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गूंगा गाँव - 5

दुनियाँ में कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता और न किसी काम के करने से आदमी का मूल्य ही कम होजाता है। सफाई करने का जो काम, लोग अपनाये हुए हैं, वे उसे तब तक करते रहेंगे जब तक उन्हें अपने काम से हीनता की भावना नहीं आती। जब-जब जिसे अपना काम छोटा लगने लगा, उसी दिन वे उस काम को तिलांज्जलि दे देंगे।

बैसे काम तो काम है। हमारे जिस काम को लोग घृणा की दृष्टि से देखने लगें, उस काम को हमें स्वयं ही करने लग जाना चाहिये। हमें किसी पर कोई काम जबर दस्ती थोपना नहीं चाहिये। यही समाज व्यवस्था को बनाये रखने का मंत्र हो सकता है।

आज अमीन अवतार नारायण की पहलोटी ब्याई भैंस बीमार पड़ गई। दवा इत्यादि कराई गईं तो भी कोई फायदा न हुआ तो हीराभुमियाँ के थान से भबूत लाई गई, पर भैंस बच न सकी। उनका घर भर अत्याधिक दुःखी होगया। मोहल्ले भर के लोग संवेदना व्यक्त करने अमीन साहब के घर आने लगे।

गाँव भर में मरे हुए पशुओं को उठाना हो तो बुलाओ मौजी को। मौजी आदेश मिलते ही अपने बाल-बच्चों को लेकर पहुँच जायेगा। बैलगाड़ी में चढ़ाने उसे सब मिलकर ताकत लगायेंगे। मालिक के लोग और अड़ोस-पड़ोस के लोग वहीं खड़े-खड़े तमासा देखेंगे। उन तमासगीरों में से उसे गाड़ी में चढ़ाने कोई उन्हें मदद नहीं करेगा। उसे हाथ लगाया तो छूत लग जायेगी।

अमीन साहब ने भैस मरने की खबर मौजी के यहाँ पहुँचा दी और उसके आने की बाट चाहने लगे। जब बहुत देर होगई मौजी न आया तो अमीन साहब ने अपने बड़े लड़के कासीराम को उसे बुलाने भेज दिया। जब वह वापस आया तो वह मौजी को अनाप-सनाप गालियाँ देते हुये लौटा-‘ससुर चमरा के दिमाग आसमान पै चढ़ गये हैं। गाँधी जी मर गये और इन्हें राज्य दे गये। अरे! जही काम के काजे जाय ज गाँव में टिकाओ। अब खा-खा कें मकरान लगो।’

काशीराम को मोहल्ले के लोग घेर कर खड़े होगये। उसे मौजी के विरोध में भड़काने लगे।रमेश तिवारी ने अपना पैतरा चला-‘न होय तो सुसर के की मड़इया में आग लगा देऊ। सोई भजत चलो आयगो।’

अमीन साहब का लड़का कासीराम बोला-‘आज तक तो ज मरे डोरन ने उठात रहो। जब हमाओ काम परिगओ तो कहतो कै हमाई जाति किन्ने पंचायत कर लई है कै कोऊ मरे ढोर न उठायें।’

रमेश तिवारी ने आदेश दिया-‘पनहन कै मारें सारी पंचायत निकर जायेगी।’

बतबड़ा सुनकर लालूराम तिवारी भी वहाँ आ गये। बात को समझते हुए उन्होंने सलाह दी-‘अब जे बातें छोड़कर पहलें ज भैंस को हिल्ले लगाओ। जे बातें पीछें कत्त रहियो।’

अमीन अवतार नारायण घर के अन्दर से बाहर निकल आये। उन्होंने लालूराम तिवारी की बात सुन ली थी।बोले-‘जाय उठवावो कुन खेल है।साबित थुरिया हती। हम तो मिट गये। अब कौन से कहें कै तुम उठवा देऊ?’

लालूराम ने समझाया-‘अरे! मोहल्ला बारिन ने ही बुला लेऊ। अब तो सब को काम सब से पन्नो है। ऐसें ही काम चलानों परैगो। आके नहा-धो लियो।’

यह चर्चा गाँव भर में फैल गई।गाँव के लोग उसके विरोध में उतर आये। उनकी दृष्टि में, मौजी ने इस काम की मना करके धर्म विरु़द्ध आचरण किया है। जिसकी उसे सजा मिलना ही चाहिये। कुछ लोगों का कहना है-‘यदि इसी तरह जमादारों ने गलियाँ झाडना बन्द करदी, फिर क्या होगा?’

