Mission Sefer - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

मिशन सिफर - 11

11.

वह गहरी नींद सोता रहा था। सुबह-सवेरे पास की मस्जिद से आती अजान की आवाज से उसकी नींद खुली तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। जल्दी से तैयार हुआ और नमाज़ के लिए मस्जिद जा पहुंचा। गली में थोड़ा आगे चल कर ही मस्जिद थी। बहुत बड़ी नहीं तो बहुत छोटी भी नहीं थी। वुजू करके वह भी नमाज़ के लिए खड़ा हो गया। फज्र की नमाज़ के लिए ज्यादा लोग नहीं आए थे, पर कम भी नहीं थे। कुछ आंखें उसे अजनबी की तरह घूर रही थीं। नमाज़ पढ़ने के तुरंत बाद वह वहां से चला आया था। जिस मकसद से वह भारत आया था, उसके लिए यही बेहतर था कि गैर-जरूरी तौर पर किसी से बात-चीत नहीं करे।

वापस लौटते समय उसे समझ नहीं आ रहा था कि यहां मस्जिदें खुली हुई थीं और उनमें नमाज़ पढ़ने के लिए काफी तादाद में लोग मौजूद थे। ना तो लाउडस्पीकर पर गूंजती अजान की आवाज पर किसी को कोई ऐतराज था और ना ही नमाज़ पढ़ने-पढ़ाने पर। पाकिस्तान में तो उसे बताया गया था कि भारत में तमाम मस्जिदों पर ताले लगा दिए गए थे। यहां के अक्सीरियत वाले काफिर लोग अजान की आवाज बंद करने के लिए और नमाज़ पढ़ने पर हंगामा बरपा कर देते थे। ऐसा कुछ नजर तो नहीं आया उसे।

कल टैक्सी में आते समय भी उसने कई शानदार मस्जिदें देखी थीं जिन पर बड़े-बड़े लाउडस्पीकर लगे हुए थे। पाजामा-कुर्ता और जालीदार टोपी पहने लोग और बुरकों में लिपटी खातूनें बिना किसी खौफ के रास्तों पर चलती नजर आ रही थीं। वह सोच में पड़ गया था। मुसलमानों के लिए भारत जैसे जालिम मुल्क में सबकुछ इतना आसान तो नहीं हो सकता, कहीं कुछ भी तो परेशानी, कोई खौफ दिखाई नहीं दे रहा था। उसने सोचा, शायद अभी तक उसे असली मंजर दिखाई नहीं दिया हो। जरूर भारत में मुसलमानों पर जुल्मों-सितम की इंतिहा हो रही होगी, तभी तो उसका बदला लेने के लिए उसे यहां भेजा गया है। यही सब सोचते-सोचते वह अपने कमरे में पहुंच गया।

वह कमरे में आराम करना चाहता था और अपने मकसद को आगे बढ़ाने के लिए उन हिदायतों को दोहराना चाहता था जो उसे यहां पहुंचने से पहले दी गई थीं। पर, यह उसके लिए मुमकिन कहां था? उसने यहां बता रखा था कि वह बड़ी कंपनी में काम करता है और ट्रांसफर पर यहां आया है, इसलिए उसे दफ्तर के समय पर निकलना ही होगा और कहीं सात-आठ घंटे बिता कर ही वापस आना होगा। जब तक अपना मकसद पूरा करने के लिए जमीन तैयार नहीं हो जाती, उसे मुंबई शहर को अच्छी तरह समझना होगा और जिस एटमी इदारे में उसे अपने काम को अंजाम देना है, उसकी अच्छी तरह रेकी करनी होगी। उसे पता था, आइएसआइ उसे भारत के एटमी इदारे में पहुंचाने के लिए अपनी कोशिशें शुरू कर चुकी होगी। उसे भी हिदायतों के मद्देनजर एहतियात बरतते हुए अपने काम से लग जाना था। उसने तय किया कि वह चाय-नाश्ते के बाद दफ्तर के बहाने मुंबई घूमने और यहां के हालात का जायजा लेने के लिए निकल जाएगा।

