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पिछली सदी में स्त्री का सुई से कलम तक का सफ़र डाकू फूलन देवी तक

पिछली सदी में स्त्री का सुई से कलम तक का सफ़र डाकू फूलन देवी तक

नीलम कुलश्रेष्ठ

[ बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से स्त्री विमर्श ने द्रुत गति पकड़ी है. सारी दुनिया की स्त्रियां इस बात से वाकिफ़ हैं कि दुनिया के किसी भी देश में स्त्रियों की समाज के मन में सामाजिक स्थिति लगभग एक है. वे इस मुद्दे पर एकजुट भी खूब हो रही है. अहमदाबाद के गुजरात विश्व विद्ध्यालय की गत वर्ष सेवानिवृत्त अंग्रेज़ी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. रंजना हरीश के अध्ययन का प्रिय विषय रहा है विभिन्न महिलायो की अंग्रेज़ी में लिखी या अँग्रेजी में अनुदित आत्मकथायें. उनकी रूचि रही है कि इन महिलायो ने अपनी आत्म कथाओं से जो अपने व्यक्तितव व अपने समय की पहचान की है उससे स्त्री विकास व उस समय के स्त्री के प्रति सामाजिक नज़रिये को समझा जा सकता है. उन्होंने दो महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं सन् 1993 में "इंडियन वीमेंस ऑटोबायोग्राफीज़" व 'द फीमेल फुटप्रिंट्स ' दूसरी पुस्तक को गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी ने श्री कैलाशनाथ तिवारी के किए हिन्दी अनुवाद को "भारतीय नारियों के पद –चिन्ह" [सन् 2006] शीर्षक से प्रकाशित किया है. प्रस्तुत लेख रंजना जी के इसी शोधपरक लेखन व उनके साहित्य अकादमी की पुस्तक 'इंडियन लिटरेचर 'के लिए अंग्रेज़ी में लिखे लेख पर पूरी तरह आधारित है. इनका मानना है कि ये स्त्रियां किसी भी वर्ग की हो, ये सब स्त्रियों के पदचिन्ह हैं जो पुरुषों के पद चिन्हों से पूरी तरह भिन्न हैं. ]

भारत में किसी पुरुष की प्रथम आत्मकथा 'अर्धकथा 'बनारसी दास की है जो सन् 1650में लिखी गई थी थी. ये जानना उत्साहवर्धक है कि स्त्रियों ने हाशिये पर होते हुए भी आत्मकथाओं से अपने हृदय को खोला है. विदेशी स्त्रियों ने तो बहुत पहले अपनी आत्मकथायें लिखनी आरंभ कर दी थी. भारत में सबसे पहली उपलब्ध आत्मकथा संत तुकाराम की शिष्य प्रसिद्ध संत कवयित्री बहिनाबाई की है जिन्होंने सन् 1770 में अपनी आत्मकथा लिखी जिसे रेव. जस्टिन ऐबट ने मराठी से अंग्रेज़ी में अनुवाद करके प्रकाशित करवाया. वे लिखती हैं;

" मैं  स्त्री होने के कारण, मै अपने कर्तव्यों को पूरा नही कर पाती. वेद उच्च स्वर में घोषणा करते हैं और पुराण चीख चीख कर कहते हैं कि स्त्री से कुछ भी शुभ सृजित नहीं होता ----मुझे आश्चर्य है कि मैंने पूर्वजन्म में ऎसा क्या अपराध किया था कि इस जन्म में मैं  परमात्मा से अलग रक्खी जाऊँ------मेरा शरीर मनुष्य का है, परन्तु आकृति स्त्री की. "

इन शब्द से कैसी गहन पीडा़ अभिव्यक्त हो रही है सिर्फ़ एक स्पर्म ---जी हाँ, सिर्फ़ एक स्पर्म के अन्तर के कारण पुरुष से भिन्न स्त्री शरीर की रचना हो जाती है. सबसे बड़ा कारण ही इसके उत्पीड़न का ये शरीर है. इतनी सदियों बाद भी ये कटु सच आज भी वैसे का वैसा ही है. ये समय की रेत पर बहुत स्पष्ट, विशिष्ट और स्मरणीय चिनह छोड़ती है लेकिन इस आत्मकथा को लगभग दो सदियों बाद लिखीं गई आत्म कथाओं के साथ नहीं रक्खा जा सकता है क्योंकि लेखन शैली व परिवेश बहुत तेज़ी से बदला है. 

