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कुंठित


बसुधा का आज सुबह से ही मन बहुत खिन्न था।उसका
तनिक भी मन नहीं लग रहा था।ऐसा लग रहा था कि यहाँ से कहीं भाग जाए ,ऐसी जगह,जहाँ अपनेपन का अहसास हो।ऐसी जगह जहाँ उसे समझा जाये। ऐसी जगह,जहाँ वह अपने मन की पीड़ा, सुख- दुख बांट सके। ऐसी जगह जहाँ उसे अकेलेपन का अहसास न हो। ऐसी जगह जहाँ कोई चिंता तनाव न हो।क्या ऐसी जगह है दुनिया में ? उसने खुद से ही प्रश्न किया,शायद नहीं। फिर क्यों ऐसी चाह ? जिस घर में ,जिस व्यक्ति के साथ वह पिछले 35 बर्ष से रह रही है,क्यों वह अपना सा नहीं लगता।क्यों वह एक अनजानी असुरक्षा की भावना के साथ जी रही है।आज बसुधा के विवाह की 35 वी बर्षगाँठ थी ।उसे रह रह कर 35बर्षों की वह सारी कड़वी यादें जेहन में घूम रहीं थीं।जब जब उसे इस घर में उसकी हदें समझाई गईं थीं,उसे परायेपन का अहसास कराया गया था। शायद ये सिलसिला थम जाता तो शायद वह उन कड़वी यादों से बाहर आ जाती।लेकिन ऐसा न हो सका। रोहित के व्यवहार में 35सालों के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया।बदलाव तो आदमी तब करता है जब उसे अपनी गलती का अहसास हो, वह तो अपने आप को अपनी बातों को ही सही समझता है ।वो किसी को समझना ही नहीं चाहता ।वह सबको अपने हिसाब से चलाना चाहता है। क्योंकि उसके हिसाब से ये घर सिर्फ उसका है।तो क्या हमें इस घर में सिर्फ काम करने के लिये लाया गया।जिंदगी भर वह में,मेरा घर, मेरा ये ,मेरा वो करता रहा ।उसके शब्दों,भावों और विचारों में हम तो कहीं थे ही नहीं। जिंदगी भर सब कुछ उसकी मर्जी, उसके रहमोकरम पर निर्भर रहा।उसकी नजर में हमारी इच्छा ,हमारी भावनाओं का कोई मूल्य नहीं।सब कुछ उसकी मर्जी से चलना चाहिये इसमें यदि जरा भी किसी ने अपनी इच्छा प्रकट की या मर्जी चलानी चाही तो फिर वह बहुत बुरी तरह से रिएक्ट करता ।और फिर कोई जरा भी मुंह खोले तो उसके भावनात्मक ड्रामे शुरू हो जाते।ऐसे में कोई कैसे ,ऐसे इंसान को अपना समझे और घर को अपना ?बसुधा को याद आये वो दिन जब वह दुल्हन बनकर इस घर में आई थी।शुरू शुरू में तो उसे रोहित का स्वभाव ठीक ही लगा था।लेकिन कुछ माह बाद ही धीरे धीरे उसका और उसके परिवार वालों का असली रूप सामने आने लगा।उम्र की अपरिपक्वता कहो या बसुधा का भोलापन उसने कभी उन लोगों की बातों को अन्यथा नहीं लिया ।रोहित के रूठ जाने पर उसे मनाना, बिना गलती किये माफी मांगना जैसे उसकी आदत में शुमार हो गया था।लेकिन अब बार बार रूठना और बसुधा से खुशामद करवाना भी जैसे रोहित की आदत बन गई थी।अब बसुधा को भी बुरा लगने लगा था।किसी भी रिश्ते में हमेशा एक ही सख्श की गलती कैसे हो सकती है? कुछ न कुछ गलती दोनों पक्ष की होती है, तो फिर एक ही शख्स हमेशा क्यों झुके ? वही हमेशा क्यों खुशामद करे ? लेकिन बसुधा ने यह सब किया अपने आत्मसम्मान को दांव पर लगाकर।सारी जिंदगी रोहित ने सबको अपने हिसाब से चलाया, चाहे बसुधा हो या बच्चे । किसी और की सोच और भावनाओं से उसे कुछ लेना देना न था।उसने बच्चों को भी अपने विश्वास में नहीं लिया।उसने तो बस बीबी बच्चों सबको नियंत्रित करना चाहा । ईश्वर की कृपा रही कि बच्चे पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़े हो गए । पिता से उनका भावनात्मक जुड़ाव कम ही रहा ।क्योंकि अपने काल्पनिक भय के वशीभूत होकर वह बच्चों से कुछ ऐसी कड़वी बातें कह जाता था ,जो बच्चों की भावनाओं को आहत कर जाती थीं। बेटी ब्याहकर ससुराल चली गई ,बेटा भी अपनी पत्नी को लेकर नौकरी पर ।कोई साल छ महीने में उनका आना होता ।अब घर में रह गए बस दो प्राणी बसुधा और रोहित।