भारत आने से पहले उसने मुंबई में हाजी अली की दरगाह का बहुत नाम सुना था। वह खुद भी वहां जियारत करने के लिए बेताब था, इसलिए उसने सबसे पहले वहीं जाने का मन बनाया। नुसरत को यह बता कर कि वह दफ्तर के लिए निकल रहा है, घर से बाहर आ गया। कल जब वह टैक्सी से यहां आ रहा था तब उसने देखा था गली से बाहर निकलने के तुरंत बाद ही मेनरोड थी। वह मेनरोड के लिए पैदल चलने लगा। गली में दुकानें खुल चुकी थीं, खरीद-फरोख्त पूरे शबाब पर थे। लोगों की आवाजाही से चहल-पहल का माहौल था।

उसने देखा लगभग वह पूरा मोहल्ला उसके मज़हब के लोगों से भरा था। उसे लगा जैसे वह अपने ही वतन की किसी बस्ती से गुजर रहा हो। उसे यकीन नहीं हुआ, सबकुछ इतना शांत और सामान्य था। वह लोगों के चेहरों पर जुल्मो-सितम के निशान ढूंढ़ने लगा। पर, कुछ भी तो गैर-मामूली नजर नहीं आ रहा था। यहां भी खातूनें बेफिक्र सड़कों पर चली जा रही थीं। मोहल्ले के बीचों-बीच के मैदान में जालीदार गोल टोपियां लगाए बच्चे खेल रहे थे, कोई भी तो उन्हें रोकटोक नहीं रहा था। उसने सोचा शायद ज्यादातर उसके मज़हब के लोग इस बस्ती में रहते हैं, इसलिए ही वहां सबकुछ सामान्य दिख रहा है। हो सकता है, मिली-जुली मज़हबी बस्तियों में और काफिरों की अकसीरियत वाली बस्तियों में वह माहौल हो जो उसे बताया-समझाया गया था। उसका मन मानने को तैयार नहीं था कि भारत में उसके मज़हब के लोग इतनी सुकून की जिंदगी जी रहे हैं।

वह मेनरोड पर निकल आया और टैक्सी का इंतजार करने लगा। थोड़ी देर में एक टैक्सी उसके पास आकर रुकी और टैक्सी वाले ने उससे पूछा – “किधर को जाना है?”

“मुझे हाजीअली जाना है।“

“तो बैठो”

राशिद ने टैक्सी में बैठते हुए पूछा – “कितनी दूर है यहां से हाजी अली की दरगाह?”

“नए आए हो? घूमने आए हो मुंबई?”

“ऐसा ही समझ लो। कितनी दूर है, आपने बताया नहीं।“

“यही कोई दस-ग्यारह किलोमीटर होगा यहां से।“

“कितना किराया लग जाता है?”

“यह तो ट्रेफिक मिलने पर है। चलूं ना? या फिर बस से जाने का इरादा है?”

राशिद ने कहा – “मैं तो बस अपनी जानकारी के लिए पूछ रहा था। आप चलिए, आगे बढ़ाइये टैक्सी।“

टैक्सी वाले ने पीछे मुड़कर उसे देखा और टैक्सी आगे बढ़ा दी।

राशिद ने नोट किया ड्राइवर के सामने डैशबोर्ड पर मक्का-मदीना की तस्वीर लगी थी। पहनावे से भी ड्राइवर मुसलमान नजर आ रहा था। उसे बहुत अच्छा लगा कि ड्राइवर उसके मज़हब का ही था। कोई काफिर होता तो पता नहीं उसके साथ कैसा सुलूक करता। उसे बताया गया था कि भारत में काफिर लोग मुसलमानों को हर तरह से परेशान करते हैं। अगर ड्राइवर काफिर होता तो हो सकता था, यह जानकर कि नया आदमी है, काफी घुमा-फिरा कर ले जाता और उससे ज्यादा भाड़ा कमाने की कोशिश करता या फिर मन ही मन उसे गालियां देता रहता। वह मुसलमान ड्राइवर के साथ खुद को महफूज महसूस कर रहा था। उसने यहां के हालात जानने की गरज से उससे कहा – “ मुसलमान होना कोई गुनाह तो नहीं। पता नहीं ये काफिर लोग अपने को समझते क्या हैं। माना कि मुल्क में इनकी तादाद ज्यादा है तो क्या हम इनके तशद्दुद सहते रहें। सुना है, यहां मुंबई में तो हालात और भी खराब हैं।“

ड्राइवर ने गाड़ी चलाते हुए शीशे में से उस पर एक नजर डाली और पूछा – “मियां किसने कहा आपसे? किस दुनिया में रहते हैं आप? आप तो पढ़े-लिखे नौजवान मालूम होते हैं। कहां से आए हैं?”

