मिशन सिफर - 12 Ramakant Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मिशन सिफर - 12

12.

घर पहुंचा तो वह खुद को जिस्मी तौर पर ही नहीं ज़हनी तौर पर भी थका हुआ महसूस कर रहा था। उसने अपना कमरा खोला और कुर्सी पर निढाल सा बैठ गया। आज जो कुछ भी उसने देखा-सुना था, उससे वह परेशान हो गया था। कहीं एक भी तो ऐसा वाकया, ऐसी बात उसे चाह कर भी नजर नहीं आई थी जो हिंदुस्तान के बारे में उसकी सोच या उसके मन में बैठी तस्वीर को बल देती। उसने खुद को समझाया था, हो सकता है, मुंबई में ऐसे मामले न हों, दूसरे शहरों में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहे हों। पर, ऐसा कैसे हो सकता है कि मुल्क के दूसरे हिस्सों में होने वाले वाकयातों का यहां कुछ भी असर न हो, फिर मुंबई के बारे में तो उसे बताया गया था कि यह मिनी भारत है। उसका दिमाग काम नहीं कर रहा था, इसलिए वह उठा और कपड़े बदल कर कुछ देर मन-मस्तिष्क दोनों को आराम देने के इरादे से बिस्तर पर लेटने ही वाला था कि खुले दरवाजे से उसे नुसरत आती दिखाई दी। दरवाजे के पास खड़े होकर ही उसने पूछा – “आप आ गए राशिद?”

“हां, बस थोड़ी देर पहले ही आया हूं।“

“मुझे मालूम है, अभी यही कोई आधा घंटा पहले ही तो मैं यहां का चक्कर लगा कर गई थी।“

“कोई खास बात?”

“नहीं, ऑफिस में आपका पहला दिन कैसा रहा?”

“ठीक रहा।“

“थक गए हैं, चाय ले आऊं?”

“चाय, हां बड़ी मेहरबानी हो जाएगी आपकी।“

“इसमें मेहरबानी किस बात की? हक से मांग सकते हैं आप। बस, पांच मिनट में बनाकर लाती हूं।“

राशिद अभी-अभी एक नए अहसास से गुजरा था। अब तक की उसकी ज़िंदगी में न तो घर नाम की कोई चीज रही थी और न ही किसी ने उसका इंतजार किया था। कोई भी तो ऐसा नहीं था जिसने उसकी थकान के बारे में कभी दरियाफ्त किया हो और उसके लिए चाय बनाई हो। बेख्याली में उसके भीतर नमी सी पैदा होने लगी थी। दुश्मन मुल्क में उस ऊपरवाले ने उसके लिए कैसा इंतजाम किया था। उसने दोनों हाथ उठा कर उसका शुक्रिया अदा किया और आंखों को छूकर अपने हाथों को चूम लिया।

नुसरत चाय और बिस्किट ले आई थी, उन्हें कुर्सी पर रखते हुए उसने कहा था – “गर्म-गर्म ही पी लीजिए, नहीं तो चाय ठंडी हो जाएगी। मैं थोड़ी देर में आकर कप-प्लेट ले जाऊंगी।“

उसे आज की चाय में जो लुत्फ आ रहा था, वैसा कभी नहीं आया था। हर चुस्की के साथ उसकी थकान उतर रही थी और वह खुद को हल्का महसूस कर रहा था।

कुछ ही देर में आकर नुसरत कप-प्लेट ले गई और कह गई थी – “अब आप आराम कीजिए। हां, ठीक आठ बजे खाने के लिए आ जाइये, अब्बू को खाने में देर बर्दाश्त नहीं होती, वे आपका इंतजार करेंगे।“

