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मिशन सिफर - 1

मिशन सिफर

डा. रमाकांत शर्मा

 

समर्पण

जाने-माने रंगकर्मी एवं साहित्यकार

प्रिय मित्र

श्री रमेश राजहंस को

जिन्होंने यह उपन्यास लिखने के लिए

मुझे प्रेरित किया

 

अपनी बात

विश्वभर में भारत अकेला ऐसा देश है जहां संसार के सभी धर्मों के लोग आमतौर से शांतिपूर्वक रहते आए हैं। यहां की गंगा-जमुनी संस्कृति देश-विदेश के लोगों के लिए हैरत का विषय बनी रही है क्योंकि अपने-अपने अनुभव के आधार पर उनके लिए यह मानना बहुत मुश्किल है कि विभिन्न धर्मावलंबी एक देश में एकसाथ बहुधा शांतिपूर्वक रह सकते हैं। कुछ देशों ने तो अपने संविधान में देश का धर्म घोषित किया हुआ है। वहां उन अल्पसंख्यक नागरिकों के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव किया जाता है जो देश के घोषित धर्म के मानने वाले नहीं हैं। हमारे पड़ोसी देश इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं जहां हो रहे अत्याचारों से घबरा कर अल्पसंख्यक धर्मावलंबी भारत की ओर रुख करते आए हैं।

हमारे देश में बहुसंख्यक हिंदू और सबसे बड़ी तादाद वाले अल्पसंख्यक मुसलमान सदियों से अमूमन मिलजुल कर रहते आए हैं। लेकिन, इनके बीच का सौहार्द उन लोगों को हमेशा नागवार गुजरता रहा है जो इनके बीच बदअमनी फैला कर ही अपनी रोटियां सेंकते रहे हैं। इनमें वोटों के शिकारी राजनीतिक नेता और अपने-अपने धर्मों के लोगों के कथित रहनुमा और नेता बनने वाले लोग तथा कट्टरपंथी शामिल हैं। इसका फायदा देश-विदेश के हमारे दुश्मन उठाते रहे हैं। विश्वभर में भारत की छवि बिगाड़ने के लिए वे छिटपुट घटनाओं को तूल देते हैं और बदअमनी फैलाने में उनका सहारा लेते हैं।

भारत में मुसलमानों की बदहाली के अर्धसत्य को पूर्णसत्य बनाकर और उसे धार्मिक रंग देकर पेश करने वालों की कमी नहीं है। इस बदहाली के लिए दो धर्मों के बीच सायास फैलाया जाने वाला वैमनस्य शायद ही जिम्मेदार है। असली कारण है उन्हें शिक्षा से दूर रखना और स्वतंत्र रूप से न सोचने देना। अशिक्षा और दूसरों की सोच पर अमल करने के कारण ही देश के अधिकांश अल्पसंख्यक गरीबी, बेरोजगारी और कट्टरता के जाल में फंस कर बदहाल जिंदगी जीने के लिए विवश हैं। जिन लोगों ने अच्छी शिक्षा हासिल कर ली है और नई सोच के साथ आगे बढ़े हैं उन्होंने देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, सेना में उच्च पद तथा विभिन्न खेलों के कप्तानों और सरकारी तथा निजी क्षेत्र में शिखर पदों को सुशोभित किया है।

विदेशों में, विशेषकर हमारे पड़ोसी देशों में भारत में मुसलमानों की बदतरीन हालत का जानबूझकर झूठा प्रचार किया जाता है ताकि अपने लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़का कर उनमें भारत के प्रति विद्वेष पनपाया जा सके और उनके मन-मस्तिष्क में जहर भरा जा सके। ऐसी ही भावनाएं भड़का कर वहां आतंकवादी और फिदायीन तैयार किए जाते हैं जो अपनी जान पर खेलकर भी भारत के अमन-चैन को बिगाड़ते हैं और दोनों धर्म के लोगों के बीच बदगुमानी पैदा करने का कारण बनते हैं।