“जी मैं अहमदाबाद से आया हूं।“

“अच्छा, अहमदाबाद में यह सब कभी महसूस नहीं किया?”

“वहां तो हमने जो कुछ भुगता है, वह पूरा जहान जानता है।“

“क्या भुगता है आपने?”

“क्यों 2002 के दंगे याद नहीं हैं आपको? कितना जुल्म ढ़ाया गया था हम पर?

“दंगों की बात मत करो मियां। दोनों तरफ की गलतियों और बेवकूफियों से होते हैं। ज्यादातर दंगे होते नहीं, करवाए जाते हैं। उससे पहले हुई गोधरा की वारदात के बारे में कुछ कहेंगे आप? दोनों मज़हब के लोगों को तकसीम करने वाले और अपना उल्लू सीधा करने वाले दोनों तरफ अजगर की तरह मुंह फाड़े बैठे हैं। कुछ लोगों का तो काम ही दोनों मज़हब के लोगों को आपास में लड़ाना और अपनी रोटियां सेंकना है। अल्लाह गारत करे ऐसे लोगों को। आवाम को तो रोजी-रोटी कमाने से ही फुरसत कहां मिलती है? अच्छा आप इन सब बातों को क्यों ले बैठे हैं? आराम से हाजी अली जाओ और जियारत करो।“

“आप तो नाराज होने लगे भाईजान। सुना था मुंबई में मुसलमानों को घर नहीं मिलते और उनके साथ भेदभाव होता है। बस इसीलिए पूछ लिया। और मुंबई में ही क्यों पूरे मुल्क में क्य यही हालात नहीं हैं?”

“भाईजान, ऐसा कोई एक-आध मामला हुआ हो तो हुआ हो। फिर हिंदुओं के मोहल्लों में कितने मुसलमान घर ढ़ूंढ़ने जाते हैं? कभी यह भी सोचा है कि मुसलमानों के मोहल्लों में कितने हिंदुओं को आसानी से घर मिल जाते हैं और कितने हिंदू मुसलमानों के मोहल्लों में रहने के लिए घर ढ़ूंढ़ने जाते हैं? भाईजान, इक्का-दुक्का मामलों को लेकर ऐसी बातें करना बाजिव नहीं है। मुंबई की बात कर रहे थे ना, ये जो सामने बड़ी-बड़ी बिल्डिंगे देख रहे हैं, इनमें सभी मज़हब के लोग साथ रहते हैं। कुछ फ्लैटों में मुसलमान भी रहते हैं, मैं खुद कई बार उन्हें लेने-छोड़ने जाता हूं।“

“काफिरों की अक्सीरियत वाली बिल्डिंग में रहने पर उन्हें खासी परेशानियां उठानी पड़ती होंगी?”

“किस बात की परेशानी? यहां तो ऐसी भी बिल्डिंगें हैं जहां मुसलमानों के फ्लैट ज्यादा हैं और हिंदुओं और दीगर मज़हब के मानने वाले लोगों के बहुत कम। सब मजे में रहते हैं।“

“अच्छा? यकीन नहीं होता।“

“क्यों यकीन नहीं होता? हिंदुस्तानी ही हो ना भाईजान? यहां तो सदियों से सभी मज़हब के लोग साथ-साथ रहते आए हैं। अब जैसा तुम कह रहे हो, अगर वैसा होता तो एक भी मुसलमान इस मुल्क में दिखाई नहीं देता। पाकिस्तान बना तब भी इतने सारे मुसलमान इसी देश में रुके रहे। आज पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान तो हिंदुस्तान में हैं और यहां सबसे ज्यादा महफूज़ समझते हैं खुद को।“

“यह कैसे कह सकते हैं। शरीयत के मुताबिक चलने वाले देशों में रहने वाले मुसलमानों से ज्यादा महफूज दूसरे देशों में कैसे हो सकते हैं मुसलमान?”

“माफ करना लगता है, किसी सिरफिरे से मिलकर आए हैं आप। अब हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान को ही लें, वहां न मुजाहिर महफूज है न बंगाली। न बलूची खुद को महफूज समझते हैं ना पख्तूनी। वहां के कश्मीर के लोगों के बदतरीन होते हालात किसी से छुपे हैं क्या?”

