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मुक्ति की ओर

नीलम कुलश्रेष्ठ

[अभी अभी १६ दिसंबर प्रधानमंत्री विजय दिवस के उपलक्ष में शहीद स्मारक पर श्रद्धांजलि देने पहुंचे थे .ये स्मारक सन १९७१ के पाकिस्तान से हुये युद्ध में शहीदों की स्मृति में बनवाया गया था।इसी सन में बँगला देश की स्थापना हुई थी। बँगला देश के एक अख़बार `इत्तेफ़ाक़ `के एक वृद्ध पत्रकार के उसी समय के बलिदान पर लिखी एक सत्य कथा. ग़ुलामी की जंजीर तोड़ कर बंगला देश माज मुक्त वातावरण में सांस ले रहा है लेकिन कौन जानता है कि इस मुक्तिसंग्राम में अहमद मियाँ ने कितनी बड़ी कुर्बानी दी  थी ? ]

पीछे से थोड़ी सी गंजी खोपड़ी, बंगाली चमक लिए हुए काली आँखें, पायजामा, कुर्ता , जाकेट पहने और गले में लपेटे हुए मफ़लर-यह था अहमद मियां का व्यक्तित्व । वह हमारे प्रेस के सब से हंसमुख व्यक्ति थे । हर समय ही किसी शरारत में मशगूल रहते थे । अगर अपनी सीट पर काम कर रहे हैं तो आगे वाली सीट पर बैठे व्यक्ति का तरह तरह की शक्ल बना कर मज़ाक उड़ा रहे होते । कभी कभी मैं उन से झल्ला कर कह भी दिया करता था, “बड़े मियां, कम से कम अपने सफ़ेद बालों का तो लिहाज किया करो ।”

“आबिद! तुम ने इतनी कठोर बात कह कर हमारे दिल के टुकड़े टुकड़े कर दिये हैं,” और फिर तुरंत ही खिलखिलाकर हंस पड़ते, “बातों पर क्यों जा रहे हो, जरा दिल में झांक कर देखो.” कहने के साथ ही वह अपने कोट के बटन खोल डालते और मैं भी उन के साथ खिलखिला पड़ता था ।

हमारे अखबार ‘इत्तेफ़ाक़ ’ का ‘हास्यव्यंग्य’ कालम उन के ही कारण लोकप्रिय था । न जाने कहाँ कहाँ से ढूँढ़ कर चुटकुले लाया करते थे । उनका व्यक्तित्व किस कदर मुझ पर हावी था, यह मैं ही समझ सकता था । उन से जहान भर की बातें होती थीं, किंतु कभी उन्होंने अपने परिवार के विषय में कुछ नहीं बताया था । एक बार मैंने उन्हें कुरेदने की कोशिश भी की तो उन्होंने उस बात को ऐसी सफाई से टाला कि मैं जानबूझ कर अनजान जैसा बन गया ।

एक दिन न जाने कैसे वह मेज़ पर अपनी डायरी भूल गये । मैं जब तक उन्हें आवाज़ देता, तब तो वह दूर जा चुके थे । मैं उसे देखने का लोभ संवरण न कर सका । मैंने बड़ी उत्सुकता से डायरी खोली । पर सारी डायरी खाली थी । सिर्फ़  पहले पृष्ठ पर एक कोने में उन का पता लिखा हुआ था । मैंने सोचा कि अचानक उन के घर पहुँच कर उन्हें चकित कर दूँगा ।

उनके मुहल्ले के एक लड़के के द्वारा बताए घर के दरवाजे पर मैं ने दस्तक दी । अंदर से क्षीण नारी स्वर सुनाई दिया, “कौन ? दरवाज़ा खुला है ।”

मैंने धीरे से दरवाज़ा खोला और कमरे के अंदर कदम रखने के साथ ही चौंक पड़ा । एक पीली, जर्जर स्त्री ‘व्हील चेयर’ पर पड़ी हुई थी । साथ ही उसका एक हाथ कोहनी तक गायब था । वह प्रश्नवाचक मुद्रा में मेरी ओर देख रही थी । मैंने सहमते स्वर में उस से पूछा, “अहमद मियाँ घर में है?”