दोनों तरफ के नासमझ भड़काए गए लोगों को छोड़ दें तो अमूमन सभी शांति और सुकून से जिंदगी बसर करना चाहते हैं। देश के सामान्य लोगों के पास ना तो इतना समय है और ना ही शक्ति कि वे दंगे करते-कराते रहें और एक-दूसरे की ज़िंदगी मुहाल करते रहें। उन्हें चाहिए अपने और अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी और बेफिक्र जिंदगी। बुरे वक्त में एक-दूसरे के काम आना, एक-दूसरे के त्योहारों में खुशियां मनाना और प्यार-मोहब्बत से रहना हमारे देश में जीवन जीने का ढंग बन गया है। पर, यह सौहार्द उन लोगों को क्यों पसंद आने लगा जिनका स्वार्थ इन दोनों मजहब के लोगों के बीच बदअमनी फैलाने से ही सधता है।

‘मिशन सिफर’ की कहानी इस सोच के साथ लिखी गई थी कि विदेशों में, विशेषकर हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में, भारत के मुस्लिम नागरिकों पर अत्याचार के बारे में जो भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं, उन्हें सामने लाया जा सके। इरादा यह भी था कि इस कहानी पर फिल्म बने ताकि सच्चाई देश-विदेश के लोगों तक पहुंच सके। सात पन्नों की इस कहानी को जब कुछ मित्रों को दिखाया गया तो उन्हें कहानी की मूल भावना पसंद आई। जाने-माने रंगकर्मी और साहित्यकार मेरे मित्र और आलोचक श्री रमेश राजहंस ने सलाह दी कि इस कहानी को उपन्यास का विस्तार दिया जाना चाहिए। मैंने कभी कोई उपन्यास नहीं लिखा था, इसलिए बड़ी हिचक के साथ उनके सुझाव पर काम करने का निर्णय लिया। एक बार लिखना शुरू किया तो यह उपन्यास की शक्ल अख्तियार करता गया। इस काम के लिए प्रेरणा देने वाले रमेश राजहंस जी को यह उपन्यास समर्पित करते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है।

मुस्लिम पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस उपन्यास की रचना में मेरे मित्र काजी मोहम्मद ईसा ने जो सहयोग दिया है, उसके लिए मैं उनका जितना भी आभार व्यक्त करूं कम ही होगा।

इस उपन्यास की आत्मा तक पहुंचने के लिए मैंने आतिका फारुखी की खूबसूरत नज्म “कौमी यकजेहती” को यथास्थान उद्धृत (quote) किया है। इसके लिए उनका आभार व्यक्त करना मेरा फर्ज बनता है।

मुझे सतत लिखने के लिए प्रेरित करने वाले अपने सभी मित्रों के प्रति मैं आभारी हूं। विशेष रूप से वरिष्ठ साहित्यकार और अभिन्न मित्र डा. दामोदर खड़से जी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहूंगा जो मुझे कहानियों के बाद अब उपन्यास विधा में लिखने के लिए अभिप्रेरित करते रहे। उनसे वादा रहा कि साहित्यिक उपन्यास लिखने का भी प्रयास करूंगा।

स्थापित व्यंग्यकार और लेखक सुरेश कांत उन मित्रों में से हैं जिनके लेखन ने मुझे लिखने के लिए अभिप्रेरित किया है और जिनकी सराहना मुझे लिखते रहने के लिए प्रेरित करती रही है। उनका हृदय से आभार।

‘कथाबिंब’ के संपादक श्री माधव सक्सेना ‘अरविंद’ तथा ‘व्यंग्य वार्षिकी’ की संपादिका आदर्श शर्मा ने अपनी पत्रिकाओं में निरंतर मेरी रचनाएं प्रकाशित कर मुझे प्रोत्साहित किया है, उनका भी दिल से आभार।