राशिद ने सावधानी बरतते हुए कहा – “पाकिस्तान में क्या हो रहा है, इससे मुझे क्या लेना-देना। मैं तो अपने मुल्क हिंदुस्तान के हालात के बारे में बात कर रहा था। आप को नहीं लगता हालात सुधरने चाहिए?”

“पता नहीं आप कौनसी किताबें पढ़कर बात कर रहे हैं।“

“किताबें पढ़कर नहीं, सामने जो नजर आता है, वही जुबान पर आ जाता है। अब बताइये बाबरी मस्जिद टूटी या नहीं? उसके बाद पूरे मुल्क में दंगे हुए या नहीं? लिंचिंग के मामले सिर्फ मुसलमानों के साथ क्यों हो रहे हैं? अब तो नामी-गिरामी मुस्लिम हस्तियां भी ये कह रही हैं कि उन्हें अपने और अपने बच्चों के लिए हिंदुस्तान में डर लगता है। सारे मुल्क में कहीं न कहीं मुसलमानों के साथ ज्यादती तो हो रही है।“

“कैसी बातें कर रहे हैं भाईजान? घर में चार बर्तन होंगे तो खड़केंगे नहीं? पर उतने खराब हालात भी नहीं हैं, जितने आप बयान कर रहे हैं। यहां तो सब मिलजुलकर रहते हैं। जिन लोगों को डर लगता है, उनमें से कोई भी मुल्क छोड़ कर गया हो तो बताओ। हां, सियासत करनी हो तो बात अलग है। सच बात तो यह है कि सियासत का खेल खेलने वालों के लिए मुल्क में कोई इंसान रहता ही नहीं है। उनके लिए तो यहां रहते हैं सिर्फ हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई और मुख़्तलिफ़ मज़हब के लोग। पर, इस वोट बैंक की राजनीति को सब धीरे-धीरे अच्छी तरह समझने लगे हैं। आपके जैसे नौजवान को तो अपना नज़रिया बदलना चाहिए, कब तक वही दो-फाड़ करने वाली बातें सोचते-करते रहेंगे?”

“नहीं वैसी बात नहीं है, जैसा .......।“

“जाने दीजिए, लो वो सामने समुद्र में हाजीअली की दरगाह दिख रही है। मैं आपको बाहर ही छोड़ दूंगा। वो जो रास्ता दिख रहा है ना, बस उसी से होकर आपको दरगाह तक जाना है। कितने सारे लोग उस रास्ते से दरगाह की तरफ चले जा रहे हैं, आप उनके साथ चले जाइये। उस गरीब परवर की दरगाह में जाकर अपने नज़रिये को थोड़ा बदलने की अहद लेकर आइये। उनसे हमारे मुल्क में अमनो-अमान के लिए दुआ भी मांग लें।“

राशिद ने टैक्सी से उतर कर किराया चुकाया और हंसते हुए कहा – “भाईजान, आपके साथ सफर कब कट गया पता ही नहीं चला। आप मुतमईन रहें मैंने जो भी बातें कीं वो सब टाइम काटने के लिए थीं। मैं भी हिंदुस्तानी हूं और अपने मुल्क के हालात को अच्छी तरह समझता हूं। शुक्रिया आपका।“

टैक्सी ड्राइवर ने जेब में पैसे रखते हुए कहा – “भाईजान, समय काटने के लिए यह सब ठीक हो सकता है। लेकिन, झूठे-फरेबी और जानबूझ कर दोनों मज़हबों के लोगों को लड़वाने वाले लोगों के बहकावे में आने से बेहतर है असलियत को समझने की दिली कोशिश करना। माहौल को और खराब करने के लिए अकसर ऐसे ही ख्यालात जिम्मेदार होते हैं।“

ड्राइवर ने टैक्सी आगे बढ़ा दी थी। राशिद कुछ देर वहीं सकते की सी हालत में खड़ा रहा। फिर उसने अपने सिर को झटका दिया और हाजीअली की दरगाह की तरफ कदम बढ़ा दिए।

उसके वतन में भी सभी हजरत निजामुद्दीन औलिया, अजमेर वाले ख्वाजा और हाजीअली की दरगाह पर जियारत करने के ख्वाब पाले रखते हैं। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि वह किसी दिन सचमुच मुंबई में होगा और हाजीअली की दरगाह के सामने खड़ा होगा।