बात बात में गाँव भर के प्रमुख-प्रमुख लोग इकट्ठे हो गये। परामर्श करने लगे,पं0 नन्दराम ने हुक्म जारी कर दिया-‘चार मोड़ा चले जाओ, मौजी के आदमिन ने बुलाकें लाओ। हम कुछ नहीं जानते व ज भैंस उठवा कें जाये,नहीं ठीक नहीं होयगी।’

चार लठैत मौजी के घर पहुँचे। मौजी समझ गया, चलने में ही खैरियत है। बोला-‘महाराज, आज तो चल्तों, वाय उठवा के फिकवायें देतों। फिर कबहू न कहियो। जे मोड़ा-मोड़ी साथ नहीं देत। जात में से डार दये तो बोलो, लरिका -बारे कौन के झाँ ब्याहंगो।’

लोगों ने मौजी की यह बात सुनी तो बोले-‘मौजी को अब ज गाँव में राखिवे की क्या जरूरत है? उसे यहाँ से भगा देना चाहिये। उसकी मड़रिया में आग लगा देना चाहिये। कुछ बात को शान्त करना चाहते थे। वे यह जानते थे किसी दलित से इस तरह का व्यौहार करना ठीक नहीं है। सरकार भी उनकी सुनती है।’

उनमें से कुछ कह रहे थे-‘सरकार क्या कर लेगी? अपने थाने का दरोगा तो अपनी ही जाति का है।’बातों-बातों में ऐसा लगने लगा जैसे जल्दी ही कोई अप्रिय घटना घटने वाली है। मौजी बातों को समझ रहा था। वह बचाव के बारे में सोच रहा था। उसने सेच लिया-यदि लोग उसे मारते-पीटते हैं तो भी वह इस काम को बन्द कर देगा। अरे! जिसमें इज्जत न हो वह काम भी कोई काम है। सोंने के लेंड़ा हंगने पर भी सुगरिया किस काम की!

मरे पशु को उठाने अपने बाल-गोपाल को लेकर पहुँचो। उसे उठवा कर फिकवाओ। तब कहीं सेर दो सेर अनाज इस तरह मिलेगा जैसे भिखारी को भीख दे कर अहसान कर रहे हों। अरे! इतना देकर किसी और से यह काम करवालें। मैं जानता हूँ ऐसे काम व्यवहार में चाहे जो करवादे ,पर पैसों में तो कोई हजार रुपये में भी हाथ नहीं रखेगा। अरे ! जे तो जों जानतयें कै मौजी कों इनने खरीद लओ है।

गाँव भर में आज चर्चा का यही विषय था। कुन्दन और उनकी पत्नी आनन्दी में यह संबाद छिड़ गया था। आनन्दी ने प्रश्न भरी दृष्टि से पूछा-‘आज तो ब्राह्मणों को मरी भेंस उठानी पड़ी होगी।’

कुन्दन ने उसे समझाया-‘आज तो सब गाँव के दबाव में मौजी आ गया था।उसने साफ-साफ कह दिया है कि आज तो मैं उठवाये देता हूँ किन्तु आगे से मुझ से यह आशा न रखना। इसलिये अब तो यह काम हमें खुद ही करना पड़ेगा। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। हमें अपने काम स्वयं करना ही चाहिये।’

आनन्दी ने अपने परम्परावादी तर्क से सोचा-भगवान ने जिसे जिस काम के लिये बनाया है , उसे उस काम को करना ही चाहिये कि नहीं? यह सोचकर बोली-‘अरे! आदमी को अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहिये।’

कुन्दन ने मौजी का पक्ष लिया-‘उसे अब यह काम नहीं करना है तो हमें उससे जबरदस्ती यह काम कराना भी नहीं चाहिये। उनकी जाति ने यह निर्णय लिया है, उसने यह काम किया तो उसकी जाति के लोग उसे जाति में से ड़ाल देंगे।जाति के निर्णय को तोड़ना मौजी जैसे के बूते की बात नहीं है।’

आनन्दी इस बात को समझने के लिये अपने दिमांग पर जोर डालने लगी। वह सोचते हुये बोली-‘ जे बातंे हमाई समझ में नहीं आतीं। हमाये मथाई-बाप ने हमें पढ़ाये-लिखाये होते तो आज जय लाला की पत्नी लता हमें गमरिया तो न समझती। व हमें जो समझे सो समझती रहे। जय लाला को भेज कें वाय शहर से बुला लेते।’

कुन्दन को कहना पड़ा-‘वो शहरी लड़की है, उसे गाँव में रहना अच्छा नहीं लगता। उसके माँ-बाप चाहते हैं उनका दामाद यहीं शहर आकर रहे। यही कहीं नौकरी तलाश ले।’

आनन्दी बोली-‘ वे मूरख हैं। जों नहीं सोचते कै उसके पति के साथ रहने में ही इज्जत है। अरे! मैं पढ़ी-लिखी नाने तो तुम मोय काये नहीं भगा देतये। अरे! वाके कोरे शहरी नखरे हैं। फित्त होयगी मुँह उठाये। ज हमें अच्छो नहीं लगत।’

