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गूंगा गाँव - 12

बारह

गूंगा गाँव 12

अकाल का स्थिति में जितनी चिन्ता गरीब आदमी को अपने पेट पालने की रहती है उतनी ही तृष्णा घनपतियों को अपनी तिजोरी भरने की बढ़ जाती है। गाँव की स्थिति को देखकर ठाकुर लालसिंह रातों-रात अनाज की गाडियाँ भरवाकर बेचने के लिये शहर लिवा गये।

सुबह होते ही यह खबर गाँव भर में फैल गई। इससे लोगों की भूख और तीव्र हो गई। उन्हें लगने लगा-यहाँ के सेठ-साहूकार हमें भूख से मारना चाहते हैं। सभी समस्या का निदान खोज लेना चाहते थे।

मौजी ने भी यह बात सुन ली थी। उसे ठाकुर लालसिंह पर अगाध विश्वास था कि चाहे जो हो वे उसे पीठ नहीं देंगे। उसके आदमी उनके यहाँ नौकरी करते आये हैं और करते रहेंगे। इतना सोचने पर भी उसे शंका हो गई कि जब वे अपना सारा अनाज ष्शहर ले गये फिर मुझे अनाज कहाँ से देंगे? यह सोचकर उसका मन न माना तो उसने अपना डोरिया उठाया और जा पहुँचा ठाकुर लालसिंह के दरवाजं पर अनाज माँगने। जब वह उनके यहाँ पहुँचा ठाकुर लालासिंह बही-खाते देखने में व्यस्त थे। गाँव के लोगों के खातों को दत्तचित्त इधर से उधर पलट रहे थे। मौजी की राम-राम का जबाव उन्होंने मात्र आँख से उधर देख कर दे दिया। मौजी बिना उत्तर पाये उनके चबूतरे से सटकर बैठ गया। उसे बैठे-बैठे आधा घन्टा निकल गया। उसे लगने लगा- यह अनाज न देने का इशारा तो हो ही गया है। बैठे-बैठे उसे चूल्हे पर रखी हाण्डी खाली दिखती रही। भूख से बिलबिलाते बच्चे दिखते रहे। ठाकुर लालसिंह उसके डोरिया को देखकर समझ गये, वह क्यों आया है। मन ही मन उन्होंने उसे हजारो गालियाँ दीं। ऊपरे मन से पूछना पड़ा-‘काये मौजी कैसे आओ है?’

मौजी इसी प्रश्न की प्रती़क्षा में सुकड़ा बैठा था। सुनते ही बोला-‘दद्दा घर में नेकऊ नाज नाने। दो दिना से मोड़ी-मोड़ा भूखिन मर रहे हैं। मेन्त-मजूरी बन्द है।’

उसकी बात पर वे उसे डाँटते हुये बोले-‘रे! काल की साल है, जौं मैं तोय कहाँ तक खवाँगो। अब मेरें हू कछू काम नाने, तासे तें पटा देगो। मोय पइसा की जरूरत हती सो मैंने सारा अनाज गाड़ी अडडा भेज के बिचवा दओ। अरे! दो-चार दिना पहलें कह देतो तो सोचनो पत्तो। अब तो मैंने पूरो अनाज बिचवा दओ। तें झेंनो आओ है तो दस-बीस किलो नाज लयेंजा। मैं तोय आज खाली हाथ नहीं लौटाय चाहत। आगें से भरोसो मत राखिये। ज गाँव में तो का हमई हैं नाज बारे। ते देखो ते ,हम पै ही नाज माँगिवे चलो आ रहो है।’

मौजी उनकी हर बात को थूक के घूँट के साथ गले से नीचे उतारता रहा। उसे लगता रहा-उसको इतने कोड़े मारे जा रहे हैं कि वह कशमशा कर रह गया। आह निकली-राम जाने, जे दिना कैसें पार लगायगो! उसके मुँह से शब्द निकले-और काऊ की मैं का जानों। मेरे तो आपही भगवान हो।’

ठाकुर लालसिंह क्रोध व्यक्त करते हुये बोले-‘देख मौजी, तें मेरो पीछो छोड़। अभै तें काऊ को सहारा पकड़ लेगो तो तेरो काम चल जायगो। तेरे आदमी अकेले मेरे झाँ ही तो नहीं लगे। औरू काऊ के तो लगे हैं। बिनसे सोऊ अनाज माँग कें देख ले। मैं तो तेरी जितैक सोचतों तितैक कोऊ नहीं सोच सकत।’

यह उपदेश सुनते हुये मौजी ने अपना चींथ-चिथारा फैंटा उनके चरणों में रख दिया। उन्होंने उसे लात मार कर दूर फेंक दिया। मौजी ने उसे उठाया। छाती से उसे इस तरह चिपका लिया जैसे एक माँ अपने नवजात शिशु को चिपका लेती है। उसे अपने फेंटा का गिरता सम्मान खटक रहा था। ठाकुर लालसिंह के चहरे से उपेक्षा का भाव खटक रहा था।बोले-‘ अरे मन खाड़ नाज की बात होती तेऊ चल जाती। तेरे तो हर महिना चार-पाचँ मन नाज लगत होयगो। तेरो एक-एक आदमी मन को है।’

मौजी ने उत्तर दिया-‘महाराज, जिनके पेट नाने, नगर कोट हैं। पेट हारेतये बिनको सोच न हतो।’

ठाकुर लालसिंह अपनी बात पर आते हुये बोले-‘देख मौजी, तेरो पिछलो हिसाब-किताब साफ नाने। मन खाँड़ नाज चाहे तो ले जइयो। बाद की आशा मत राखिये।’޺

