Bhuj ka dhartikamp books and stories free download online pdf in Hindi

भुज का धरतीकम्प

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

"इज़रायली --इज़रायली --केम रड़े छे [ क्यों रो रही है ] ?" वह मोटी, काली, चौड़े मुंह वाली लाल नीली धारियों वाली सीधे पल्लू की साड़ी पहने हीरू बेन बार बार अपनी बहिन की बेटी को तीसरी बार ट्रेन की सामने की बर्थ पर चुप कराने में लगी थी. उसकी तीनों बहिनें भी ऐसी ही मोटी थीं. उसे उन्हें देखकर ताज्जुब हो रहा था क्योंकि गुजराती स्त्रियां कमनीय नैन नक्श व आकर्षक चेहरे के लिए मशहूर हैं। इनसे बातों ही बातों में पता लग गया था कि ये कच्छ के बचाऊ तालुका में रहतीं हैं। दूसरी स्त्री हीरू बेन की बेटी को बार बार पुकार रही थी, ' फ़ौज़ी --- फ़ौज़ी -- आपणी प्लेट आगड़ कर "

उससे अब नहीं रहा गया उसने पूछ ही लिया, "आपने अपनी बेटियों के ऐसे बेतुके नाम 'इज़रायली व ' फ़ौज़ी 'नाम क्यों रक्खे हैं?"

"एम नथी बोलवानु --ये नाम तो हमारे भगवानों के हैं। "

"बाप रे --भगवानों के नाम ये थोड़े ही होते हैं। "

" ये डिकरी [बेटी] इज़रायल देस के लोगों की मेरबानी है। डिकरी फौजी अपने देस के फौजियों की मेहरबानी है अगर वो न होते तो न में ज़िंदा बचती, न ये। "

"आप लोग क्या वहां गए थे ?"

"ना रे- वो लोग हमारे लिए सात बरस पहले फ़रिश्ता बनकर हमारे कच्छ आये थे। "

"सात बरस पहले ---ओ ---सन २००१ में ?--जब वहाँ ज़बरदस्त भूकंप आया था ?"

" हाँ जी, सब नाश हो गया। "वह कह नहीं पाती आप सबके कमर के मोटे घेरे को देखकर तो लगता नहीं कि वहां आपदा आई होगी। वह बहुत देर से इन चारों को देख रही थी। बार बार चकर चकर करती, साथ लाई बास्केट्स में से बार बार फ़रसाण [तरह तरह का नाश्ता जैसे थेपला, फाफड़ा, खमण, ढोकला व चिड़वा ] खाती मस्ती से हंसती इनको देख रही थी। कुछ भी नाश्ता निकालने से पहले एक बार उससे ज़रूर पूछ लेतीं थीं, "खाओ जी। "

वह नम्रता से 'ना' में सिर हिला देती। उसके मना करने पर खाने से पहले आपस में कहतीं, "श्रीकृष्ण जी जमने। "

इसका मतलब हैं उन्होंने ये किसी मान्यता पूरी होने पर भगवान को याद करने का हर बार खाना आरम्भ करने से पहले व्रत लिया हुआ है. वह इनकी खुले दिल से हंसती हंसी में डूबी जा रही थी।

चौथी बेन निमकी बोल उठी, "आपणे बद्धा द्वारका दर्शन माटे जा रहा छे।वहां कृष्ण भगवान का वरघोड़ा निकलवानी बीस हज्जार नी बाधा रक्खी छे[हम द्वारका दर्शन को जा रहे हैं, कृष्ण भगवान की रथयात्रा निकलवाने के लिए बीस हज़ार रूपये की मान्यता रक्खी है ]। "

ऐसे ठेठ खुले दिल के ख़ुशमिजाज़ लोग उसे बहुत पसंद हैं।अपनी संस्कृति में डूबे हुए, आडम्बरहीन। उसे कहने की ज़रुरत नहीं पड़ी सामने बैठी हीरू बेन ने तो जैसे उस दिल दहलाने वाले भूकंप का चित्र ही खींच दिया।

गणतंत्र दिवस पर जब सारा देश अभिमान में डूब उठता है, उत्सव मनाता है, उसी दिन तो सन २००१ में आया था गुजरात में भूकंप । वडोदरा, सूरत, राजकोट, जामनगर तो बुरी तरह हिचकोले खाने लगे थे. जब यहाँ की धरती ही नहीं दूरदराज़ देशों के भी दिल भय से दरक उठे थे. कच्छ ज़िले के बचाऊ, अंजार, तालुका, माँडवी, अहमदाबाद सहित अन्य नगर इस ७'७ मोमेंट मैग्नीट्यूड स्केल के शक्तिशाली भूकंप की चपेट में आ गए थे. गाँव के गाँव साफ हो गए थे, अनुमानत : तेरह हज़ार से लेकर बीस हज़ार लोग मर गए थे. उनसे जुड़े कितने लोग जीते जी मर गए इसका कौन हिसाब लगा सकता है ? कितने चूल्हे बुझ गए क्या पता ? माना कि माटी का शरीर माटी में जा मिला लेकिन ऐसा कहीं होता है कि माटी ही रौद्र रूप रखकर शरीर की माटी को मसल डाले। डेढ़ दो लाख मलबे के नीचे दबकर घायल हुए। जिनमें कुछ तो ऐसे भी थे कि यदि मर जाते तो इस बदहाल शरीर से छुटकारा मिल जाता।

