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मिशन सिफर - 4

4.

कादरी भाई के साथ हॉस्टल जाने से पहले उसने यह मुनासिब समझा कि वह यतीमखाने जाकर सबसे मिल आए और उनका शुक्रिया अदा करने के साथ उन्हें कादरी भाई और उनके मार्फत उसके रहने-खाने का इंतजाम करने की बात भी बता आए। वहां सभी ने उसका गर्मजोशी से इस्तकबाल किया और इस बात पर खुशी जाहिर की कि उसके पर्चे अच्छे हुए थे और कादरी भाई की सरपरस्ती उसे मिल गई थी। उसने यतीमखाने के लोगों से यह वादा किया था कि वह गाहे-बगाहे वहां आता रहेगा और मुलाज़मत में आने के बाद उनके लिए कुछ इमदाद भी देने की कोशिश करेगा। उनसे और अपने साथियों से बातचीत करते समय वह अपने आंसुओं को नहीं रोक सका था क्योंकि यही वह जगह और लोग थे जिनकी वजह से उसकी शुरूआती बेनूर जिंदगी ने उजाला देखा था। रिजल्ट आने के बाद फिर से आने का वादा करके वह उन वकील साहब से भी मिलने जा पहुंचा जिन्होंने उसकी इंजीनियरी की पढ़ाई का पूरा खर्चा उठाया था। वे बहुत खुश हुए थे और सारी बातें जानने के बाद उहोंने उसकी नौकरी लगने तक उसे पांच सौ रुपये महीना देने की पेशकश कर दी थी। राशिद के रहने–खाने का तो इंतजाम हो गया था, पर हाथ खर्च के लिए उसे पैसों की जरूरत तो थी ही, इसलिए उसने उनका शुक्रिया अदा करते हुए उसे मंजूर कर लिया था।

उसकी सारी परेशानियां अल्लाहताला की मेहरबानी से खुद-ब-खुद खत्म होती जा रही थीं। उसकी छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी वह इंतजाम कर दे रहा था। उस जैसे नाचीज़ बन्दे पर उसकी इतनी इनायतें उसकी समझ से परे थीं। इस सबके लिए वह उनके हुजूर में बस सज़दा ही कर सकता था। वही सबको देने वाला था, कोई उसे क्या दे सकता है। उसने तय किया कि वह एक अच्छा इंसान बन कर ही अल्लाहताला की मेहरबानियों के लिए शुक्रिया अदा कर सकता है। वह एक अच्छा इंसान बन कर दिखाएगा, अल्लाह के दिखाए रास्ते पर चलेगा और इसके लिए उसे अपनी कुर्बानी भी देनी पड़ेगी तो वह पीछे नहीं हटेगा।

हॉस्टल पहुंच कर उसने यहां-वहां बिखरी अपनी चीजों को बैग में रख लिया था। कपड़े और किताब-कॉपियों के अलावा उसके पास और कुछ था भी क्या। थक कर वह बिस्तर पर पड़ गया और कुछ ही देर में नींद के आगोश में समा गया। कल सुबह ही उसे यहां से चले जाना था।

शाम को मैस में खाना खाने के बाद वह अपने उन दोस्तों से मिला जो इम्तिहान खत्म होने के बाद भी किसी वजह से अभी हॉस्टल में ही रुके थे। हमेशा पढ़ाई में उलझे रहने वाले राशिद के यूं तो बहुत कम दोस्त थे, लेकिन जो थे उनसे उसके दिली रिश्ते बन गए थे। इकराम ने उससे पूछा था – “तुम्हारा तो कोई घर नहीं है राशिद, फिर से यतीमखाने जाओगे?”

राशिद ने कहा था – “यतीमखाने जाकर अब फिर से मैं उन पर बोझ नहीं बनना चाहता।“

इकराम को थोड़ा अचंभा हुआ था – “फिर, कोई दूसरा ठिकाना खोज लिया है क्या?”

“हां, एक दयानतदार शख्सियत से मुलाकात हुई थी। उन्होंने ही मेरे रहने-खाने का इंतजाम कर दिया है।“

“कौन है वो?” – इकराम ने पूछा था।

“मस्जिद में नमाज के वक्त उनसे मुलाकात हुई थी। मेरे बारे में जब उन्हें पता चला कि हॉस्टल से निकलने के बाद वापस यतीमखाने जाने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है तो उन्होंने किसी मज़हबी इदारे में मेरे रहने का इंतजाम कर दिया है।“

“किसी मस्जिद में?”