मौजी को लगा-इतने से क्या होगा? आज से नहीं तो कल से भूखा रहना ही पड़ेगा। इससे एक-दो दिन कट भी गये तो इससे क्या काल कट जायेगा? न हो तो ये रहने ही दें। मना करने की बात जुवान पर आ गई, फिर सोचा जितना समय कटता है काट लेना चाहिये। इनसे मना कर दी तो आगे का रास्ता मैं स्वयं हीं क्यों बन्द करूँ? ये तो खुद ही हमारा रास्ता बन्द कर रहे हैं। यह सोचकर बोला-‘दद्दा, मुल्ला कों बुलाय लेतों। ऐसे मौके पै काम चला दओ, ज अहसान में जिन्दगीभर नहीं भूलंगो।’

यह कह कर वह कसमसाते हुये उठा। मन ही मन सोचते हुये गैल में आ गया। वह सूने में बड़बड़या-‘भगवान पइसा देतो तो हमाई जे गतें न होतीं। अपँईं इज्जत चरनन में धर दई, जे तोऊ न पसीजे। जो नहीं सोची कै ज मन भर नाज कै दिना के काजें होयगो।

रास्ते में उसे कुन्दन टकरा गया। उसने मौजी को बड़बडाते हुये देख लिया। बोला-‘मौजी कक्का ,जाने का बड़बडात चले आ रहे हो?’

बात सुनकर मौजी जैसे दुःखान्त सपने से जाग गया हो , बोला-‘नाज के काजें मूड़ पटकत फिर रहों हों। ठाकुर साहब से तमाम थराईं करीं, तब कहूँ बिन्ने मन भर नाज रानो है।’

कुन्दन को लगा-इसकी मदद जरूर करना चाहिये। मैं अपने पिताजी से कह कर देख लेता हूँ, किन्तु वे इसे छटाँक भर अनाज नहीं देंगे। कहेंगे लड़की का व्याह करना है। यह सोचकर बोला-‘कक्का, जो मिल रहा है उसे ही ले आते। आप तो डोरिया लिये खाली हाथ चले आ रहे हो!’

मौजी बोला-‘मो पै का मनभर नाज उठतो। मुल्ला को भेजकर मँगायें लेतों, कह दी है तो दे ही देंगे।’

कुन्दन ने उसे समझया-‘अपना क्षेत्र सूखाग्रस्त घोषित हो गओ है। जल्दी ही सारकार काम खोलेगी। काम के बदले अनाज मिलवे करैगो।सो काम चल्त रहेगो।’

मौजी को कुन्दन की इन बातों पर विश्वास न हंआ तो बोला-‘सरकारी बात को का भरोसो? फिर सरकार कछू करन चाहेगी तो झाँ के बड़े-बड़े न करन दंगे। अरे! फिर जिनकी सेबा-टहल को करेगो?’

कुन्दन ने मौजी का मनोबल बढ़ाया-‘इनसे लड़ाई तो गरीबन ने मिलकें लड़नों ही पड़ेगी। दस-पाँच ऐसे आदमी इकट्ठे करले, जो भूखिन मर रहे हों। वे ज बात को का हल निकारतयें, बैठक में पतो चल जायगी। मौजी कक्का, तें मेरे कहवे से एक बेर ज प्रयास करकें तो देख।’

उस वक्त मौजी कुन्दन को कुछ भी कहे बिना ही अपने घर चला आया था, किन्तु वह रास्ते में ही विचार करने लगा- कुन्दन बात गलत तो नहीं लग रही। ऐसे दस-पाँच आदमी इकट्ठे करिवे में मेरो का जा रहो है। कहतयें संगठन में बड़ी ताकत होते। कुन्दन को तो मोय पूरो भरोसो है। मोसे ज बात जाने कछू सोच कें ही कही होयगी। जे बातें सोच कें ब गाँव के ऐसे लोगों से मिला जो उसकी तरह ही तिल-तिल कर मर रहे थे।

घुप अन्धेरा होगया। लोग डरते-डरते हनुमान जी के मन्दिर पर इकट्ठे होने लगे। एक बोला-‘ये बिना बात की पंचायत क्यों बुलाई है?’

दूसरा बोला-‘भैया, अनाज तो साहूकारन के यहाँ से ही लेनों पड़ेगो कि नहीं? हम तो झें काऊ कैसी कहिवे बारे नाने।’

मौजी वहाँ पहले से ही मौजूद था। कुन्दन बिन बुलाये ही, हनुमान बब्बा के दर्शन करने के बहाने वहाँ पहुँच गया। जिन-जिन से मौजी ने आने की कहा था, वे सभी वहाँ आ गये। आपस में खुसुर-पुसुर के स्वर में सलाह-मसवरा किया जाने लगा। खुदावक्स बोला-‘काये मौैजी भज्जा, जे सब काये कों इकट्ठे करे हैं?’

मौजी ने इस बात का उत्तर पहले से ही सोच कर रखा था। बोला-‘जों सोची कै, गरीबन को दान-पुन्न ही काम आ जाय। शायद हनुमान बब्बा पाईं वर्षा दें।’

काशीराम तेली को मौजी की इस बात के विरोध में बोलना पड़ा-‘जे बातिन में का धरो है। अरे! अपुन पै दान-पुन्न करिवे का धरो?’

कुन्दन समझ गया मौजी असली बात नहीं कह पा रहा र्है। इसलिये बात को सही दिशा देने के लिये बोला-‘बात ये है, गाँव का अनाज बाहर बिचने चला जाये। फिर गाँव के लोग उलटे शहर से अनाज पुड़ियों में खरीद कर लाये, बोलो ज बात बिचार करिवे की है कै नहीं?’

