ताश का आशियाना - भाग 11 Rajshree द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ताश का आशियाना - भाग 11

शाम 6:30 बजे के पहले ही सिद्धार्थ घाट पर आ चुका था।
श्रद्धालु भक्त, वहां के रहिवासी, पंडित सब घाट पर पहुंच चुके थे, उसमें सिद्धार्थ भी शामिल था।
आरती शुरू हो गई आरती की धुन में कहीं खो गया था सिद्धार्थ।
"देखती हूं कल वैसे भी बिजी हूं।" सिद्धार्थ की आंखें खुल गई।
"वो नहीं आई।" सिद्धार्थ के बात में एक फैसला नहीं बल्कि एक निराशा जान पड़ रही थी।
सिद्धार्थ के कंधे पर किसी ने हाथ रखा।
सिद्धार्थ पीछे मुड़ा। रागिनी खड़ी थी।
"आह!!हमेशा पीछे से आकर डराना क्या आदत है तुम्हारी?"
"आदत!? हमेशा? आदत तो बहुत बड़ी बात होती है। एक बार लगती है, तो डूबा के ही जान लेती है।"
"और क्या तुम्हारे लिए एक दिन का मतलब एक साल जैसा था, मानो तुम हमेशा बोल रहे हो।"
रागिनी सिद्धार्थ को चिड़ाते हुए बोली।
"वेरी फनी" नहीं मैंने तो अब तक कोई जोक नहीं मारा।
"हा... तुमसे जितना मुश्किल है।"
"नहीं ट्राई करके देखो, क्या पता जीत दोनों की बराबर हो।" रागिनी सिद्धार्थ को ऊपर से नीचे देखते हुए,मदहोशी भरे स्वर में बोल उठी।
रागिनी अपने होठों का पाउट बनाकर आंखें बंद कर खड़ी रही।
सिद्धार्थ ने मुंह गंगा की तरफ कर लिया, मुंह पर तो कैफियत नजर आ रही थी पर दिल अपने आप हंस दिया। रागिनी सिद्धार्थ का बर्ताव देख खिसियाई।
"कैसे-कैसे लोग आ जाते यहा? लड़की को कोई शर्म ही नहीं है।"
"Excuse me what you mean by शरम हा..." "आपके पति के गले में हाथ डालकर घूम रही हु। इस देश की नागरिक हूं।"
सिद्धार्थ रागिनी और उस औरत के बीच चल रही बातचीत को पूर्णविराम लगाते हुए- "देखिए शांत हो जाइये, भगवान के मंदिर में झगडिए मत।"
"तुम अपनी औरत को समझाओ, अगर इतना प्यार उमड़ आ रहा है तो लॉज पर ऐसी 36 मिल जायेगी।"
भगवान के मंदिर में आकर, गंगा में डुबकी लगाकर, लोगों का शरीर सिर्फ साफ हो जाता है पर गंगा से बाहर निकलते ही मन में भरा मैल बांस छोड़ना शुरू कर देता है।
रागिनी की आंखों में आंसू भर चुके थे, इतना अपमान उसको सहन होने जैसा नहीं था।
"पत्नी है वह मेरी जबान संभाल कर बात कीजिए।" सिद्धार्थ के इस वाक्य में जितना झूठ था उतनी ही सुरक्षा रागिनी को दिखाई दी।
हाथो के सहारे कंधों पर हाथ कसा था मानो बहुत अनमोल वस्तु को किसने देखकर ही अपवित्र बना दिया है।
"अरे भाई झगड़ा मत करो आरती अभी खत्म होने ही वाली है। आशीर्वाद ले लो सब मराल दूर हो जाएगा।"70 साल के एक व्यस्कर व्यक्ति बोल उठे।
रागिनी कुछ नहीं बोली। सिद्धार्थ अभी आरती खत्म होने की राह देख रहा था।
रागिनी एकाएक शांत हो गई।
रागिनी का बर्ताव भले ही किसी को ठीक ना लगे पर बाहर से धाकड़ दिखने वाली रागिनी अंदर से उतनी ही संवेदनशील है, यह बात दूसरे ही दिन में सिद्धार्थ जान चुका था।
सिद्धार्थ को रागिनी की एकाएक चुप्पी चुभने लगी।