पूज्य माताजी स्व. श्रीमती राजेश्वरी शर्मा और पूज्य पिताजी स्व. श्री आर.पी. शर्मा ‘महरिष’ का आशीर्वाद हर समय मेरे साथ है, उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन। पिताजी स्वयं प्रसिद्ध ग़जलकार और इल्मे-उरूज के पंडित रहे हैं और देश-विदेश में फैले उनके शिष्य आज भी बहुत श्रद्धा से उन्हें स्मरण करते हैं। काम के प्रति उनकी लगन, समर्पण और मेहनत मुझे हमेशा प्रेरित करते रहे हैं और मेरे लिए मार्गदर्शक का काम करते रहे हैं।

इस अवसर का लाभ उठाकर मैं अपने परिवार के सदस्यों अंजु, आनंद, श्वेता, अनुभव, शिवांगी, आयुष, स्तुति, अवंती और संभव के साथ-साथ अपनी बहनों प्रतिभा, ममता (स्व.) तथा सविता के परिवारों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं, जिनका स्नेह मुझे मानसिक संबल प्रदान करता है।

प्रसिद्ध गज़लकार और लेखिका देवी नांगरानी जी के प्रति कृतज्ञ हूं, जिनका स्नेह और आशीर्वाद तथा लिखते रहने की प्रेरणा मेरे लिए पथप्रदर्शक का काम करती है।

कथाकार और वरिष्ठ साहित्यकार अपने मित्र श्री सूरज प्रकाश जी का आभार। उन्होंने मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित तो किया ही है, इंडिया नेटबुक्स के संजीव डाक्टर जी से परिचित भी कराया जिन्होंने इस उपन्यास को सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया है।

यह मेरा पहला उपन्यास है। आपकी प्रतिक्रिया और सुझाव पाकर अच्छा लगेगा।

- डा. रमाकांत शर्मा

 

मिशन सिफर

1.

राशिद छत पर बैठा आकाश में रोशनी बिखेरते चांद को देख रहा था। कल ईद थी और इस चांद का पाकिस्तान के हर घर में कितनी बेताबी से इंतजार हो रहा था। पाकिस्तान ही क्यों, दुनिया में जहां कहीं मुसलमान हैं, वहां ईद के चांद की अहमियत बढ़ जाती है। लोगों की निगाहें आसमान की ओर लगी रहती हैं और चांद के निकलते ही सब एक-दूसरे को बधाई देने और खुशियां मनाने में लग जाते हैं। चांद भी अपनी अहमियत समझते हुए लोगों को तरसा-तरसा कर नमूदार होता है। क्यों न हो, असंख्य लोग उसके दीदार के लिए आंखें गड़ाए खड़े जो रहते हैं। बीआइपी चांद खासे इंतजार के बाद ही नजर आता है। आज चांद कुछ जल्द निकल आया था, पर कोई भी उतनी बेताबी से उसका मुंतजिर नहीं था। उसका मन खिन्न हो गया। चांद कुछ ज्यादा ही मुस्कराता नजर आ रहा था, पर इतने सारे तारों के बीच उसे न जाने क्यों वह बिलकुल अकेला लगा, ठीक उसके जैसा अकेला। उसने एक गहरी सांस ली और उठकर छत पर टहलने लगा।

इस भरी-पूरी दुनिया में वह बिलकुल अकेला था। उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि उसके वालिदेन कौन थे। एक मजहबी इदारे द्वारा चलाए जा रहे यतीमखाने में उसने आंखें खोली थीं। वहीं उसे राशिद नाम मिला था। वह सीधा-सादा लड़का था। यतीमखाने के सारे कायदे-कानूनों का पूरा पालन करता। सभी लोग उसकी तारीफ करते और वह उस मार-पिटाई और बात-बेबात पर सजा भुगतने से बचा रहता जिसके यतीमखाने के दीगर बच्चे आदी हो चुके थे। पढ़ने-लिखने में उसकी रुचि देखकर उसे मदरसे में दाखिल करा दिया गया था। वहीं उसने कुरान के साथ-साथ अन्य विषयों की भी पढ़ाई की।

