बीमारी के कारण तंगी में आ गया तो मिलने से भी कन्नी काटने लगे, यहॉ तक की बेटी की मौत पर भी जाने के लिए संडे से पहले समय नहीं था। संडे को गए तो भी अपने मनोरंजन का प्रोग्राम साथ में रखा, साइड में मातम पुर्सी भी कर ली। 

तीसरी कहानी "चुटकी भर लाल रंग' शिक्षा के बाद भी लड़कियों के शादी के बाद मायके लौट आने के बढ़ते प्रचलन पर है। लेखिका शायद ये संदेश देना चाहती हे कि केवल शिक्षा ही काफी नहीं है सोच में बदलाव ज्यादा जरूरी है पर एक ही कहानी में बहुत सारे मुद्दे समेटने की कोशिश में कहानी बिखर सी गई है संदेश उभर कर नहीं आ पाया।

पांचवी कहानी "आपका ही साला' शहरों में घूमते उन ठगों की कहानी है जो कही से कोई जान पहचान निकाल कर लोगों से किसी न किसी बहाने पैसे ठग लेते हैं। कहानी नसीहत भरी और मनोरंजक है पर कमजोर कड़ी ये है कि फोन से जुड़े इतने लोगों को ठगना सम्भव नहीं है, कहानी एक दो पर रूक जाती तो अच्छा होता।

इसी प्रकार लगभग हर कहानी शहरी करण और अंग्रेजी करण से जन्में विकारों पर है। "कारों के काफिलों के पीछे' कहानी शायद हर्षद मेहता के समय से प्रेरित है जिसमें जाने कितने ही बर्बाद हो गए। उद्योगों द्वारा प्रदूषण फैलाए जाने और पहुंच के दम पर ईमानदार आफिसर से बच निकलने की कोशिशों को कहानी "सफाई' में सफलता पूर्वक चित्रत किया है... ये कहानी आ·ास्त भी करती है कि औद्योगिक समय में ईमानदारी अभी भी जिन्दा है और अब तो स्त्रीयां भी इस पर कलम चला रही हैं। समाज सेवी संगठनों में छुपे कमीनेपन को लेखिका ने बड़ी खूबी से कहानी "जाओं तुम्हे माफ किया' में चित्रित किया है।

जैसा मेंने प्रारम्भ में कहा था, इस संग्रह की कहानियों की विशेषता यही है कि बेमतलब की संवेदना की भरमार नहीं है समाज की सही तस्वीर पेश की है लेखिका ने कहीं भी अपना मत नहीं या टिप्पणी नहीं घुसेड़ी है इसलिए ये कहानियां समाज का दर्पण बन गई हैं और पठनीय हैं। मुझे पूरा वि·ाास है कि हिन्दी साहित्य जगत का हर समझदार और प्रतिबद्धता मुक्त व्यक्ति इस संग्रह का स्वागत करेगा। मेरी शुभकामनाएं।

पुस्तक --शेर के पिंजडे में

लेखिका --नीलम कुलश्रेष्ठ

नमन प्रकाशन 

423/1 अंसारी रोड, नई दिल्ली 110002

पृष्ठ 180 मूल्य रू 295/-                                                  

समीक्षक --

कवि लक्ष्मी नारायण अग्रवाल

4-7-126 इसामियाँ बाजार

हैदराबाद   500027

मोबाइल --    08121330005

e-mail 

lna1954@gmail.com

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