जगत बा Neelam Kulshreshtha द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जगत बा

जगत बा

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

कुछ बरस पहले मैंने अपने सरकारी घर के पीछे के कम्पाउंड में खुलने वाला दरवाज़ा खोला था, देखा वे हैं -बा, दो कपडों के लम्बे थैलों में वे अपनी कपड़े ठूंसे खड़ी हैं। झुर्रियों भरा चेहरा, पतली दुबली, छोटे कद की देह, नीले पतले बॉर्डर वाली हलके रंग की साड़ी में अपने छोटे काले सफ़ेद बालों को पीछे जुड़े में बांधे हुए, एक आम गंवई गुजरातिन।

"बा तारा बेन नथी, पानी जुईये [तारा बेन घर पर नहीं हैं, पानी चाहिए ]?"

"पिड़वा दो [ पिला दो ]."कहते हुए वह हमारे घर के आऊट हाउस के दरवाज़े के कुंडी खोलकर थैले रख आईं । बा, यानि हमारे आऊट हाउस में रहने वाली बाई तारा बेन की सास। दो गिलास फ्रिज का ठंडा पानी पीकर वह तृप्त हो गई। ऐसी गर्मी में गाँव से बस के सफ़र में वह पसीने पसीने हो रही थी।

मैंने दिल से आग्रह किया, "ठंडा शरबत बनाऊं ?"

"अत्यारे नथी मने जमवाणुं छे [अभी नहीं, मुझे खाना खाना है।]"

"सारू। "मैं कमरे में अंदर आ गई तो छोटा बेटा बोला, "बा की काफ़ी खातिरदारी हो रही थी। "

"बिचारी बूढ़ी है, धूप में सफ़र करके आ रही है। "

"बट शी इज़ अ मेड। तारा बेन के घड़े में से भी पानी पी सकती थी। "उसने अपनी छोटी अक्ल लगाते हुए कहा।

"आफ़्टर ऑल शी इज़ एन ओल्ड ह्यूमेन बिइंग `."कहते हुए मैंने अपने को दस सीढ़ी ऊपर चढ़ा लिया कि देखो मैं नौकरानी की सास की भी परवाह करतीं हूँ.

इन सात वर्षों से जब जब वे गाँव से आतीं हैं तो तारा बेन निश्चित हो जाती है। वे कभी, उसकी बेटियों कामी व झीनी के साथ मेरे घर के बर्तनों को साफ़ कर रही होतीं हैं या बाहर पत्थर पर अपने सारे घर के कपड़े धो रही होतीं हैं। बीच में जब समय मिलता है तो चबूतरे पर चावल या गेंहूं बीनने बैठ जातीं हैं या पुराने कपडों की कथरी [दरी ] पर टाँके लगाने बैठ जातीं हैं। बीच बीच में उनका पोता मेहुल उन्हें पानी पिलाता रहता है।

मैं उनकी इस मेहनत पर तारीफ़ करती जातीं हूँ तो बहुत समझदारी से मुझे देखते हुए `हाँ `में सिर हिलाती जातीं हैं। जैसे ही मेरा बोलना बंद होता है वे तारा बेन से पूछतीं हैं, "ए सु कहे छे ?[ये क्या कह रहीं हैं ]? "

तारा बेन हँसते हँसते लोट पोट हो जाती है, "बा ने हिंदी नई आवड़ती एटले [ बा को हिंदी नहीं आती ] . "

कभी ऊंचा नहीं बोलने वाली ऐसी दुर्लभ सास पर मैं मुग्ध होती रहतीं हूँ। तो हाँ, मैं उस दिन की बात बता रही थी जब मैंने अपने आपको दस सीढ़ी ऊपर चढ़ा दिया था। स्त्री अधिकारों के लिए लड़ने वाली व समाज सेवा सम्बन्धी अपने लेख लिखने के लिए अपने आपको कितने सीढ़ी चढ़ाये रखतीं हूँ , बताऊँ ?ख़ैर ---- जाने दीजिये। एक आज का दिन है। मैं अपने ऊपर शर्मसार हूँ। पाताल क्या उसके भी नीचे कोई जगह हो तो मैं उसमें जा धंसूं .जिसे दो गिलास पानी पिलाकर मैं गौरान्वित हो रही थी। उस अनपढ़ बा ने एक गाँव में प्राण फूंक दिए थे, सारे गाँव को ट्यूब वैल से निहला दिया था. कहते हैं प्रसव काल का समय निश्चित होता है तो क्या कहानी के जन्म का समय भी निश्चित होता है ?एक क्रांतिकारी कहानी हमारे ही घर की आऊट हाउस में रहने वाली तारा बेन के दिल में कुछ वर्ष से बंद थी और मुझे पता ही नहीं था। हुआ कुछ यूं कि मैं उस उस सुबह कम्पाउंड की धूप में अख़बार लेकर बैठे अफ़सोस ज़ाहिर कर रही थी, "देखो कैसे आंधी आई है। बी जे पी को उड़ा ले गई। सोनिया गांधी को प्रधान मंत्री बनाये दे रही है। "