भुज के प्राग महल व आइना महल, स्वामीनारायण मंदिर, ढाई सौ हेरिटेज इमारतें जैसे पृथ्वी की इस भयानक अंगड़ाई के सामने कुछ भी नहीं थे। पृथ्वी का मन हुआ कि धरती की मिट्टी में अपने हज़ार मुंह खोल दे, दरक जाए, फट जाए. आपने आलस को इतने झटके मारे की घर, पेड़ फ़ैक्ट्री कार, बसों को अपनी औकात पता लग जाए। इंसान अपनी जगह खड़ा, बैठा, पड़ा झूला झूलता रहे या घर के बरामदे में झूले में झूलता अख़बार पढ़ता जा मरे उसके अपने ही बस में अपना शरीर ना रहे।पृथ्वी !तुम इतनी बलशाली हो कि दो मिनिट में हज़ारों जानें हजम कर सकती हो ?

उस छब्बीस जनवरी को छोटे से तालुका अंजार के स्कूल के बच्चे माँ के बिना ज़बरदस्ती उठाये उठकर बैठ गए थे। वे बेहद खुश थे अपने नन्हे हाथों से शरीर पर साबुन अच्छी तरह मलकर नहाये क्योंकि आज स्कूल में बानवे गणतंत्र दिवस का समारोह था। माँ ने भी उनके सलीके से बाल काढ़कर उनकी आँखों में काजल लगाया था उनके इस नन्हे राजकुमार को किसी की नज़र ना लग जाए। वे सज धजकर स्कूल चल दिए। झंडा समारोह के बाद, देश प्रेम के गीत गाकर, नन्हे हाथ से नारा लगाते, "जय हिन्द ', 'जय हिन्द '. वे एक सौ बीस बच्चे अपनी गलियों में प्रभात फेरी के लिए, अपने अपने हाथ में नन्हे तिरंगे झंडे लिए अपने अध्यापकों के पीछे चल दिए. अभी थोड़ा ही आगे बड़े थे कि के नीचे की धरती हिलने लगी। एक अध्यापक ने अपनी घड़ी समय देखा था, उस समय बजे थे आठ बजकर छियालीस मिनट। दो चार बच्चे एक दूसरे से झगड़ने लगे, " केम धकिया रओ छे ? [धक्का क्यों मार रहे हो ?]"

उनके मास्टर समझ गए कि भूकंप आ गया है इन मासूम चेहरों को देखकर हकबकाए से खड़े के खड़े रह गए। वह किसी आश्रय के विषय में सोचते उस पहले तो नीची की धरती हिचकोले खाने लगी। बच्चे डर कर बुरी तरह चीख़ने लगे कि धरती जगह जगह से फट गई। कौन मास्टर, कौन बच्चा कहाँ समा गया पता ही नहीं चला। कुछ मिनट बाद दरकती धरती शांत हो सो गई बिना ये सोचे कि उसके मिट्टी के ढेर में से किसी बच्चे का आधा सिर दिखाई दे रहा है, किसी का पैर, किसी का झंडा थामे नन्हा हाथ और किसी की फटी हुई बेहद डरी हुई नन्हीं आँखें. सब मासूम बच्चे अपनी छोटी सी तहसील अंजार को सारे देश से एक घाव की तरह परिचित करवा गये थे।

हीरू बेन भी उसी समय बचाऊ के अपने दो कमरों वाले घर में स्नानघर से निकलकर गीले बालों को तौलिया से पोंछ रहीं थीं कि लगा उन्हें चक्कर आ रहा है। इस अवस्था में कभी कभी ऐसा हो जाता था। उनके पैर बहुत बुरी तरह काँपने लगे, कमरे का सामान कांपता प्रतीत हो रहा था --कुर्सी, मेज़, पलँग यहां तक कि दीवारें भी कागज़ जैसी हिल रहीं थीं। ऐसे कैसे महीने भर पहले प्रसव का समय आ गया ?उन्हें लगा कि वे कहीं नीचे धंसती जा रहीं हैं। बाहर कोई घबरा कर चिल्ला रहा था, "धरतीकम्प आयो रे --- धरतीकम्प आयो रे ---. "हीरू बेन ने घबराकर अपने पेट को दोनों हाथों से घेर लिया।