“नहीं कोई हॉस्टल है।“

“कहां है?”

“इतना तो मुझे भी नहीं पता। कल उनके साथ वहां जाऊंगा तभी तफ्सील का इल्म होगा।“

“देख लेना राशिद भाई। किसी अनजान आदमी के शिकंजे में मत फंस जाना।“

“नहीं, नहीं इकराम भाई वे बहुत ही मज़हबी, वतनपरस्त और सच्चे आदमी हैं। मुझे पता है उनकी नीयत साफ है। मुझ पर तो उनकी मेहरबानियां इसीलिए हो रही हैं क्योंकि वे मेरी पांचों वक्त की नमाज की पाबंदी और पाकिस्तान के लिए कुछ कर गुजरने की चाह से बहुत ही मुतस्सिर हुए हैं।“

“ठीक है भाई। मैं तुम्हें कोई नसीहत तो दे नहीं रहा। अगर तुम ऐसा समझते हो तो सही ही होगा क्योंकि तुमसा ज्यादा जहीन तो मैं नहीं ही हूं। अपना ख्याल रखना दोस्त।“

“फिक्र मत करो इकराम। ये सबकुछ उस ऊपर वाले की मर्जी से ही हो रहा है। नहीं तो आजकल कौन किसी पर बिना मतलब मेहरबान होता है।“

“वही तो मैं कह रहा हूं, कोई न कोई तो मतलब होगा ही। ख्याल रखना अपना।“

इकराम के जाने के बाद यह बात उसके दिमाग में बड़ी देर तक घूमती रही कि कोई भी बिना किसी मतलब के किसी पर मेहरबान नहीं होता। उसकी बात में दम तो था, पर वह कादरी भाई जैसे किसी इंसान से मिला नहीं था, इसलिए उसकी समझ में यह बात आना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन था।

सुबह जब वह सो कर उठा तो मैस में चाय-नाश्ते का टाइम हो गया था। चूंकि हॉस्टल में बहुत कम लड़के बचे थे, इसलिए उन्हीं के लिए नाश्ता बनता था। थोड़ी भी देर हो जाने पर नाश्ता मिलना मुश्किल हो जाता था या फिर उसे उठाकर रख दिया जाता था जिसे ठंडा ही खाना पड़ता था। राशिद फटाफट तैयार हुआ और नाश्ते की मेज पर जाकर बैठ गया। अपना मनपसंद नाश्ता देख कर उसे बहुत अच्छा लगा। कुछ ही देर में वह यह हॉस्टल हमेशा के लिए छोड़कर चले जाने वाला था। चार साल का लंबा समय कटा था यहां। नाश्ता खत्म करने के बाद उसने हॉस्टल और कॉलेज का एक चक्कर लगाया। इन्हीं दरोदीवार के बीच रह कर कितना लंबा समय गुजारा था उसने। कैसे अजनबी जगहें भी अपनी सी लगने लगती हैं। वह कुछ सेंटी हो आया था। उसने सोचा, यहां से जाने के बाद इस सब की बहुत याद आएगी। वह ज्यादा देर तक वहां नहीं रह सका और तुरंत ही अपने कमरे में लौट आया।

कमरा खाली था। उसका रूममेट इकबाल तो इम्तिहान खत्म होने के दूसरे दिन ही अपने घर चला गया था। उसका घर लाहौर के पास के किसी गांव में था। राशिद ने घड़ी देखी दस बजने में बारह मिनट रह गए थे। उसने एक भरपूर नजर उस कमरे पर, उस बिस्तर पर, उस आलमारी पर और उस मेज-कुर्सी पर डाली जो पिछले कई वर्षों से उसके साथी बने हुए थे। फिर उसने अपना बैग उठाया, कमरे से बाहर निकल कर दरवाजे में ताला लगाया और फिर काउंटर पर चाबियां देकर हॉस्टल के मेनगेट के पास आकर खड़ा हो गया जहां थोड़ी ही देर में कादिर भाई उसे ले जाने के लिए आने वाले थे।

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