उसके जाने के बाद फिर से कई तरह के ख्यालात उस पर हावी होने लगे थे। कई बड़े सवालात उग आए थे, जिन्हें वह हाथ के झटके से अपने सामने से हटा देना चाहता था। उसे भारत के मुसलमानों पर रहम भी आ रहा था और खीज भी। वे क्यों नहीं समझ पा रहे थे कि उनको कितने बड़े मुगालते में रखा जा रहा है। पाकिस्तान में और मगरबी मुल्कों में सबको पता है कि हिंदुस्तान में हिंदुओं की सरकार मुसलमानों के साथ कितने दोयम दर्जे का सुलूक कर रही है और उनकी मजहबी रिवायतों को खत्म करने पर तुली है। शायद वह खुद को समझा रहा था। बेचैनी में वह गली में बाहर निकल आया और मस्जिद तक का चक्कर लगाने निकल पड़ा। सोच रहा था, अजान हो जाएगी तो वहीं नमाज़ पढ़कर लौट आएगा।

ठीक आठ बजते ही वह घर के अंदर खाना खाने के लिए चला गया। नुसरत खाना लगा ही रही थी। उसे देखते ही उसके अब्बू ने कहा था – “आइये राशिद, बस आपका ही इंतजार हो रहा था। चाय-वाय तो समय पर मिल गई आपको?”

“जी हां, बड़ी ताजगी भरी चाय थी, सारी थकान उतर गई।“

“अल्लाह, मैं यह तो पूछना भूल ही गया कि आपका आज का दिन कैसा रहा। सब ठीक रहा ना? ऑफिस की जगह आसानी से मिल गई थी? समय पर पहुंच गए थे?”

“जी हां, सब अल्लाहताला की मेहरबानी है।“

“वो तो है ही, आपके जैसे अच्छे, सच्चे और मज़हबी नौजवान पर तो उसकी खास मेहरबानी रहती है। आइये, खाना नोश फरमाएं। बिस्मिल्लाह कीजिए।“

खाना खाने के बाद नुसरत के अब्बू उससे बहुत सी बातें करते रहे। वह बड़ी एहतियात बरत कर उनके सवालात के जवाब दे रहा था। वह नहीं चाहता था कि गलती से भी कोई ऐसी बात उसके मुंह से निकल जाए जो उसकी असलियत और उसके मकसद को सामने ला दे। नुसरत शायद किचन के बाकी काम निपटा रही थी, इसलिए वह नजर नहीं आ रही थी। कुछ ही देर में वह सलीके से बात खत्म करते हुए और अब्बू की इजाजत लेकर अपने कमरे में आ गया था।

सोने से पहले उसने एक बार फिर अल्लाह का शुक्रिया अदा किया और यह सोचते हुए सो गया कि उसे अगले दिन से अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए शुरूआत करनी होगी।

आज भी अजान के साथ ही उसकी नींद टूटी। वह तैयार होकर मस्जिद के लिए निकल गया। आज भी तकरीबन उतने ही लोग वहां थे, जितने कल उसने वहां देखे थे। नमाज़ पढ़ने के बाद वह कल की तरह वहां से चुपचाप निकलने की कोशिश कर रहा था, तभी एक आदमी ने उससे पूछा – “कल भी मैंने आपको देखा था, आज भी आप यहां हैं, नए हैं?”

“जी हां”

“क्या नाम है आपका?”

“जी, राशिद।“

“मेरा नाम शकील है। हमारी ग्रोसरी की सबसे पुरानी दुकान है इस गली में। गली के ज्यादातर घरों में हमारे यहां से ही सामान जाता है। तकरीबन सभी लोग मुझे पहचानते हैं और मैं उन्हें। इसीलिए तो मुझे तुरंत समझ में आ गया कि आप यहां नए आए हैं। मुंबई घूमने-फिरने आए होगे, किसके घर के मेहमान हैं आप?“

“मेहमान नहीं मैं अब्दुल करीम साहब के यहां किराएदार हूं।“

“अच्छा, अच्छा करीम मामू के घर में किराएदार हो। नुसरत के अब्बू के यहां?”

“जी हां।“

“उन्हें मैं करीम मामू ही कहता हूं। उनके घर का सारा सामान भी हमारे यहां से ही जाता है। आप कहां से आए हैं. क्या करते हैं?”