सभी के मुँह से निकला-‘आप ठीक कहतओ। बात विचार करिवे की तो है, आज ठाकुर साहब अपईं गाड़ीं भरवा ले गये।, कल सभी यही करेंगे। इस बात पै रोक तो लगनो ही चहिये कै नहीं? बोलो...।’

मौजी ने दम पकड़ी, बोला-‘देखो, ज बात में दलित-सवरण कछू नाने। सारे गरीबन ने ज लड़ाई मिलकें लड़नों है। चाहे जो होय, ज गाँव को नाज बाहर न जाने पावे।’

कुढ़ेरा ने अपनी राय दी-‘ज बात की रिपोट तहसीलदार को पहुँचा देनों चहिये। अपये एम0 एमए0 से ज बात कह देनों चहिये। वे बोट लेवे तो घर-घर फिरंगे। ज बात बिनके ध्यान देवे की है कै नहीं?’

मिश्री धोबी ने अपना सुझाव दिया-‘एक समिति बना लेऊ। अरे! ज काल की साल में जीवे को इन्तजाम मिलकें कन्नों परेगो कै नहीं?’

इस बात पर समिति के निर्माण की चर्चा चल पड़ी। समिति का नाम ‘अकाल रक्षा समिति ’रख लिया। अध्यक्ष का चुनाव किया जाने लगा। कुछ लोगों ने माजक के मूढ़ में अध्यक्ष के लिये मौजी के नाम का प्रस्ताव कर दिया। इस बात पर कुछ लोग उसके नाम का समर्थन इसलिये करने लगे, जिससे बुराई का थेगरा मौजी के सिर ही रखना उचित रहेगा। मौजी को लगा-वह अब बहुत बड़ा आदमी बन रहा है। उससे अब बड़े-बड़े डरा करेंगे। उसकी इज्जत एम0 एमए0 सरीखी बढ़ जायगी। यों बुराई का थीगरा मौजी के सिर मढ़ दिया गया। सचिव के पद पर खुदावक्स खाँ को सर्व सम्मति से चुन लिया गया। कुढ़ेरा काछी को उपाध्यक्ष बना दिया। सह सचिव पर रामहंसा काछी का नाम लिख दिया। जितने लोग वहाँ उपस्थित थे सभी के नाम सदस्य के रूप में लिख लिये। केवल कुन्दन का नाम सरकारी कर्मचारी होने से छोड़ दिया गया।

तत्काल ही समिति की पहली बैठक मौजी की अध्यक्षता में शुरू हो गई। समिति का पहला काम तय किया जाने लगा-किसी भी हालत में गाँव का अनाज बाहर न जाने दिया जाये।

मौजी बात गुनते हुये बोला-‘हनुमान बब्बा पै साब जने सौगन्ध खा कें जाओ, कै सब संग देउगे। नहीं मैं ज चक्कर में नहीं पत्त।’

बात इतनी बढ़ गई थी कि पीछे हटने में हँसी होगी,सभी ने जोश में सौगन्ध खाली-‘जो हटे ताको पन घटे।’

मौजी को पूरा विश्वास होगया कि वह बहुत ताकतवर बन गया है। उसमें हजारों हाथियों का बल आ गया है।

जब कुन्दन अपने घर पहुँचा, उसके पिता लालूरामजी लाल-पीली आँखें किये बैठे थे। कुन्दन को देखते ही उन्होंने उसे आड़े हाथों लिया-‘भले आदमिन की मदद न करकें बिनकी इज्जत बिगारें चाहतओ। ज अच्छी बात नाने। अरे! गरीब तो कहूँ न कहूँ मजूरी करकें पेट भर लेगो। अपुन बीच बारे जोईं मरैं लेतयें। तुम ने ज बिना बात की दुश्मनी अपने सिर बाँध लई। नहीं, जे इतैक बातें का जाने!’

कुन्दन ने बात का जबाव देना उचित नहीं समझा। उसे चुप देख वे पुनः बोले-‘अरे! ठाकुर साहब की दिल्ली नों चलते। अपये सरपंच पै हाथ डारिवो खेल नाने । आदमी मज्जायगो।’

कुन्दन को जबाव देना आवश्यक हो गया। बोला-‘आप ही बतलाइये, गाँव में अनाज न बचा तो कहाँ से आयेगा? लोगों की यह पीड़ा मुझ से देखी नहीं जा रही है। अब चाहे जो हो, मैं पीछे हटने वाला नहीं हूँ।’

यह सुनकर उनका चेहरा तमतमा गया। वे क्रोध उड़ेलते हुये बोले-‘ जे बड़ी-बड़ी बातें छोड़। बहिन को ब्याह करनो है। जे सब के सहारे की जरूरत पड़ेगी।...और तुम्हाये जे एक पइसा की मदद करिवे बारे नाने। गोद भर गये और बिन्हें घर जाकें तीस हजार नगदी की माँग भेज दई। अरे! वे जे बातें पहिले कह देतये तो हम गोद न भरवातये। भगवान जाने ज काल की साल में कैसें पार लगायगो?’

कुन्दन ने उन्हें साँन्त्वना देने का प्रयास किया-‘आप चिन्ता नहीं करें। अब सगाई छोड़वो खेल नाने। फिर अपुन हू देवे में कसर तो राखेंगे नहीं। न होय तो बन्डा ताल को खेत बेच देऊ।’

उसके पिता जी इस बात पर झट से बोले-‘काल की साल में खेत को ले रहो है। पानी बरस जातो तो सब गैलें खुल जातीं। मोय तो जों लगते कैं अब जे बड़े-बड़े मिलकें तेरो झें से ट्रासफर करवायें बिना नहीं मानंगे।’

कुन्दन ने उन्हें फिर से समझाया-‘मैने कहा न, आप चिन्ता नहीं करैं। नौकरी कहीं करना। न्याय की बात तो करनों चहिये कै नहीं?’