सन् 1860 में पहली अँग्रेजी आत्मकथा कूच बिहार की महारानी सुनीति देवी की है. उसके बाद तो निरंतर भारतीय भाषाओं जैसे बंगाली, मराठी, मलयालम आदि में आत्मकथाये उपलब्ध हैं. इन सब पुस्तकों में एक बात कॉमन थी कि इनमें व्यवस्था के खिलाफ शिक्षा के माध्यम से स्वतंत्र होने की छटपटाहट थी. बंगाल की प्रसिद्ध विद्वान मालविका कार्लेकर ने तो बार बार इस बात पर ज़ोर देना आरम्भ कर दिया था कि स्त्रियों के लिए सुई से अधिक कलम ज़रूरी है. 

बंगाल में प्रथम तीन स्त्रियों की आत्मकथायें मिलती हैं जैसे रससुन्दरी देवी [सन1876], बिनोदिनी दासी [सन् 1912] व शारदा सुन्दरी देवी सन् 1913]. इन तीनों में शिक्षा प्राप्ति की जबरदस्त तड़प दिखाई देती है. रससुन्दरी देवी ने तो 'रसोई की दीवार की कालिख को खुरच कर पढ़ना सीखा था. बाद में सन् 1830 में उन्होंने एक कॉपी पर अपनी आत्मकथा लिखी 'अमार जीवन", उन्होंने कभी सोचा भी नही था कि इसका प्रकाशन होगा. इत्तेफाक़ ये हुआ कि इनकी भतीजी की मुलाकात एक अमेरिका से आयी एतहासिक शोधकर्ता क्यूमिन मेक्सिन से हुई, बातों बातों में उसे रससुन्दरी की आत्मकथा के विषय में पता लगा तो उसने इसे अँग्रेजी में अनूदित करके प्रकाशित भी करवाया, इस तरह से उन्नीसवीं सदी की स्त्री जो घोड़े से भी पर्दा करती थी की ये शब्द यात्रा हम सब तक पहुँची. 

उस के दो खंडों में जो तड़प थी, ' यदि मेरी दृष्टि किसी ऎसे कागज पर पड़ जाती कि जिस पर कुछ लिखा हुआ होता तो उधर से मै अपनी आँखें फेर लेती थी. 'हे भगवान !मुझे रास्ता दिखाइये कि मै लिख और पढ़ सकूँ जिससे धार्मिक पुस्तकें पढ़  पाऊँ. " उस मे लिखा भी है कि वह् पढ़ते हुएपकड़े जाने के भय से हमेशा घबराई हुई रह्ती थी ; आज की शिक्षित स्त्रियों के इस बात को पढ़ रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि उस सदी की स्त्री को तो शिक्षा भी मुश्किल से नसीब होती थी. ये पिंजरे में बंद मैना की कहनी थी. 

रमाबाई रानाडे का विवाह 11बरस की उम्र में 32 वर्षीय नि;संतान विधुर जस्टिस रानाडे से हुआ था. इनकी आत्मकथा मूलरूप से मराठी में 'आमच्या आयुश्तील काही आथवनी "सन् 1885 में प्रकाशीय हुई थी, जिसका कुसुमावती देशपांडे द्वारा किया अनुवाद ' 'रानाडे ;हिज़ वाइफ 'ज रिमिनिशेंसेज़ " सन् 1885 में प्रकाशित हुआ. अनुवाद में लेखिका के व्यक्तितव के साथ साथ एक अशिक्षित बालिका वधू के आंतरिक विकास, उसके शिक्षित समाज सुधारक बनाने तथा एक हिंदू आदर्श पत्‍‌नी के जीवन का विवरण है. विचारणीय प्रश्न ये है कि उस समयकाल में कितने पुरुष थे जो अपनी पत्नियों को पढ़ाते थे, नहीं तो कुछ और जीवनियां उपलब्ध होती. शिक्षा पाने के लिए इन्हे अपने घर की वरिष्ठ स्त्रियों द्वारा कितना अपमान झेलना पदा था. इनका स्त्री मुक्ति का एक प्रयास बहुत रोचक है