तारा कत्थई धोती में, बालों में तेल लगाकर चोटी बनाकर टी वी पर समाचार सुनकर काम पर जाने को तैयार थी। मेरी बात सुनकर बोल उठी, "आंटी! तुम देख लेना सोनिया गांधी एक औरत है देश को अच्छी तरह संभालेगी। "

मुझे हंसी आ गई , "देश को सम्भालना कोई घर सँभालने जैसा खेल नहीं है। "

"केम नथी ?औरत के दिल में दर्द होता है इसलिए वह दूसरों का दर्द कम करना जानती है। हमारे गामड़ा में कितने सरपंच हुए हैं। किसी ने सरकारी पैसे से गाँव का भला नहीं किया। जब बा सरपंच बनी तो देखो हमारा भानपुरा गामड़ा को गोकुलनगर [आदर्श गाँव ] का इनाम मिला। "

"कौन सी बा ?"मेरी निगाहें अभी भी अख़बारों की सुर्ख़ियों पर फिसल रहीं थीं।

"और कौन सी बा ?म्हारी सविता बा, बसंतभाई नी माँ ."

"क्या ?"मेरे हाथ से अखबार छूटते छूटते बचा। मैं कुर्सी पर चिहुंक कर सीधी बैठ गई। ये तो नहीं कह पाई कि ये दुबली पतली, अगूँठा छाप सविता बेन कैसे सरपंच हो सकती है ?फिर भी बोली, "तू ने इतने बड़ी बात मुझे पहले क्यों नहीं बताई ?"

"आंटी !आपको मैंने आपको दो वर्ष पहले बताया था कि बा का सरपंच का टैम ख़त्म हो रहा है। वो राज़ीनामा [इस्तीफ़ा ] दे रही है। "

"हाय ---मुझे बिलकुल याद नहीं है। तू कहना भूल गई होगी। "

"ना रे, मैंने आपको बताया था। "

हे भगवान ! लेखक `एब्सेंट मांइडेड `होते हैं, तो मैं ऐसी ही अवस्था में रही हूँगी। तारा की बात मेरे दिमाग़ के ऊपर से निकल गई होगी।

अब मैं आप लोगों के बीच से अपने आपको व गुजराती भाषा को अंतर्ध्यान कर रहीं हूँ। भानपुरा की सरपंच सविता बा की कहानी ला रही हूँ। ये गरीब घर की थीं इसलिए घरवालों ने पंद्रह वर्ष बड़े दुहाजु से इनका ब्याह कर दिया था।वे पति छगनभाई, मगनभाई वाणंद के घर के भरे आज भण्डार, अपना कुँआ, उनका गाँव में रौब देखकर चकित थी। एक महीने में ये रईसी का नशा उस पर से उतर गया। पति हर रात उन्हें ऐसे खोलता, बंद करता जैसे कोई घास का गठ्ठर बेमुरव्वती से खोलता बंद करता हो। छगनभाई खेती बाड़ी करके, आस पास के गाँवों में नाई का काम करके अपनी प्रथम पत्नी, जिन्हें वे बेहद प्यार करते थे, को दिए हुए वचन को निबाह रहे थे। वचन ये था कि वे चारों सालों को पढ़ाएंगे। जिनके सिर पर पिता का साया न था। वह समझ गईं थी कि वह कितना भी साज सिंगार करें पति की आँखों में उनके लिए कोई हिलोर नहीं उठेगी।

वह अपने बूढ़े सास ससुर, पहली की उदण्ड छोकरी को सँभालने में समय बिताने लगीं थीं। दो लड़कियां जनने के कारण सास ससुर भी ख़फ़ा रहते थे। जब बसंत भाई का जन्म हुआ तब उनके तेवर ढीले पड़े। धीरे धीरे छगनभाई व उनके झगड़े बढ़ने लगे, "तुम अब तीन बच्चों के बाप हो और कब तक अपने सालों को ख़र्चा भेजोगे ?"

"तुझे जो खाना है, पहनना है बोल, उनकी बात मत कर। "

"उन्हें रूपये भेजकर तुम्हारे पास बचता ही क्या है ?"

"तेरा आदमी इस गाँव का राजा है, मांगकर तो देख ?"

