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गूंगा गाँव - 8

गूंगा गाँव 8

गंगा दशहरे का अवसर आ गया। घर-घर सतुआ की बहार आ गई। आकाश में बादल मड़राने लगे। जिन बड़े किसानों के यहाँ कुओं की खेती थी,उन्होंने कुछ फसल कर ली थी।उनके खलियानों में गठुआ की दाँय चल रही थी। हरसी के बाँध में पानी समाप्त हो गया था। गन्ने की फसल सूख रही थी। किसान आकाश की ओर ताकने लगे थे।

सुबह का बक्त था। गर्म लू अपना असर दिखा रही थी। डाकिये ने कुन्दन के घर में पत्र डाला। जयनारायण की पत्नी लता के लड़का हुआ है। पत्र पढ़कर कुन्दन का मन नाचने लगा। अपने भतीजे को देखने मन व्यकुल हो उठा। वह अपने भाई जयनारायण से बोला-‘जय ,तुम इसी समय ग्वालियर चले जाओ । इस समय तुम्हारा वहाँ जाना बहुत जरूरी है।’

जय नारायण स्वयं ही जाने का मन कर रहा था। किन्तु घर वालों की इजाजत भी जरूरी थी। कुन्दन की बातें सुनकर अम्माजी बोलीं-‘तू शहर जा तो रहा है, वहाँ अपनी बहन के लिये लड़का देखना। वह तेइस साल की हो गई है, इतैक बड़े लड़के शहर में ही मिल पायेंगे। यहाँ गाँवों में इतने बड़े लड़के कहाँ रखे? तुम्हारी आँखें जाने कब खुलेंगीं?’

कुन्दन ने माँ की बात का समर्थन किया-‘जय, माँ ठीक कहती है। ध्यान रखना।’

जय बोला-‘मम्मी जी मैं वहाँ जा तो रहा हूँ। कोई लड़का दिखा तो मैं सूचना दूँगा। पिताजी को शीध्र भेज देना ,समझीं।’

कुन्दन की मम्मी बोलीं-‘जब तक लता पूरी तरह स्वस्थ्य नहीं हो जाती तब तक भैंही रहना। इस गाँव में न विजली है और न नल। मच्छरों का प्रकोप इन दिनों यहाँ भारी है। छोटा बच्चा है, यहाँ उसकी देख भाल अच्छी तरह न हो पायगी। वह भी शहरी लड़की है और हाँ ,पाँच किलो गाय का घी रखा है। उसे बहू के लिये लेता जा। क्यों कुन्दन ठीक है ना।’

कुन्दन बोला-‘ऐसा घी शहर में कहाँ रखा?यह बात आपने ठीक सोची है। ऐसी छोटी-छोटी बातें बहुत महत्वपूर्ण होतीं हैं।’

कुन्दन की म्म्मी पुनः बोलीं-‘हम जानते हैं,वह शहरी लड़की है, मन तोड़ने से टूटता है और जोड़ने से जुड़ता है। अभै लड़कपन है। कल जब भार पड़ेगा अपना घर सभी को दीखने लगता है।’

कुन्दन ने मम्मी को सुनाते हुये जयनारायण को सलाह दी-‘मम्मी कुन्दन को अभी कुछ दिन वहीं रहना चाहिये। यहाँ बहन का ब्याह करना है, नही ंतो इसे दुकान खुलाने में पैसा अपन लगा देते।’

जयनारायण बोला-‘भैया पहले बहन के ब्याह की चिन्ता है। न होगा तो मैं वहीं रहकर कोई नौकरी देखूँगा। दस बीस हजार की व्यवस्था इधर-उधर से करके पहले उसका ब्याह करना ठीक रहेगा। उसके मैके वालों को हमारी समस्या कहाँ दिखती है! वे तो अपनी लड़की की चिन्ता में हैं। उन्हें हमारी बेटी के ब्याह से क्या लेना-देना।

लालूराम तिवारी इन बातों को घ्यान से सुन रहे थे। बोले-‘बहूरानी की इसमें गल्ती बिल्कुल नहीं है। उसे तो उसके घर के लोग भरते रहते हैं। हमें अपनी बहू के कारण झुकना पड़ रहा है।’