कुन्दन ने बात टालते हुए उसे समझाया-‘तुम्हारे पास आया कि बातों में लग जाता हँू। ग्यारह बजने को होगये, विद्यालय चलूं। नई-नई नौकरी लगी है। देर होगई तो हेडमास्टर साहब कहेंगे कि गाँव की गाँव में नौकरी किस्मत वालों की ही लग पाती है। तुम्हारी लगी है तो ईमानदारी से सेवा-भाव से नौकरी नहीं की जाती।’ यह कहते हुए वह स्कूल चला गया।

गाँव में पशुओं का रोग फैल गया। किसी न किसी के यहाँ पशु मरने लगे। गाँव के गरीब लोग तो अपने मरे हुए पशुओं को लाद कर गाँव से दूर लेजाकर फैंक आते किन्तु बड़े लोगों को इससे पीड़ा होती। एक दिन गाँव के लोगों में तय किया गया कि मौजी मरे हुए पशुओं को फिकवाता नहीं है किन्तु जब हम लोग अपने मरे हुए पशुओं को फिकवा देते हैं तो वह उनकी खाल उतार कर उसे शहर में लेजाकर बेच आता है। इस बात का कुछ इन्तजाम होना ही चाहिए। बात सरपंच के कानों में पड़ गई। वह शहर जाकर एक ठेकेदार को पकड़ लाया और मरे हुए पशुओं की खाल उतारने का ठेका हजार रुपये लेकर उसे दे दिया।

मौजी को जब यह बात पता चली तो वह उनके पास जाकर बोला-‘महाराज मेरे पेट पै लात दे के तुम्हें का मिल गओ।’

सरपंच विशन महाराज ने उसे समझाया-‘मौजी तेंने ज काम छोड़ दओ ,तहीं मैंने शहर से ठेकेदार बुलाके वाय हजार रुपइया में ज ठेका दे दओ।अरे! जासे पंचायत को तो फायदा भओ।’

मौजी बोला-‘ महाराज, मोसे कह देते ठेका मैं ले लेतो। कत्त रहतो तुम्हाई और की मजूरी।’

सरपंच विशन महाराज ने उस पर अहसान धरा-‘ तोय ज काम में बड़ो फायदा हतो। ठेकेदार जो कमायेगों वामें से कछू बी0 डी0 ओ0 को देगा और कुछ मेरी सेवा पूजा करता रहेगा। बा दिना मेरो बैल मरि गओ, तोय बाय उठावे की खबर भेजी किन्तु तूं तोऊ नहीं आओ तो अब काये रोतो?’

मौजी समझ गया -बी.डी. ओ. को तो नाम है। जिनको मरो बैल नहीं उठवाओ तहीं जिन्ने मोसे टसन हो गई है।जे अब मोय ज गाँव से भगायें चाहतयें। मैं अब झें से भगिवे बारो नाने। जे तो जों सोच रहे हैं कै मुजिया ससुर का समझ पा रहो है जिनकी चालें। ससुर बमनन से मरे ढोरन को पइसा हू नहीं छोड़ो जा रहो। का पतो ठेकेदार से जे कितैक खा गये होंगे। देखिवे-दिखावे रसीद हजार रुपइया की काट दई।मैं सब जन्तों।

इन बातों को सोचते हुए मौजी घर पहुँच गया। घर में सभी मौजूद थे ही। उसने घर आकर अपनी व्यथा उड़ेली-‘ अब कपड़ा लत्तन को काम कहाँ से चलेगो?’

मुल्ला बोला-‘ काये अभै कहाँ से चलतो? तहीं से चलेगो।’

मौजी ने उत्तर दिया-‘ ब गैल तो अब बन्द हो गई है।ढोरन के हाड़-मास को ठेका हो गओ।जामें हू सरपंच खानगी खा गओ।’

मुल्ला ने अपना विश्वास उड़ेला-‘ अये नहीं दादा , मरे चौपिन कौ पइसा नहीं खा सकत अपनो सरपंच।’

मौजी ने क्रोध व्यक्त किया-‘सब खा सकतो, व तो सड़े गधन को हू पइसा न छोड़ेगो।’

मुल्ला ने अपना निर्णय सुनाया-‘तो हमने छोड़ो ऐसो पइसा। और कहूँ, मेन्त मजूरी करंगे। हाड़न के पइसा से बिनको पेट भरतो तो एन भर जाये ।हम तो भूखिन मर लेंगे। दादा, तें चिन्ता मत करै।’

मुल्ला की यह बात सुनकर मौजी मन ही मन सोचने लगा-‘भगवान ने पैट दओ है तो चुन देगो ही। अरे! ज काम से हू कोऊ रद्दी काम होतो! मेहनत करिवे बारे कों काम की कहूँ कमी नाने।’

यही सोचते-सोचते मौजी जाने कब का सो गया

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