अंग्रेजी में बैठना कुत्ते का कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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अंग्रेजी में बैठना कुत्ते का

मैं काफी मॉडर्न थे। इस लिए उनके पास एक कुत्ता था। वे उससे हिंदी नहीं बोलते थे ।अंग्रेजी में आदेश देते थे - कम , गो, यस, नो , स्टैंड, सिट। वे गुस्सा ना बोल कर चलते थे । उन्हें लगता था कि ऐसा बोलना पिछड़ापन है । उन्होंने कुत्ते कहा-शिट !
कुत्ता आज्ञाकारी था.. कान खींच कर चाहा उसने काम चलाएं मालिक की ओर देखा; जैसे पूछ रहा हो - आर यू श्योर?
उन्होंने फिर कहा-शिट।
स्वामी भक्त कुत्ते ने पूछ उठाई । पिछले पैरों पर विनत हुआ और उसने पीछे के माध्यम से स्वयं को पूरी तरह अभिव्यक्त कर दिया।
" नो नो यू इडियट "
कुत्ता उत्सुक और दोस्ती से मालिक को देख रहा था, सोच रहा था मुझसे क्या गलती हो गई ?गुस्सा क्यों हो रहे हैं ?
जब ठोस अनुभूति की अव्यक्त गंध किचन में सब्जी के लिए चले जाने वाले मसालों की खुशबू को भी दबाकर पत्नी के नासिका मार्ग से भीतर पहुंची ।सांस रोकने के प्राणायाम के साथ चलति वही ड्राइंग रूम में चली आई।
उन्होंने कुत्ते को देखा उसके प्रदेय को देखा और पति को देखा।
तो उससे बोली- किसने किया यह?
कुत्ते ने पत्नी को आश्चर्य से देखा, सोचा लोग तो कहते हैं मनुष्य पशु से बुद्धि के कारण ही श्रेष्ठ है पर उन्हें तो यह भी नहीं पता कि है मानव कृति है या मानवेतर?
पति के मुंह से हड़बड़ी में निकला- मैंने नहीं किया !
पत्नी ने मुश्किल से मुस्कुराहट दबाई- पता है तुमने नहीं किया ! तुमसे तो यह भी नहीं हो सकता! मेरा मतलब है डॉगी ने यहां क्यों किया? तुमने कुछ कहा था क्या?
नहीं हमने कुछ नहीं कहा! मारा भी नहीं बस इतना कहा था-शिट! बैठने के लिए कहा था
पत्नी की ऐसी आशा भी की थी बोली- सुनो कुत्ते से कहा तो ठीक है कभी हमसे भी ना कह देना शिट! नही रोक पाएंगे ।
पति हैरान था- क्या कह दिया मैंने ऐसा?
पत्नी भीतर गई पॉलिथीन लाई ।पति को दी फिर चली गई सांस कुकर की सीटी की आवाज एक साथ बाहर निकली। वहां खड़े खड़े यह सब देख रहे कुत्ते से कहते ही वाले थे शिट।
वह स्वयं बैठे रह गए।

डॉ0 के0बी0एल0 पाण्डेय

साहित्य और लोकप्रियता की कसौटी

साहित्य के मूल्यांकन के अनेक मानदण्ड रहे हैं। सौष्ठववादी मूल्यांकन में कृति की आन्तरिक संरचना ही उसके विमर्श का आधार है। इसके अन्तर्गत साहित्यिक रचना अपने आप में स्वायत्त है। इसके विपरीत समाजशास्त्रीय समीक्षा-दृष्टि साहित्य को सामाजिक परिवेश से जोड़कर देखती है और उसकी सार्थकता का मूल्यांकन व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही करती है। इस मूल्यांकन में साहित्य का कलागतपक्ष सर्वथा उपेक्षित तो नहीं होता लेकिन कृति को जीवन से विभक्त न मानकर उससे संपृक्त माना जाता है।

साहित्य के प्रयोजन और उसके सरोकारों के गम्भीर चिन्तन के बीच यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि लोकप्रियता या व्यापक संप्रेषणीयता साहित्य की सार्थकता का एक स्वीकृत मानदण्ड है लेकिन साथ ही यह सतर्कता भी जरूरी है कि लोकप्रियता इतना सरलीकृत शब्द नहीं है कि उसे सामान्य आशय में साहित्य का निरपेक्ष प्रतिमान मान लिया जाये। लोकप्रियता में व्यापक स्वीकार का भाव निहित है और यह स्वीकृति प्रायः किसी लेखक की रचनात्मक सफलता की ही परिणति है फिर भी लोक प्रियता अपने आप में स्वतंत्र मूल्य नहीं है। रचना के मूल में यदि लोक प्रियता का विचार लेखक की प्रेरणा हो तो उसकी रचनात्मक जिम्मेदारी अवश्य प्रभावित होती है। लोकप्रियता के सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि उसमें कितना और कौनसा लोक समाहित है, उसका आयतन कितना है।