सन् 1921 से सन् 1996 से लगभग 29 स्त्री आत्मकथाये अंग्रे़जी में प्रकाशित हो चुकी थी. एक का तो क्षेत्रीय भाषा में अनुवाद हो चुका था. यदि एक पुस्तक को और शामिल किया जाये जो कि दलित महिलाओं के शोषण की आपबीती सुनकर लिखी गई थी तो हम इनकी संख्या चालीस मान सकते हैं. इनामें अधिकतर 1947 से पहले अर्थात स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले जन्मी लेखिकाओ की कहानी थी इसलिए इसमे अंग्रेजों के कारनामे, राष्ट्रीय उथल पुथल, गाँधीजी का प्रभाव व स्वतंत्रता प्राप्ति के उत्सव की बातें एक जैसी थीं. 

स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रथम दशक में यानि सन् 1947 से1957 तक छ ;आत्म कथाये प्रकाशित हुई -1947 में ईश्वनी सैयद -सन् 1950में सावित्री नन्दा, सन् 1950 में लक्ष्मीबाई तिलक, सन् 1953 में बृन्दा, कपूरथला की महारानी, 1954 नयनतारा सहगल और 1956 में शोलाबाला दास. ये सब महिलाये नितांत जनाना संस्कृति में जकड़ी हुई थी जिसमें इनके अन्दर की चेतनशील महिला का दम घुटता है. जैसे ही उन्हें शिक्षित होने का मौका मिला उन्होने हाथ की सुई छोड़कर कलम रूपी तलवार उठा ली व पुरुषों की तरह शिक्षा, समाज सेवा, और लेखन करने लगी. 

इश्वनी सैयद की नानी एक डॉक्टर की, [अभिजात्य वर्ग ] पत्‍‌नी थी. उनके बंबई के मालाबार हिल पर बने बंगले के ग्राउंड फ्रलोर पर इश्वनी का परिवार रहता था. इनको नानी इन्हे कड़ाई व सिलाई यानि कि 'सुई 'के शिकंजे में देखना चाहती थी. वह् खोजा जाति की परंपरा के अनुसार चाहती थी कि वह् नास्तिक की तरह नहीं बल्कि एक रूमाल में काली मिर्च रक्खर उसे सूँघते हुए धर्म की बातें सुने. लेकिन इश्वनी ने अपने ऑक्सफ़ोर्ड में पड़े पितृसत्ता को मानने वाले पति रशीद जो कि चाहते थी कि वह् एक अच्छी मुस्लिम पत्‍‌नी बन कर व्यवहार किया करे, से तलाक लिया व उन्होंने सुई छोड़कर कलम पकड़कर अपनी खोज, अपने जीवन के उद्देश्य को पाने की यात्रा जारी रक्खी. 'गर्ल इन बॉम्बे "अपनी आत्म कथा लिखी. 

'द सिटी ऑफ़ टू गेटवेज़ "की लेखिका सावित्री देवी जिन्होंने एक पारंपरिक परिवार में जन्म लिया लेकिन विदेश जाकर मेडिकल की प ढ़ाई की. उन्होंने अपने एक सपने की बारे में लिखा है जो कि. उन्हें अकसर आता था कि य हाँ से वहाँ तक फैले रेगिस्तान में एक मंदिर में एक सफ़ेद दाढ़ी वाले संत बैठे है दूर दूर् तक वहाँ कोई नही है. वे उसे बाहे फैलकर बुला रहे है. इस सपने को देखकर उन्हें लगता था कि उन्हें ज्ञान व बुद्धि अपने पास बुला रही है. रस सुन्दरी देवी भी अपने को शिक्षित करने का सपना देखा करती थी. 

बृन्दा जो कि एक राजपूत थी, अपने पति कपूरथला राज्य के राजा को लड़का पैदा करके नहीं दे पाई थी इसलिए उन्होंने वहा तिरस्कृत रहने के स्थान पर अपना पर्दा हटाया और समाज सेवा आरंभ कर दी थी बाद में जब वे पेरिस चली गई तो उन्होंने पहले जैसा ही जीवन अपना लिया या कहा जा सकता है किसी पुरुष की प्रताड़ना से एक चिड़िया मुक्त होकर खुले आसमान को अपने पंखों से नापने लगी बृन्दा ने अपनी आत्मकथा का अंत अपनी सबसे छोटी बेटी को ये नसीहत हुए किया है जो कि शादी करने के स्थान पर अपना कैरियर बनाना चाहती थी, "मेरी बच्ची !तुम अपने भाग्य का निर्माण ख़ुद करो. तुम अपनी महत्वाकांक्षा व बुद्धि से युद्ध करके उन्हें समाप्त मत करो. तुम्हे प्रचलित रास्ते स्वीकार नहीं हैं तो अपनी तरह से विद्रोह का बिगुल बजाओ लेकिन ये प्रश्न मत करना कि सारी चिड़िया एक ऊँचाई पर क्यों नही उड़ पाती ?. "