इस डूबी हुई चेतना की ऑंखें कब खुलती रहीं, कब मुंदती रहीं, पता नहीं। वह अपने शरीर के किसी हिस्से को हिलाने की कोशिश करतीं लेकिन हर अंग मनों मलबे के नीचे दबा हुआ था. मन भय से ऐसे पथरा गया था कि रोते भी नहीं बन रहा था. न अपने हाथ पर चुटकी काटकर तसल्ली कर पा रहीं थीं कि वे ज़िंदा हैं भी या नहीं। न सोच पा रहीं थीं कि वे सच में हीरू बेन भीमजी पानपारिया हैं भी या नहीं या स्वर्ग में ? [आस पास का अन्धेरा देखकर कुछ कुछ नर्क भी लग रहा था ] या बिचर रही कोई आत्मा भर हैं। भूख, प्यास सब कुछ छूट जाने की पीड़ा, सूखे हलक में पानी को तरसती जीभ, अटकती सी सांस -आस पास मिट्टी भरी रात। अचानक जाने कौन से दिन ऊपर का कुछ मलबा खिसकने लगा, सूरज की किरणें उनकी पलकों से टकराईं। उन्होंने ऊपर देखा तो उजाला एक टुकड़ा बादल बन गया तो क्या यमराज के दरबार में उन्हें ले जाया जायेगा ?एक सशक्त हाथ ऊपर से उभरा, हीरू बेन ने यंत्रचालित अपना हाथ उस हाथ पर रख दिया। उन्हें ऊपर खींच लिया गया। ऊपर चार फौजी खड़े थे यानि वे ज़िंदा हैं ? उन्होंने बहुत मुश्किल से अपने लकड़ी से कड़क बन गए हाथ को उदर पर रक्खा, कुछ धड़क रहा था -धुक --धुक --खुशी से उनकी आँखें छलछला आईं, सांस बेहद तेज़ चलने लगी। । एक फौजी ने बताया था, "आप तीन दिन तक अंदर थीं। "

वह कुछ और सुन पातीं इससे पहले बेहोश होकर गिर पड़ीं थीं।

फ़ौज़ियों के शिविरनुमा अस्पताल में जब उनकीआंख खुली तो देखा उनके बाजू में आँख बंद किये एक नन्ही अपने सौंधी महक से सफ़ेद कपड़े में लिपटी सो रही है। नर्स ने उनसे नज़रे मिलते ही मुस्करा कर कहा, "तुम तीन दिन तक मिट्टी में दबी पड़ी रहीं थीं. जाने भगवान का कौन सा आशीर्वाद इस बच्ची पर था कि ये बच गई। हमारे जांबाज़ फ़ौज़ियों ने तुम्हें बचा लिया है।"

उन्होंने उन फ़ौज़ियों के नाम हाथ जोड़ दिए थे । कृतज्ञता से उनकी आँखें बह निकलीं हैं। थोड़ी देर में उन्होंने उस बच्ची के सिर पर हाथ रखकर तुरंत उसका नामकरण संस्कार कर दिया, "फ़ौज़ी । "

"अभी तो इसके जन्म में एक महीना बाकी था ?"

"पेट में इसकी हालत देखकरदेऊक्टर ने इसे जल्दी ऑपरेशन करके बाहर निकाल लिया। '

वह समझ नहीं पा रहीं थी कि अपने गिरे स्वास्थ्य को सम्भालें या नन्ही बच्ची को या बीच बीच में दिमाग में मारते दंश को --कहाँ होंगे उनके परिवार के बाकी लोग ?----कहाँ होगी उनकी छोटी बहिन सुरीली बेन और उसका गर्भ में पलता बच्चा ? बहुत दिल घबरा रहा था। मिट्टी के ढेर बने इस इलाके में अफ़रा तफ़री थी, ज़िंदा लोग अपने सामान, घर की चिंता छोड़ जगह जगह पता लगा रहे थे उनके सगेवालों में से कौन बचा, कौन मरा। सुरीली के मिस्टर कनु भाई पता लगाते हीरू बेन तक पहुंच गये थे। उन्हें व बच्ची को ज़िंदा देखकर हिचकी भर भर कर रोते रहे थे, बताते रहे थे, "हूँ तो आपणी मासी ने घर हता. सवारा में हाथ में चाय लेकर जैसे ही बैठा वैसे ही छत टूटकर मुझ पर गिरी। मैं उल्टा पड़ा देख रहा था थोड़ी दूर मासी व उनकी बहू भी उल्टी दबी पड़ीं थीं. मैं उनकी क्या सहायता करता, मेरे लिए तो हिल पाना भी मुश्किल था। बार बार दस पन्द्रह मिनट बाद मैं उन्हें सान्त्वना देता रहा, "घबराओ नहीं, थोड़ी वार मा [थोड़ी देर में ]कोई बचाने आ ही जाएगा। "सच ही कुछ घंटों में मुझे मलबा साफ़ कर निकाल लिया गया. उन दोनों को भी। मैं हैरान था कि मैं अब तक दो लाशों से बात कर रहा था। "