"जो आदमी अपनी औरत को प्रेम नहीं दे सकता। उस औरत के लिए वह सबसे बड़ा कंगाल है। "

चट --उनका हाथ उठ जाता, "पूरी गाँव में तू अकेली है औरत है जो खेतों में काम नहीं करती। "

ये झगडे, ये कुढ़न बंद नहीं हुई अलबत्ता सविता बेन की गोद में एक बेटा और आ गया और साथ ले लाया अकाल।ज़मीन का हलक सूख गया, उनके चौबारे का कुंआ सूख गया। आस पास के गाँवों में खेती नहीं थी, तो बाल कौन कटाता ?हल और उस्तरा छिन जाने से छगनभाई और बुढ़ा गए थे। अब तक उन चारों सालों की नौकरी लग गई थी। आश्चर्य ये था कि दूसरे नंबर का साला राजकोट में कलेक्टर हो गया था। उसने अपनी बहिन व सविता बेन की बेटियों की शादी ओ एन जी सी[ ऑइल एन्ड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन ]में काम करने वाले लड़कों से करवा दी व दूसरे दोनों साले इन्हें हर महीने ख़र्च भेजने लगे।

छगनभाई उनका भेजा आधा रुपया घर में देते सुबह सुबह ही नीम की दातुन मुंह में दबा चबाते हुए गाँव की सरसराती हवाओं के बीच चलते हुए मिल्क बूथ तक पहुँच जाते। आधा लीटर की दूध की थैली को दांत से फाड़कर, वहीं दूध पीकर डकारते घर लौटते।

सविता बेन कुढ़ती रहती, "कभी इन बच्चों के लिए भी तो दूध ले आया करो। "

"तू जाने तेरी फौज जाने। चल नाश्ता बना। "वो रोज़ मेथी के थेपले घर के मक्खन या मीठे गुड़ के अचार के साथ नाश्ते में खाते थे। उसके बाद लम्बी तानकर सो जाते, जब तक उन्हें दोपहर के खाने के लिए नहीं जगाया जाता। मजबूरन सविता बेन अपने बेटों के साथ खेतों पर काम करने निकल पड़तीं। कभी कभी दूर से आती किसी किशोरी की चीख पर कोई मज़बूत हाथ रख देता।इसलिए वे अपनी बेटियों को घर से बाहर नहीं निकलने देतीं थीं। दोपहर की ख़ाने की पोटाली लेने बसंत भाई घर जाते।

शहर से कभी कभी पानी का टेंक आता तो वे औरतों की लाइन में लगी हतप्रभ रह जातीं कि वे अकेली दुखी नहीं हैं। सबके ही अपने दुःख हैं। उस दिन रेवा बेन ने अपने सिर पानी का माटला [घड़ा ] रक्खा व जैसे ही बाल्टी उठाई थी कि उसकी बेटी का देवर साइकल पर आता दिखाई दे गया, "कमली भाभी को दर्द उठा उसे बैलगाड़ी में जचगी के लिए सहर ले जा रहे थे कि रास्ते में ----."वह सच ही रो पड़ा था .

रेवा बेन वहीं मटकी बाल्टी पटक, वहीं ज़मीन पर रोती बैठ गईं थी, " जाओ -कमली के पप्पा को खेतों पर ख़बर कर दो। "

सविता बेन की आँखों में से भी आंसू बहने लगे। अब रेवा बेन अपने आदमी के साथ पांच कोस चलकर मुख्य सड़क पर जायेगी और बस का इंतज़ार करेगी। बिचारी कमली का गाँव भी उनके जैसा होगा बिना सड़क वाला। अगर वहां सड़क होती तो उसे मोटर से अस्पताल ले जाते और उसकी जान बच जाती। इतनी कड़ी मेहनत के बीच भी सविता बेन गाँव की औरतों के सुख दुःख सुना करती उन्हें सलाह देती थीं । तभी गुजरात के गाँवों स्त्री की समस्यायों के लिए में सरकारी `महिला सामाख्या `ने काम करना आरम्भ किया था। उनकी बेनों को सबसे समझदार सविता लगतीं थीं इसलिए वे इन्हें शहर के महिला मंडलों से मिलवाया करतीँ थीं।

शांत स्वभाव की इस स्त्री को पहचानना तब मुश्किल था जब वह साक्षात काली की तरह छगनभाई से नाराज़ हो उन पर बरस रही होतीं। एक रात इनके पति सोये तो सोते रह गए.कुछ महीनों में बसंत भाई की शादी तारा बेन से कर दी गई थी। सविता बेन पहले की तरह खेत संभालती रही। पूनम की बात होगी कि शिव बारिया दौड़ता हुआ आया, "सहर से कुछ अफसर आये हैं, तुम्हें बुला रहे हैं। "

"मुझे ?"उन्होंने आश्चर्य से पूछा व बसंत भाई के साथ पंचायत घर चल दीं। वहां दो अजनबी चेहरे बैठे हुए थे। गाँव के तलाटी [पटवारी ] व कभी कभी आने वाले मामलेदार [तहसीलदार ] को पहचानतीं थीं। वे व बसंतभाई आदतन सबसे झुककर नमस्ते करके ज़मीन पर बैठने लगे। उन अजनबियों में से एक अजनबी बोला, "आप लोग कुर्सी पर बैठो। "