वे झुझला कर बोले-‘ठीक है, तोय जो ठीक लगे सो कर। लेकिन बेटा, अपने हाथ-पाँव बचाकें तो चल। मेरी तो ज सलाह है कै सरकारी नौकरी वारिन कों राजनीति में नहीं पन्नों चहिये।’

कुन्दन यह सुनकर घर से बाहर निकल गया। दूसरे दिन जय ने सुबह ही कुन्दन से कहा-‘भैया, सुना है आज सरपंच अपनी अनाज की गाड़ी शहर ले जा रहा है। गाँव के बहुत से लोग गाड़ी रोकने जा रहे हैं। मैं सोचता हूँ , मैं भी वहाँ जाकर देखूँ तो क्या होता है?’ यह कह कर वह चला गया।

कुन्दन का दिमाग जल्दी-जल्दी काम करने लगा। सोचने लगा सरपंच ताकत के नशे में चूर है। कहीं कुछ अनहोनी न हो जाये। यह सोचते हुये वह टोह लेने घर से बाहर निकला।

जब वह घर लौटा सरपंच का आदमी मौती दरवाजे पर बैठा था। कुन्दन को देखते ही बोला-‘तुम्हें, सरपंच साहब बुला रहे हैं।’

कुन्दन घर के बाहर से ही उसके साथ चल दिया। जब वह वहाँ पहुँचा सभी जातियों के साहूकार मौजूद थे। वहाँ उनकी जातियाँ का लय होगया था। जातियों की ऊँच-नीच तिरोहित हो गई थी। सभी का लक्ष्य अपने पैसे की हिफाजत करना था। यों सभी एक होकर पैसे की जाति के थे।

कुन्दन को देखकर सरपंच ने व्यग्य बाणों से सत्कार किया-‘कहो, मास्टर साहब आपकी नेतागिरी कैसी चल रही है?’

नन्दू लाला ने उनकी बात का साथ दिया-‘भले आदमिन ने लूटवे की योजना बन रही है। अरे! गरीबी-अमीरी सब भगवान की कृपा से होते। जो मिलै ताय भगवान की कृपा मानकें स्वीकार कर नेनो चहिये। अब तो सब लूट के माल से पइसा बारे बनें चाहतयें।

ठाकुर लालसिंह बोले-‘हम तुम्हाई नौकरी झें के काजें करा कें लायें हैं। अब तुम ही हमें काटन लगे। बोलो...का जई तुम्हाओ धर्म है।’

यह सुनकर कुन्दन को लगा-ये सब लोग यह चाहते हैं कि गरीब चाहे जिये मरै ,उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़े। यह सोचकर बोला-‘गाँव के गरीबों को भूख से मर जाने देना भी तुम्हारा कौन सा धर्म है।’

सरपंच ने तीखे स्वर में उत्तर दिया-‘अभै नों कितैक मर गये?’

कुन्दन संतुलित होते हुये बोला-‘आप लोगों के कानों पर जूँ किसी के मरने के बाद ही रेगंेगी। आप लोग इन्हें राजी से नहीं देंगे तो ये लोग छीनकर लेना जानते हैं।’

ठाकुर लालसिंह ने अपना आदेश जारी किया-‘तो तुम्ही उन्हें इस काम के लिये भड़का रहे हो। कोऊ हमारे घर की तरफ आँख उठाकर तो देखे, उसकी आँख फोड़ दूंगा।’

नन्दू लाला ने अपनी लालागिरी का पैतरा दिखाया-‘अरे! न होगा तो डाकुअँन कों कछू ले दे कें बिन्हें ठिकाने लगवायें देतो। गड़रिये का गोल झेंईं आरसपास फिर रहो है।’

कुन्दन समझ गया , उसे मरवाने की धौंस दी जा रही है। ब्याज-त्याज से इतना कमाया है, फिर भी इनकी भूख नहीं मिटी। सरपंच क्रोध में लाल-पीली आँखें करते हुये बोला-‘अरे! ताकी अटकते ते आकें नाक रगड़तो, हम काऊ सुसर के की देहरी पै नहीं जात।’

रामदयाल जाटव इन सभी बातों को मनोयोग से सुन रहा था। उसने भी अपने मन की बात कही-‘अरे! जनी को खसम आदमी होतो और आदमी को खसम पइसा है। अपये मतलब से दबके चलनों ही पत्तो। झे ंतो आँखें बता के लयें चाहतयें। बताऊ ऐसें को दे देगो। खून-पसीना एक भओ है तब मेरे झाँ वे नेक अनाज के दाने दिखा रहे हैं। सो बिनपै सब की नजर है। हमाये बारे तो मो पै नाज के काजें रोज चढ़े हैं।’

साहूकारों के सामने कुन्दन की पेशी की बात, वे तार के तार की तरह गाँव भर में फैल गई। जो इस पेशी की बात सुनता वह साहूकारों की चौपाल की तरफ चल देता। यों वहाँ अच्छी-खासी भीड़ जमा हो गई।राम दयाल जाटव की बात पर परसराम जाटव कह रहा था-‘नजर में कोऊ काऊ की नहीं चढ़ो। ज अकाल को टेम है, सो सबये अपनी-अपनी परी है। जई बात सोचिकें कुन्दन मास्टर ज बात कह रहे हैं। नहीं बिन्हें जा से का कन्नो है। और काऊ ने बिन्हें धौंस दई तो बिनके पीछे हू झें तमाम बैठे हैं। हम तो जौं जानतयें कै अब कोऊ ज गाँव से नाज ले जा कें देख ले। ताय पतो पज्जायगो।’यह कह कर वह वहाँ से चला आया।