सुरीली के उदर में पलते उनके नन्हे जीव को भी ऊपर वाले ने बचा लिया था। उसने रेड क्रॉस सोसायटी की इज़रायल यूनिट की मेडीकल मोबाइल वैन में जन्म लिया था। तब सुरीली ने भी अपनी बेटी के सिर पर हाथ रखकर उसे पहली बार पुकारा था, 'इज़रायली। "

"तुम कहाँ थीं धरतीकम्प के समय ?" सुरीली ने पूछा

"मैं रहती अहमदाबाद में हूँ लेकिन मैं और मेरे पति एक शादी में देल्ही गए हुए थे । "

"ओ --बप्पा। अहमदाबाद में भी ऊँचे माले वाला बिल्डिंग गिरा था। बहुत सी जानें गईं थीं। "

"हां, हमारी बिल्डिंग में तो कुछ नहीं हुआ लेकिन बहुत सी बिल्डिंग बुरी तरह हिल गईं थीं, पचास बिल्डिंग तो गिर ही पड़ीं थीं. लोग अपने घरों से निकलकर दो दिन बाहर अपनी कारों में या खुले में पड़े रहे थे। भूकम्प के सात आठ घंटे बाद भी मेरी सहेली अपनी बिल्डिंग में ऊपर जाने की हिम्मत नहीं कर रही थी। उसके पति टूर पर थे। बच्चों को भूखा देखकर उसकी सास अड़ गई या तो तुम ऊपर जाकर खाना लेकर आओ या मैं ऊपर जातीं हूँ। तब बिचारी ने ऊपर जाने की हिम्मत की। "

"अहमदाबाद में साला मवाली ठेकेदारों की बदमाशी के कारण बिल्डिंग गिरीं थीं। हम ऐसा अखबार में पढ़ा था। "

"सच कह रहीं हैं। जिन बिल्डिंग्स को बनाने में बहुत ख़राब मेटेरियल इस्तमाल किया था। बस वही गिर गईं थीं। "

"ओ --बप्पा। "

कैसा भयानक समय था, जंगलों को कोई फ़ैक्टरी वाला आपने मुनाफ़े के लिए उजाड़ रहा था, नदियों पर डैम बनाकर उनका रूख कोई और मोड़ रहा था. ---पृथ्वी अपना गुस्सा यहाँ उगल बैठी थी। लगा था सब कुछ धूल के बवंडर में डूब गया था। धूल का बवंडर जब शांत हुआ तो आसान नहीं था टी वी पर भी देखना कच्छ की फटी हुई ज़मीन, कहीं बड़ा गहरा गढ्ढा, कहीं मिट्टी का ढेर, कहीं बड़े पत्थर के नीचे दबी कोई लाश। अहमदाबाद के वस्त्रापुर चौराहे पर बना बड़ा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स मानसी टॉवर धाराशयी हो गया था, बहुत लोग मर गए थे। बड़ी कचरा उठाने वाली स्वचालित मशीनों को लाया गया था। मलबे के ढेर में स्निफ़र्स डॉग्स भी हकबकाए से इंसानों की गंध को यहां वहां तलाशते हैरान हो गए थे। बमुश्किल धरती इस रौद्र रूप के बीच माइक लेकर सम्भल सम्भल कर पाँव रखते टी वी जर्नलिस्ट्स देश को ये मंज़र दिखाते रहे थे ।

कोई आसान था ज़िंदा लोगों को मलबे से निकालना, मिट्टी पत्थरों मे फँसे उनके अंगों के आस पास की मिट्टी फावड़े से हटाना कि कहीं किसी अंग को चोट न आ जाए, वह घायल न हो जाए। अनपहचाने मृत लोगों की नाक व दिमाग़ में घुसी जाती लाशों की सड़ी हुई बदबू को सहना --ढेर सी बदबू मारती सड़ी लाशों का एक साथ दाह संस्कार करना। कहते यही हैं कि कुछ धार्मिक संगठनों ने इस सड़ी बदबू के बीच सबसे अधिक घायल लोगों को व मृत शरीरों को निकाला था. सामूहिक अंतिम क्रिया करने के बाद, राख को ट्रकों में भरकर गंगा में विसर्जन के लिए उत्तर भारत में भेजा गया था। मुस्लिम लोग ज़मीन में दफ़नाए गए थे. 