“जी इंजीनियर हूं। एक एमएनसी में नौकरी करता हूं। ट्रांसफर होकर मुंबई आया हूं।“

“बड़ी खुशी की बात है। नमाज़ के पाबंद हो, यह तो बड़ी बात है। फज्र की नमाज़ में आपकी उम्र के लोगों को देखकर अच्छा लगता है।“

“जी हां, यही मस्जिद घर के सबसे पास है।“

“चलिए, अब तो रोजाना मिलते ही रहेंगे। करीम मामू को हमारा आदाब कहना।“

शकील मियां एक मोड़ पर मुड़ कर चले गए तो राशिद को लगा जान छूटी। उसने सोचा, उसे अपनी पहचान छुपाए रखने के लिए बड़े पापड़ बेलने पड़ेंगे।

कमरे में आकर वह बाहर जाने के लिए तैयार होने लगा। आज उसे रेकी के लिए निकलना था। वह वो जगह अच्छी तरह से देख लेना चाहता था, जहां उसे अपने मिशन को अंजाम देना था। ऑफिस के समय पर वह घर से निकल जाना चाहता था ताकि अब्बू और नुसरत को किसी तरह का बेवजह कोई शक न हो।

नुसरत चाय-नाश्ता ले आई थी, कुर्सी खींच कर उस पर रखते हुए उसने कहा था – “अब्बू पूछ रहे थे, आपको किसी तरह की कोई तकलीफ तो नहीं है यहां?”

“मुझे तकलीफ क्यों होने लगी। आप हैं ना जो मेरा हर तरह से ख्याल रख रही हैं।“

नुसरत शर्मा गई थी और बोली थी – “ये तो मेरा फर्ज बनता है। आप जल्दी से चाय-नाश्ता ले लीजिए नहीं तो ऑफिस जाने में देर हो जाएगी।“

राशिद कुछ कह पाता उससे पहले ही वह कमरे से बाहर निकल गई।

उसके जाने और चाय पीने के बाद राशिद ने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया और बैग में से नक्शा निकाल कर उस जगह का पता लगाने लगा जहां आज उसे अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए जाना था। उसे मुंबई के उन दोनों एटोमिक प्रोजेक्ट के बारे में बताया गया था जहां न्यूक्लियर पॉवर प्रोग्राम चल रहे थे और रिएक्टर लगे थे। पर, उसका मिशन उस नए प्रोजेक्ट को समाप्त करना या उसे नाकारा बनाने का था जहां एटोमिक क्षेत्र में बिलकुल नई तकनीक विकसित करने के लिए रिसर्च की जा रही थी और भारत उस तकनीक को पाने के बिलकुल नजदीक पहुंच गया था जो किसी भी देश के पास नहीं थी। वहीं न्यूक्लियर हथियार बनाने के लिए उपयोग में लाए जा चुके यूरेनियम ईंधन से प्लूटोनियम निकालने का काम किया जा रहा था। उसने मुंबई के नक्शे से उस रिप्रोसेसिंग प्लांट की ठीक-ठीक जगह का पता लगाया और फिर नक्शे को अच्छी तरह से तह करके वापस बैग में डाल दिया।

उसी समय दरवाजे पर खटखट हुई तो उसने दरवाजा खोल दिया। सामने नुसरत खड़ी थी। उसने पूछा था – “चाय पी ली आपने? मैं बर्तन लेने आई हूं। दरवाजा बंद देख कर वापस लौट रही थी। फिर सोचा एक बार खटखटा कर देख लूं।“

“ठीक किया, मैंने बस कपड़े बदलने के लिए ही दरवाजा बंद किया था।“

“ओह, तो मैंने आपको डिस्टर्ब कर दिया।“

“नहीं, नहीं. काफी टाइम है मेरे पास। आज थोड़ी देर से ऑफिस जाना है।“

“फिर ठीक है। मैं चलती हूं आप तैयार हो जाइये।“

नुसरत चली गई तो राशिद कपड़े बदल कर तैयार हो गया। नक्शे से उसने उस जगह का ठीक-ठीक पता लगा ही लिया था जहां उसे जाना था। फिर भी उसने एक कागज निकाल कर उस पर वहां का पता लिखा और अपनी जेब में डाल लिया।