इस दशक की आत्मकथा लिखने वाली नयनतारा सहगल व लक्ष्मीबाई तिलक तो सही अर्थो में कलमकार थी क्योंकि वे लेखिकायें थीं. उन्होंने कलम को आय या कैरियर या शिक्षा या सत्ता पाने का ज़रिया नही बनाया था. ये पुस्तकें सही अर्थों में स्त्री विमर्श के जन्म लेने की यात्रा है. उन्होंने इस बात को स्थापित कर दिया था कि स्त्री के लिए सुई से अधिक कलम जरूरी है. 

अगले दशको में नौ बहुत सशक्त आत्मकथायें आयी जिनमें से राजनीतिक रुप से सशक्त महिलाओं मुथु लक्ष्मी रेडी [1964], जयपुर की महारानी गायत्री देवी [1976] व धन्वंती रमा राव [1977]की थीं. हां, ये ज़रुर है कि उनके बाद की उन दिनों की दो मशहूर लेखिका -ओं की कमला दास [1976 ]व अमृता प्रीतम [ 1977]की आत्मकथाओं ने तहलका मचा दिया था. इनमें थी दोनों स्त्रियों के प्रेम व सम्बन्धों की खुली दास्तान थी. 

ये सही मायनों में सुई को हटाकर कलम की सत्ता की स्थापना थी. ये बहिनाबाई की बिचारगी से लेकर नारी के पुरुष वर्चस्व वाली सत्ता के केन्द्र में आने की बात थीं जिसमें स्त्रियां अपने' नारीत्व 'को बचाते हुए मर्दवादी सोच पर वैचारिक, राजनीतिक व सामाजिक प्रभाव आरोपित कर रही थी या कह सकते हैं कि एक पुरुष की तरह ही उन्होंने अपने व्यक्तित्व की सत्ता को बीच समाज में स्थापित किया था. ये स्त्रियां बहुत सजग थी कि कहीं उनका व्यक्तितव पुरुष सत्ता द्वारा कुचल ना दिया जाए. ये तो शत प्रतिशत तय है कि ये कोशिश की भी गई होगी क्योंकि आज के आधुनिक युग में भी सही रास्तों से प्रगति करती स्त्री सबकी आँखों में खटकती रह्ती है. अमृता प्रीतम के शब्द है, 

"मेरे संपूर्ण लेखकीय व्यक्तितव में स्त्री की तरह अपना रोल करना दूसरे दर्ज़े पर आता है. जोकि मेरे लेखकीय व्यक्तितव के आड़े नही आता है. मै अपनी अन्दर की स्त्री के लिए बहुत सजग रह्ती हूँ. अपनी लेखनी द्वारा भी रचनात्मक रुप से मै इसे तलाशती भी रह्ती हूँ. आश्चर्य ये है कि मेरे अन्दर की स्त्री ने अपने इस दोयम दर्ज़े के रोल को स्वीकार भी कर लिया है. "

कमला दास की कहानी कुछ अलग है. उन्हें पितृसत्ता के सामने घुटने टेक देने पड़े थे क्योंकि उनके पति 'गे 'थे. उन्होंने ये सच जानते ही घर छोड़ दिया किन्तु चलती हुई ट्रेन में उन्होंने सोचा कि ना तो वे अधिक पढ़ी लिखी हैं और ना ही सुंदर जो वेश्यावृत्ति कर सके. इस कारण वे ट्रेन से उतरकर एक हारी हुई स्त्री की तरह वापिस पति के घर चली आयीं. ये तो बाद के बात है कि उनके लेखन से उन्हें रुपया, समाज में स्थान व पहचान मिली और उन्होंने दूसरा विवाह भी किया. 