देल्ही में जब उसे पता लगा था तो उसका कलेजा मुंह को आ गया था। जल्दी जल्दी घर फ़ोन मिलाया था उसे विश्वास था कि छोटु सुबह घोड़े बेचकर सो रहा होगा, उसे कुछ पता नहीं लगेगा ।सच ही वह फ़ोन भी नहीं उठा रहा था। उसकी डांस पार्टनर कनिका ने ही फ़ोन पर बताया था, "कॉलोनी में कोई घर नहीं गिरा लेकिन घर बुरी तरह हिल रहे थे। खिड़कियों के दरवाज़े ज़ोर ज़ोर से टकराते भयानक आवाज़ कर रहे थे। और सुन, मैं नहा रही थी। जब ऐसा भयानक भूकंप आया तो जल्दी जल्दी पेटीकोट पहनकर बाहर भाग ली। जानती है डर व शर्म से मेरा दिल बैठा जा रहा था। "

"वो तो नेचुरल है। मौत का भय किसे नहीं होता ? "

"तू समझी नहीं, मैं बेहद डर गई थी कि यदि मैं ऐसे ही मर गई तो खुदाई में लोगों को मेरी नंगी लाश मिलेगी हाय राम ! "

तब राहत कार्य सेना, देशी विदेशी एन जी ओ 'ज़, विश्विद्द्यालय व कॉलेजेज़ के दल के साथ कुछ धार्मिक संस्थानों ने भी किया था. एक लम्बी लड़ाई थी। गुजरात के लाखों लोगों पर आपदा आई थी। हज़ारों लोग राहत कार्य में जुट गए थे। मौत को शिकस्त देकर उपरवाले की मेहरबानी से बचे जीवन का एक युद्ध था जिसमें बेहद सब्र की ज़रुरत थी।

तब यूनाइटेड वे, एक अम्ब्रेला एन जी ओ की रेशमा बेन का फ़ोन आया था, "आप अर्थ क्वेक के बाद कच्छ के हालात देखना चाह रहीं थीं। आजकल मैं भुजोड़ी गाँव में राहत कार्य कर रहीं हूँ। आप मेरे साथ चल सकतीं हैं. "

" थेंक्स रेशमा जी ! मेरी एक फ्रेंड का यूट्रस रिमूव का ऑपरेशन होना है। मैं चार पांच दिन बाद फ्री हूँगी। "

"ओ के --जब फ़ुर्सत मिले तब आइये। अभी तो वहां महीनों काम चलेगा। "

रेशमा बेन ने ही उसे बताया था कि शनिवार व रविवार को अपने बच्चे छोड़कर कच्छ के गाँवो में जातीं थीं, जब उनके पति की दो दिन की छुट्टी होती थी । कच्छ जहाँ की औरतें ही घर चलातीं हैं, बकरी पालकर या भरत काम [कड़ाई]का काम करके।

अचानक उसकी कंपनी, जो इस एन जी ओ को फ़ंडिंग करती थी ने उसे कच्छ मुआयना करने भेज दिया था वरना वह वह जाना तो नहीं चाह रही थी क्योंकि उसकी प्यारी पड़ौसन उर्फ़ युवा सहेली किरन का ऑपरेशन होने वाला था। वह उस समय ऑपरेशन थिएटर के बाहर सोफ़े पर चिंता लिए, लटकता चेहरा लेकर, प्रार्थना करती, बाहर बैठना चाह रही थी। उसने किरन को फ़ोन कर माफ़ी भी मांग ली थी, "प्लीज़ किरण ! बुरा मत मानना। मुझे कच्छ जाना पड़ रहा है। "

"नेवरमाइंड, मैं आपकी ड्यूटी समझती हूँ। "

वह थोड़ी खुश भी हुई की उसे रेशमा जी के साथ कुछ वक्त बिताने का मौक़ा मिलेगा. वैसे भी यूनाइटेड वे की डाइरेक्टर रेशमा जी उसके लिए आदर्श हैं। जब फ़ंड इक्क्ठ्ठा करने ये अम्ब्रेला एन जीओ नवरात्रि में नौ दिन गरबा आयोजित करती है तो रेशमा जी को ऑफ़िस में एक महीन पहले से पंद्रह सोलह घण्टे काम करना पड़ता है। उनका परिवार अपने को उपेक्षित ना महसूस करे इसलिए रात में वे उसे ऑफ़िस में बुलाकर डिनर होटल से ऑर्डर कर देतीं हैं।

कच्छ पहुंचकर कल्पना करना दूभर लग रहा था कि यहां से वहां तक फैले मिट्टी के पहाड़ों के स्थान पर यहां 'भुजोड़ी 'नाम का कोई गाँव भी था. कच्छ की ज़मीन पर जाने ऐसे कितने गाँव ज़मीदोज़ हो गए होंगे, मकान व झोपड़े मलबे में बदल गए होंगे, इन्सानी शरीरों को अपने में समेटे--यह उजड़ा मंज़र देखकर उसकी रूह काँप रही थी। बस याद आ रहे थे प्रति सेनगुप्ता के शब्द :

"मृत होते हुए

वेदना के पहाड़ से

नष्ट होते हुए सभी जीव

जैसे पाताल की तरफ फ़ेंक दिये

वो तो उड़ गये गंध की तरह

किसी अदृश्य लोक में. "