वे दोनों सकुचाते हुए कुर्सी पर बैठ गए। सविता बेन तो शर्म से गड़ी जा रहीं थीं क्योंकि महिला मंडल की बेनों के साथ कुर्सी पर बैठना और बात थी।

"बेन !आपने सुना है कि बी जे पी का राज्य आ गया है। "

"क्या ?" वह हकबकाई सी उन्हें देखने लगीं।

"मतलब फूल वालों की सरकार बन गई है। "

"हां, पंचायत घर के टी वी पर देखा था। हम उसी सरकार के आदमी हैं। हम लोग इस गाँव में बक्क्षी पंच का सरपंच चुनना चाहते हैं, ऐसा सरकार का आदेश है।गाँव में अकेला अपका परिवार बक्शी पंच का है। `

"लेकिन हमारा आदमी तो गुज़र गया है। "

"तो क्या हुआ ?आपका बेटा नाबालिग है। गाँव वाले आपकी इज़्ज़त करते हैं। हम आपको सरपंच बनाना चाहते हैं। "

"मुझे ? "वह हकबकाकर खड़ी हो गईं। उन्होंने तो हर समय सभा में मूंछवाले सरपंच को कुर्सी पर बैठे देखा था , जिससे वे हमेशा सहमती रहीं हैं।

"बेन ! शांति से बैसी जाओ।" उन्होंने मुलामियत से उन्हें बैठने का संकेत किया।

"मुझ से ये काम कैसे सम्भलेगा ? मैं तीसरी धोरण [कक्षा ] पास हूँ। मुझे लिखना पढ़ना नहीं आता।मुझे कहाँ से राज काज आएगा ? "उन्हें अब ध्यान आया कि उनकी साड़ी धूल व घास के तिनकों से भरी है।

"हम आपकी सहायता करेंगे। पंच लोग भी सहायता के लिए हैं। " दूसरे अफ़सर ने समझाया था , " आप जब काम करने बैठेंगी तब सब अपने आप आ जाएगा। "

"नहीं मुझसे ये नहीं होगा। "उनके मुंह पर तो तला जड़ गया था।

बसंत भाई ने कहा था, "हम घर जाकर सोचकर जवाब देंगे। "

सारा घर इस प्रस्ताव से हतप्रभ था। बहू तारा बेन समझाने लगी, " बा !औरत की सारी जिनगी रोटी पकाते, गोबर उठाते निकल जाती है। पुरुस लोग उसे कभी उसे खुर्सी [कुर्सी ] पर बैठकर हुकुम नहीं चलाने देते। तुम्हें मौक़ा मिल रहा है तो क्यों छोड़ रही हो ?एक बार पुरुस लोग की खुर्सी पर बैठकर देखो। "

दोनों भाइयों ने मज़ाक उड़ाया था, "सरपंच बनना क्या रोटी बेलने जैसा है ?"

"जो औरत तुम जैसे एक जीव को जन्म दे सकती है। सबका पेट पालती है, वह क्या नहीं कर सकती ? बा ! तुम ये मौक़ा कभी नहीं छोड़ना । मैं तुम्हारे साथ हूँ। "फिर वह बसंतभाई से बोली थी, "बसंत भाई! [गुजरात में पति को भी भाई कहा जाता है ] दौड़कर जाओ, अगर अफ़सर नहीं गए हों तो अभी लिखान कर आते हैं। "

सविता बेन ने बहू की ज़िद के सामने घुटने तक दिए थे। जब वे पहली बार पंचायत में सरपंच की कुर्सी पर बैठीं तो आस पास के गाँव के लोग एक स्त्री सरपंच को देखने उमड़ पड़े थे। लोगों की इतनी भीड़ में वे सात और पंचों के साथ कुर्सी पर बैठने से घबरा रहीं थी, उनके पसीने छूट रहे थे। तारा बेन उनके कन्धे को अपनी बांह में घेरे हुए कुर्सी तक ले गई थी। वे सकुचाती हुई जैसे ही कुर्सी पर बैठीं थीं, उन्हें लगा कि उनमें साक्षात दुर्गा की शक्ति समा गई है। दूसरे पंच उन्हें व्यंग से देख रहे थे। उन्होंने दिल कड़ा कर लिया कि जब दुर्गा माँ ने उन्हें इस पर बिठा दिया है तो वो क्यों आँखें नीची करें ?उन्होंने आत्मविश्वास से सब तरफ़ दृष्टिपात किया।

चौथे दिन पंच दीना तड़वी उनसे एक कागज़ पर हस्ताक्षर करवाने आ गया, "तुम्हें पंचों की मीटिंग में आने की आवश्यकता नहीं है .हम सब तय कर लेंगे। तुम बस अपने सही [हस्ताक्षर ]कर दिया करना । "

"सरकार ने मुझे जबावदारी [ज़िम्मेदारी ] दी है तो मैं मीटिंग में आया करूंगी। अभी मेरा बेटा सहर गया है। वह लौटकर इसे पढ़ेगा तब मैं सही करूंगी। "

"हम क्या ग़लत काग़ज़ पर सही थोड़े ही करवा रहे हैं। "

"ऐसा मैं कब कह रहीं हूँ ?"

