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रिले रेस–स्त्री जीवन की इनफ़िनिट बैटन रेस

प्रोफ़ेसर डॉ. के. वनजा, कोचीन

नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा संपादित ‘रिले रेस’ कहानी संग्रह स्त्री विमर्श की दृष्टि से उल्लेखनीय है । अनंत काल से अपने जीवन में स्त्री कई कष्टों को भोगती आ रही है । इस कहानी संकलन में कई स्त्री कथा पात्रों के ज़रिए विविधायामी स्त्री- संघर्षों की सच्चाई का पर्दफाश हुआ है । ये कहानियाँ असल में स्त्री की बुनियादी समस्याओं से मुठभेड़ करती रहती हैं या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो समकालीन कहानीकार पुरुष वर्चस्विता को खंडित करते हुए स्त्री को चेतनापूर्ण बनाने की कोशिश में हैं । समाज के सभी क्षेत्रों में पुरुष निर्मित धार्मिक एवं नैतिक मानदंडों के जंजीर में स्त्री को जकड़कर उसे अपने उपयोग के लिए पराधीन बनाने की कोशिश सदियों से चलती आ रही है । आर्थिक दृष्टि से भी पराधीन स्त्री अपनी भाषा में बोलने को कभी भी सक्षम नहीं होगी । इसलिए वैचारिक, सांस्कृतिक एवं मानसिक दासता की शिकार बननेवाली स्त्री को जनतान्त्रिक मूल्यों के प्रति सचेत करना अनिवार्य है ।

नीलम कुलश्रेष्ठ के ‘रिले रेस’ शीर्षक कहानी संग्रह में तेरह कहानियाँ हैं । स्त्री- अनुभवों को बारीकी से इन कहानियों में प्रस्तुत किया गया है । अनुभव यह नहीं कि स्त्री के साथ क्या हुआ ? अनुभव यह होना चाहिए कि जो घटित हुआ उस से सार निकाल कर आप इस घटित से क्या सीख जाएँ । फिर भी एक सामान्य बात जो स्पष्ट होती है स्त्री की परतंत्रता और उससे होनेवाला शोषण । नमिता सिंह की ‘ कोख ’ शीर्षक कहानी अत्यंत विचारणीय है । स्त्री मात्र कोख बनकर रह जाने की स्थिति साधारण सी है । यहाँ पुराण से ली गयी अंबिका एवं अंबालिका की घटना के द्वारा वंश परंपरा की सृष्टि करनेवाली कोख के रूप में स्त्री को पेश किया गया है । पुरुष जो भी हो उसीसे गर्भधारण कर स्त्री को अपना नारीत्व सिद्ध करना होगा । जिस राज कुमार केलिए भीष्म इन लड़कियों को ले आये वह संतानोत्पादन के लिए सक्षम न देखकर बूढे पितृ तुल्य वनवासी साधक व्यास के सामने इन लड़कियों को अपने शरीर को परोस देना पड़ता है । यही तो व्यवस्था की नीति है । यहाँ दोनों लड़कियाँ विद्रोह जाहिर करती हैं तो भी राजमहल के भीतर वहाँ की व्यवस्था में वे एकदम गुलाम ही हैं, वे मात्र कोख हैं, उनकी संवेदनाओं एवं स्त्रीयोचित कोमल भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है । अर्थात नारी केवल माता है और इसके उपरान्त वह जो कुछ है, वे सब मातृत्व के पोषक मात्र ।

‘गूंगी’ कहानी में अपंग होते हुए भी शारीरिक दृष्टि से शोषण करने को उद्यत होनेवाला पुरुष समाज और प्रतिरोध करने में समर्थ एवं सचेत होनेवाली गूंगी हमें सोचने के लिए मज़बूर करती हैं । विकलांगों के प्रति जो अन्याय समाज में बड़े पैमाने पर चल रहा है, इसी दृष्टि से इस कहानी का विचार मंथन अनिवार्य है । लेकिन यह समझना समय की माँग है कि जबरन एक व्यक्ति के देह को वश में रखने की परंपरा सही नहीं है । स्मिता जी ‘त्रिज्या’ कहानी में स्त्री को स्त्री बनानेवाले स्तन के पुष्ट होने के अभाव में निम्न मनोग्रंथि से जीने के लिए अभिशप्त एक प्रतिभा संपन्न लडकी की विवशता को उभरती हैं । यहाँ इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हर औरत के मन के किसी कोने में कोई रंगमहल होता है और एक राधा होती है ।