यूनाइटेड वे ने अक्लमन्दी से इन्हीं गाँव वालों को घर बनाने का काम दे दिया था जिससे वे अपने घर को बनाते समय घर के मिट्टी के ढेर में अपना सामान खोज लें व दिहाड़ी का रुपया कमाकर रोटी खा सकें। वह देख रही थी यहां की ग्रामीण औरतें कितनी मेहनत से अपना घर बना रहीं थीं। तभी एक स्त्री दौड़ती हुई आई, रेशमा जी से कहने लगी "बेन ---बेन -- इ देखो मेरे बप्पा की दी निसानी मिल गई। "

उसके धूल से सने हाथ में एक चांदी के दो कंगन थे ।धूल में सना एक बच्चा मिट्टी के ढेर से मिली मिट्टी की अपनी गाड़ी में बंधे धागे से उसे दौड़ाता बेहद ख़ुश था। कुछ औरतें अपने घर के ढेर को फावड़े से खोदती अपने बर्तन व कपड़े ढूढ़कर एक तरफ़ उनका ढेर लगाती जा रहीं थीं। वह पूछ ही बैठी थी, "यहाँ बहुत औरतें काम कर रहीं हैं। पुरुष क्यों कम हैं ?"

सुषमा जी मुस्करा उठी थीं, "वही सनातन सत्य -- पुरुष से अधिक औरत को अपने शरीर की सुरक्षा के लिए, बच्चे पालने के लिए घर की चाहरदीवारी चाहिए। आप देख ही रहीं है दो चार पुरुष काम करते दिखाई दे रहे हैं. बाकी पोटली [ देसी शराब ] के अड्डों पर पड़े होंगे "

उफ़, तो ये है दुनियाँ भर में मशहूर कांच जड़े लाल, हरी, पीली नीली सुन्दर कच्छी कड़ाई करने वालियों की हकीकत ? यहां की स्त्रियाँ जो कांच जड़ी सुन्दर कढ़ाई के चटक रंग के कपड़े पहनतीं हैं। चणियाँ [ लहंगा ], चोली, ओढ़नी, जब फट जातें हैं तो शहर पहुँच जातें हैं। उनके कड़ाई वाले हिस्सों को काटकर बेचा जाता है और शहरी नारियां इन पेचेज़ के योक कभी कुर्ती के गले पर, कभी बाँहों पर, कभी साड़ियों पर, लगाए' ट्रेडीशनल 'बनी इतराती रहतीं हैं। यहां ये काले, कत्थई घाघरे पर ओढ़नी सम्भालती कुम्हलाये मुंह से इन ढेरों में अपना सामान खोज रहीं थीं. घर के मिट्टी के ढेर में अपनी सुई, अपने बदरंग हुए जीवन के रंग रंग बिरंगे धागे, गोल कांच के टुकड़े खोज रहीं हैं। कैसा है राजस्थान व गुजरात के रेगिस्तानी उजाड़ में लाल, नीले, पीले चटखदार रंगों के कपड़ों से भरा जीवन।कहीं ऐसा तो नहीं है कि समृद्ध देशों के लोगों के जीवन में रंगीनी इस कदर बिखरी हुई है कि वे सिर्फ़ हलके रंग के या फिर एकदम काले रंग के कपड़े पहनना पसंद करते हैं. 

कच्छ से लौटकर उसने जैसे ही अपने फ़्लेट ताले में चाबी डाली कि सामने के फ़्लेट के अग्रवाल परिवार का बेटा शरद दिखाई दे गया। उसके मुंह से बेसाख्ता निकल गया, "अरे शरद --तुन्हें क्या हो गया है ?इतने दुबले और काले कैसे हो गए ? "

"आंटी मेरी ड्यूटी कच्छ में लग गई थी, पांच दिन पहले ही लौटा हूँ। "

"ओ ----. "

"यू नो, भूकंप में टेलीफ़ोन्स की तार व केबल्स तो बुरी उखड़ ही गए थे। हमारे टेलीफ़ोन विभाग से एक टीम को वहां भेजा गया था। जैसे ही खुदाई होती किसी का हाथ, किसी का सिर, किसी का कुचला शरीर धूल व खून में लिपटा हुआ निकल आता। कभी तो किसी की ख़ुली आँखें ऐसी लगतीं कि जैसे कोई राक्षस हो। "

"उफ़, मैं भी वहां से लौट रहीं हूँ एक एन जी ओ के काम का इंस्पेक्शन करने गई थी।"

वह सिहर कर बोला, "तब तो ये सब देखकर आप भी घबरा गईं होंगी ?"