"ओ बा !तुम तो सरपंच बनाते ही बहुत चांपली [चालाक ] हो गई हो। "वह खिसियाया सा चला गया।

मामलेदार ने तालुका के आस पास के गाँवों के सभी सरपंच की अपने यहां मीटिंग रक्खी व समझाया की सरकार किन किन सुधारों के लिए रुपया देती है। बस सरपंच को लिखा पढ़ी करके सरकार को बताना पड़ता है कि उनके गाँवों में क्या कमी है। वे बस से लौट रहीं थीं। खिड़की से दिखाई देते भागते हुए पेड़ों की फुनगियों पर फिसलती आँखों में उनके सपने बन मिट रहे थे। दिल में अजीब बेचैनी थी। जब सरकार गाँव के सुधार के लिए इतना पैसा देती है तो वह अब तक कहाँ गायब होता रहा है ?अब तक के सरपंचों को गाँव के ऊबड़ खाबड़ रास्ते नहीं दिखाई दिए ?घरों के पानी के खाली बर्तन दिखाई नहीं दिए ?

कुछ ही दिनों बाद वे विचार कर बसंत भाई को लेकर मामलेदार के ऑफ़िस गईं .इतने सारे काम करवाने की योजना उनके दिमाग़ में घूम रही थी, "सबसे पहल तो मैं गाँव में पानी लाना चाहतीं हूँ ."

"गुड, आपने बहुत अच्छा सोचा है। किसी भी काम के लिए प्रार्थना पत्र दिया जाता है जिस पर सभी पंचों के हस्ताक्षर होते हैं। आपको मैं नमूने की प्रति दे रहा हूँ .आपको जब भी मेरी ज़रुरत पड़े आप यहां आ सकतीं हैं। "

बाद में उन्होंने उप सरपंच को पंचायत का बिजली का बिल भरने के लिए रूपये दिए। महीना भर वे इंतज़ार करतीं रहीं . वह इन्हें पावती [रसीद ] लेकर नहीं दे रहा था। वे इंतज़ार करते करते उसके घर पहुँच गईं। वह लापरवाह चारपाई पर अधलेटा पड़ा रहा, उसने उन्हें बैठने के लिए भी नहीं बोला, "बेन !क्यों मेरा दिमाग़ ख़राब करती हो ?पावती लेकर क्या करोगी ?मैंने कह दिया न रुपया जमा करवा दिया है। "

"सरकार के पास पावती भेजनी है। "

"मैं पावती नहीं देता बोलो क्या कर लोगी ?"

"यदि दो दिन में पावती नहीं दी तो सरकार को शिकायत कर दूंगी। "

वह खिलखिलाकर हंस पड़ा, "सहर की बोली तो बोल नहीं पातीं, तुम मेरी शिकायत करोगी ?"

वह गुस्से से उफ़नती लौट आईं व दो दिन इंतज़ार देखने के बाद उन्होंने उप सरपंच की लिखित शिकायत मामलेदार ऑफ़िस में कर दी, जहाँ से वह राजधानी गांधीनगर भेज दी गई। स्थानीय भाषा में सविता बेन ने दीना सोलंकी का `लाल चेहरा `कर दिया था। गाँव में जैसे हड़कंप मच गया था। ये पहली बार थी कि पंचायत का कोई सभ्य [सदस्य ] पंचायत से बर्खास्त हुआ था, उसका `लाल चेहरा `हुआ था। पंचायत को कोई सभ्य ऐसा न था जिसने इन्हें खरी खोटी न सुनाई हो।

दूसरा हड़कंप मचा पन्द्रह अगस्त पर। गाँव के बुज़ुर्गों, आधे पुरुषों ने ऐलान कर दिया कि यदि एक औरत झंडा फहराएगी तो हम नहीं आएंगे। तलाटी ने ख़बर भिजवाई, "बेन !हिम्मत मत हारना हम सब तुम्हारे साथ हैं। "सविता बेन ने लाल किनारे वाली सफ़ेद साड़ी पहनी और झंडा फहराने चल दीं। उनके पीछे थीं गाँव भर की स्त्रियां और लड़कियां। सविता बेन के झंडा फहराते ही लड़कियां एक लाइन में खड़े होकर ऊंची आवाज़ में गाने लगीं, "जन गन मन अधिनायक ----."