तभी अंदर से आवाज आई, “कौन है, भाई?” साथ ही अहमद मियाँ ने तहमद लपेटते हुए कमरे में प्रवेश किया और मुझे देखते ही उन्होंने फीकी हँसी के साथ कहा, “ओह ! तुम ? अंदर आ जाओ.” मैं विकलांग स्त्री पर एक करुण दृष्टि डालता हुआ उन के साथ अंदर चला गया ।

वह रसोई में बैठ गये और मेरे लिये रसोई के दरवाजे के आगे एक कुरसी डाल दी । मुझे लगा कि वह अपने को व्यस्त सा दिखाने की असफ़ल कोशिश कर रहे हैं । वह चुपचाप आँखें झुकाए मछली के ‘स्केल्स’ साफ कर रहे थे । मैंने चुप्पी तोड़ी, “वह स्त्री कौन है?”

“मेरी बीवी है.” उन्होंने ठंड़े स्वर में कहा ।

“ओह!” न चाहते हुए भी मेरे मुँह से निकल गया ।

“बेचारी पार्टीशन के समय भागते हुए अपनी एक टाँग तथा एक हाथ खो बैठी थी ।”

“तो दोनों समय का काम आप ही...”

“और रास्ता ही क्या है,” उन्होंने जल्दी से मेरी बात काटते हुए कहा , “अरे, छोड़, क्यों मुँह उदास कर दिया है ? तुझे क्या मालूम, लोग कैसी-कैसी विकट परिस्थितियों में भी जीवित रहते है ?”

“अच्छा, तो अब चलता हूँ । आप की डायरी देने आया था ।”

“तू अभी कैसे जा सकता है ?आज तो तुझे अपने हाथ की स्पेशल मछली खाए बिना जाने नहीं दूँगा । शायद तुझे पता नहीं है, सारे ढाका में मेरे जैसा ख़ानसामा कहीं नहीं मिलेगा.” कहने के साथ ही वह खिलखिला कर हँस पड़े ।

उनकी वह अलमस्त हँसी देख कर मेरे इस विचार की पुष्टि हो गई कि जो व्यक्ति समय समय पर ठहाके लगाता है, वह अंदर से उतना ही संजीदा होता है, मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी कि उन ठहाकों को सुनता जो कि मुझे अहमद मियाँ के दिल का क्रंदन लग रहे थे । मैं ज़िद कर के अविलंब वहाँ से उठ कर चला आया ।

उन दिनों शेखजी की राजनीति में रिकॉर्ड तोड़ फ़तह ने आवामी लीग को ‘इत्तेफ़ाक़ ’ की सुर्ख़ियों में स्थान दिला दिया था । अहमद मियाँ को तो जैसे अपने दिल की भड़ास निकालने का बहाना मिल गया था । उन के दिमाग के कोने-कोने से निकल कर याह्या खाँ से संबंधित कार्टून ‘इत्तेफ़ाक़ ’ के पृष्ठों पर फिसल रहे थे । एक-दो बार उन्हें धमकी भरे गुमनाम पत्र भी मिले, किंतु उन्होंने इस की कभी परवाह नहीं की ।

जब याह्या खाँ हमारे देश में आये थे, उस से पहले ही स्वतंत्रता की आग धीरे धीरे ज़ोर  पकड़ती जा रही थी । उन्होंने अपने वक्तव्य में कुछ ऐसा आश्वासन दिया कि हम सभी लोग भावी सुख की कल्पना में विभोर हो उठे, किंतु अहमद मियाँ ने तभी मुँह बिचका कर कहा था, “साला, दोगला है । जब यह अपना आश्वासन पूरा कर दे, तभी विश्वास करना ।”

उन्होंने कितना सच कहा था - अचानक ढाका की सड़कों पर सैनिकों की बाढ़ आ गई थी ।फ़ौज़ी जूतों तले न जाने कितने लोग कुचले गये, अनेक घर बर्बाद हुए, कितने ही गर्ल्स होस्टल उजाड़ हो गये, कोई पता न था ।