कुन्दन ने समझाया-‘शादी-ब्याह जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्धों की देने है। हमारी बहूरानी चाहती है कि जय शहर में ही रह कर वहीं कोई काम-धन्धा करें। आज नौकरी मिलना कितना कठिन काम है। उसके मन में और कोई बात होती तो वह जय के बच्चे की माँ बनना स्वीकार न करती।’

जय ने स्वीकारा-‘भैया, ये शहरी लोग अपने मतलब की सोचते हैं। उन्हें तो अपनी सुख-सुविधायें ही अच्छी लगती है।’

शहरी लोग वाली बात ने कुन्दन को सोचने के लिये विवश कर दिया। उसे शहर और गाँव के मध्य की दूरी साफ-साफ दिखाई देने लगी। शहरी सभ्यता में आदमी अपने लाभ की बात सोचता है। गाँव के सभी की भलाई की सोचकर चलते हैं। वहाँ विजली की चमक-दमक है। यहाँ दीपक जलाकर अंधियारा भगाने का प्रयास है।

ष्शहर झूठी शान-शोकत, दिखावे का प्रतीक है। गाँव में दिखावा नहीं है। जो है, वह जैसा है बैसा ही है। आजकल धीरे-धीरे गाँव में शहरीपन दस्तक देने का प्रयास कर रहा है। लोगों की बोल-चाल की भाषा बदल रही है। शहरी लोग गाँव की बोली को धडल्ले से असम्यता की बानगी कह देते हैं।

कुन्दन का लड़का आदित्य उर्फ अदिया भी गाँव की बोली में शब्दों को बोलने का प्रयास करने लगा है।लता बहू ब्याह के समय ही घर आई थी। उसने उससे कह दिया-‘चाची जी’।

चाची जी शब्द सुनकर लता बोली-‘बेटे, चाची जी नहीं आन्टी जी कहते हैं।’

दोनों की बातें कुन्दन की पत्नी आनन्दी सुन रही थी। चाची वाली बात उसने ही कहलवाई थी। उसे अपने विवके पर पश्चाताप हुआ , बोली-‘लता, तुम पढ़ी-लिखी हो। अब तो तुम्हीं इसे पढा़ओ-लिखाओ। हमारे साथ तो यह गँवार ही रहेगा तुम्हारे जेठ जी इस पर ध्यान देते नहीं हैं।मैं ठहरी अपढ़।’

लता ने बड़ी सहजता से उत्तर दे दिया-‘भाभी जी, माँ बच्चे को जितना शिखा सकती है, उतना दूसरा कोई नहीं।’

आनन्दी मन ही मन पश्चाताप करते हुये सोचने लगी- मैंने इससे यह क्यों कह दिया। यह इसे पढ़ाने-लिखाने वाली नहीं है। एक दिन यही बात उसने पति कुन्दन से कही। कुन्दन सोचते हुये बोला-‘शब्द ज्ञान से कुछ नहीं होता। आदमी के अपने संस्कार बच्चों पर प्रभाव डालते हैं। माँ जैसा चाहे बच्चे को बैसा बना सकती है। दया-ममता,स्नेह-सौहार्द की बातें आदमी अनुभव से सीखता है।’

आनन्दी बात को समझने का प्रयास करते हुये बोली-‘माँ जहाँ अपने को अक्षम अनुभव करती है वह इधर-उधर से उसे सिखाने का प्रयास करती है।’

कुन्दन ने उसे समझाया-‘माँ, की अक्षमता का परिणाम बच्चे को झेलना पड़ता है।’

आनन्दी झुझलाहट प्रदर्शित करते हुये बोली-‘ज तो आप सारा दोष माँ की शक्ति को दे रहे हैं। अरे! पिता भी उतना ही जुम्मेदार है। यदि माँ किसी काम में असमर्थ है तो दायित्व पिता को पूरा करना चाहिये कि नहीं?’