किसी भी समाज में सामाजिक आर्थिक स्तरों की ही तरह शिक्षा, बौद्धिकता और वैचारिकता के भी स्तर होते हैं। प्रतिक्रिया और जीवन दृष्टि के निर्धारण में इनका पर्याप्त प्रभाव भी होता है। रूचियों, बौद्धिक स्तर तथा संस्कारों के अनुसार पाठकों के भी कई स्तर होते हैं। विभिन्न स्तरों के पाठकों के आस्वाद के धरातल भी इसीलिये भिन्न होते हैं। फिर भी स्तरों की भिन्नता को इतना अतिरंजित भी नहीं किया जाना चाहिए कि उनमें किसी समान भावभूमि का सर्वथा निषेध हो। इसलिये लोकप्रियता के स्वरूप में एक ओर अलग स्तरों का भी अस्तित्व है तो दूसरी ओर उनकी समान भावभूमि का भी महत्त्व है। धर्मवीर भारती का ’’गुनाहों का देवता’’ उपन्यास अपनी रोमानी संवेदना के कारण उस समय के युवा पाठक वर्ग में बहुत लोकप्रिय रहा है। अज्ञेय और निर्मल वर्मा के प्रशंसक पाठकों का एक अलग वर्ग है। रीतियुगीन लक्षण काव्य का एक विशिष्ट सीमित वर्ग था जिसे काव्य सिद्धान्तों की समझ थी और उसी युग में पद़माकार , पजनेस और भूषण के काव्य का अधिक व्यापक पाठक वर्ग रहा है। तुलसी और प्रेमचन्द जैसे रचनाकार विरल ही होते हैं जिनका प्रभाव सभी स्तरेां के पाठकों पर है भले ही आस्वाद की अभिव्यक्ति भिन्न हो। यह एक रोचक तथ्य है कि वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में रीति शैली के कवित्त सवैया काव्य का भी काफी बड़ा पाठक वर्ग था और उसी समय छायावाद तथा खड़ी बोली की नयी काव्य संवेदना का भी एक पाठक वर्ग बन रहा था।

लोकप्रियता के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या लोकप्रियता साहित्य की महत्ता निरूपित करने की एकमात्र या प्रमुख कसौटी हो सकती है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि क्या हर अच्छी साहित्यिक कृति लोकप्रिय होती ही है और क्या हर लोकप्रिय रचना साहित्यिक दृष्टि से भी उत्कृष्ट होती है। ज़ाहिर है कि यह अनिवार्य नहीं है। हालांकि सामान्यतः एक अच्छी कृति लोकप्रिय भी होती है फिर भी लोकप्रियता के सीमित या विस्तृत होने के पीछे अन्य कारण भी हैं। कभी कभी एक ही लेखक की एक रचना उसकी अन्य कृतियों से अधिक लोकप्रिय होती है। रेणु को “मैला आँचल’’ ने जितनी लोकप्रियता दी उतनी “परती परिकथा’ या अन्य उपन्यासों ने नहीं दी जबकि “परती परिकथा’’ औपन्यासिक दृष्टि से बहुत सशक्त कृति है। “नदी के द्वीप’’ की तुलना में “शेखर एक जीवनी’’ का भी यही हाल है। गुप्त जी की “भारत भारती’’ सम्पूर्ण पाठक वर्ग में अपने समय की प्रतिनिधि कृति बन गयी। “कामायनी’’ की साहित्यिक महत्ता निर्विववाद है किन्तु वह प्रबुद्ध साहित्यिक वर्ग में अधिक प्रशंसित हुई। दिनकर की “उर्वशी’ सशक्त काव्य-रचना है पर व्यापक पाठक वर्ग में दिनकर की लोकप्रियता उनकी राष्ट्रीय भावनापरक कविताओं तथा “कुरूक्षेत्र’’ और “परशुराम की प्रतीक्षा’’ पर अधिक आधारित है। शरत के अनूदित उपन्यास जितने लोकप्रिय हुए उतना टैगोर का कथा साहित्य नहीं किन्तु उनकी “गीताजंलि’ विशाल पाठक वर्ग में प्रशंसित हुई।