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ताश का आशियाना - भाग 4

यह कहानी यहीं खत्म हो जाती अगर ठीक एक साल पहले टॉप 10 ट्रैवल ब्लॉगर में सिद्धार्थ का नाम नहीं आता। सिद्धार्थ को बचपन से घूमने फिरने का फोटोग्राफी करने का बहुत शौक था।
15 अगस्त, 26 जनवरी, हाई स्कूल सेंड ऑफ हमेशा से ही सिद्धार्थ एक निवेदक था उसका ही फायदा शायद उसे हुआ होगा।
"बंजारो का आशियाना” नाम से एक बुक 2016 में प्रकाशित हुई जो काफी बेस्ट सेलर साबित हुई।
यूट्यूब के चैनल “सिद्धार्थ का सफर” को 15 मिलियन से भी ज्यादा सब्सक्राइबर थे।
सिद्धार्थ एक बार फिर अपने मिट्टी में वापस आया, जिसका नाम बनारस है।
पूरे 5 साल बाद एक टेबल पर बैठ फिलहाल कॉफी का लुत्फ उठा रहा है।
टेबल से गंगा नदी साफ साफ नजर आ रही थी, कुछ गोते पानी में डुबकी लगाकर गंगा को साफ कर रहे थे, तो कोई पाप धोने के लिए डुबकी लगा रहे थे, वहीं कुलड़ की चाय का लुप्त कुछ लोग ऐसे उठा रहे थे जैसी यह उनकी जिंदगी की आखिरी चाय है। मंदिरों से घंटा बजने की आवाज सुनाई दे रही थी, कुछ लोग सिक्का फेंक अपनी मुरादें मांग रहे थे, तो कुछ उन सारे नजारों को अपनी पेंटिंग में उतार रहे थे; बीएचयू के आर्ट्स स्टूडेंट थे वो छात्र।
आज भी बनारस नहीं बदला था, ना ही वहाँ की प्रथाए बदली थी। सब कुछ वैसा ही था जैसे सिद्धार्थ छोड़कर गया था बस बदल गया था, तो वो खुद था।
“कितने सालो बाद यहाँ आए हो,बदल सा गया है सबकुछ।”
चित्रा की आवाज थी वो सामने ही बैठकर वो कॉफी पीते हुए सिद्धार्थ की नजर से नजरें मिलाने कोशीश कर रही थी।
सिद्धार्थ एक शांति भरी मुस्कान अपने चेहरे पर लाते हुए- “कांग्रेस बदल गयी, भाजपा मे नरेंद्र मोदी पीच में अच्छा खेल रहे हैं, कांवड़ यात्रा का नया रूप दिखा है मुझे, नमामि गंगे के तहत गंगा को साफ करने की पहल की जा रही है। एक श्वास में पर उतनी ही उत्साह से बोलने के कुछ अंतराल बाद
“बहुत कुछ बदल गया है पर पुराना था वो वैसे का वैसा ही है वैसे भी परिवर्तन ही जिंदगी का नियम है।“
“तुम भी काफी बदल गए हो।“ चित्रा इतनी देर में सिर्फ यही एक वाक्य बोल पायी।
इंसान कभी नहीं बदलतीं बस उसको जीवन को देखने का दृष्टिकोण बदल जाता है इस कारण उस इंसान के संपर्क में रहने वाले हर एक व्यक्ति को यह महसूस होता है वो इंसान बदल चुका है।
बिलकुल गंगा की ऊपरी सतह की तरह शांत था सिद्धार्थ किसी चीज़ का नहीं उसे लोभ था नाही घृणा।
“एक बार भी नहीं लगा कि बनारस आकर मिल लिया जाए।“कॉफी का मग हाथ में पकड़ते हुए चित्र बोली।
“लगा बहुत बार लगा लेकिन आने के बाद क्या मुँह दिखाता सबको इसकी चिंता ने दिमाग घूमा दिया था, सोचा दिमाग को शांत करने के लिए खुद घूम लिया जाए।“
सिद्धार्थ का मन एक बार फिर गंगा में कहीं डूब गया।
चित्रा बहुत कुछ पूछना चाहती थी उसे उनके बीच दूरी थी एक टेबल की? एक दिल की, एक मन की।
एक सुलझी हुई, प्रैक्टिकल चित्रा के मुँह से क्यों नहीं कोई शब्द फूटे वो भी ऐन मौके पर?शायद वो डरती थी कि सिद्धार्थ का गुस्सा वो झेल नहीं पाएंगी या फिर सिद्धार्थ टूट गया था तो वो उसे समेट नहीं पाएगी।
एक संतोष भरा इज्जतदार जीवन सिद्धार्थ उसे दे पाता? बारहवीं के बाद इंजीनियरिंग, उसके बाद एमबीए। क्या था सिद्धार्थ के पास? जो एक लड़की को सेंस ऑफ सेक्युरिटी दे सकता था।
चित्रा जब भी कभी छुट्टियों में घर जाती सबसे पहले सिद्धार्थ से मिलती।
“सिद्धार्थ ये, सिद्धार्थ वो, सिद्धार्थ तुम्हे ऐसे करना चाहिए।
“तुम कब लाइफ को सीरियसली लोगे सिद्धार्थ?”
“तुम्हारे पिता थक रहे हैं सिद्धार्थ, प्लीज़ संभल जाओ।“चित्रा बोल बोल के थक जाती पर सिद्धार्थ के कानों पर तो कभी जु रेंगी ही नहीं।
और आखिरकार चित्रा ने शेखर से शादी करने का फैसला ले लिया।
एक और सच यह भी था कि शेखर सियाराम कुमार का एक लौता बेटा था। सियाराम कुमार, पेशे से एक इनकम टैक्स ऑफिसर थे।
सियाराम कुमार सुदीप वर्मा यानी चित्रा के पिता के बचपन के दोस्त थे। शेखर से शादी करने में चित्रा को सेंस ऑफ सेक्युरिटी दिखाई दीं। प्यार तो वो शायद सिद्धार्थ से ही करती थी, पर बोल नहीं पाई कभी बस हिंट देती रही जो सिद्धार्थ भी पकड़ ही नहीं पाया।
"you should move on." बस इतना बोल पाई इतनी खामोशी के बाद।