दूर-दूर तक फैले समुद्र की उठती-गिरती लहरों के बीच शान से खड़ी हाजीअली की दरगाह कितनी रुहानी लग रही थी। दरगाह तक जाने वाले उस लंबे रास्ते के दोनों ओर समुद्र ठाठें मार रहा था। उसने सुना था कि ज्वार के समय जब समुद्र की लहरें मदमस्त होकर उछलने लगती हैं और किनारों के ऊपर तक अपनी मस्ती बिखेर देती हैं, तब भी हाजीअली तक जाने का यह रास्ता उनकी पकड़ से दूर रहता है। कहते हैं कि यह सब हाजीअली की रुहानी ताकत से ही मुमकिन हो पाता है और उनके मुरीदों के लिए उन तक पहुंचने का रास्ता बंद नहीं होता। वह काफी देर तक इस खूबसूरत नजारे को देखता खड़ा रहा।

हाजीअली की दरगाह तक जाने के रास्ते के बाहर जूस और खाने-पीने की कुछ दुकानें दिखाई दे रही थीं। वहां लोगों की भीड़ लगी थी। उसका भी गला सूख रहा था। उसने एक गिलास जूस गले के अंदर उतारा तो उसे भीतर तक ठंडक महसूस हुई। वह देख रहा था कि दरगाह तक जाने वालों का हुजूम उमड़ा हुआ था। वह भी उस हुजूम में शामिल हो गया।

उस रास्ते पर चलना उसे बहुत अच्छा लग रहा था। दोनों ओर समुद्र की मचलती लहरें उसे सुकून दे ही रही थीं। पर, वह छोटा सा रास्ता भी उसे यह सोचकर बेताब किए था कि बस चंद लम्हों में ही वह हाजीअली की उस दरगाह में होगा जहां की जियारत करने की मन्नत हर मुसलमान मांगता रहता है। दरगाह के भीतर औरतों के जाने पर पाबंदी थी, पर बुरकेवाली तमाम खातूनें भी अपने बच्चों के हाथ पकड़े उस रास्ते पर बढ़ी जा रही थीं ताकि जितने नजदीक से हो सके दरगाह को देखा जा सके और हाजीअली की तासीर और तर्स को महसूस किया जा सके।

तभी वह यह देखकर चौंक गया कि मुसलमानों के साथ-साथ सैंकड़ों हिंदू और दूसरे मजहबों के लोग भी दरगाह में जाने के लिए उस भीड़ में शामिल थे। वे भी मुसलमानों के शाना-बशाना उसी अकीदत के साथ दरगाह की तरफ कदम बढ़ा रहे थे। यह नजारा उसके गले नहीं उतर रहा था। दरगाह में जियारत के लिए काफिर लोग कैसे जा रहे हैं, इतनी बड़ी तादाद में उनकी मौजूदगी के बावजूद मुसलमानों में किसी भी तरह का कोई खौफ, कोई नाइत्तिफ़ाकी क्यों नहीं है। सभी मजहबों के लोग साथ-साथ बड़े इत्तमीनान से कैसे जा-आ रहे हैं। कैसे हो सकता है यह सब? उसे तो बताया गया था कि भारत में हर मुसलमान खौफ में जी रहा है। वह अपने मज़हबी उसूलों को इतनी शिद्दत के साथ अमल में नहीं ला सकता। क्या था यह सब, जो उसके तसव्वुर और ईमान को चोट पहुंचा रहा था।

भीड़ धीरे-धीरे आगे खिसक रही थी। आगे जाकर यह एक लंबी लाइन में बदल रही थी और लाइन में अंदर जाकर लोग अपनी अकीदत के फूल चढ़ा रहे थे। उसका नंबर आने में अभी देर थी, वह लाइन में खड़े लोगों को देखता रहा। हाजीअली के दरवाजे पर खड़े लोग उनकी इनायत के तलबगार थे। वह भी उनके दर पर खुद को खड़ा पाकर बहुत खुश था और बेताबी से अपने नंबर का इंतजार कर रहा था। आखिर उसका नंबर आया और वह दरगाह के भीतर पहुंच गया। उसने वहां अल्लाहताला की कुदरत और उसकी रहमत को याद किया और उसके होठों पर बस एक ही दुआ उभरी कि वह जिस मिशन पर भारत आया है, वह उसे पूरी तरह अंजाम दे सके। उसे नहीं पता था कि वह ऐसी दुआ मांग रहा था जिसे कुबूल करना उस दरगाह के मालिक को मंजूर नहीं था। यह दुआ तखरीब (संहार) के लिए थी, तखलीक (सृजन) के लिए नहीं। पर, उसके दिल में जो था, उसके लिए उसने सच्चाई से दुआ मांगी थी।