वह देख रहीं थीं, समझ रहीं थीं। उनकी हर बात के लिए तलाटी समर्थन करता है व भीड़ में भी उन्हें मीठी नज़रों से देखता रहता है। उन्हें पता तो लग गया था कि ज़मीन संबंधी कोई काम वह बिना लिए दिए नहीं करता। धनी बेन के विधवा होते ही वह कुछ औरतों को उसके साथ उसकी ज़मीन का पट्टा उसके नाम लिखवाने चल दीं कि कहीं ससुराल वाले उसकी ज़मीन न हड़प जाएँ। इस युक्ति से तलाटी की हिम्मत नहीं हुई कि वह रूपये मांगे लेकिन वह उनका दीवाना हो गया, "सरकार तो बी जे पी की चल रही है लेकिन राज इंदिरा गांधी कर रहीं है। "

वे न चाहते हुए भी नख से शिख तक शर्मा उठीं थीं। जब भी वह उसके साथ अकेली होतीं तो वह फुसफुसा उठता, "इंदिरा गांधी !तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। `

सविता बेन में जैसे उत्साह जाग जाता, उनके पंख निकला आते। अक्सर वह कहलाता उसकी घरवाली की तबियत ठीक नहीं है इसलिए शहर से जो अफ़सर आ रहे हैं वे सविता बेन के घर खाना खायेंगे।वह खाने की ऐसे तारीफ़ करता कि वे अक्सर कभी चाय भजिये, कभी थेपले गुप चुप छोटे के हाथों उसके ऑफ़िस भिजवाने लगीं। बसंतभाई को पता चल ही जाता, वह बिगड़ता, "अपने घर में वैसे ही खाने की कमी है, काहे को लुटा रही हो ?"

"सरकार ने जब काम सौंपा है तो मेरा फ़र्ज़ बनता है मैं गाँव का कुछ भला करूं। तलाटी मेरी बहुत मदद कर रहा है। "

एक दोपहर वे अकेली पंचायत घर में फ़ाइलों में काग़ज़ व्यवस्थित कर रहीं थीं। तलाटी किसी काम से उन्हें ढूंढ़ता वहां आ गया। उन्होंने उसकी माँगी जानकारी उसे दे दी व दरवाज़े तक छोड़ने आईं। अचनाक उसने पलटकर उनकी कमर में हाथ डालकर जकड़ कर सीने से लगा लिया, "इस गाँव की तू रानी है, मैं राजा। "

"धत --"वह उसके सीने के पसीने भरे बालों में मुंह छिपा कर शर्मा गईं .ऐसी ही प्यार की गहरी जकड़न के लिए वे कब से तड़प रहीं थीं।

"कल दोपहरिया में किसना के खेत में मिलने आएगी? "वे मौन स्वीकृति देती उससे और सट गईं।

"अरे हाँ, मैं तम्हें बताना भूल गया कि तू ने जो लिखा पढ़ी की थी चार हेंड पम्प के लिए, सरकार ने मंज़ूरी दे दी है। तू बस हेंड पम्प की झूठी पावती [रसीद] पर हस्ताक्षर कर देना। आधा रुपया हम तुम बाँट लेंगे, बाकी आधा दूसरे पंच। "

"क्या कह रहे हो ?"वे उसके बंधन से एक झटके में अलग हो गईं।

"सही कह रहा हूँ। ये मूरख गाँव वाले क्या जानें कि सरकार ने कितना रुपया दिया था। सड़क के लिए भी मंज़ूरी मिलने वाली है। उसका रुपया आते ही फिर से ऐसे ही उसे बाँट लेंगे, गाँव के गढ्ढों पर मिट्टी डलवाकर झूठी सड़क भी तैयार कर देंगे। "इस बार तो उसने उन्हें अपनी बाहों में खींचकर उनके गाल पर गाल रख दिया।

"क्या रे ?प्रेम के नाम पर मुझे छल रहा है ?"एक क्षण में वह उसकी जकड़ से निकल उफन उठीं, "अरे प्रेम के लिए बुलाकर तो देखता किसना के खेत क्या दूसरे गाँवों तक नंगे पैरों दौड़ी चली आती। तू तो मेरे सरीर का सरकारी पैसे का सौदा करने चला है रे !"

"प्रेम और पैसे में सौदा कैसा ?प्रेम के साथ पैसा भी कमाया जा सकता है। "तलाटी ने कुटिलता के साथ आँख मारते हुए कहा।

"तू क्या समझ रहा है। इतने सालों से गाँव में रह रहीं हूँ। पढ़ी लिखी नहीं हूँ तो क्या कुछ समझती नहीं हूँ ?मामलेदार के ऑफ़िस में जब सरपंचों की मीटिंग हुई थी तभी समझ गई थी कि क्यों तेरा और हर सरपंच का घर एक माले से दो माले हो गया है। तुम लोग सरकारी पैसे से मौज मस्ती करते रहते हो। अरे !तुम्हारी इस मस्ती से गाँव नर्क जैसा सड़ रहा है। डाक्टर अपनी मोटर से यहां आ नहीं सकता, चाहे जीव मर ही जाए.गाँव की औरतों के पैर में छाले हों, फोड़ें हों तब भी गिरते पड़ते कोसों दूर से पानी लेने जाना पड़ता है। "