ऐसे समय में भी ‘इत्तेफ़ाक़ ’ चुप न बैठा । शायद सैनिक भी इसी बात पर जलेभुने बैठे थे इसलिये एक दिन....।

उस दिन हम छःसात लोग प्रेस में सुबह जल्दी आ गये थे, कुछ नये और ताज़े समाचारों के साथ । मैं एडीटर से ‘इत्तेफ़ाक़ ’ के अगले अंक के विषय में कुछ राय लेने गया था कि अचानक अहमद मियाँ उनकी केबिन का दरवाज़ा भड़भड़ाते हुए अंदर आ गये, “गज़ब हो गया ! सैनिक अपने दफ़्तर की तरफ बढ़े आ रहे हैं ।”

“क्या?” हम दोनों के मुँह से एक साथ निकला ।

“हाँ, मैं ठीक कह रहा हूँ । मैं बाहर पान बनवाने गया था तो दूर सैनिकों की भीड़ इधर आती दिखाई दी और मैं झटपट भागा चला आया । मैंने दफ़्तर का सदर दरवाज़ा तो बंद कर दिया है,” उनकी हड़बड़ाहट भरी आवाज़ सुनकर सारे व्यक्ति केबिन में आ गये ।

“अब क्या किया जाए?” घबराए हुए एडीटर बोले ।

“ सिर्फ़  अपनी तरफ बढ़ती आ रही मौत का इंतज़ार ।” वह फीकी सी मुस्करहाट से बोले, लेकिन हम सब इस तरह जड़ हो गये थे कि उन का साथ न दे सके, भय से विस्फारित आँखों से एक दूसरे को देख रहे थे । तभी दरवाज़े पर बहुत ज़ोर की खटखट की आवाज़ हुई । कोई सैनिक रायफ़ल से दरवाज़ा खटखटा रहा था, “अरे, खोलते हो या नहीं? चूहों की तरह अंदर दुबक गये हो, वैसे तो अख़बार में रोज़ चीखा करते थे ।”

हम लोगों ने भयभीत हो कर एक दूसरे का हाथ पकड़ लिया था । शायद भय ही लोगों को सब से अधिक निकट ला देता है । दरवाज़े पर रायफ़लों के प्रहार बढ़ते जा रहे थे । खटखट की आवाज़ के साथ हमारे दिल भी ‘धकधक’ कर रहे थे । अहमद मियां अलग घबराये हुए घूम रहे थे । अचानक वह रुक गये, “अगर यहीं खड़े रहे तो एक क्षण में ही भून दिए जाओगे, कम से कम ऊपर की मंज़िल पर तो चलो ।”

हम लोग, जिन की सोचने-समझने की शक्ति शून्य बन गई थी. अचानक आई नई चेतना से जैसे तैसे भागते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगे । अहमद मियाँ ही सब से पीछे थे । उन्होंने जल्दी से सीढ़ियों वाला दरवाज़ा बंद कर दिया, तब ऊपर आये । हम लोग फिर कर्तव्यविमूढ़ से खड़े हो गये । वह एकदम झुंझला कर बोले, “तुम लोग बुद्धुओं की तरह क्यों खड़े हो ? अभी कुछ ही क्षणों में वे यहाँ तक भी पहुँच जाएँगे ।”

“तो क्या करें ?” मैंने लगभग रुंधे स्वर में कहा ।

“अब तो एक ही युक्ति है कि छोटे ‘ रिकॉर्ड रूम’ में चलें, हो सकता है, वहाँ पर छिप कर बच जाएं ।” उन्होंने कहा ।