रोहित के स्वभाव में अब भी कोई अंतर नहीं पड़ा ,जब बातों के दौरान बसुधा के मुँह से कोई बात निकल जाती तो वह पहले की तरह रूठकर बसुधा से बात कर देता।ये तो अच्छा ही था कि वह दिल की कड़वाहट को ख़ामोश होकर
ज़ाहिर करता था ।यदि शब्दों से जाहिर करता तो उसके साथ रहना दुश्वार हो जाता ।उसके शब्दों में जहर भरा होता था,जो कई बार गुस्से में उसके मुँह से निकल जाते थे।
बसुधा के समय में तो पति को ही परमेश्वर का दर्जा दिया जाता था।लेकिन रोहित ने तो जैसे स्वयं को साक्षात परमेश्वर ही समझ लिया था।बसुधा को छोटी छोटी बात पर झुकाकर ही उसके अहम को सन्तुष्टि मिलती थी।इस सब में बसुधा जैसे खुद को खोती चली जा रही थी। उसे यकीन था कि कुछ भी सही एक न एक दिन रोहित के दिल में उसके लिये सच्ची भावनाएं जरूर पैदा होगीं और सब कुछ ठीक हो जाएगा।क्योंकि उसने सुना था कि जवानी में भले ही व्यक्ति पत्नी की कद्र न करे लेकिन बुढ़ापे उसे उसकी कद्र हो हो जाती है।लेकिन यहाँ तो सब कुछ उल्टा ही हो रहा था।अब धीरे धीरे उसकी समझ में आने लगा था कि रोहित को उससे प्रेम कभी था ही नही।अगर होता तो उसे उसकी तकलीफों का अहसास होता।महज़ शारीरिक आकर्षण ही प्रेम नहीं होता।प्रेम तो वह होता है जो अपने साथी को उसकी कमियों ,खूबियों के साथ स्वीकारे।प्रेम वह होता है, जिसमें एक दूसरे की परवाह,सम्मान और जिम्मेदारी का अहसास होता है।सुख में तो सभी साथ निभाते हैं, पर प्रेम तो वो होता है जो हर पल,हर परिस्थिति में साथ निभाये।बसुधा ने रोहित से ऐसा ही प्रेम किया था, इसलिये उसकी हर गलती को भुलाकर उसे प्रेम करती रही और उसे सम्भालती रही।आखिर वो भी तो एक इंसान थी,बदले में वह भी ऐसे ही प्रेम की ख्वाहिश क्यों न करे ? उसे याद आया वो दिन जब एक दिन उसकी किसी बात पर रोहित से कहासुनी हो गई।रोहित बोला मुझे तो पहले ही पता था तू ऐसी है, इसलिये में अपने माँ बाप की ढाल बना रहा।मतलब रोहित का उसे बात बात पर झुकाना, उसे नीचा दिखाना ,उसे नियंत्रित करने की कोशिश में खुशामदें, मिन्नतें करवाना, एक सोची समझी चाल थी।दरअसल रोहित और उसके परिवार को डर था कि पराई लड़की आकर हम पर हावी न हो जाये।इससे पहले उसे इतना दबा, डरा दो कि जिंदगी भर सिर उठाने की हिम्मत न कर सके ।अपने इस डर की वजह से रोहित और उसका परिवार चालें चलता रहा।अब उसे रोहित की हर चाल समझ में आने लगी थी।वह तो दिल से रिश्ता निभा रही थी, लेकिन उसके ख़िलाफ़ तो पूरा परिवार ही कमर कस के तैयारी किये हुए था। कि कैसे उसे अपने कदमों पर रखना है।जब लोग अंदर इतने डरे हुए होते हैं तो वह कोई नया रिश्ता जोड़ते ही क्यों हैं? रहें कुंवारे अपने घर,अपने परिवार के साथ सुरक्षित।अब तो दया आने लगी है उसकी सोच पर। 20 -22 साल की एक लड़की अपने माँ बाप अपना परिवार सब कुछ छोड़कर, दिल में ढेरों अरमान लिये अपने पति के घर, इस उम्मीद के साथ आती है कि उसे उस घर में प्यार, सम्मान,अपनापन मिलेगा।वहीं उसे नियंत्रित करने के लिये चक्रव्यूह रचे जाते हैं।कभी शादी में हुई कमी के बहाने,कभी दहेज में कमी के बहाने।और उसे हर कदम पर उसकी छोटी छोटी कमियाँ निकालकर प्रताड़ित किया जाता है ।क्या अपने परिवार के किसी सदस्य के साथ कोई ऐसा व्यवहार करता है ?नहीं।क्योंकि वह दूसरे घर से आई है तो उसे उन लोगों के रहमोकरम पर उनकी मर्जी से ही चलना होगा।उनकी गुलामी करनी ही होगी ।बाहरी दुश्मन से लड़ना आसान है ,लेकिन जब कोई किसी रिश्ते में बंधकर दुश्मनी निभाये, उसका क्या किया जाए।किसी के दिल में क्या है, हम कैसे जान सकते हैं ? अच्छा ही हुआ जो इंसान किसी दूसरे इंसान के भीतर नहीं झाँक पाता, वर्ना बहुत से रिश्ते तो शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाते।कोई इंसान कैसे अपने एक पूर्वाग्रह (डर)की वजह से किसी रिश्ते में बंधकर, किसी की जिंदगी को दुश्वार बना सकता है।और ये सब करने में उसे खुद भी कौंनसी ख़ुशी मिलती है ?बल्कि ढेरों उन छोटी छोटी खुशियों से खुद को और दूसरों को भी महरूम रखता है जिन्हें वह हासिल कर सकता था। इसी क्रम में कुछ बर्ष पहले रोहित फिर बसुधा से किसी बात पर रूठ गया।बसुधा पूर्व की भाँति रोहित के सारे काम करती और उसका ख्याल रखती रही।और उससे खाने पीने आदि के बहाने उससे बात करने की कोशिश भी।लेकिन रोहित पहले की भाँति तस से मस नहीं हुआ।वह चाहता था कि हर बार की तरह बसुधा उसकी मिन्नतें करे फिर वह जली कटी सुनाए और उसे अपमानित करके उसके झूठे अहम को संतुष्टि मिले।लेकिन बसुधा इन सब से थक चुकी थी ।उसकी सहनशक्ति अब खत्म हो चुकी थी। उसने अपने आप से कहा बहुत हुआ अब और नहीं ।जिस प्रकार मुझे रोहित की जरूरत है, रोहित को मेरी जरूरत नहीं है क्या ? अगर वह मुझसे बात किये बिना रह सकता है तो में क्यों नहीं।मुझे सख्त बनना ही होगा वर्ना जवानी तो तनाव में गुजर ही गई ।बुढापा भी खराब हो जाएगा।अब में उसकी मिन्नतें और नहीं करूँगी ।वह मुझसे बात न करके खुश है तो यही सही। इसी तरह महीनों ,सालों बीत गए, लेकिन वह अपनी अकड़ पर कायम रहा।एक झूठी अकड़ के लिये उसने क्या कुछ नहीं खो दिया इसका उसे अहसास ही नहीं। बसुधा समझ चुकी थी कि रोहित को कभी उससे प्रेम था ही नहीं ।यदि होता तो कम से कम इन 35 सालों में एक बार तो मुझे यह अहसास दिलाता कि जिस प्रकार मुझे उसकी परवाह है,उसे भी मेरी फिक्र और परवाह है।कोई पालतू जानवर भी पालो तो उससे प्रेम हो जाता है।अपनी पूरी जिंदगी देकर भी उसका हृदय परिवर्तित नहीं कर पाई।दरअसल ऐसे लोग होते ही हृदयहीन हैं, इनसे किसी प्रकार की आशा रखना ऐसा है, जैसे-पत्थर से पानी निकालना।ऐसे लोग किसी भी रिश्ते के काबिल नहीं होते। इन्हें दिल की भाषा समझ नहीं आती इन्हें तो इनकी ही भाषा समझ आती है।दिमाग तो उसके(बसुधा) पास भी खूब था, लेकिन उसने हमेशा दिल से काम लिया और शायद इसलिये आज तक वह रोहित के साथ है ।रोहित की तरह वह भी दिमाग लगाती तो उनका साथ ज्यादा नहीं निभ नहीं पाता। रोहित के दिल में क्या था? वह समझ ही नहीं पाई वह तो अपनी
ही कमियाँ दूर करने में लगी रही ।और जब तक बात समझ में आई ,जिंदगी ही खत्म होने को आई।अच्छा ही हुआ जो नादानी में ही सारी जिंदगी कट गई।वर्ना होशियार होकर भी क्या मिलना था। जो निष्कपट होते हैं वह दिमाग से रिश्ता निभा ही नहीं पाते।और जो रिश्तों में दिमाग लगाते हैं वह निष्कपट हो ही नहीं सकते ।वह तो विकृत सोच के कुंठित इंसान है।जो इंसान अपनी पत्नी और बच्चों से ही भयभीत हो, उससे ज्यादा बदकिस्मत इंसान और कौन हो सकता है ? ये सब सोचते सोचते बसुधा की आँखों में आँसू आ गए कि इतने साल बीत जाने के बाद भी इस आदमी ने झूठी अकड़ का दामन नहीं छोड़ा।आज उसे ये सब बातें इसलिये याद आ रहीं थीं क्योंकि आज के दिन ही वह इस रिश्ते से जुड़ी थी ।शादी की साल गिरह तो बसुधा के लिये थी, रोहित के लिये तो एक थोपी हुई जिम्मेदारी।जिसे उसने कभी ठीक से निभाया ही नहीं।लेकिन अब उसने अकेले जीने की आदत डाल ली थी ,अकेले भी कहाँ नाम के लिये ही सही साथ तो है ही, भले ही ज्यादा बातें न होती हों लेकिन एक छत के नीचे तो रह ही रहे हैं, उसके लिये तो इतना ही काफी है वैसे भी इस दुनिया में सबको सब कुछ नहीं मिलता।यह सब सोचते सोचते बसुधा कब नींद के आगोश में चली गई पता ही नहीं चला। एक नई सुबह ,एक नई उम्मीद की शुरुआत के लिये।



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