इन दोनों आत्मकथाओं का सार ये है कि इन दोनों महिलाओं के लिये कलम दुनिया की सबसे प्यारी व विश्वसनीय चीज़ थी. एक लेखक के लिये कलम को इससे बड़ा समर्पण क्या हो सकता है ?अमृता प्रीतम ने तो अपनी अन्तिम इच्छा पहले ही लिख दी थी कि उनका अन्तिम संस्कार उनकी कलम के साथ ही किया जाए. 

बाद के दशकों में लिखी हुई आत्मकथाओं में सुई को अपने जीवन से बिलकुल निष्कासित करने के संकेत मिलते हैं. जिसका बहुत बड़ा कारण है कि महिलायों का पुरुष शासित समाज में आर्थिक व सामाजिक स्तर बहुत उत्तम हो गया था. अब वे अपने विकास के साथ दूसरी स्त्रियो के उत्थान के लिये काम करने लगी थी. इन्हे कलम की ताकत पर अटूट विश्वास हो चुका था कि ये इसी के माध्यम से समाज में पद, पैसा व सम्मान प्राप्त कर सकती हैं. ये बात इनकी आत्मकथाओं विजय राजे सिंधिया[1985], कमला देवी चत्तोपाध्याय [1986]. एदिला गतोंदे[1987], तारा अली बेग[1988]. प्रेमा नायडू [1990 ]., इन्दिरा गोस्वामी [1990], शरनजीतशान [1991], सावित्री बजाज [1991], राज थापर [1991], मीना अलेंग्ज़ेंदर [1992], और विमला पाटिल [1996] को पढ़ जाना जा सकता है. इन महिलाओं की आत्मकथाओं में स्त्री अनुभव के महत्वपूर्ण क्षेत्र अर्थात शरीर के अपने अनुभव के बारे में खामोशी गौर तलब है. वे अपने विवरणों में अपने शारीरिक अनुभवों से बचती हैं. सन् 1960 के बाद की सिर्फ़ उपलब्ध दो आत्मकथाओं में स्त्री शरीर के अनुभवों को बहुत दिलेरी से प्रदर्शित किया गया है. ये आत्मकथायें है अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट 'व इन्दिरा गोस्वामी की 'एक अधूरी आत्मकथा ". ये ऐसी स्त्रियों की आत्मकथायें है जो अपने व्यक्तितव के कारण ये आत्मविश्वास से भरी, सुस्पष्ट, तीखे पद चिन्हों वाली हैं व ये पद चिन्ह पुरुषों से पूरी तरह भिन्न हैं. 

मेक्सिम क्यूमिन ने लिखा है कि, "जब सोया हुआ सौंदर्य जागता है तो वह् पचास वर्ष का हो चुका होता है. डॉ रंजना हरीश की पुस्तक " द फीमेल फुटप्रिंट्स 'में सम्मिलित छ; आत्मकथाओं के सन्दर्भ में ये बात बिलकुल सच है क्योंकि इसमे शामिल छ; लेखिकाओ ने पचास वर्ष की आयु के आस पास ही ये पुस्तकें लिखी हैं. पार्वतीबाईं, रामाबाई, लक्ष्मीबाई और इन्दिरा गोस्वामी ने इन्हे लिखा था, तब तक वे अपने पतियों को खो चुकी थी. इन अत्मकथाओं में जो बार बार उल्लेख आया है वे ये है -वैधव्य का भय, विधवाओं के प्रति भेदभाव, पुरुषों का वर्चस्व, स्त्री का किसी के आधीन रहने की अनिवार्य शर्त व सामाजिक व सांस्कृतिक कड़े नियमों को मानने की मजबूरी. इसी पुस्तक से पता लगता है कि भोपाल की सुल्तान जहाँ बेगम व अमृता प्रीतम के माँ बाप ने बेटी के जन्म को एक उत्सव की तरह मनाया था जबकि उन दिनो बेटी के जन्म से परिवाय में विषाद छा जाता था, 