कुन्दन दायित्व महसूस करते हुये बोला-‘तुम चिन्ता मत करो। आदिया को पढ़ाने- लिखाने का दायित्व मेरा है।’

आनन्दी बोली-‘ आप भी चिन्ता न करैं। इसकी प्रगति में आप जैसा कहेंगे, मैं साथ दूँगी। बस मेरा अदिया पढ़-लिख जाये। आज मुझे मेरा पढ़ा -लिखा न होना खटक रहा है। मन करता है मैं भी पढ़ना-लिखना शुरू कर दूँ। आप पढ़ायेंगे मुझे कि नहीं।’

कुन्दन बोला-‘कैसी बात करती हो? यदि तुम पढ़ना चाहती हो तो मैं पढ़ाउँगा तुम्हें। बोलो, डाँट सहना पड़ेगी।’

आनन्दी ने उत्तर दिया-‘मैं ड़ाँट सहने तैयार हूँ। आप मुझे पढ़ाये।क्या समझती है लता कि मैं अपढ़ हूँ!’

कुन्दन सोचने लगा-आदमी निश्चय करले फिर उसके लिये कोई काम कठिन नहीं है। आनन्दी पढ़ी-लिखी नहीे है किन्तु उसमें समझ गहरी है। वह बात की गहराई समझती है। इसी कारण उसका पढ़ा-लिखा न होना ,मुझे भी खटकता नहीं है।

इसी समय पता चला कि कुढ़ेरा के लड़के लड़ पड़े हैं। यह सुनकर कुन्दन बाहर निकल आया।लोग कुड़ेरा के लड़कों की आपस की लड़ाई निपटाकर लौट रहे थे। कुछ की बातों से आभास हो रहा था कि वे नहीं चाहते कि उनकी लड़ाई शान्त हो। जिससे वे एक जुट होकर न रह सकें। दोनों न्यारे होंगे फिर कर्ज माँगने वाले दबाव डालकर अपना कर्ज माँगेंगे। परिणाम स्वरूप उनके खेत बिचेंगे। लोग लूट का माल समझकर उसे मन माने भाव खरीदेंगे। ब्याज-त्याज में सब हड़प कर जायेंगे। बेचारा कुड़ेरा इस स्थिति में दर-दर भटकेगा।

कुढ़ेरा ऐसी ही चिन्ता में डूबा खेरापति के चबूतरे पर आ बैठा-‘बुढ़ापा कब दूभर होता है, जब अभाव के आँगन में कोई छायादार वृक्ष न हो। भूख कही मरते वक्त आदमी की चिन्ताओं को अपने में समाविष्ट न करले। ऐसी ही चिन्ताओं से मुक्ति पाने आदमी जीवनभर संघर्ष करता रहता है।

‘कहाँ खोये हैं श्रीमान?’आवाज प्रसादी शुक्ला की थी। यह सुनकर कुन्दन ने मुस्कराकर उनका अभिवादन करते हुये कहा-‘ऐसे ही उपन्यास के एक अंश में उलझ गया हूँ।’

उन्होंने पुनः प्रश्न किया-‘किस विषय पर आपकी लेखनी चल रही है?’

कुन्दन बोला-‘आदमी के गूंगेपन को लेकर।’

प्रसादी शुक्ल ने उत्सुकता बस पूछा-‘क्या उसमें सभी पात्र गूंगे हैं?’

कुन्दन ने बात टालना चाही-‘गूंगे तो नहीं है।’

प्रसादी शुक्ल ने झट से पूछा-‘फिर कैसे?’

कुन्दन ने स्पष्ट किया-‘आदमी अपनी पीड़ा को बिना विरोध प्रगट किये सहन करता रहे,आदमी का गूँगापन है।’

प्रसादी शुक्ल ने इसका हल प्रस्तुत करने का प्रयास किया-‘शिक्षा आदमी को गूँगेपन से मुक्ति दिलाती है।’

कुन्दन ने उसकी सलाह को स्वीकारते हुये कहा-‘आपका कथन सत्य है। शोषित वर्ग को शिक्षित करने की आवश्यकता है। तभी सार्थक बदलाव सम्भव है।’