‘ कटी हुई औरत ’ में नीलम कुलश्रेष्ठ ने स्त्री को देवी बनाकर पैसा कमानेवाले घरवाले तथा शादी के बाद वही मार्ग अपनाने वाले पति को दिखाया है । स्त्री का शोषण एवं पराधीनता का एक अलग रूप इस कहानी में प्रकट है । सारा जोसफ़ की कहानी ‘देवी के बाल’ यह दिखाना चाहती है कि अपना बाल भी स्त्री के लिए अभिशाप है । स्त्री को बाल बढाने और उसे बिखेर छोडने का भी अधिकार समाज नहीं देता । इस संदर्भ में ‘ए रूम ऑफ वंस ओन’ में बेजीर्निया वुल्फ़ की यह टिप्पणी याद आती है- “ औरतों के मूल्य मर्दों द्वारा निर्मित मूल्यों से अक्सर भिन्न होते हैं । स्वभावत: मामला ऐसा ही होता है । फिर भी मर्दाना मूल्य ही प्रभावी होते हैं ।

‘माँ का उन्माद’ में सचमुच दीपक शर्मा ने यह उकेरा कि एक स्त्री को पगली बनाकर पति अपनी बहन की मदद से दारुण रूप से कैसे ख़त्म करता है । बेटे की यादों के ज़रिए माँ के प्रति हुआ अन्याय अनावृत हुआ है । औरत को एक जीव का दर्जा भी न देने को तैयार होनेवाली व्यवस्था पर टिप्पणी है यह कहानी । डॉ. रानू मुखर्जी ने अपनी कहानी ‘जन्म लेने की सज़ा’ में एक बच्चे ने कैसे जन्म लेने की सज़ा भोगी, इसका यथातथ्य चित्र खींचा है । दो भाईयों के बीच में धन के लिए जब झगडा हुआ इसकी सज़ा तो एक बच्चे को भोगनी पडी है । इस कहानी में यह ही नहीं बल्कि कई मुद्दों पर विचार किया गया है । निःसंतान स्त्री के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने के साथ परिवार में ऐसे दंपतियों को संपत्ति से वंचित करने की प्रणाली जैसी कई सामाजिक विद्रूपताओं पर कहानीकार ने प्रकाश डाला है ।

डॉ. सत्य कुमार द्वारा रचित “ सती का चौरा ” में स्त्री के प्रति आज भी जो भयानक अन्याय चल रहा है उसका मार्मिक चित्रण है । स्त्री को अत्यंत क्रूर ढंग से बलपूर्वक सती बनाकर ख़ुद इलाके का प्रतिष्ठित व्यक्ति बनने तथा परिवर को धन और ख्याति प्राप्त करनेवाले चालाक पुरुषों के सामने स्त्री-जीवन का कोई महत्व नहीं है । यहाँ यह सवाल उठता है कि सारा उपदेश गरीब नारियों के ही सिर पर क्यों थोपा जाता है ? उन्हीं के सिर पर क्यों आदर्श, मर्यादा और त्याग सब कुछ पालने का भार पटका जाता है ?

‘जली हुई लड़की’ नीलम कुलश्रेष्ठ की कहानी है । उसमें ससुराल में जला कर मारी गई बेटी की कहानी है । यह कहानी हमसे यह प्रश्न करती है कि क्यों हम सब को लड़ाई जीतने में असमर्थ बेटियों की तैयारी घर में करते हैं, इंसान के रूप में जीने की हिम्मत क्यों उनको नहीं देते ? रजनी गुप्त ‘कठघरा’ कहानी में संशयग्रस्त पति अपनी पत्नी को हमेशा संशय के ‘कठघरा’ में खड़ा कर जीवन को दु:सह बना देता है । यहाँ पुरुष मनोग्रंथि का विश्लेषण हुआ है ।

इस आघुनिक समाज में भी लडकी को जन्म देने का दोष पत्नी के ऊपर मढ़ने वाले पति की निर्ममता पूर्ण प्रवृत्ति है बिंदु भट्ट के ‘ मगलसूत्र ’ में । खाने के लिए घर पर कुछ नहीं है तो भी जात बिरादरी की इज़्ज़त के लिए लड़कियों को काम करने न देनेवाला पिता है वह लेकिन इस कहानी की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यहाँ स्त्री की रक्षा के लिए एक स्त्री तैयार हो जाती है । यह है समकालीन कहानी में प्रस्तुत स्त्री–भाषा यानि कि स्त्री–चेतना को बारीकी से प्रस्तुत कर आज की अनिवार्यता को रेखांकित किया जा रहा है लेकिन ‘झांनवाद्दन’ कहानी में एक विधवा स्त्री की संवेदना को न पहचान कर पुरुष के साथ मिलकर पुरुष भाषा का इस्तेमाल करनेवाली स्त्रियाँ हैं । जिसने अपने ऊपर हुए निर्लज्ज लम्पटता पर प्रतिकार करने को उद्यत हुई उस ख़ूबसूरत विधवा स्त्री को पूरा परिवार एवं समाज पगली बनाकर सदा के लिए मिटा देते हैं । आज स्त्री विमर्श के संदर्भ में बहनापा पर बल दिया जाता तो कितनी स्त्रियाँ इस भाषा को समझती हैं ? वे स्त्रियों के खिलाफ़ पुरुष से मिलकर षड्यंत्र रचती हैं । यहाँ अनवरत दुख और द्वन्द्व के बीच जन्मती एक कमज़ोर स्त्री को थोडी सी आत्मस्वीकृति मिलती है लेकिन उस स्त्री से ज़िन्दगी खो गई ।