इतनी कठिनाई के समय भी तब लोगों के चेहरे पर जीवनरेखा दौड़ गई और सब दौड़ते हुए बड़े ‘ रिकॉर्ड रूम’ में आ गये, जहाँ पर 22 साल से अब तक के ‘इत्तेफ़ाक़ ’ का रिकॉर्ड सुरक्षित था । इस कमरे में एक तरफ़ एक छोटा सा कमरा था, जिस में ‘इत्तेफ़ाक़ ’ के विशेषांक सुरक्षित रखे जाते थे । उस छोटे ‘ रिकॉर्ड रूम’ के दरवाज़े पर किवाड़ नहीं थे, बल्कि अखबारों से भरी अलमारी के पिछले भाग से पूरा ढका हुआ था । हम सब लोगों ने प्रयत्न कर के अलमारी हटाई तथा छोटे ‘ रिकॉर्ड रूम’ में आ कर उसे अंबर की तरफ खींच लिया ।

अब तक सैनिक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए चले आ रहे थे । उन के जूतों की आहट से हमारे दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थी। अब ये लोग दरवाज़ा तोड़ कर बड़े ‘ रिकॉर्ड रूम’ के अंदर आ गये थे । हमारी तो जैसे सांस ही रुक गई थी । वे लोग क्रोधित स्वर में चीख रहे थे, “ कहाँ गये साले ? आसमान में उड़ गये क्या ?” तभी किसी सैनिक ने कमरे के दरवाजे वाली अलमारी हिलाई । हमारी साँस जहाँ की तहाँ रुक गई । लगा, एक क्षण में सब कुछ समाप्त हो जायेगा । लेकिन वह वहाँ से तुरंत हट गया । अचानक उन का कोई अफ़सर बोला, “वे लोग यहीं कहीं छिपे होंगे । सारी इमारत में आग लगा दो, जिस से वे जल कर राख हो जाएँ ।” हम लोग उस की आवाज़ से कांप गये । फिर धीरेधीरे सैनिकों के जूतों की आहट दूर होती चली गई ।

थोड़ी देर बाद नथुनों में कसैला धुआँ भरने लगा । सैनिकों ने निचली मंज़िल पर आग लगा दी थी । अहमद मियाँ चिंता में हाथ मल रहे थे । धुएं ने हमारी हालत खराब कर दी । आँखों और नाक से पानी बहने लगा । लग रहा था, दम अब घुटा, अब घुटा । अचानक अहमद मियाँ ने अख़बारों की एक छोटी सी अलमारी हटाई । उनकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं । क्योंकि वह `इत्तेफ़ाक़ ` में सब से पुराने कर्मचारी थे । एकदम उस की याद आने पर उसे झटके से खोल दिया । वायु का एक झोंका आया । लगा, जैसे नया जीवनसंदेश लाया है । यह खिड़की `इत्तेफ़ाक़ ` के दफ़्तर के पीछे खुलती थी । एक पतली सी गली छोड़ कर आगे एक और इमारत थी ।

बड़े ` रिकॉर्ड रूम` में आग ज़ोर पकड़ती जा रही थी । अब तो यह किसी तरह संभव न था कि हम सब ज़िंदा बच सकते । अचानक अहमद मियाँ ने खिड़की से सिर निकाल कर नीचे की पतली गली को घूरते हुए कहा, “बचने का सिर्फ़  एक उपाय है ।”

“क्या?” लेकिन उनकी बात पर किसी ने विशेष उत्साह नहीं दिखाया । सभी लोग अपनी मौत निश्चिंत मान चुके थे ।

“मैं अपना आधा धड़ इस खिड़की से बाहर कर लेता हूँ । तुम सब एकएक कर मेरे शरीर पर पैर रख कर पास वाले होटल की इमारत पर कूद जाओ । सैनिक इस सड़क पर दो घंटे से पहले नहीं पहुँच सकते, क्यों कि यहाँ पहुँचने के लिए उन्हें सारे बाज़ार का चक्कर लगाना होगा ।”

“और फिर आप...?” मेरे गले से रुंधी सी आवाज़ निकली ।

“मैं भी उस इमारत पर पहुँचने की कोशिश करूँगा ।” सब जानते थे कि कितनी भी कोशिश करें, पर बिना किसी थोड़े सहारे के उस तक पहुँचना मुश्किल है । सभी एक साथ बोल उठे, “यह नहीं हो सकता । हम इतने नीच नहीं है कि जानबूझ कर आप को मौत की चिता में छोड़ दे ।”

“पागल हो गये हो क्या?”