दरगाह में मस्त कर देने वाली सूफी कव्वालियों का दौर चल रहा था – “कर दे तू सबकी भली, हाजीअली हाजीहली।“ वह भी कव्वाली के उस मदमस्त कर देने वाले माहौल में खो सा गया था। यहां फिर उसके ईमान को एक झटका लगा। कव्वाली करने वाले लोगों में माथे पर तिलक लगाए एक शख्स भी बैठा था और झूम-झम कर ताली बजाते हुए कव्वाली गा रहा था। हाजीअली की दरगाह के अंदर अकीदतमंद मुसलमानों के साथ वह काफिर बैठा कव्वाली गा रहा था। क्या यह सब दिखावा था। हिंदुस्तान में मुसलमानों के साथ तशद्दुद का जो नंगा नाच होता रहा है, क्या लोग उसे भूल गए हैं। आखिर भारत के मुसलमानों को हो क्या गया है जो वे काफिरों को अपने मज़हबी मामलों में शामिल कर रहे हैं या फिर उनका दख़ल बर्दाश्त कर रहे हैं। उसके सोचने की ताकत जवाब देने लगी थी। वह उसी रास्ते से दोनों ओर समुद्र की लहरों की उछालें देखता हुआ बाहर निकल आया और समुद्र के किनारे बनी डौली पर बैठ गया। उसे घर जाने से पहले अभी बहुत सा समय काटना था।

उसी की तरह सैंकड़ों लोग हाजीअली के हुजूर में हाजिरी देकर बाहर निकल आए थे और समुद्र के किनारे-किनारे दूर तक बनी डौली पर बैठकर समुद्र की लहरों और ठंडी हवा का आनंद ले रहे थे। समुद्र के किनारे की वह डौली दूर-दूर तक भरी नजर आ रही थी। फुटपाथ पर बच्चे खेल रहे थे और दौड़ लगा रहे थे। छोटे बच्चों के साथ उनकी अम्मी या अब्बू भी दौड़ लगा रहे थे। वह बहुत देर तक इस दृश्य को देखता रहा। काश, उसके भी वालिदेन होते और वे भी उसके साथ ऐसे ही खेलते-दौड़ते। उसका मन उदास हो आया।

तभी चने-मूंगफली का झोला गले में लटकाए एक लड़का उसके पास से गुजरा। वह उससे मूंगफली खरीदने वाला था कि उसने देखा वह लड़का हिंदू था। उसने अपना इरादा बदल दिया। वह क्यों किसी हिंदुस्तानी काफिर से कुछ खरीदे जिन्होंने उसके मज़हब के लोगों का जीना मुहाल किया हुआ था। उसी समय एक मुसलमान युवक भी मूंगफली बेचता हुआ उसके पास आया और बोला – “सीग लेंगे जनाब, पांच रुपये में बड़ा पैकेट दूंगा।“ उसे समझ नहीं आया था – “भाईजान मुझे सींग नहीं लगाने, मूंगफली चाहिए”। वह लड़का हंसा था – “मुंबई में शायद नए आए हैं, यहां मूंगफली को ही सींग कहते हैं”। उसने उससे मूंगफली खरीदीं और पैकेट में से एक-एक निकाल कर खाने लगा। खाते हुए वह सोच रहा था, काफिर लड़के से मूंगफली न खरीद कर उसने जैसे उन सबका बदला ले लिया था जो काफिरों को भी अल्लाह के बंदों के बराबर रखते हुए उनके साथ उठ-बैठ रहे थे।

उसे वहां बैठे काफी देर हो गई थी और वह उठने ही वाला था कि एक परिवार बैठने के लिए खाली जगह ढूंढ़ता हुआ उसके पास आकर रुका और उसके पास खाली पड़ी जगह पर बैठने के इरादे से परिवार के बुजुर्ग व्यक्ति ने उससे पूछा – “यह जगह खाली है ना भाईजान, आपके साथ के कोई लोग आने वाले तो नहीं?”