प्रसादी शुक्ल ने कुन्दन के विद्यालय को लेकर शंका व्यक्त की-‘मित्र आप, गाँव को सुधारने का ठेका न लें ,आप गाँव की राजनीति में खुलकर भाग ले रहे हैं। पहले अपने विद्यालय को सुधारें। आपके यहाँ जो अव्यवस्थाएँ हैं, पहले उन पर ध्यान दें।’

बात सुनकर कुन्दन सोचते हुये बोला-‘हमारी उधर भी दृष्टि है। सभी शिक्षक समय पर विद्यालय आते हैं। हम छात्रों की पढ़ाई पर भी ध्यान दे रहे हैं। कभी-कभी छोटी-छोटी बातें व्यवहार में विस्मृत भी करना पड़ती हैं, यह बात हमारी ठीक नहीं है।’

इसी समय विद्यालय की ओर से प्रधान अध्यापक सुरेश सक्सैना एवं शिक्षक वाभले आते दिखे। वाभले ने कुन्दन और शुक्ल जी को बातें करते देखा तो पूछ लिया-‘भई, किस बात को लेकर बहस चल रही है?’

प्रसादी शुक्ल उपदेशात्मक मूढ़ में आते हुये बोले-‘क्या एक शिक्षक को गाँव की राजनीति में भाग लेना चाहिये? यही।’

वे समझ गये कि इनमें किस विषय को लेकर चर्चा चल रही है। वे कुन्दन से इस विषय पर पहले ही चर्चा कर चुके थे। कुन्दन अपनी धुन में है। लेकिन उन्हें अपने साथी को इस समय परामर्श देना उचित लगा। सुरेश सक्सैना बोले-‘हम इस सम्बन्ध में इनसे कह चुके हैं कि इन्हें गाँव की राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिये।’

वाभले ने उनकी बात काटी-‘मेरा ख्याल है, बच्चों के पठ़न-पाठन से जो समय बचे, हम शिक्षकों को गाँव के लोगों की सेवा में लगा देना चाहिये। शिक्षक भी उनका एक अच्छा परामर्शदाता हो सकता है। यह भी आदर्श शिक्षक का एक कर्तव्य है। लोग इसे राजनीति से जोड़ेंगे, इसमें शिक्षक का क्या दोष?’

वाभले की बात कुन्दन को सही लगी, बोला-‘आप ठीक सोचते हैं। मेरा भी यही दृष्टिकोण है। लोगों को पीड़ा से उवारना, उन्हें सही पथ दिखाना सक्सैना जी को मानव धर्म नहीं लगता!’

प्रसादी शुक्ल बोले-‘आपकी बात उचित लगती है किन्तु लोग अपनी तरह सोचते हैं। किस-किस का मुँह पकड़ोगे! इसलिये सोच समझकर चलना चाहिये। आप जिस तरह सोचते हैं, उसी तरह सब लोग नहीं सोचते। भैया दूसरे का हित करैं किन्तु अपने को बचाकर। यही तो नीति है।’

कुन्दन ने अपनी बात रखी-‘यह ठीक है, कर्मचारियों को चुनाव की राजनीति से दूर रहना चाहिये। गाँव की राजनीति में दखल देना देश के हित में नहीं है। किन्तु गाँव की अपढ़ जनता को उचित परामर्श अनिवार्य है। गाँव की भोली भाली जनता को जहाँ आवश्यक लगे कानून का ज्ञान कराना भी शिक्षक का ही कार्य होना चाहिये। इस बात को मैं अपना दायित्व मान कर चलता हूँ।’

सुरेश चन्द्र सक्सैना ने उसके तर्क को स्वीकारते हुये कहा-‘हम आपकी बात स्वीकार करते हैं। आप तो इस गाँव के प्रतिष्ठित लोग हैं। आपकी यहाँ जमीन -जायदाद भी है। हम लोग तो अपने बाल-बच्चे पालने के लिये आपके इस गाँव में नौकरी कर रहे हैं। हम क्यों फटे में अपना पैर डालें। इसलिये हम यहाँ किसी के बुरे-भले में नहीं पड़ते।’