उसकी यह बात सुनकर साहूकार भड़क उठे। सरपंच ने अपना फरमान जारी किया-‘मोय पइसा की जरूरत हती, सो कल एक गाड़ी अनाज अडडा भेजो। अब मैं भरवातों गाड़ीं, तुम रोकियो। आदमी मज्जायगो।’

खुदाबक्स बड़ी देर से चुपचाप बैठा, सभी बातें सुनते हुये सह रहा था। उसे इनकी बातें सहन नहीं हुईं तो बोला-‘हम तो महाराज पहलें से ही मरै मराये हैं। मरै- मराय कों मारोगे तो हमाओ का बिगन्नों है। तुम्हाई सबरी इज्जत ठिकाने लग जायगी।’

मौजी बड़ी देर से पंचायत में आकर चुपचाप बैठ गया था। खुदाबक्स की बातें सुनकर बोला-‘अरे! सरपंच साब तुम हमाये बोट से सरपंच बने हो। तुम्हें हमाओ संग देनों चहिये कै नहीं?तुम तो उल्टे हम पै ही टडार रहे हो।’

इस बात पर सरपंच लाठी उठाने के लिये झपटे। ठाकुर लालसिंह ने उन्हें रोक लिया। क्रोध में भनभनाते हुये बोले-‘गाँव की जनता तो अभै हू हमाई तरफ है। तुम चार-छह लोग मिल गये हो, सो हमाओ का बिगरनो है। तुम्हें कछू पतो है, मैंने काम के बदले अनाज मिलवे की व्यवस्था कर दई है। कल्ल- परों से काम चलवायें देतों।’

ठाकुर लालसिंह ने अपनी राय दी-‘जे बातिन की रिपोट सोऊ थाने में कर देनों चहिये। झें आदमी मरिवे बारो है, तुम हो कै जिनके पीछें बी0डि0यो0 के झें चक्कर लगा रहे हो।’

रामहंसा काछी बोला-‘पुलिस ले चले हमें। हमें का है भें रोटी मिलंगीं।’

कुन्दन ने नरम पड़ते हुये सलाह दी-‘सरपंच साहब, अपनी सब की खैरियत इसी में है कि काम के बदले अनाज बारो काम जल्दी शुरू करवा देऊ। आप सब जानतओ। खाली दिमांग सैतान को घर होतो।’

परिस्थिति को समझते हुये सभी ने कुन्दन की बात का समर्थन किया। बात सुनकर मौजी चलने के लिये उठ खड़ा हुआ। यह देख बहुत से लोग उसके पीछे-पीछे चल दिये। मौजी के पीछे भीड़ दिखने लगी। यह देखकर तो साहूकारों के प्राण ही सूख गये।

आज रात मौजी को नींद नहीं आई। तरह-तरह के खट्टे-मीठे संकल्प-विकल्प बनते और मिटते रहे। कभी लगता गाँव में भारी-मारकाट मची है। गरीब और अमीर आमने-सामने लड़ रहे हैं। गरीब निहत्थे हैं। अमीरों ने एक सेना बना ली है, जिनके पास बन्दूकें और बम के गोले हैं। एक नये महाभारत की लड़ाई शुरू हो गई है। ज लड़ाई गाँव-गाँव फैल गई है। जाति, सम्प्रदाय, भाषा और धर्म के बन्धन जनता ने तोड़ डाले हैं। इस लड़ाई का कुछ न कुछ हल अवश्य ही निकलेगा। यों सोचते हुये वह रातभर करबटे बदलता रहा।

कुन्दन को विद्यालय जाते-आते समय सरपंच के दरवाजे से गुजरना पड़ता था। कुन्दन जब विद्यालय से वापस लौटा सरपंच के दरवाजे से गुजरा। दरवाजे पर पुलिस बैठी थी। दरोगा मौजी को डाँट रहा था-‘क्यों रे मुजिया! अब तो तूं नेता बन गया है । सालेऽऽ...तेरी नेतागिरी तेरे दिमांग में से निकालकर तेरी.....में घुसेड़ दूंगा। साला मादर....और हाँ वो कौनसा बदमास मास्टर है, जो तुझे सिखा-पढ़ा रहा है।’

इसी समय मौजी ने मुड़कर देखा,कुन्दन तो वहाँ खड़ा ही था , उसके साथ में मौजी के अनेक साथी भी खड़े थे। यह देखकर उसमें अज्ञात शक्ति का संचार हुआ। वह पूरे आत्मविश्वास के साथ बोला-‘महाराज, मोय कोऊ का सिखयगो। ज सारी पढाई तो ज पेट ने सिखाई है। देख नहीं रहे ज भीड़ का बात की लगी है। जिन्हें बुलाकें को लाओ है? अरे!महाराज जिन्हें जिनकी भूख बुलाकें लाई है।’

यह बात सुनकर दरोगा सब कुछ समझ गया, किन्तु उसे मिली रकम की भी बजानी थी। यह सोचकर सहज बनते हुये बोला-‘तुम लोग कानून को अपने हाथ में लेना चाहते हो।यह ठीक नहीं है। कानून के साथ खिलबाड़ करने वालों को मैं ठिकाने लगा दूंगा। समझे।’

दरोगा कुन्दन की उपस्थिति से अबगत होगया था। उसने आवाज दी-‘ये कुन्दन कौन है? सामने आये।’

यह सुनकर कुन्दन दरोगा के सामने पहुँच गया, बोला-‘ जी, मैं हूँ कुन्दन, कहिये?’