शब्द जुबान पर आकर रुक जा रहे थे।
ऐसा लग रहा था मानो सिद्धार्थ के गले से शब्द घुटने की आवाज आ रही थी।
आरती खत्म होने में कुछ ही क्षण बाकी थे।
सिद्धार्थ ने रागिनी का हाथ पकड़ा, और वो उसे लेकर वहा से जाने लगा।
आरती खत्म हुई धीरे-धीरे लोगों की भीड़ आरती की तरफ बढ़ती जा रही थी, पर सिद्धार्थ सिर्फ एक रागिनी के पुतले को खींच कर वहां से लेकर जा रहा था।
आरती के शोरगुल से काफी दूर पहुंच चुके थे दोनों।
रागिनी ने अपने जीवन के दस साल लंदन में बिताए थे न्यूरोसाइकोलॉजी की पढ़ाई और करियर में।
भले ही भारत के अनुसार लंदन, अमेरिका जैसे देश
प्यार में शर्म का मान नहीं रखते हो। जो काम हम चार दीवारों में करना पसंद करते हैं वह भले ही वो खुलेआम करने में कतराते नहीं। उनकी प्रेम में स्वतंत्रता है, जो प्रेम को शरीर या मन से बांटना पसंद नहीं करती, पर उनके बर्ताव में अश्लीलता है। ऐसा तो कहीं नहीं लिखा।
बस वह प्यार को महसूस करने से ज्यादा जताने में यकीन रखते हैं। ऐसे ही कुछ ख्यालों में पली-बढ़ी है हमारी रागिनी इंडिया में कदम रखते ही,एक दो महीने बाद उसकी स्वतंत्र विचारधारा पर इस प्रकार का कलंक लगाया जाना उसके मन को ठेस पहुंचाके गया था।
अब तो दोनों बहुत दूर तक पहुंच जाने के बाद भी
कभी भी रागिनी के मुंह से एक शब्द नहीं फूटा।
"अब कुछ बोलोगी भी?" रागिनी कुछ नहीं बोल रही थी। सिद्धार्थ को कुछ सूझ नहीं रहा था, वह आखिरकार रागिनी से कैसे बात करें, एक दिन पहले ही तो मिले हैं।
उसे वहां छोड़कर भी चला जाएगा तो बोलने वाला तो कोई भी नहीं था।
"देखो मुझे पता है, तुम्हें बुरा लगा है। ऐसे चुप रह कर कुछ होने वाला नहीं है। तुम खुद का और मेरा दोनों का टाइम वेस्ट कर रही हो।चलो मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं।"
सिद्धार्थ रागिनी के आधे घंटे के चुप्पी से पूरी तरह परेशान हो चुका था। इतना कुछ बोलते ही रागिनी सिर्फ-
"मैं चली जाओगी।" इतना कि वो वहा से उठ कर चल दी।
उसके पाव सिर्फ चल रहे थे।
सिद्धार्थ को पीछे छोड़ धीरे-धीरे प्रतिकृति धुंधली पड़ती जा रही थी, पर इंसान जिंदगी से भुला ना पड़ जाए इसकी बेचैनी उसे रागिनी के पीछे चलने पर मजबूर कर रही थी। अपने लाल कोट के पॉकेट में वह सिर्फ रागिनी के पैरों के निशानों पर चल रहा था।
पहले सिद्धार्थ को लगा रागिनी अपने घर जाएगी लेकिन वह उसकी तरह भटकती आत्मा बन भटक रही थी।
भटकते-भटकते वह बाजार में पहुंची।
"जितने लोग उतनी भीड़ जितनी भीड़ उतनी शख्सियते।"
रागिनी को भीड़ में लोगों का धक्का लगने लगा।
रागिनी तभी भी कुछ नहीं बोली।
एक लड़के ने जानबूझकर रागिनी की कमर को कस के दबोचा और रागिनी ने पलटते ही गलती का नाम दे दिया।
रागिनी तभी भी कुछ नहीं बोली यह देखकर सिद्धार्थ को यह विश्वास करना मुश्किल हो रहा था लेकिन सिद्धार्थ का खून खोल रहा था।