सिद्धार्थ ज़ोर से हंसा दो तीन लोगों की नजर उसपर गई लेकिन फिर बाद में अपने आप लोग अपने कामो लग गए। "मिसेस चित्रा शेखर कुमार आपको अब भी लगता है ताश का आशियाना हमारी दुनिया थी?" अपनी व्यंग्यात्मक हँसी को हाथों से दबाने की कोशीश करते हुए वो गुस्से से बोला "वो हमारे प्यार की शुरुआत थी।
"एक बार तुमने मुझसे पूछा कि मैं क्या...?" सिद्धार्थ की गहरी कर्कश आवाज चित्रा के रोंगटे खड़े करने के लिए काफी थी।
अचानक बोलते बोलते रुक गया आँखों में आंसू थे पर रोने के लिए कंधा नहीं था। जब रोने के लिए कंधा ना हो तब आंसू गिरे या ना गिरे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि गिर जाने के बाद उतने ही खाली होते हैं, जितना पहले थे बस रो लेने से मन हल्का हो जाता है।
सिद्धार्थ को कंधा नहीं मिला फिर भी रोना तो चाहता था वो।
कुछ लोग शराब भी इसलिए पीते हैं, की गम हल्का हो सके। आंसू ऐसी दवा है जो हमें बिना लत लगाएं हल्का करती है।
"वो ताश का आशियाना मेरा था ताश के आशियाने में रहने का सपना तुम्हारा, बस नीम तुमने रखी थी आगे तक उम्मीद के साथ मैं उसे बढ़ाता रहा। आशियाना भी टूटा तो भी बढ़ी हुई उम्मीद टूटी है नींव नहीं। प्यार का एकतरफा होने का सुकून, बर्बादी मुझे भी महसूस कर लेने दो।"
चित्रा तब भी खामोश थी, अब भी। खामोशी की चीख मुठ्ठी में बंद नाखूनों से हथेलियों को कुरेद रही थी।
"खामोशी तब नहीं चुभती जब बोलने के लिए कुछ न हो पर तब चुभती है जब बोलने के लिए बहुत कुछ हो पर कहाँ से शुरू करें पता ही नहीं हो।"
सिद्धार्थ वहाँ से उठकर जाने लगा। "आई लव यू सिद्धार्थ, सिद्धार्थ इस एक आवाज के साथ पलटा।
"मैं यह तुम्हें तब भी बोलना चाहती थी जब तुमने मुझे बारहवीं में प्रोपोज़ किया था, पर नहीं बोल पाई। लगा तुम समझ जाओगे, संभल जाओगे। ट्वेल्थ के बाद अपने दोस्त के कहने पर इंजीनियरिंग लेना, उसके बाद घर पर बैठ एम. बी. ए. करना, उसके बाद भी क्या सिद्धार्थ? कौन थे तुम? क्या करते थे? कैसे संभालते मुझे?" चित्रा ने बिना कुछ सोचे समझे बिना अपनी जबान पर नियंत्रण खो दिया बिना यह सोचे कि आगे क्या होगा।
"ताश के आशियाने इसलिए बिखर जाते हैं क्योंकि उसकी कोई मजबूत नीव नहीं होती, अंदर से खोखले होते है। तुम संभाल पाते मुझे? मैने तुम्हें कितनी बार समझाया। जॉब करो पैसे कमाओ पर तुम पर तों सो कॉल्ड बिज़नेस का भूत सवार था। क्या साबित करना चाहते हाँ...?"
आज चित्रा ने सब खाली कर दिया जो भी गुबार मन मे भर रखा था एक साँस में फट गया।


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