नक्शे से यह भी पता चल गया था कि वह जगह वहां से ज्यादा दूर नहीं थी। उसे यह समझ में आ रहा था कि बड़ी सोची-समझी रणनीति के तहत उसे इस घर में किराए पर रखा गया है। मुस्लिम मोहल्ला था, जहां वह अपनी पांचों वक्त की नमाज़ की पाबंदी को कायम रखते हुए बिना किसी शक के आराम से रह सकता था। जिस घर में उसे किराए पर रखवाया गया था वहां सिर्फ दो ही शख्स रहते थे, उनमें से भी एक तो दुनिया के चक्करों से अनजान लड़की थी और दूसरा ऐसा शख्स था जो बीमारी से जूझ रहा था और किसी के काम में ज्यादा दखल देने वाला नहीं था। उन्हें पैसों की जरूरत थी और वे उसे किसी हाजी सुलेमान की सिफारिश पर किराएदार रखने के लिए आसानी से तैयार भी हो गए थे। सबसे बड़ा कारण यह भी रहा होगा कि भारत और मुंबई से बिलकुल अनजान राशिद के लिए उसके मिशन का वह स्थान मुंबई में एक जगह से दूसरी जगह तक आने-जाने की दूरियों को देखते हुए काफी नजदीक था।

बाहर गली में आते ही उसे ऑटो मिल गया जो उसके बताए पते पर उसे छोड़ने के लिए तुरंत ही राजी हो गया। ऊपरवाला उसकी हर तरह से मदद कर रहा था, शायद उसे इस बात का इल्म था कि वह उसके मुल्क को और उसके मज़हब के लोगों को काफिरों के बुरे मंसूबों से बचाने के मिशन की शुरूआत करने जा रहा था।

ऑटो ने उसे तकरीबन पच्चीस मिनट में ही उस जगह पहुंचा दिया। सामने ही उसकी मंजिल दिख रही थी। वह उस प्लांट के आसपास एक सामान्य शख्स की तरह घूम कर उसकी सीक्यूरिटी का जायजा लेता रहा। वह बहुत देर तक वहां इस तरह चक्कर नहीं लगा सकता था। अगर किसी को जरा भी शक हो गया तो फिर उसे बेकार की परेशानी तो झेलनी पड़ ही सकती थी, उसका पूरा मिशन ही खटाई में पड़ सकता था। अपनी ट्रेनिंग के हिसाब से वह जितना भी देख-समझ पाया था उससे उसे तुरंत ही यह अंदाजा हो गया था कि उसका काम जरा भी आसान नहीं था। इतनी तगड़ी और कई लेयर की सीक्यूरिटी से पार पाना नामुमकिन जैसा था।

प्लांट की तगड़ी सीक्यूरिटी होना कोई ऐसी बात भी नहीं थी जिसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता हो। उसके आकाओं को यह बात यकीकन मालूम थी, इसीलिए उन्होंने उसे सिर्फ आसपास की जगह और माहौल का जायजा लेने के लिए ही कहा था, प्लांट में दाखिल होने की कोशिश करने के लिए नहीं। उसे प्लांट के अंदर पहुंचाने की जिम्मेदारी उन्होंने खुद अपने पास रखी थी, इसलिए उससे जितना कहा गया था, उतना काम करके वह वहां से चला आया था। लोकल बस स्टैंड तक पहुंचने के रास्ते में वह यही ताज्जुब कर रहा था कि आखिर उसे इस इतनी फूलप्रूफ सीक्यूरिटी वाले प्लांट के भीतर कैसे और कौन पहुंचाएगा। वह बस इतना ही जानता था कि आइएसआइ ने अगर इस मिशन पर उसे भेजा है तो उसने पूरी तैयारी से ही भेजा है और वे किसी भी कठिन से कठिन मिशन को पूरा करने-कराने की सलाहियत रखते हैं।