"मेरी बात तो सुन ."तलाटी ने फुसफुसी आवाज़ के साथ उनकी थोड़ी पर हाथ लगाना चाहा। उन्होंने उसका हाथ झटक दिया, `ओ दोमुंहे सांप !अब मुझे कभी हाथ नहीं लगाना। तुम लोग सरकारी पैसे से फ़ोन का बूथ खुलवाए बैठे हो जिससे सहर के सरकारी लोगों से गिटर पिटर कर सको कि कितना रुपया कहाँ से लूटा जाए। अब मैं देखती हूँ कि गाँव के नाम का रुपया तुम कैसे लूटते हो ?"

वे क्रोध से उफ़नती घर चलीं आईं। सांस धौंकनी सी चल रही थी, । तारा बेन ने उनकी हालत देखी तो पानी का गिलास ले आई, "बा! पानी पी लो। "

उन्होंने पानी पीकर धीमे धीमे सब बातें बहू को बता दीं। हाँ, अपने दिल के किरच किरच होने की बात कैसे बतातीं ?चुपचाप अपनी कोठरी के पढ़कर रोती रहीं, कलपती रहीं। तो हरामी तलाटी अपने स्वारथ के लिए आपने आँखों से उन्हें बांधने की कोशिश कर रहा था।

अब तो कसम खा ली थी कि उन्होंने गांव के लिए जो जो सोचा है, करके ही रहेंगी। उन्होंने गांधीनगर व मामलेदार ऑफ़िस भाग भाग कर गाँव में ट्यूब वैल व सड़क बनवाने की सरकारी मंज़ूरी ले ली थी। पंचायत के दो ईमानदार सदस्य भी उनका हर समय साथ देने के लिए तैयार रहते थे।

वे सुबह ही दोपहर के खाने की पोटली बाँध, एक चादर ले घर से निकल जातीं थीं। एक पेड़ की छाँव में चादर बिछाकर सड़क बनाते मज़दूरों की निगरानी करतीं कि कहीं कोई सामान न मार ले। मज़दूर औरतें काम में लगीं रहतीं, वे उनके बच्चों की देख भाल करतीं। कोई मज़दूर भूखा हो, बीमार हो तो उसकी अपने घर से मदद करतीं। सरकारी किश्तें बार बार अटक जातीं लेकिन उन्हें ये काम रुकना बर्दाश्त ना था। घर में अनाज बेचकर आया तीस हज़ार रुपया रक्खा था ही। ठेकेदार के बिल भुगतान, ट्यूब वेल के लिए सामान, सरकारी अफसरों की आवाजाही, उनकी आवाजाही में सब रुपया ख़त्म हो गया।

गाँव में जब पहली बार ट्यूब वेल से पानी खेतों, खेतों, क्यारी क्यारी बह चला तो उनकी आँखें भी बह चलीं। गाँव की अपनी सड़क पर दोपहिये वाहन, जीपें, मोटर दौड़ने लगीं। उन्होंने टी वी पर देखा था कि यदि सड़क किनारे पेड़ लगाओ तो हवा साफ़ रहती है। वो कैसे ? ये बात समझ नहीं पाईं थीं लेकिन सड़क के दोनों ओर उन्होंने नीम की बिनौली गढ़वा दी थीं। उन्हें तलाटी के पास अपने तीस हज़ार रूपये सरकार से निकलवाने के लिए जाना पड़ता था। वह मीठी आवाज़ में दिलासा देता, "बीन !सरकारी काम है देर तो लगेगी। फिर हम यहां बैठे हैं, तुम्हारा रुपया कहाँ जाने वाला है ?" मन ही मन वह ताव खाता रहता कि जिस औरत के साथ उसने दूब पर बिछने का सपना देखा था, उसे तोड़ने वाली को सबक सिखा कर ही रहेगा। उसने कब और कैसे कागज़ों के ढेर में तीस हज़ार के भुगतान की रसीद पर सविता बेन के हस्ताक्षर ले लिए, ये तो वही जाने। गाँव में फ़सलें लहलहा रहीं थीं और वे परेशानियों से घिरी हुईं थीं.सरकारी पैसा ईमानदारी से खर्च करने के कारण गाँव के कुछ घरों से दुश्मनी हो चुकी थी , वह अलग। रात में कोई उनके घर पत्थर फेंकने लगता, कभी कोई कुंडा खटखटा कर भाग जाता। दोनों बेटे चिल्लाते, "तुम सरपंच पद से राजीनामा [स्तीफ़ा ] क्यों नहीं दे देतीं ?"