उसने खिसकते हुए उठकर जगह बनाई और कहा –“आप लोग आराम से बैठिए मैं तो वैसे ही जाने वाला था”।

बुजुर्गवार ने उसका हाथ पकड़कर वापस बैठाते हुए कहा – “आप बैठिए बरखुरदार। इतनी जगह तो यहां है कि हम पांचों आराम से बैठ जाएंगे”।

“नहीं, नहीं मैं तो जा ही रहा था....।“

“अरे बैठिए ना, हमारे लिए उठ कर जाने की कोई जरूरत नहीं है। आप चले गए तो हमें लगेगा हमने खामाखां आपको उठा दिया”।

राशिद ने बैठते हुए देखा। बुजुर्गवार के साथ एक पर्दानशीं औरत और एक लड़की थी। दो लड़के भी थे जिनकी उम्र ग्यारह - बारह से लेकर पन्द्रह-सोलह वर्ष की रही होगी। छोटा लड़का तो अपनी मां से चिपक कर बैठ गया था पर बड़ा लड़का फुटपाथ पर खेलने, दौड़ने में लग गया। उसका ध्यान बुजुर्गवार के सवाल से टूटा – “हाजीअली की दरगाह से आ रहे हो?”

“जी हां।“

“हम भी वहीं से आ रहे हैं। वैसे तो यहां आते ही रहते हैं, पर इस बार तीन महीने बाद आ पाए। बेटा आ गया था ना मस्कत से। बड़ी बेटी की शादी थी। अल्लाह के दिए पांच बच्चे हैं। सबसे बड़ा बेटा, वही जो मस्कत में नौकरी करता है, अपनी बीबी को दो वर्ष बाद अपने साथ लेता गया है। बड़ी बेटी अजरा की भी शादी हो गई है। अल्लाह का फजल है, सबकुछ अच्छा है। बस, सोचता हूं कब्र में लेटने से पहले हिजरत कर आऊं”।

“बड़ी अच्छी बात है, कब जा रहे हैं?”

“वैसे तो परवरदिगार का जब हुकुम होगा, तभी जा पाएंगे वहां, पर सोच रहा हूं, बच्चों को इनकी खाला के पास छोड़कर इस बार साहबे मक्का-मदीना के हुजूर में पेश हो ही जाएं।

“बड़ा अच्छा सोचा है आपने। कितना खर्च हो जाता होगा?” - राशिद ने सिर्फ कुछ कहने के लिए ही कह दिया था।

“खर्चा?” - बुजुर्गवार हंसे थे। बरखुरदार, अब तक तो बस सरकारी महकमे में अर्जी लगानी होती थी और सरकार हज के लिए काफी इमदाद दे देती थी। खुद का खर्चा तो बहुत कम होता था।“

“मैं समझा नहीं?”

“आपके घर से कभी कोई हज पर नहीं गया क्या?”

“जी नहीं, मेरे घर में कोई नहीं है।“

“वाल्देन?”

“जी, मेरी परवरिश तो यतीमखाने में हुई है”।

“या अल्लाह। माफ करना, आपको तकलीफ पहुंचाने का मेरा कोई इरादा नहीं था।“

“आप क्यों माफी मांगेंगे? आपने कोई गलत इरादे से थोड़े ही पूछा था, फिर आपको क्या पता था कि मैं यतीम हूं।“

“जाने दीजिए। मैं तो यह कह रहा था कि हज पर जाने के लिए जब सरकार से काफी इमदाद मिल जाती थी, तब तो हज पर नहीं जा पाए। अब जब यह इमदाद खत्म कर दी गई है तब जाने की सोच रहे हैं। देखते हैं, कितना खर्चा आता है। अल्लाह की मर्जी होगी तो जाएंगे और वही खर्चा उठाने की सलाहियत भी देगा। वैसे इमदाद हटाने के साथ ही सरकार ने दूसरी सहूलियतें इतनी कर दी हैं कि हज करके आए लोग कहते हैं कि इमदाद हटने से खर्च कोई खास बढ़ा नहीं है।“