मदरसे में उसे पता लगा कि उसके मज़हब का कोई सानी था। खुद अल्लाहताला ने जमीं पर कुरान शरीफ उन लोगों के लिए नाज़िल की थी जो इस काबिल थे और उसमें ईमान रखते थे। उसे गर्व हुआ था कि वह भी उन लोगों में शामिल है, जिन्हें अल्लाहताला ने इस काबिल समझा था। हर मुसलमान की तरह पैगंबर मोहम्मद साहब का जीवन उसके लिए आदर्श बन गया था और उसने तय कर लिया था कि वह सच्चे मुसलमान की तरह अपनी जिंदगी बसर करेगा।

मदरसे में पढ़ते वक्त और जुमे की नमाज के बाद की तकरीरों से उसे यह जानकर बड़ा झटका लगा था कि पूरी दुनिया में इस्लाम खतरे में था। मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा था। विशेषकर, पड़ोसी देशों में मुसलमानों का रहना दुश्वार था। हिंदुस्तान में तो बहुत ही बुरा हाल था। अगर पाकिस्तान नहीं होता तो इस्लाम को बचाने वाला कोई नहीं था। यह सब सुन-सुन कर उसका खून खौलने लगता था। उसका मन करता वह भी जिहाद में शामिल हो और उन लोगों, उन मुल्कों से बदला ले जो इस्लाम जैसे नायाब मज़हब के खिलाफ खड़े थे। कई बार उसने सोचा था कि अगर पूरी दुनिया ही कुरान के रास्ते पर चलती और सब जगह खलीफा की हुकूमत होती तो कितना अच्छा होता। अखबारों की खबरें पढ़-पढ़कर तो वह और भी बेचैन हो जाता। इस्लाम के दुश्मनों के लिए उसका दिल नफरत से भर जाता और वह उनसे बदला लेने के लिए मन ही मन तैयार होने लगता।

वह पढ़ाई में बहुत तेज था। इसलिए यतीमखाना चलाने वाले इदारे ने यह फैसला लिया कि उस जहीन लड़के का दाखिला शहर के नामी स्कूल में कराया जाए। राशिद यह मौका पाकर बहुत खुश था। वह दिल लगाकर मेहनत से पढ़ाई करता रहा और हर बार अव्वल रह कर जमातें पास करता रहा। बारहवीं में जब उसने पूरे स्कूल में सबसे ज्यादा नंबर पाए और उसे गोल्ड मेडल मिला तो इदारे ने उसे और आगे पढ़ाने का फैसला किया। शहर के एक नामी वकील ने उसकी पढ़ाई का सारा खर्चा उठाने का ऐलान किया तो वह अल्लाह की मेहरबानियों के आगे सज़दे में झुक गया।

उसे पाकिस्तान के नामी इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमीशन मिल गया तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। उसने सोच लिया था कि उसकी पढ़ाई और उसकी जरूरतों का सारा खर्चा उठाने वालों को वह निराश नहीं करेगा। अपनी आइटी और सिस्टम इंजीनियरिंग की पढ़ाई सबसे ज्यादा नंबर लेकर पास करने के मकसद से उसने कोर्स की किताबों और पांचों वक्त की नमाज़ के अलावा बाकी सभी चीजों को तकरीबन भुला ही दिया था। वह हर समय किताबों में डूबा रहता। उसके साथी उसे किताबी कीड़ा कह कर बुलाते और उसकी हंसी उड़ाते थे, पर उसके प्रोफेसर उससे बहुत खुश थे और उसका पूरा ध्यान रखते थे।

उसे याद है, उस दिन उसके रूममेट इकबाल ने कहा था – “राशिद, तुम्हें नहीं लगता कि पढ़ाई के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ देखने-करने को है?”