"नहीं अब तो स्थिति कुछ ठीक हो गई है। "

"आंटी !पांच दिन हो गये, मुझसे खाना नहीं खाया जा रहा है। दिमाग़ में वही लाशों की बदबू भरी है। आँखों में धूल व खून में लिपटे शरीर के अंग याद आते रहते हैं।खाना देखते ही मुझे उल्टी आने लगती है "कहते कहते शरद की आँखें नम हो आईं. 

उसने ताला खोलना छोड़कर उसका कंधा थपथपाया, "शरद अपने को सम्भालो. "लेकिन उसकी ख़ुद की आवाज़ भर्रा गई।

घर के अंदर जाकर अपना बैग रखकर, हाथ मुंह धोकर चाय का कप हाथ में लेकर सोफ़े पर अख़बार फैलाकर बैठ गई. ऊपर हेडलाइंस थीं, 'अहमदाबाद के कुछ बिल्डर्स गिरफ़्तार '. वह जल्दी जल्दी समाचार पढ़ने लगी ---जांच के बाद पता लगा है कि भूकम्प में वही इमारतें गिरीं हैं जिनमें बिल्डर्स ने ख़राब मेटेरियल का प्रयोग किया था। वह पकड़े गए बिल्डर्स के नाम देखने लगी --राहत की सांस आई कि किरन के पति का नाम नहीं था । 'थिंकऑफ़ डेविल, डेविल इज़ हीयर ', ---बजती हुई मोबाइल रिंग में फ़्लैश होते नाम को देख वह मुस्करा उठी।

उधर किरन बोल रही थी. " कच्छ से लौट आईं आप ? ?दो दिन से आपको कॉल कर रहीं हूं। "

" मैं कच्छ के रिमोट एरिया में थी, वहाँ नेटवर्क की समस्या थी। "

" वहां सब कुछ बर्बाद हो गया, क्या कुछ नॉर्मल हो रहा है ?खाना पीना मिलना शुरू हो गया है?"

"हाँ, कितने लोग मदद के लिए पहुँच चुके हैं। "

"आपको एक ख़बर करनी थी. मेरा ऑपरेशन हो गया है। यूट्रस रिमूव कर दी है। "

"गुड। "

"आपने ही मेरे दिल से ऑपरेशन के डर को निकाला था। "

"ग्रेट --जल्दी ही तुझसे मिलने आउंगी।"

उसने दो दिन बाद शनिवार को जाने का समय निकाल लिया था. किरन दो महीने पहले ही उसका पड़ौस छोड़कर अपने फ़्लेट में रहने चली गई थी।

किरन के फ़्लेट में कदम रखते ही वह भौंचक रह गई थी। उस घर की साज सज्जा एक करोड़ से कम नहीं होगी। वह यहां गृहप्रवेश पर आई थी। दो महीने में इतना फ़्लेट का कायापलट ?फ़र्श पर मार्बल्स चमचमा रहे थे। किरन ने मुस्कराते हुए पूछा, 'कैसा लगा हमारा फ़्लेट?"

"बहुत सुन्दर --अब पता लगा कि तू अपने हालचाल लेने नहीं, अपना फ़्लेट दिखाने बुला रही थी। " वह बेलौस हंसी हंस पड़ी थी, "थोड़ी कमज़ोरी तो लग रही होगी ?"

"हाँ, लेकिन कुक लगा लिया है, चिंता नहीं है। "

"क्या वर्मा जी की कोई लॉटरी निकल आई थी ?"

वह फिर हंस पड़ी, "बस ऐसा ही समझ लीजिये। इन्हें दो बरस पहले दो बहुत बड़ी बिल्डिंग्स बनवाने के कॉन्ट्रेक्ट्स मिल गए थे "

चाय पिलाने के बाद वह बोली, "चलिए हम लोग मेरे बैडरूम में चलते हैं। "

उसे पलंग पर बिठाकर उसने आलमारी खोलकर एक लाल डिब्बा उसने सामने खोल दिया जिसमें जगमगा रहा था कलात्मक एक सोने का सेट. उसके मुंह से बेसाख्ता निकला, "बहुत सुन्दर। "

उसकी दस वर्षीय बेटी इठलाई, "आंटी को अपने कपड़े दिखलाओ ना। "

"ये दस साड़ियां व दस सूट इन्होने मेरी बर्थडे में दिलवाएं हैं। " उसने आलमारी खोलकर वे सब पलंग पर बिखेर दिए

"वाह। "

'वह और इठलाई, "पांच मैक्सी तो मैंने टेलर को दे दी हैं। "

उसका बेटा उसकी उंगली पकड़कर एक कोने में ले गया था, "हमारा नया कंप्यूटर तो देखिये। "

उन दिनों तो इसे ख़रीदना सबके बस की बात नहीं थी. छोटी बेटी भी चहक ली थी, "आंटी !कल हमने यू. एस. में अपने मामा से बात की थी। "