"हिम्मत कैसे हुई उस लड़के की।" सिद्धार्थ ने उस लड़के का गिरेबान पकड़ लिया "अरे,भाई क्या हुआ?" यह कह तमाशे का स्वाद लेने भीड़ जम गयी। पर रागिनी को इस बात में कुछ ज्यादा रुची नही थी।
रागिनी चाट की दुकान की और बढ़ गयी। रागिनी ने वहा के दुकानदार से चाट मांगी और उसे खाने लगी।
कोई भावना नहीं थी उसके चेहरे पर रागिनी की आंखों में पानी था। वह पानी चाट के मसाले का था, या अब तक जो कुछ भी मन में ना बोल कर दबाए जा रही थी उसका, यह बताना थोड़ा मुश्किल हो रहा था।
चाट खत्म होते ही रागिनी वहा से चल दी।
सिद्धार्थ भी अपनी लड़ाई खत्म होते ही उसके पीछे चल दिया। रागिनी चलते चलते एक भांग की दुकान पर रुकी। भांग पर भले ही सरकार ने काफी पहले ही प्रतिबंध लगा दिया हो, पर भोलेनाथ का प्रसाद समझकर आज भी बनारस में कहीं जगह ग्रहण किया जाता है।
और कानूनी तरीके से बेचा भी जाता है। काफी पुरुष और यात्रीगण वहां पर भांग के मजे ले रहे थे। शायद काफी पुरुषों में एक स्त्री का आगे बढ़कर भांग जैसे पेय की मांग करना एक बड़ा ही संगीन अपराध हो गया था।
उसे इस तरह सारे लोग देख रहे थे उसके बावजूद भी रागिनी एक गिलास भांग के अलावा कुछ भी नहीं बोली।
पहले दुकानदार ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा फिर भांग का गिलास सामने कर दिया। "अरे, मैडम को बैठने के लिए कुर्सी दो।" सिद्धार्थ ने भी एक गिलास भांग खरीदी।
सिद्धार्थ ने आज तक बनारस का रहिवासी होने के बावजूद भी भांग का सेवन नहीं किया था।
उसने भी पहली बार ही भांग पर ताव पर था।
रागिनी ने गटागट भांग का गिलास खाली किया और एक और गिलास की डिमांड दुकानदार से की।
पहले तो दुकानदार तैयार नहीं था, पर सिर्फ एक और गिलास के ₹500 हाथ में मिले तो उसकी भी जेब पैसों पर पसीज गया।
दो गिलास रागिनी के सामने रख दिए गए। सिद्धार्थ को यह सब बर्दाश्त होना मुश्किल था।
एक गिलास खत्म होते ही रागिनी की आंखें चमकने लगी। लोगों की शक्लें एक ही जगह दो दिखने लगी, शरीर में गर्मी बढ़ने लगी, दिमाग ने खुद पर आपा खो दिया।
रागिनी जोर जोर से हंसने लगी। "तुम लोग सब साले ह**** हो,लड़की देखी नहीं कि टूट पड़े।"
"लड़की को बोलते हो, अच्छे रहो, अच्छा पहनो हम क्यों करें?हम क्यों रहे? तुम लोग अपनी गंदी सोच का क्यो कुछ नहीं करते? हा!!!"
"मैं यह कपड़े रखू या ना रखू मेरी मर्जी।"
"एक हाथ में गिलास पकड़, दूसरे हाथों से अपनी शर्ट के ऊपर के बटन खोल चुकी थी। लोगों की नजर उस पर बढ़ने लगी थी।"
वह तीसरी बटन खोलती, उसके पहले ही, अनजान हाथों ने उसे रोक लिया था। हाथ सिद्धार्थ के थे।
गिलास को भी उसने उठाकर धराशाई कर दिया था।
"छोड़ो यह, चलो यहां से" सिद्धार्थ ने उसे संभाला।
"मैं नहीं चलूंगी।" सिद्धार्थ ने अपना जैकेट उसे जबरदस्ती पहनाया और बिना उसके मर्जी के वहा से उसे खींच कर ले गया।
वहां खड़ा कोई आदमी कुछ नहीं बोला।
जिस दुकानदार का गिलास फूटा, वह भी कुछ नहीं बोल पाया।