बा दृढ़ता से कहतीं, "मैं किसी हालत में राजीनामा नहीं दूंगी। अभी गाँव के स्कूल को बढ़ाना है। मुझे कोई कागज़ लिखना हो तो तुमसे कहना पड़ता है, कहीं बाहर गए हो तो राह देखनी पड़ती है। कितना टैम बर्बाद होता है। मेरे गाँव की लड़कियां मेरे जैसी अपाहिज ना बनें, मुझे ये भी देखना है। "

बसंत भाई चिढ़ जाते, " बा !तुमने गाँव सुधार दिया है लेकिन हमें लुक्का [कंगाल ] कर दिया है। घर में रुपया नहीं है तो कैसे खेती करूँ ?अपने तीन बच्चे कैसे पालूं ?"

" जब गांव नहीं भूखा मर रहा तो तुझे कैसे भूखा मरने दूंगी ?"उन्होंने मामलेदार से कहकर उनकी वड़ोदरा की एक फ़ैक्टरी में नौकरी दिलवा दी। वे सब कुछ दिन तो बसंत भाई की ससुराल रहे, बाद में उन्हें प्रतापनगर की रेलवे कॉलोनी के आऊट हाऊस मे जगह मिल गई। सविता बेन के पास पैसा नहीं था। उन्होंने खेत गिरवी रख दिया व उसी पर अधबटाई पर अपने छोटे बेटे को पालने लगीं। अपने कार्यकाल के आखिरी दो वर्षों में उन्होंने पंचायत का नया ऑफ़िस बनवाया, कक्षा चार तक के स्कूल को आगे की काक्षाओ तक बढ़ाकर ही दम लिया। तालाब पर एक धोबीघाट बनवाया।

मैं हाज़िर -------------

उधर उनका पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा हुआ। इधर तारा ने ख़ुशी से चिल्लाते, बौराते हमारा पीछे का दरवाज़ा खटखटाया, "आंटी !आंटी !गामड़ा में हमारे खेतन में तेर निकल आया है। "

"क्या ?"

"वो सरकारी मशीन जमीन खोदकर तेर ढूढ़ती है, उसने हमारे खेतन में तेर ढूंढ़ा है ."

"तू क्या कह रही है ?मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। "

फिर बसंत भाई ने समझाया, "ओ एन जी सी वालों ने मशीन से हमारे खेतों में तेल ढूँढ़ा है। वो हमारे खेत ले लेंगे, हमें रुपया मिलेगा। "

मैं चौंक पड़ी थी, "ये तो बहुत अच्छी ख़बर है लेकिन ज़मीन की लिखा पढ़ी होशियारी से करना कहीं कोई तुम्हें बुद्धू ना बना दे। "

"हमारा बड़ा जीजा ओ एन जी सी में है, वही कागज़ देखेगा। "

"फिर ठीक है. "मैं आश्वस्त हो गई थी ।

ओ एन जी सी से मिली पहली पेंतीस हज़ार रूपये किश्त से सविता बेन ने अपना खेत छुड़वाया। बाकी की किश्त रिश्तेदारी निबाहने व पोती पोते की शादी करने के लिए जोड़ती जा रही है। मैं तारा बेन से पूछती हूँ, "अब तो तेरी सास के पास पैसा है तो क्यों गाँव में रहने नहीं जाती ?"

"मेरी बेटियां कामी झीनी बड़ी हो रहीं हैं। गामड़ा में लड़कियों को कोई भी खेतन में खींच लेता है।ओ बा !मुझे वहां नहीं जाना।"

और तलाटी जिसने इनका तीस हज़ार रुपया खा लिया था -वह एक दिन सड़क पार कर रहा था। एक ट्रक धड़धड़ाता उसके पैर काटता निकल गया। हर ऐसी कहानी के अंत में स्पष्ट किया जाता है कि इसके पात्र के नाम काल्पनिक हैं। इस कहानी का अंत अविश्वसनीय सा है, बच्चों की पाठ्यक्रम केकिसी आदर्श पाठ जैसा। अंत में मैं स्पष्ट कर रहीं हूँ कि कहानी के मुख्य पात्रों के नाम हूबहू वहीं हैं। गाँव की उपलब्धियां भी लगभग वहीं हैं।

यदि आपको विश्वास नहीं होता तो वड़ोदरा के पादरा तालुका के भानपुरा गाँव में जाकर आइये जिसे इस तालुका में प्रथम घोषित किया गया था जिसकी सड़कों पर मैं चलकर अनिवर्चनीय सुख से भरकर आ रहीं हूँ , जिसके ट्यूब वेल के पानी की फुहारों से भीगकर आ रहीं हूं, जिन्हें एक अनपढ़ देहातिन ने बनवाया था। यदि फिर भी विश्वास ना हो तो तलाटी के घर झाँक आइये जो कटे पैरों के कारण चारपाई पर पड़ा बक झक करता रहता है।

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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