रमाबाई रानाडे [1862-1924]की आत्मकथा बताती है कि एक ग्यारह साल की बच्ची का विवाह उससे 21 वर्ष बड़े पुरुष से हो सकता था. तब स्त्री शिक्षा का प्रचलन नहीं था लेकिन रमाबाई के जस्टिस पति ने उन्हें अपने परिवार की स्त्रियों की इच्छा के विरुद्ध पढ़ाया था. उनके लिए एक अंग्रेज़ शिक्षिका का इंतजाम किया था. सन् 1886 में जस्टिस रानाडे की नियुक्ति शिमला की इंडियन फ़ाइनेंस कमेटी में हुई तो रामाबाई को घर से बाहर जाने का मौका मिला.. तो उन्होंने विभिन्न संस्थाओं के कार्यों से ख़ुद को जोड़ा. हम कह सकते हैं कि वे उस समय के भारत की उन मुठ्ठी भर भाग्यशाली स्त्रियों में से एक थी जो कि पति की प्रगतिशीलता के कारण पढ़ पाती थी. इसी कारण वे आर्य समाज से जुड़ी व संस्कृत विद्वान पंडिता रमाबाई से परिचय हुआ था. उन्होंने ग्रहस्थ जीवन के 27 वर्ष बहुत सुख से भोगे थे. 

भोपाल शासिका -[1858-1901] नवाब सुल्तान जहाँ बेगम की आत्मकथा 'एन अकाउंट ऑफ़ माई लाइफ़ ' आत्मकथा ना होकर एक एतहासिक दस्तावेज बनकर रह गई है. जिसमे उनकी माँ की दूसरी शादी के बाद के सौतेले बाप के षणयंत्रों के विवरण से ये भरी हुई है. जब सुल्तान जहाँ बेगम की तीसरी औलाद एक पुत्र के रुप में हुई जो कि एक इतिहास था क्योकि भोपाल शासन को सत्तावन वर्ष बाद एक पुत्र मिला था, उन्हें लगा था कि अब उनके खुशी के दिन आ गए है लेकिन वे तेतीस वर्ष के शासनकाल के अन्तिम दौर में बहुत दुखी हो गई थीं क्योकि उनके सौतेले बाप ने उन्हें अपनी माँ से दूर कर दिया था. इनकी पुस्तक की एक रोचक बात है कि अपने राज्य में परंपरागत रुप से पर्दा करने वाली ये शासिका अंग्रेजों के साथ मीटिंग्स में पर्दा नहीं करती थीं व पुरुषों की तरह उनसे हाथ मिलाती थीं. इस पुस्तक में उनके भोपाल की शासिका के बतौर उनके अनुभव होने चाहिये थे, बस वही नदारद हैं. 

दक्षिण कोंकड़ के देवरुख गान्व में सन् 1870 में जन्म लेने वाली पार्वती बाईं 20 वर्ष की आयु में विधवा हो गई थी.. जब वे 25 वर्ष की हुई तो उनकी विधवा बहिन बाया का मह्ऋषि कर्वे के साथ विवाह हुआ. पर्वती के माँ बाप का सारे गांव ने बहिष्कार कर दिया. उन्हें जाति में जब लिया गया जब उन्होंने 100 रुपये तीन मंदिरों की मरम्मत के लिये दिए व गांव के मुखिया के पाँव छुये. उन दोनों को ये भी डर लगता था कि यदि पार्वती ने भी विधवा विवाह कर लिया तो फिर से इन्हे दंड भरना पड़ेगा. कर्वे जी ने पूना के उपनगर हिंगाने में एक विधवा आश्रम स्थापित किया था. इन्हे वहा पदाने केलिए आमंत्रित किया. बाद में वे किस तरह से उस काल में अमेरिका पहुँची व घरेलू काम करके भी पैसा कमाकर इस आश्रम की मदद करती रही ---ये सब इस आत्म कथा की उपलब्धि है. उनकी आत्मकथा को रेव. जस्टिन ने अनुवाद किया "माई स्टोरी ;द ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ एन इन्डियन विडो "

पर्वतीबाई में शिक्षा के कारण व गुरु मह्ऋषि कर्वे के सामाजिक सुधार संबंधी विचारों के कारण उनमें जागरण आया था. बीसवीं सदी के आरंभ में पार्वतीबाईं ने अपने पति की म्रत्य के बाद अपने उत्पीड़न कि विधवा को बाल काटने ही होंगे का निदान खोजा था कि वे बाल नही कटवायेंगी, उनकी आत्मकथा के अनुसार सारे गांव ने उनकी इस 'शर्मनाक 'हरकत की भर्त्सना की लेकिन वहाँ के हज्जामो ने अपनी ट्रेड यूनियन बनाकर संकल्प किया कि वे अब विधवाओं के बाल नही काटेंगे. इस तरह इस क्रूर परंपरा का अंत हुआ. कहने का तात्पर्य ये है कि कुछ मुठ्ठी भर नारियाँ ही शोषण के विरोध में आवाज़ उठा पाती हैं, उनका प्रयास सफ़ल होता है जब कुछ जागरूक पुरुष उनका साथ देते हैं. काश ! बंगाल में भी कोई जबरदस्त समाज सुधारक पैदा हुआ होता तो वहा की विधवाओं को ऎसे बाल काटकर घर से निष्कासित करके व्रंदाबन में रहने के लिए अभिशप्त तो न होना होता. 