दरोगा ने उसे फटकारा-‘तुम शासकीय सेवा में रहते हुये, नेतागिरी करते हो। लोगों को भड़का रहे हो। इस अपराध में मैं तुम्हें भी बन्द कर सकता हूँ। वे मौत मर जाओगे। बच्चे भूखे मर जायेंगे। लोगों को भड़काने के अपराध में तुम्हारी जमानत भी न होगी। हमें तुम्हारी सारीं चालें पता चल गईं हैं। चलो थाने चलो।’

कुन्दन आत्मविश्वास के साथ बोला-‘पहले मुझे सस्पेंन्ड कराओ। बारन्ट निकलवाओ, फिर मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ।’

दरोगा तैस में आ गया। बोला-‘तुम्हें थाने तो चलना ही पड़ेगा। वहाँ हम तुम्हें सब समझा देंगे, समझे।’

मौजी बोला-‘कुन्दन मास्टर के संगें हम सब सोऊ चलंगे।’

दरोगा ने उसे डाँटा-‘चुप रह साले, मार-मार कर तेरी...में भुस भर दूंगा।’

दरोगा स्थिति को समझते हुये बोला-‘कुन्दन, तुम कल थाने आ जाना और मौजी तूं भी कल थाने आ ही जाना।’

मौजी बोला-‘ठीक है महाराज आ जांगो।’

दरोगा के जाते ही मौजी सोचने लगा-गरीबन से का छिन रहो है?सो डर रहे हैं। अरे! दरोंगा मारइ तो डारेगो। सफाँ मारिवो खेल नाने। सो बाके सब करम होजांगे। सभी को सामने खड़े देख मौजी बोला-‘कै तो तुम सब मोय अध्यक्ष न बनातये। अब बना ही दओं हों तो तन-मन से संग देऊ। अरे! दरोगा सबको का कर सकतो। बाने कुन्दन मास्टर को गिरफतार करो तो सब जनै चलो, थाने को घिराव कन्नो परैगो। का समझतो दरोगा? मारै तो मार डारै। कुन मथाई बेर-बेर जन्मते। बोलो...मे संग को-को चल रहो है।’

उसने देखा, उसकी लताड़ का साथियों पर गहरा असर पड़ा है। कुछ तो उसके साथ चलने को तैयार हैं। कुछ सवर्ण गरीब साथ चलने से पीछे हट रहे हैं। जाटव मोहल्ले के गरीब मौजी के साथ चलने के लिये तैयार खड़े थे। मौजी बोला-‘अपुन सब कल सबेरें ही चल पडंगे।’ यह सुनकर सभी अपने-अपने घर चले गये।

दूसरे दिन सबेरे ही सभी हनुमानजी के मन्दिर पर जाने के लिये आ गये। पैदल ही थाने पहुँचने के लिये चल पड़े। बातों-बातों में तेरह किलो मीटर का रास्ता क्ट गया। रास्ते भर एक ही बात चलती रही-कुन्दन को कैसे बचाया जाये? मौजी बार-बार कह रहा था-‘कुन्दन कों बचावे में, मोय चाहे जान की बाजी लगानो परै, मैं पीछे नहीं हटंगो। काये कै कुन्दन ने बत्त मडरिया में से मेरी बछिया बचावे में अपने प्रानन की चिन्ता नहीं करी। मैं अब पीछें कैसे हट सकतों? पीछें हटे ताको पन घटे। अरे! ब फस रहो है तो हम सब के चक्कर में ही।’

यों मौजी पन्द्रह-बीस लोगों के साथ शहर पहुँच गया। मौजी शहर के बड़े-बड़े नेताओं से परिचित था। इस समय उनसे मिलना उसे उचित लगने लगा। ये लोग विधानसभा अथवा लोकसभा के चुनाव के समय बोट माँगने मेरे घर भी आये थे। निश्चय ही वे मुझे पहिचानते तो होंगे ही। आज इस मौके पर इन्हें भी परख कर देख लेता हूँ।यह सोचते हुये वह सबसे पहले अपनी काँग्रस पार्टी के नेता सुखरामजी से मिला। मौजी ने उनके सामने अपनी बात रखी। वे बोले-‘भई मौजी हम तुम्हारे साथा है। ये पुलिस वाले अपने बाप को भी नहीं छोड़ते। उन्हें तो हर काम का पैसा चाहिये। उनने इन्हें कुछ दे ले लिया होगा। इसीलिये वे इतने हाथ पैर चला रहे हैं। इस केस में दरोगा कम से कम हमारी बदोलत पाँच सौ रुपये पर मान सकता है। तुम कहो तो मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूँ। वह अपने काम की मना नहीं करेगा। भई, उसके भी पेट है।’

वह बोला-‘हमारे पास रुपये तो हैं नहीं । हम इन्तजाम करके आते हैं।’ यह बहाना करके वहाँ से चले आये। उन्होंने नगर के समाज सेवी सेठ चेतनदास का नाम भी सुना था। वह उनके पास भी जा पहुँचा। अपनी व्यथा उनके सामने उड़ेल दी। वे भी पुलिस को देने के लिये रुपयों की बात करने लगे। मौजी उनकी बात सुनकर समझ गया- ये सब पुलिस की दलाली कर रहे हैं।मैं तो सोचता था ये बड़े नेता होंगे। गरीबन के काम कत्त होंगे।