“होगा इकबाल, पर मेरे लिए सबसे जरूरी पढ़ाई है।“

“अरे, हर तालिबे-इल्म के लिए पढ़ाई जरूरी है। पर, याद रखो कॉलेज के मौज-मस्ती के ये दिन फिर कभी नहीं आएंगे। पढ़ाई के साथ-साथ इस ज़िंदगी का लुत्फ भी उठाना जरूरी है।“

“कौन सी ज़िंदगी इकबाल? मेरी अब तक की जिंदगी यतीमखाने में कटी है। आगे की जिंदगी संवारने में लगा हूं। चाहता हूं, इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म करके कोई अच्छी सी नौकरी से लग जाऊं। जिस यतीमखाने ने मुझे पाला-पोसा है और जिस इदारे ने मुझे पढ़ने और आगे बढ़ने के लिए सहारा दिया है, उसकी कुछ मदद कर सकूं। अपने वतन के लिए भी कुछ करने का इरादा रखता हूं। फिर जो यह सब हो रहा है, वह ऊपरवाले की रजा और उसकी मेहरबानियों से ही तो हो रहा है, उसके लिए भी तो मेरा कुछ फर्ज बनता है। जो-जो फर्ज उसने एक मुसलमान के लिए आयद किए हैं, वे सब पूरी संजीदगी से निबाहना चाहता हूं।

“उसके लिए तुम्हें रोक कौन रहा है? जो चाहते हो करो। पर, उस परवरदिगार ने ही तो अपने बंदों के मनबहलाव के लिए रंगीनियां बख्शी हैं, उनसे मुंह मोड़ना उसकी नाफरमानी नहीं है?”

“तुम्हारी इस बात में दम तो है दोस्त। पर, मेरा मन नहीं मानता। मैंने अपने अब्बू-अम्मी की शक्ल नहीं देखी है। ना ही कभी जाना है कि उनका प्यार, उनकी परवरिश का साया कैसा होता है। जिस तरह अब तक की जिंदगी मैंने बिताई है वह मुझे रोकती है इस सब में अपना वक्त जाया करने से। किताबों को साथी बनाकर और पांचों वक्त की नमाज़ पढ़कर देखो, कितना सुकून मिलता है। वह चाहेगा तो खुद ही हर तरह से नवाजेगा।“

“तुम भी यार राशिद, मुल्ला-मौलवियों की तरह बात कर रहे हो। जैसी तुम्हारी मर्जी। इंशाअल्लाह तुम खूब पढ़ो, अव्वल आओ और तुम्हारी सारी ख्वाहिशें पूरी हों। चलो, मैं तो चलता हूं। बस, इतना जरूर कहता हूं कि अव्वल आऊं या नहीं, इंजीनियर तो मैं भी बन जाऊंगा। वतन के लिए मर-मिटने की ख्वाहिश भी पूरी कर लेंगे यार, मौज-मस्ती के दिन हैं तो उन्हें तो जी भर कर जी लें।“

इकबाल चला गया था, पर उसके लिए सोचने का बहुत सा मसाला छोड़ गया था। बहुत देर तक बैठा वह इकबाल की बातों पर गौर करता रहा था, फिर सिर को एक झटका देकर खड़ा हो गया था। इकबाल और उसके जैसे लड़कों की राह पर चलने की वह सोच भी कैसे सकता था। वह बिलकुल अकेला था, उसके साथ ना तो उसका कोई परिवार था और ना ही मौज-मस्ती के लिए समय और पैसे। बस, वह अपने बनाए रास्ते पर ही चलेगा। उसके लिए वतन और मज़हब सबसे बढ़कर हैं। उसने अपनी आंखें बंद कीं और अपने इरादों को और मजबूती देकर पढ़ने की मेज पर जाकर बैठ गया।

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