“अच्छा, सरकार हर मुसलमान को हज करने के लिए पैसा और सहूलियतें देती रही है?” राशिद को विश्वास नहीं हो रहा था। हिंदुस्तान में हिंदुओं की सरकार मुसलमानों को हज के लिए इमदाद देती रही है और बहुत सी सहूलियतें अभी भी दे रही है। पाकिस्तान जैसे इस्लामी मुल्क में ऐसी इमदाद दी जा रही थी तो कोई गैर-मामूली बात नहीं थी, पर हिंदुस्तान में हिंदुओं के राज में भी मुसलमानों को हज के लिए सब्सिडी दिया जाना तो वाकई मामूली बात नहीं थी? वह तो यह सोच कर भी काफिरों को गाली नहीं दे सकता था कि सालों-साल चली आ रही इस इमदाद को आखिर उन्होंने खत्म करके मुसलमानों को तंग करने का अपना मंसूबा ही आगे बढ़ाया था क्योंकि उसके अपने मुल्क पाकिस्तान में सरकार ने भी हज की सब्सिडी खत्म करने का ऐलान कर दिया था। उसे नहीं पता था कि वहां हज पर जाने वालों के लिए सहूलियतों में कोई इजाफा हुआ है या नहीं।

राशिद कुछ समझ नहीं पा रहा था। हिंदुस्तान में मुसलमानों के साथ जुल्म की जो तस्वीर उसके मन में थी या बैठाई गई थी, वह पहले दिन ही उसे टूटती नजर आ रही थी। टैक्सी चलाने वाले ड्राइवर से लेकर एक मुस्लिम परिवार तक ने ऐसी कोई बात नहीं की थी जिससे उसे लगा हो कि यहां मुसलमान डरे हुए हैं। फिर हाजीअली में मुसलमानों के साथ-साथ इतने सारे काफिरों की भीड़ देख कर भी उसे झटका लगा था। जहां दरगाहों में मुसलमानों को ही प्रवेश मिलना चाहिए था या फिर उनके वुजूद पर खतरा नजर आना चाहिए था, वहां दरगाह में कव्वालियों के स्वर और हिंदुओं द्वारा भी वहां अकीदत के फूल चढ़ाना तो कोई और ही कहानी कह रहे थे। पाकिस्तान में तो हिंदुओं और मुख़्तलिफ़ मजहब के लोगों को इतनी छूट नहीं थी। वहां तो उनको डर कर ही रहना था। यह तो वो हिंदुस्तान नहीं है, जिसके बारे में वह अपने मुल्क में पढ़ता-सुनता आया था।

तभी कहीं दूर से आती अजान की आवाज ने उसका ध्यान खींचा था। नमाज़ का टाइम हो गया था। उसे तो यह भी नहीं पता था कि वहां से मस्जिद कितनी दूर थी। अभी वह यह सब सोच ही रहा था कि उसने देखा नमाज़ के पाबंद कई लोग सड़क पर ही नमाज पढ़ने की तैयारी कर रहे थे। यहां भी कोई उनके काम में दखल नहीं दे रहा था। वह भी सड़क पर नमाज़ पढ़ने वालों की जमात में शामिल हो गया।

नमाज़ के बाद उसने देखा, वह परिवार वहां से जा चुका था। उसे भूख लग रही थी। उसने घड़ी पर नजर दौड़ाई। वह किसी मुसलमान भाई द्वारा चलाये जाने वाले रेस्त्रां की खोज में सड़क पर निकल आया। थोड़ी दूर चलने पर ही उसे ऐसा रेस्त्रां नजर आ गया। वहां बैठकर उसने खाना खाया। खाना उसकी उम्मीद से बेहतर था।

समय काटने के लिए वह पैदल ही इधर-उधर घूमने लगा। उसे यह देखकर आश्चर्य हो रहा था कि तमाम मुस्लिम इदारे और मदरसे खुले हुए थे और बेखौफ अपना काम कर रहे थे। गलियों / सड़कों पर चांद-तारे बने हरे झंडे लहरा रहे थे। कई दुकानों / इदारों पर उर्दू में लिखा था। कहीं-कहीं अगले हफ्ते होने वाले मुस्लिम इज्जतिमा के बड़े-बड़े होर्डिंग और बैनर लगे थे। ये सब देखकर उसे लग रहा था कि वह पाकिस्तान की सड़कों / गलियों में ही घूम रहा है।

आखिर बड़ी मुश्किल से समय कटा और वह टैक्सी करके घर की ओर चल दिया।

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