वह लगभग चीख़ उठे, “मुझ बुढ़्ढ़े की जान आज नहीं तो कल जानी ही है, लेकिन तुम क्या अपने सुदृढ़ विचारों को इस आग में जला कर अपनी जनता को कमज़ोर बनाना चाहते हो और फिर तुम जैसे कर्मठ नौजवान ?” उन्होंने हम सब को ठहरी हुई दृष्टि से देखा ।

“लेकिन...” पहली बार मेरी आँखें नम हुईं ।

“पगले, रोने की क्या बात है ? मुक्ति संग्राम में मुझ बूढ़े की यह छोटी सी कुर्बानी कोई कीमत नहीं रखती ।” उन्होंने मेरी पीठ को थपथपाया ।

“लेकिन यह मेरा अंतिम फैसला है कि हम आप को छोड़ कर नहीं जायेंगे ।” एडीटर बोले, जो अब तक चुप थे ।

“तुम चुप रहो । कभी ओहदे में तुम मुझ से बड़े थे, किंतु मुक्ति मां के चरणों में यह सब ओहदे मिट जाते हैं । मैं उन्हीं का सेवक तुम को आज्ञा देता हूँ । अपने लिये नहीं, तुम्हें बंगला देश के लिये अपनी जान की रक्षा करनी होगी ।” कहने के साथ ही वह खिड़की के ऊपर आधे लटक गये और एकएक कर के सब का नाम पुकारते गये । सब लोग एकएक कर धड़कते दिल से उन के बूढ़े शरीर के ऊपर अपने शरीर का बोझ डाल कर, एड़ियों के बल उचक कर होटल की मुंडेर पकड़-पकड़ कर उस की छत पर पहुँच जाते । और वहाँ से अपनी आँखों में न जाने क्या लिये उन्हें देखने लगते. अंत में मेरी बारी भी आई । मैंने दृढ़ स्वर में कहा, “अब यह कार्य मैं करूँगा । आप निकल जाइये ।”

बारबार अधिक बोझ सहने के कारण उनकी आँखें पनीली हो आई थीं । अचानक वह हाँफते हुए पीछे मुड़े और मेरे गाल पर तड़ाक से चांटा मारा, “चुप, अगर कुछ बोला तो.... देशद्रोही बनता है ?”

मैं भावावेश में उनसे लिपट गया, “अहमद मियाँ !”

“मेरे बच्चे, यह रोने का समय नहीं है । बहुत बुरी तरह आग फैल रही है । यह जगह किसी भी क्षण उसकी चपेट में आ जायेगी, जल्दी कर ।”

मैंने बहुत ही कड़े दिल के साथ खिड़की पर लटके उन के बूढ़े शरीर पर पैर रखा तथा उछल कर होटल की छत पर पहुँच गया । जब पीछे उन पर नजर पड़ी तो सकते में आ गया, उनके मुँह से खून निकल रहा था ।

मैंने कहा, “अहमद मियाँ, जल्दी कीजिये । आग इस ` रिकॉर्ड रूम`में भी फैल रही है ,” उन्होंने अधखुली आँखों से मुझे देखा, तभी उनके कपड़े भी आग की लपेट में आ गये । फिर भी वह लड़खड़ाते हुए उचक कर खिड़की पर चढ़ गये । मैंने अपने विह्वल होते हुए भरे दिल के साथ अपना हाथ बढ़ाया, उधर उन का हाथ भी बढ़ा । पर बहुत झुकने के बाद भी मेरा हाथ उन के हाथ को थाम न सका । एक क्षण में ही उनका संतुलन बिगड़ा और एक हलकी सी चीख `इत्तेफ़ाक़ `के दफ़्तर तथा होटल के बीच की गली में एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैलती चली गई । इस चीख में न मृत्यु का भय था, न संसार से विद्रोह का दुख । था तो सिर्फ़  बंगला देश की वेदी पर नतमस्तक, अहमद मियाँ का ज़र्जर, बूढ़ा शरीर.

नीलम कुलश्रेष्ठ

ई -मेल –kneeli@rediffmail.com

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