घर पहुंचने से पहले अभी उसे कई घंटे बाहर ही बिताने थे, इसलिए वह लोकल बस स्टैंड पर बस के इंतजार के लिए बनी स्टील की बेंच पर जाकर बैठ गया और बहुत देर तक वहां से गुजरने वाली बसों को और उनमें से उतरने-चढ़ने वाले लोगों को देखता रहा। यहां भी उसे कोई अलग नजारा नजर नहीं आया। बसों में सभी मजहबों के लोग साथ-साथ चढ़-उतर रहे थे। उनके बीच किसी तरह का कोई तनाव या खौफ नहीं था। बसों का इंतजार करने वाले हिंदू-मुसलमान लोग आसपास ही बैठे थे और बिना किसी दुराव के आपस में बातें कर रहे थे। तभी उसने देखा बुरका पहने लेकिन मुंह खोले एक बुजुर्ग खातून बस-स्टैंड पर आई। उसकी बस शायद अभी नहीं आई थी, इसलिए वह इंतजार करने के लिए बेंच पर बैठने के लिए इधर-उधर देखकर जगह तलाशने लगी। पर, यह देख कर ठिठक गई कि पूरी बेंच भरी हुई थी और उसके बैठने के लिए जरा भी जगह नहीं थी। बेंच पर बैठे सभी लोग उसे नजरअंदाज कर रहे थे, जिनमें दो मुसलमान युवक भी थे। तभी राशिद ने देखा कि एक हिंदू युवक अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ था और उस खातून को बड़ी इज्जत के साथ वहां आकर बैठने के लिए कहने लगा। वह बुजुर्ग खातून उसे दुआ देती हुई वहां जाकर बैठ गई। राशिद की सोच के लिए यह भी एक झटके से कम नहीं था। वह खुद भी तो उस खातून के लिए उठकर जगह दे सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया था।

उसे भूख लगने थी। खाने के लिए कोई ठीक-ठाक जगह देखने के लिए वह उठ खड़ा हुआ और थोड़ी दूर दिख रही दुकानों की तरफ चल दिया। बस स्टैंड से सौ कदम की दूरी चलते ही उसे एक बोर्ड पर उर्दू-हिंदी में लिखा “होटल पाकीजा” नजर आ गया। दोपहर के खाने का समय था, वहां अच्छी-खासी भीड़ लगी हुई थी। खाना अच्छा ही मिलता होगा क्योंकि बाहर पड़ी बेंचों पर बैठे लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। यह देखकर उसका सिर फिर से चक्कर खाने लगा था कि खाने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे उन लोगों में ज्यादातर हिंदू और सिख थे। इसी सोच में डूबा वह भी एक ऐसी बेंच पर जाकर बैठ गया जहां उसके मज़हब के लोग बैठे हुए थे।

उसका नंबर आया तब तक उसकी भूख काफी बढ़ गई थी। अंदर जाकर उसने देखा मुख़्तलिफ मज़हब के लोग चार-चार कुर्सियों के बीच लगी टेबिल पर साथ बैठकर बेफिक्री से खाना खा रहे थे। कोई जगह खाली नजर नहीं आ रही थी। इत्तफाक से उसे एक ऐसी टेबिल नजर आई जहां एक सीट खाली थी। उस टेबिल पर दो लोग उसके मज़हब के और एक हिंदू बैठा हुआ था। उसे भूख इतनी तेज लग आई थी कि वह मजबूरी में चौथी खाली कुर्सी पर जाकर बैठ गया।

ऑर्डर लेने के लिए जब वेटर उनकी टेबिल पर आया तो उन तीनों लोगों ने फटाफट ऑर्डर दे दिया, शायद वे वहां के रोजाना के ग्राहक थे और उन्हें वहां की अच्छी डिशों के बारे में पता था। वह मीनू हाथ में पकड़े अभी सोच ही रहा था कि क्या ऑर्डर दे तभी उनमें से सफेद दाढ़ी वाले आदमी ने उससे कहा – “सोच क्या रहे हो मियां, यहां की राइस प्लेट ले लो। सभी टेस्ट एक साथ मिल जाएंगे। बड़ा लजीज़ खाना है यहां का। उसने शुक्रिया कह कर इंतजार में खड़े वेटर को राइस प्लेट लाने के लिए कह दिया।