लक्ष्मीबाई तिलक [1868-1936]की अपनी अनोखी दास्तान है. ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी इनकी जिससे शादी हुई वे नारायण वामन तिलक नासिक के एक प्रसिद्ध वक्ता व कवि के रुप में उभर रहे थे व ईसाई धर्म को मानने वाले थे. उनके पिता बेहद खराब स्वभाव के इंसान थे. इनके पति दो बार घर से भाग गए थे. इसलिए कैसे इन्होंने अपने श्वसुर के साथ निर्वाह किया होगा ये वही जानती थीं. जब इनके पति घर लौटे तो इन्होंने उनके पैर पकड़ लिए कि वे इन्हे साथ रक्खे. इसके बाद इन्होंने देखा कि ईसाई धर्म में भी कुछ आदर्श हैं तो लक्ष्मी बाई ने अपना बपतिस्मा करवा लिया. उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर हैज़ा व इंफ्ल्युएंज़ा के मरीजों की देखभाल की. अनाथ बच्चों को सहारा दिया. जब इन्हे लगा कि वे नर्सिंग कोर्स करके अच्छी तरह सेवा कर सकती हैं तो वह् भी किया. इनका जीवन स्वयम द्वारा पद चिन्हों की खोज नहीं था बल्कि पति प्रदत्त चिन्ह की ये अनुगामिनी रही. बात वही है कि वह् ऎसा कल था कि वे पति के कारण इतना सामाजिक कार्य कर सकीं, ये बहुत बड़ी बात थी. इनकी ऑटोबायोग्राफ़ी का ई. जेसोफ़ीन इंक्स्टर द्वारा किया अनुवाद "आई फ़ॉलो आफ़्टर ;एन ऑटोबायोग्राफ़ी "को ऑक्सफ़ोर्ड प्रेस ने सन् 1950 में प्रकाशित किया था. 

लोगो को ये आश्चर्य होता था कि अम्रता प्रीतम की कहानियों में उनके जीवन का सत्य आ ही चुका था फिर उन्होंने क्यों अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट 'लिखी थी. उनका उत्तर भी बहुत शाय्रराना था, "मेरे मन में आया कि मै कुछ और पंक्तियाँ लिखकर अपने जीवन का खाता पूरा कर दूं और अंत में उस पर रसीदी टिकट लगाकर वह् जैसी भी थी उसे बंद कर दूं. "आश्चर्य ये है बचपन में धार्मिक बाप के डर से अपनी हर कविता नष्ट करने वाली उस अमृता ने भरपूर प्यारमय, रोमांसमय जीवन जीया ही नही उसके बारे में खुलकर लिखा भी. 

उनकी आत्म कथा में पारिवारिक मामलों के प्रति उनका स्त्री सुलभ दुराग्रह देखने को नहीं मिलता है जो कमलादेवी चट्टोपाध्याय [1986]और शैलबाला दास [1956]की आत्म कथाओं की याद दिलाता है. 'रसीदी टिकट 'की खूबी ये है कि उसमें काम वासना की चर्चा देखने में नहीं आती. उनके शरीर के अनुभवों को बड़े नज़ाकत से, सांकेतिक एवं काव्यात्मक ढंग से और कभी कभी स्वप्नों के माध्य्म से कुछ ऎसे बयान करके मोहक बना देती हैं. आज इमरोज़ को उनके दीवाने प्रेमी के रुप में सब पहचानते हैं. अमृता जी के जीवन में प्रेम व लेखन सर्वोपर रहा. वे भाग्यशाली भी रही कि जीवन के अन्तिम दिनों में जब वे बिस्तर से लग गई थी, उनके प्रेमी ने अन्तिम समय तक उनकी देखभाल करके एक इतिहास बना दिया. [ ये मेरा अपना मत है कि जिनके मन में अधूरापन या संतुष्टि नही होती या कोई अपराध बोध होता है वे किसी लत का सहारा लेते हैं और अमृता जी भी चेन स्मोकर थीं व कभी कभी शराब के दो चार घूंट भी भर लेती थीं. ]