आज के समय में समूची समाज व्यवस्था से लोहा लेना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है। ये बात हमें नीलम जी की कहानी `रिले रेस `में प्रमाणित होती दिखाई देती है। ‘रिले रेस’ कहानी में स्त्रियों को बचाने के लिए जो एन.जी.ओ .हैं उनके सेवाकार्यों पर प्रकाश डाला जाता है । तब यह भी प्रकट होता है कि असंख्य स्त्रियाँ कई प्रकार से निरंतर शोषण की शिकार बनती हैं । ये सेवा कार्य में प्रवृत्त स्त्रियाँ कई कानूनी करवाईयों के लिए सरकार से लड़ती रहती हैं । इस कहानी में अपनी-अपनी कब्रों में सोई हुई बेखबर एवं अनगढ़ औरतों को जगाकर सचेतन बना देने की महती भूमिका तैयार की जाती है ।

उपर्युक्त कहानियों से गुज़रते वक्त ऐसा लग रहा है कि जिस प्रकार हरिकथा अनंत है वैसे ही स्त्री जीवन की दास्तान सीमातीत है । समय के बीत जाने पर सभ्यता के विकास के साथ सुख सुविधाएँ बढ़ गईं । लेकिन मनुष्य जीवन ज़्यादा जटिल होता आ रहा है । उस परिवर्तन के अनुसार स्त्री जीवन भी पहले से ज़्यादा समस्या संकुल बन गया । कहीं कहीं पर स्त्री की आवाज़ें बुलंद हैं । लेकिन उन आवाज़ों को भी दबाने लायक एक व्यवस्था यहाँ पहले ही गहराई से जड़ जमा चुकी थी । इससे बचने के लिए स्त्री को अपने अधिकार का पता होना चाहिए, कानून से परिचित होना चाहिए । स्त्री की दृष्टि असल में मूल्यवादी है, इसलिए वह किसी का दमन करना चाहती नहीं । जो स्त्री पुरुष के साथ मिलकर स्त्री का विरोध करती है, उसकी वह सोच आज की व्यवस्था द्वारा नियंत्रित है । इससे बचने का प्रतिरोधी स्वर उपर्युक्त कहानियों में स्त्री जाहिर करती है । लेकिन स्त्री का दु:ख इनफ़िनिट है, ये रिले रेस में बेटेन के हस्तांतरित होते रहने के समान ज़ारी है । उम्मीद की बात यह है कि नीलम कुलश्रेष्ठ जैसी लेखिकायें अपने कर्मों एवं शब्दों से इस आधी आबादी को सजग बनाने के लिए कटिबद्ध कोशिश करती है । असल में स्त्री मुक्ति का केंद्रीय बिंदु यही है कि बाहरी दबाव की अपेक्षाओं को दरकिनार कर वह मात्र अपना कोण बदल ले । तब न यथार्थ और अपने के बीच पाई जानेवाली दूरी का तय करना मुश्किल होगा, न अपने लिए मुकम्मिल जगह बनाना । अंत में यह भी कहना चाहती हूँ कि दर्द की साझेदारी से पैदा हुए रिश्तों से बडा दूसरा कोई रिश्ता नहीं होता ।

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पुस्तक --`रिले रेस` [सम्पादित कहानी संग्रह ]

सम्पादक - नीलम कुलश्रेष्ठ

प्रकाशक---वनिका पब्लिकेशन्स, देल्ही

पृष्ठ -१८८

मूल्य ---३५० रूपये

प्रोफ़ेसर - डॉ. के .वनजा

अवकाश प्राप्त हिंदी विभागाध्यक्ष

साइंस एंड टेक्नॉलॉजी विश्वविद्ध्यालय

कोचीन।

Mo. --9495839796

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