वे तीनों आपस में बातें कर रहे थे और उसे भी उसमें शामिल करना चाहते थे, पर वह हां, हूं से ही काम चलाता रहा। इधर-उधर की रस्मी बातों के बाद बात भारत की गंगा-जमुनी तहजीब की तरफ मुड़ गई। वह ध्यान से उनकी बातें सुनने लगा। वे तीनों इस बात पर एकमत थे कि सैंकड़ों साल से इस देश में हिंदू-मुसलमान मिलजुल कर रह रहे थे, पर कुछ लोगों का धंधा ही यह था कि दोनों मज़हब के लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ भड़काते रहें। इसी से उनकी नेतागिरी चल रही थी। इसी के बल पर वे अपने-अपने मज़हब के लोगों के रहनुमा बने हुए थे। दोनों तरफ ऐसे लोग थे, जिनकी रोजी-रोटी इसी से चल रही थी। पंडित और मुल्लाओं ने गरीब और बेपढ़े या कम पढ़े-लिखे लोगों को अपने जाल में इस तरह फंसा रखा था कि उससे निकलना मुश्किल था। नासमझी में लोग उन्हें ही अपना खैरख्वाह मान बैठे थे। मुल्क में दोनों मज़हब के मानने वालों के बीच बदगुमानी के लिए ये लोग ही जिम्मेदार थे। फिर, पाकिस्तान जैसे पड़ोसी मुल्क भी पूरी कोशिश में लगे थे कि भारत में बदअमनी फैले।

“आप बिलकुल सही कह रहे हैं। सभी मज़हब के लोग खाने-कमाने की फिक्र में लगे रहते हैं। बेकार की लड़ाई-झगड़े के लिए किसी के पास वक्त ही कहां है। वे बस मुल्क में अमन और सुकून चाहते हैं। हां, दोनों तरफ के चंद लोग ही हैं जो अफवाहें फैलाकर, उल्टे-सीधे बयान देकर या फिर किसी छोटी सी घटना को बहुत बड़ा बना कर बदअमनी फैलाने में और अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं” – जालीदार टोपी पहने और दाढ़ी के साथ सफाचट मूंछे रखने वाले उस आदमी ने कौर अपने मुंह में रखने से पहले कहा था।

“मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं” – हिंदू ने कहा था। “आपको एक सच्चा वाकया बताता हूं जिससे यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी।“

“बताइये, बताइये।“

“हां तो ऐसा हुआ कि जब निर्माता-निर्देशक बी. आर. चोपड़ा ने महाभारत सीरियल बनाने की सोची तो उसकी पटकथा लिखने के लिए प्रसिद्ध लेखक डा. राही मासूम रजा से संपर्क किया।“

“अच्छा, यह बात तो हमें पता ही नहीं थी। महाभारत की पटकथा एक मुसलमान से लिखने के लिए कहा उन्होंने?”

“जी हां, वही तो बता रहा हूं, जरा ध्यान से सुनिए।“

“हां, हां सुनाइये।“

“राही मासूम रजा ने बी. आर. चौपड़ा को साफ-साफ बता दिया कि वो ये काम नहीं कर सकेंगे। बात ही कुछ ऐसी थी कि दूसरे दिन ही यह खबर सारे न्यूजपेपरों की सुर्खी बन गई। इस खबर का असर यह हुआ कि हजारों लोगों ने बी.आर. चौपड़ा को खत लिख कर कोसा कि हिंदू ग्रंथ महाभारत की पटकथा लिखवाने के लिए उन्हें एक मुसलमान ही मिला था। चौपड़ा साहब ने वे सारे खत उठाकर राही मासूम रजा के पास भेज दिए।