विद्वानो का मत है अपने जीवन की असहनीय पीड़ादायी घटनाओं के परिणाम स्वरूप हुए रूपांतरण के कारण आत्मकथा का जन्म होता है. असम की लेखिका इन्दिरा गोस्वामी की पुस्तक "एक अधूरी आत्मकथा'के सन्दर्भ में ये बात बिलकुल सच है. इनकी आत्मकथा में कम से कम सात बार उनके आत्महत्या के प्रयास का ज़िक्र पाठकों को चौंका देता है. वे लिखती हैं, "शिलौंग के दिनों की निराशा और आत्मह्त्या की प्रवृत्ति ने मेरे दिल में मज़बूत जड़ें जमा ली थी. "इस पुस्तक में उनके अपने पिता के लिये प्रेम भी इस पुस्तक को विशिष्ट बना देता है. अच्छे किस्म के हाथियों के विशाल झुंड के मालिक होने के लिये प्रख्यात एक समृद्ध परिवार में उन्होंने जन्म लिया था. जिन्हें प्यार से 'मिमोनी 'कहते थे, अपना बचपन बहुत सुख से बिताया था. पिता राज्य के शिक्षा निदेशक थे. उन्होंने बहुत जल्दी अपने पिता खो दिया. 

अपने प्रेमी माधवन आयंगर से उनकी शादी हुई जिनके साथ वे कच्छ चली आयी. पहली बार इस साथ ने उन्हें सुरक्षा दे लेकिन पति भी कश्मीर में एक सड़क दुर्घटना में मारे गए. इन्दिरा जी ने गोल्पारा में एक सैनिक स्कूल में पढ़ना आरम्भ कर दिया. उन्होंने खुलकर वासना के भूखे लोगो के कड़वे अनुभव लिखे है लेकिन सभी पुरुषों से उनकी मुलाकातें अप्रिय नहीं थीं. 

इंदिराजी को अचानक अपने पूर्व अध्यापक और असमिया साहित्य के प्रख्यात विद्वान प्रो. लेखारू का पत्र प्राप्त हुआ कि वे व्रंदाबन पी. एच. डी. करने चली आये. इस तरह से उन्होंने शोध करके दिल्ली यूनिवर्सिटी में असमिया भाषा की प्राध्यापिका बनी. जिन्होंने इन्दिरा गोस्वामी जी के ग्लैमरस सौंदर्य को भारी मेकअप किए फ़ोटो में देखा है, उनके लिए कल्पना करना बहुत मुश्किल है कि ये इस गुलाब में कितने तीखे काँटे बिंधे हुए हैं. 

बीसवीं सदी की एक विवादास्पद आत्मकथा "आई फूलनदेवी "[प्रकाशन सन् 1996 ]और है जिसमें स्त्री की सुई से लेकर कलम तक की यात्रा नहीं है बल्कि हम कह सकते है कि सुई से लेकर तलवार या बंदूक तक की यात्रा का सफर है. फूलन देवी एक विवादास्पद व्यक्तित्व रही है क्योंकि उनके बाल विवाह की पीड़ा, गैंग रेप की पीड़ा. इस दुःख को मिटा देने के लिये उनका बंदूक उठाकर डाकू जीवन, उसके बाद सरकार के सामने समर्पण. और तो और बाद में उनका संसद सद्स्य बन जाना. ---जैसे कोई फ़िल्मी पट कथा लिखी जा रही हो. विद्वान पशोपेश में रहते हैं कि इसको आत्मकथाओं की मुख्य धारा के साथ रक्खा जाए या नहीं. ये उनका सिर दर्द है. कहते हैं कलम तलवार से अधिक ताकतवर होती है लेकिन दलित फूलन देवी ने तलवार की धार से या बंदूक की नोंक से वो पाया जो वो चाहती थी चाहे वो दुश्मन ठाकुरों की लाशॉ की कतारें ही क्यों ना हों. 

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई -मेल ----kneeli@rediffmail. com

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