वाभले ने बात को और बढ़ाते हुये कहा-‘जिसके स्वार्थ पर चोट पड़ती है ,वही आपकी उचित बात को भी राजनीति से जोड़ने लगता है।’

कुन्दन बोला-‘वे जोड़ें लेकिन आप तो ठीक तरह से सोच रहे हैं। मैं जानता हूँ, हम कर्तव्य पालन में चाहे जितना सही चलें, लोग तो अपने विवेक से ही हमारा मूल्याँकन करेंगे ।’

प्रसादी शुक्ल ने उत्तर देना उचित समझाा, बोले-‘ठीक है कुन्दन जी, आप जो कर रहे है वह ठीक ही कर रहे हैं। भोली-भाली जनता के दुःख-दर्द में राजनीति के डर से मदद करना न छोड़ दें।’

वाभले ने गाँव में हो रही नई हलचल का बखान किया-‘आपके गाँव में जो धर्मान्तरण होने वाला है, यह ठीक बात नहीं है। इन दिनों इस गाँव में ईसाई मत का प्रचार करने पादरी लोग चक्कर लगा रहे हैं। कुछ मुसलमान मुल्ला भी यहाँ चक्कर काट चुके हैं।अरे! गँाव में होली के अवसर पर जो कुछ घटा है,सब उसी का परिणाम है।लोग अपना धर्म बदले ,किन्तु बिना सोचे समझे नहीं। इस तरह की घटनायें ठीक नहीं हैं। इस समय लोगों को घर-घर जाकर समझाने की जरूरत है। मैं और कुन्दन दोनों ही इस काम में लगे हुये हैं।’

कुन्दन ने बात स्पष्ट करना चाही-‘हम धर्म परिवर्तन करने की मना नहीं कर रहे हैं। हम तो लोगों को अपने धर्म का बोध कराने का प्रयास कर रहे हैं कि धर्म आदमी की रगों से जुड़ा है। उसमें कुछ कमियाँ दिखती हैं तो उन्हें सुधारने का प्रयास किया जाये। यदि हम उन्हें सुधारने में असर्मथ रहें तो धर्म परिवर्तन की बात सोची जा सकती है।’

बात वाभले ने स्पष्ट की-‘शुक्ल जी अभी तक आपके गाँव में धर्मान्तरण होगया होता, हमें लग रहा है हमारी बातें लोगों की समझ में आ रही हैं।’

प्रसादी शुक्ल ने जानकारी लेना चाही-‘ आप लोग कैसे उन्हें समझा पा रहे हैं।?’

वाभले ने उत्तर दिया-‘संसार का हर धर्म श्रेष्ठ है। समय से हर धर्म में कुछ विकार आजाते हैं। आज घर्म बदलना जरूरी नहीं है। बल्कि जरूरत है अपने धर्म में आये विकारों को दूर करने केी। गाँन्धी जी ने क्या किया? हिन्दू धर्म में आये विकारों को दूर करने के लिये लोगों को जागृत करने का प्रयास भी किया। आज बदलाव दिखने लगा है। धीरे-धीरे पूर्व की तरह यह फिर से उसी रूप में हम सब के सामने आ सकेगा। हमारे इस धर्म का कोई संचालक नहीं रहा। यह तो सनातन धर्म है। इसमें कट्टरता कहीं नहीं है। इसी कारण बदलाव की प्रक्रिया इसमें सहज है।’

बात को कुन्दन ने और अधिक स्पष्ट किया-‘विश्व के अधिकांश धर्म संचालकों द्वारा संचालित है। इसी कारण उनमें कट्टरता अधिक है। हमारे यहाँ घर के प्रत्येक सदस्य के इष्ट अलग-अलग हो सकते हैं। उनके जाप के मंत्र भी प्रथक-प्रथक हो सकते हैं फिर भी घर के लोग एक जगह, एक साथ बैठकर पूजा कर सकते हैं। यह एक स्व विकसित धर्म है। इसमें कहीं कोई मतभेद नहीं। अन्य धर्मों में ऐसा नहीं है।,

इस तरह एक मानव धर्म की आवश्यकता है जो सर्वव्यापी हो। बात सुनकर सभी सोच के सागर में गोते लगाने लगे।

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