खत पढ़ने के बाद राही मासूम रजा ने चौपड़ा साहब से संपर्क किया और कहा कि वे महाभारत की पटकथा लिखने के लिए तैयार हैं। ये सच है कि वे मुसलमान हैं, पर गंगापुत्र भी तो हैं।

डा. राही मासूम रजा द्वारा लिखी हुई महाभारत सीरियल की पटकथा जब टी.वी. पर प्रसारित हुई तो उनके घर खतों के अंबार लग गए। उन्होंने पटकथा इतनी अच्छी लिखी थी कि तमाम लोगों ने उनकी खूब तारीफें कीं थीं और उन्हें दोनों ही मज़हब के लोगों की विशेषकर हिंदुओं की खूब दुआएं मिलीं थीं।“

“वे तो बहुत अच्छे लेखक हैं, यह तो होना ही था।“

“जरा आगे की बात भी सुन लीजिए जनाब। तारीफों से भरे खतों के कई गट्ठरों के बीच खतों का एक छोटा सा गट्ठर भी उनकी मेज के किनारे सब खतों से अलग पड़ा था। एक दिन उनके घर आए एक मित्र ने उनकी मेज के किनारे पड़े खतों के सबसे छोटे गट्ठर के बारे में पूछा तो राही मासूम रजा ने पता है क्या जवाब दिया?”

“नहीं, आप ही बताइये।“

उन्होंने कहा – “ये वे खत हैं जिनमें मुझे गालियां लिखी हुई हैं। कुछ हिंदू इस बात से नाराज हैं कि मेरी हिम्मत कैसे हुई मुसलमान होकर महाभारत की पटकथा लिखने की। वहीं कुछ मुसलमान हैं जो इस बात से नाराज हैं कि मैंने हिंदुओं के धर्मग्रंथ माने जाने वाले महाभारत पर आधारित टीवी सीरियल की पटकथा क्यों लिखी। वे तो मुझे मज़हब से निकालने और बुरे नतीजे भुगतने की चेतावनी भी दे रहे हैं।“ फिर उन्होंने दृढ़ शब्दों में कहा – “खतों का यही सबसे छोटा गट्ठर मुझे दरअसल यह हौसला देता है कि मुल्क में अच्छे और समझदार लोगों के मुकाबले बुरे और जाहिल लोगों की संख्या कितनी कम है।“

राही मासूम रजा के इस जवाब की सुनकर खाना खाते हुए उन दोनों के मुंह से वाह, वाह निकल पड़ी थी। खाना और बात दोनों इस पर सहमति के साथ खत्म हुए थे कि आज भी इस मुल्क में नफरत फैलाने वालों के छोटे से गट्ठर के मुकाबले प्यार-मुहब्बत का गट्ठर बहुत बड़ा है। कुछ बुरे लोगों और पड़ोसी देशों की तमाम कोशिशों के बावजूद इस मुल्क में सभी मज़हब के लोग प्यार-मुहब्बत से रहते रहेंगे।

राशिद खाना खाकर होटल से बाहर निकल आया था। उसे बस दो घंटे का समय ही और बिताना था। वह कुछ देर यहां-वहां घूमता रहा और फिर से उसी बस स्टैंड पर आकर बैठ गया। इस समय वहां बैठने की लगभग सारी जगह खाली पड़ी थी। वहां बैठे-बैठे भी खाना खाते समय उन तीनों के बीच हुई बातें उसके दिमाग में लगातार घूम रही थीं।

घर जाने के लिए ऑटो में बैठे हुए भी उसके ज़हन में वही बातें चक्कर लगा रही थीं। क्या सचमुच दोनों मज़हब के ज्यादातर लोग यही सोचते थे कि वे आपस में बहुत खुश थे, सिर्फ कुछ मतलबी और सिरफिरे लोग उनके बीच में दरार डालने और उसे चौड़ा करने में लगे थे। उसके कानों में रह-रह कर वे शब्द गूंज रहे थे - “आज भी इस मुल्क में नफरत फैलाने वालों के छोटे से गट्ठर के मुकाबले प्यार-मोहब्बत का गट्ठर बहुत बड़ा है।“