सालवई गाँव की हवा सारे नगर में फैल गई। अब तो यह स्थिति पैदा होगई कि शहर के साभी व्यापारी इस विद्रोह को कुचल देना चाहते थे। यह विद्रोह शीध्र न दवाया गया तो चल रही व्यवस्था चकनाचूर हो जायगी। व्यवस्था बनाये रखना सभी का फर्ज है। कानून उन्हीं की मदद करता है जो उसके अनुसार चलते हैं। मौजी पंण्डित चरणदास जी के यहाँ जा पहुँचा। उन्होंने मौजी और उसके साथियों की बात सुनी। वे बोले-‘आप लोगों को कानून हाथ में नहीं लेना चाहिये था। अरे! कोई गलत करै उसकी रिपोट हम शासन तक पहुँचा दें। बस हमारा इतना ही काम है। बाकी जुम्मेदारी शासन की। अब आप लोग फस तो गये ही हैं। मैं आपके साथ थाने चलता हूँ। टी0आई 0 मेरा अच्छा परिचित है। कम से कम में काम निपटवा दूंगा। इसके लिये आप लोग चन्दा करलें। इससे एक आदमी पर बोझ भी नहीं पड़ेगा।’

खुदाबक्श बोला-‘हम पर कुछ होता तो आप के पास आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।’

वे बोले-‘भइया, लड़ने के लिये चले हो तो चन्दा तो करना ही पड़ेगा। बिना पैसे के नेतागिरी नहीं चलती। अरे! तुम्हारे पर कुछ नहीं है तो जो फस रहा है वह भुगतेगा अपने आप। तुम लोग अपना समय खराब क्यों कर रहे हो? अपने घर जाओ। यह शान्ति भंग का मामला है। हाँ वह कौन है जिस के कारण आप सब परेशान है।’

मौजी बोला-‘ वो तो आज सुबह ही थाने पहुँच गया है। उसके घर के लोग भी उसकी मदद करने वाले नहीं हैं। वह तो हम सब के चक्कर में मारा गया है।’

पंण्डित चरणदास बाले-‘ फिर तो आप लोग अपने घर जाओ। पैसे का बन्दोवस्त हो जाये तो आ जाना।’ उनकी बात सुनकर सभी मुँह लटकाये चले आये। भटकते-भटकते शाम होने को हो गई। थाने जाने में सभी डर रहे थे कि थाने गये और पकडे लिये गये तो कोइ्र हमारी जमानत भी नहीं देगा। इन सब में कोई भी ऐसा नहीं है जिस पर जमानत जितनी भी जायदाद हो। पुलिस नंगे-भूखे लोगों की जमानत क्यों लेने लगी। सभी इसी उधेड़ेबुन में नगर के पोस्ट आफिस के पास से गुजरे। वहीं कुछ नाई फुटपाथ पर बैठकर ग्राहकों के बाल बना रहे थे। लालहंस अपनी ढोड़ी बनबावे नीम के पेड़ के नीचे बैठे नाई के पास ठिठक गया। बाल बनाते में वह नाई बातें करने लगा। वह नगर की कम्युनिष्ट पार्टी का सर्कीय सदस्य था। उसे लोग श्रीराम सेन के नाम से जानते थे। उसने इनकी बातें सुनी तो वह बोला-‘मैं तुम्हारी मदद करवा दूँ तो...।’

यह सुन डूबते को तिनके का सहारा मिला। खुदाबक्स झट से बोला-‘भाज्जा झें गरीब कौ कोऊ नाने। हम तेरों अहसान जिन्दगी भर नहीं भूलंगे।’

वह बोली-‘तो चलो मैं तुम्हें अपने साथियों से मिलवा देता हूँ।’

सभी उसके पीछे-पीछे चल पड़े। नगर के बाहर रेल के किनारे-किनारे गन्दी बस्ती में पहुँच गये। एक सकरी सी गली में घुस गये। वहाँ एक छोटी सी बैठक में ले जाकर उन्हें बैठाया गया। थोड़ी ही देर में चार-छह लोग और आ गये। यों कमरा छकाछक भर गया। बातें होने लगीं। श्रीराम सेन ने सभी को इनकी परेशानी से अवगत कराया। उनमें आपस में बातें होने लगीं। तय किया जाने लगा कि किस तरह से कार्यवाही की जाये, जिससे समाधान निकल सके।

बातों-बातों में अनशन की बात चल निकली। अशोक शर्मा अनशन के लाभ-हानि का आकलन करने लगे। श्रीराम सेन को गाँव की जनता का ऐसा कोई काम हाथ न आया था जिसमें उनके दल की विचार धारा का ऐसा समन्वय अनायास मिल रहा था, फिर इसे क्यों न अच्छी तरह से भुनाया जाये। यह सोचकर बोला-‘ देखो, आप लोगों को भूख हडताल पर बैठना पड़ेगा। बात इतनी बढ़ गई है, बिना भूख हड़ताल के सुलझने वाली नहीं है। यदि तुम लोग कुन्दन को वे दाग बचाना चाहते हैं तो भैया इस रास्ते के अलावा कोई विकल्प नहीं है। हम जी‘जान से आप सब का सहयोग करेंगे। बोलों....हिम्मत है तो आगे बढ़ो, नहीं चुपचाप अपने घर चले जाओ।’

खुदाबक्स झट से बोला-‘ हमाओ ज अध्यक्ष अकेलो ऐसो है जितैक दिना तुम कहोगे ज अनशन पै बैठो रहेगो। ज बात से डिगिवे बारो नाने।’