उसे लग रहा था कि कैसे की होगी इन्होंने ये शाही खरीद फ़रोख़्त ? इतना महंगा फ़्लेट। उसने तब अपने को टटोला था -कहीं ईर्ष्या तो नहीं हो रही ? नहीं, सच नहीं। हाँ, तीखी वितृष्णा तो हो रही थी। एक जुगुप्सा तो जाग ही रही थी। इन चीज़ो में उसे एक अदृश्य काली परत दिखाई दे रही थी।

गर्व से उसकी गर्दन तन गई थीं, फिर उत्साहित होकर आलमारी पर झपटी थी, "अरे आपको अपने दस तोले के कंगन तो दिखाना भूल ही गई। "

उसे ट्रेन में बैठे बैठे याद आ रहा है वह दिन ---- किस तरह किरन के सोने के कंगन से निकली सुनहरी किरणें आँखें ही नहीं चौंधिया रहीं थीं अलबत्ता ऐसा लग रहा था उसकी आँखें देख रहीं थी कच्छ, भुज व अहमदाबाद के घरों की हिचकोले खाती दीवारें, फटती ज़मीन, अपने में इंसान समेटे ताश के पत्तों सी गिरती इमारतें। इमारतों के मलबे में दबे हुए चीखते लोग, मरे हुए लोग --- तब वह पता नहीं क्यों उस दिन उन चमचमाते कंगनों को देखकर सोचने लगी थी आज कौन सी तारीख है ? तीस जनवरी यानि कि गांधीजी का मृत्यु दिवस ? उन दिनों बार बार दूरदर्शन पर इस विनाश के तांडव के बीच बार बार झलक दिखा जाता था एक मृत स्त्री का गोरा, चिकना, सुन्दर पैर और जिस पैर ने स्त्री की ललक की तरह पहनी हुई थी नग जड़ी एक पायल।

------कुछ महीनों बाद अहमदाबाद की कुछ और ढह गई इमारतों में रहने वाले लोगों ने बिल्डिंग्स के ठेकेदारों पर मुकदमा दायर कर दिया था, किरन के ठेकेदार पति को गिरफ़्तार होना ही था। महीनों की कोर्ट में खींचतान के बाद भी वकील प्रमाण ढूँढ़ते ही रह गए कि इन्होंने ख़राब मेटेरियल का इस्तमाल किया था। कुछ को हाई कोर्ट ने छोड़ दिया व कुछ फ़्लेट्स के मालिकों ने अपने केस वापिस ले लिए [ क्यों ----? ]।

"ही --ही --ही --. "वह सामने बैठी मोटी ताज़ी बहिनों की हंसी से चौंक उठी। इज़रायली ऑंखें व हाथ नचाते हुए, अभिनय करते हुए कोई गुजराती कविता सुना रही थी ;

"एक बिलाड़ी [बिल्ली] जाड़ी [मोटी]

ऐ ने पहनी साड़ी, साड़ी पहने फरवा गई।

तालाव में तो उतरा गई, 

साड़ी ने छेड़ो छूट गयो

मगर बिलाड़ी ने खावी गयो। "

उसकी कविता समाप्त होने पर सब ख़ुश होकर ज़ोर से ताली बजाने लगीं। उनकी ताली के रुकते ही वह पूछ ही बैठी, "उस भयानक भूकंप के बाद आपका जीवन कैसे सम्भला ?"

"सम्भला ? आपणा बद्धा [सबकी] ने लॉटरी लागी गई। "

"कैसे ?"

"हमारे पास दो कमरे का घर था। सरकार ने मर गये लोगों का बहुत बड़ा घर आपी दीधा, राहत का पैसा आपी दीधा। "इस बार सुरीली बोली।

"हम तो मस्त रहता है। "हीरू बेन फिक्क से हँस पड़ी।

"अब तो कच्छी भरत [ कच्छ की कड़ाई ]का काम भी छोड़ दिया ज़्यादा पैसा कमाकर क्या करना?"तीसरी बेन बोली।

चौथी बेन निमकी कैसे चुप रहती ?, "ज़िंनगी में मजा मार रहा छे। "

वह कह नहीं पाती कि यह बात तोउनके शरीर की कमर बने कमरे को देखकर समझ में आ गया था।

" सारु [ ठीक है ] और जो मर गए थे ?"

" बड़ा बुरा समय था वो. यहाँ का साठ टका [ साठ प्रतिशत ]खाना, पानी सप्लाई बर्बाद हो गई थी। सरकार और बहुत सारे देशवालों ने सब सम्भाला। सरकार ने हर मरने वाले परिवार को राहत का पैसा दिया। लोगों ने एक पहाड़ी पर १३, ८२३ लोगों की मृत्यु की याद करते हुए भुजिया हिल्स पर इतने ही वृक्ष लगाए। छोटे छोटे ताड़ाव [तालाब ] बनवाये हैं। इसका नाम रक्खा है -'स्मृतिवन '. 

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श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ

Kneeli@rediffmail. com

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