मौजी बड़े आत्मविश्वास से बोला-‘महाराज ,सब जिन्दगी से भूख हड़ताल ही होत रही है। आठ दिना नों तो मैं अकेलो ही भूख हछ़ताल पै बैठो रहोंगो।’

यह सुनकर सभी के मुँह से एक स्वर में निकला-‘फिर तो तुम आमरण अनशन करदो। एक दो दिन में ही सरकार हमारे सामने घुटने टेक देगी। कुन्दन को छोड़ते फिरेगी।.....और हमारी सारी बातें मानना पड़ेंगी। मौजी भैया, हम सब तुम्हारे साथ हैं। हमें चाहे कोई फाँसी पर चढ़ा दे । हम पीछे हटने वाले नहीं हैं।’

यह सुनकर मौजी का हौसला बुलंद होगया। बोला-‘मैं मरेने कों तैयार हों।’

मौजी की बात सुनकर सभी कार्यकर्ताओं के उत्सह का ठिकाना न रहा। प्रचार-प्रसार का काम उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। कागज-पत्रों की खाना पूर्ति की जाने लगी।

मौजी ने अपनी आमरण अनशन पर बैठने की बात पर अपने मन को टटोला-कहीं मैं भूख से मर गया तो....। अन्दर आवाज आई-मर गया तो मर जाना अच्छा है पर पीछे हटना जिन्दगी में नहीं सीखा है। रे! तुं उस दिन की बात भूल रहा है ,जब कुन्दन ने भी मेरे हित में अपनी जान की बाजी लगा दी थी। तेरी प्यारी बछिया को जलती हुर्ह मड़रिया से बाहर निकाल लाया था। ऐसे आदमी के पीछे मर-मिटने में लाभ ही लाभ है। यों मेरे दोनों हाथों में लडडू हैं। यह सोचकर तो उसमें अनन्त साहस का संचार होगया। कहाँ क्या कार्यवाही की जा रही है? वह उन बातों पर भी नजर रखने लगा।

गाँव के सभी साथी सोच रहे थे - कहीं मौजी अपनी बात से पीछे न हट जाये। नहीं शहर के इन लोगों के सामने हमारी क्या इज्जत रह जायगी? इसी कारण उसके साहस को बढ़ाने का वे जी-जान से प्रयास करने लगे। वे मन ही मन यह भी सोच रहे थे-‘मौजी दिल को नेक है ,तईं सबकी सोचतो। वह गरीब जरूर है लेकिन बात को धनी आदमी है। जो बात कह देतो तापै चलिवे को जी-जान से प्रयास कत्तो।’

उधर पुलिस को अनशन की सूचना कर दी गई। कलेक्टर महोदय को भी सूचना भेज दी गई। श्रीराम सेन इन सभी बातों में राजनीति करते-करते माहिर होगया था। तहसील प्रागण में पेड़ की छाया का सहारा लेकर फर्स बिछाकर बैठक व्यवस्था कर ली। नगर की भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी ने एक जलूस निकाला और मौजी का आमरण अनशन शुरू होगया।

सभी अखवारों को विद्रोह के स्वर का एक ताजा समाचार मिल गया। सभी अखवार रंग गये। सभी के मुख्य पृष्ठ पर मौजी का अनशन करते हुये फोटो छपा था। रातों- रात वायरलेश खटखटाये। सुबह होते ही हिदायतें देकर कुन्दन को पुलिस ने छोड़ दिया। जब कुन्दन थाने से अनशन वाले स्थल पर पहुँचा, मौजी के चहरे की आभा कई गुना बढ़ गई थी। पार्टी ने अपनी जीत मानकर, अन्य माँगें मानने के लिये जोर डाला जाने लगा। मौजी को बातों में लेकर अनशन पर बैठे रहने के लिये मजबूर कर दिया। सरकार ने गाँव की स्थिति को देखते हुये तत्काल राहत कार्य शुरू कर दिया। इससे अनशन का महत्व और बढ़ गया। पार्टी ने अपनी जीत का जलूस निकाला। मौजी को फूल मालाओं से लाद दिया गया। पार्टी ने एस0डी0एम0 महोदय के द्वारा नाटकीय अभिनय के साथ मौजी को जूस पिलवाकर अनशन समाप्त करवा दिया। फूलों से लदा मौजी गाँव चला आया।

गाँव में मजदूरी चल निकली। गाँव का सनोरा तालाब बर्षों से फूट पड़ा था। उस पर मिटटी डालने का काम शुरू होगया। काम के बदले अनाज मिलने लगा। मौजी भी दूसरे दिन से ही काम पर जाने लगा।

मौजी को काम करते में याद आने लगा- जब श्रीराम सेन ने अनशन समाप्ति के अवसर पर जो भाषण दिया था, वह उसे भूल नहीं पा रहा था। उस दिन श्रीराम सेन ने कहा था-‘मौजी कक्का ने और उसके साथियों ने अपने गाँव में जो पहल की है, ऐसी पहल करने वाले हर गाँव में हो जायें, समझ लो देश में शोषण मुक्त समाज का निर्माण होकर ही रहेगा। मौजी जैसे बहादुर आदमी इस धरती पर कितने हैं, जो दूसरों के लिये जी-जान से सघर्ष करने के लिये तैयार रहते हैं। हमें मौजी ने जो रास्ता दिखाया है, वह अनुकरणीय है। उसे हम कभी भुला नहीं पायेंगे।’

यह सोचकर मौजी में अनन्त गुना उत्साह का संचार होगया। उसे लगा रहा था- सुसर मुजिया चमार का से का होगओ!

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