gunaga gano - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

गूंगा गाँव - 3

तीन

आम चुनाव में मौजी को खूब मजा आया। दिन भर घूम-घूम कर नारे लगाते रहो। रात को भरपेट भोजन करो,ऊपर से पचास रुपइया अलग मिलते। दिनभर के थके होते, थकान मिटाने रात पउआ पीने को मिल जाता। महीने भर में वह खा-खा कर सन्ट पड़ गया था। उसने तो जी तोड़ नारे लगाये किन्तु बेचारे पण्डित द्वारिकाधीश जीत न पाये। जीत जाते तो मौजी की पहुँच भोपाल तक हो जाती। मौजी ने भोपाल घूमने के कितने सपने देखे थे।

भेापाल देखने की बात मौजी के मन की मन में रह गई। बढ़िया सुन्दर दुकाने होंगी। सब चीजें सस्ती मिलत होगी। जाने को कह रहो कै भें सब चीजें बहुत मैंगी हैं। अच्छो बेबकूफ बनातयें, का मैं इतैक नहीं जान्त। अरे राजधानी में तो सब आराम होनों चहिये। भें चीजें इतैक मैंगी कैसे हो सकतें? लोगन की का है, जोंईं कह देत होंगे। सोचत होंगे मुजिया का जाने। जों नहीं जान्त कै मौजी किस्मत को मारो-धारो तो है लेकिन सब बातें समझतो।

उसे गमसुम बैठे देख मुल्ला बोला-‘दादा ऐसें चुपचाप काये बैठो है?’

प्रश्न के उत्तर में मौजी बोला-‘ जोंई सोच रहो कै आदमी हमें कितैक मूरख जान्तो। अरे! वे अन्न खतयें सोई हम खातयें। बिनपै पइसा बढ़ गओ है, सो बिन्हें सब बातें आन लगीं।’

मुल्ला को लगा-जाके हाथ में पइसा है ,बईके हाथमें तिरंगा झंण्डा है। यह सोचकर बोला-‘दादा पइसा से सब बातें आन लगतें। पइसा आदमी को बड़ो बना देतो ,बई पईसा आदमी को छोटो बना देतो। देख नहीं रहे अपने जाटव मोहल्ला के कछू-कछू कैसे ऐठ कें चलतयें! वे जों नहीं सोचत कै जेऊ अपनी जाति के हैं।’

मौजी ने मुल्ला के तर्क को स्वीकारते हुये कहा-अरे! बेटा, वे हमें छोटो और अपने को बड़ा मानतयें।‘

लम्बे समय बाद मुल्ला को अपनी बात कहने का अवसर हाथ लग गया था, बोला-‘जामें तो दादा तुम्हाई गल्ती है। तुम ज पापी पेट की खातिर इनके चक्कर में फस गये हो। सो जिनके मरै ढोर फेंकत रहे, तई वे हमें छोटो मानतयें।’

मौजी के चेहरे पर सोच की लकीरें उभर आईं ,बोला-‘ज गल्ती तो होगई रे मुल्ला। अब तो हमने हू जे सब काम बन्द कर दये हैं, फिर जे काये हमें छोटो मानतयें। बात ज है कै बिन्नें मेन्त मजदूरी करके अपनी पोषाक बना लई है।’

मुल्ला बात बदलने के लिये बोला-‘दादा मैंने गाँम में जों सुनी है कै अपने बाट के वोट गिर रहे हैं।’

मौजी ने मुल्ला ने बात टालना चाही, बोला-‘हाँ.......गिर तो रहे हैं।’

मुल्ला ने पूरी बात जानने के लिये प्रश्न कर दिया-‘अभै बीच में जे वोट काये गिर रहे है?’

मौजी ने उत्सुकता बगराते हुये कहा-‘तोय पतो नाने।’

मुल्ला ने बात पूरी उगलवाने के लिये पूछा-‘नहीं तो। अरे! अपने अकेले बाट के ही वोट काये गिर रहे हैं।’

मौजी ने पूरी जानकारी उड़ेली-‘अरे! अपने सरपंच हैं ना , बिनको एक मेंम्बर महेश कुशवाह अपने बाट से जीतो। अब बाकी सरकारी नौकरी लग गई है। सो बाने मेंम्बरी से इस्तीफा दे दओ है। अरे !झाँ का धरो। वहाँ जिन्दगी की रोटीं हैं। तहीं अब बाकी खाली जगह के चुनाव हो रहे हैं।’

मुल्ला ने उत्साह दिखाया-‘ तब तो दादा अब फिर मजा आँगे। अब देखियो, बोटन के काजें कैसें-कैसें निहोरे कत्त फिरंगे। पहले तो दो बोतल शराव भिजवा दई। सो बा दिना दादा तें शराब पीकें कितैक मजा कर रहो।’

मौजी ने अपनी बात से उसे अवगत कराते हुये कहा-‘रे! मजा-फजा काये के, बिन्हें बोट चहिय रहे थे। अरे! बिनसे धनसिंगा का टकरा पातो। पहार से मूड़ पटकोगे तो पहार को का बिगरनो है। फूटनो तो मूड़ तुम्हारो ही है। मैंने वा से कही कै चुनाव जीतनो है तो कछू खच्चा-पानी कर। सुसर के पै रोटी तो जुटत नाने और चुनाव लड़िवे बैठ गओ।’

मुल्ला ने वाप का मन टटोला-‘दादा , तोय बोट तो बहिये देनों चहियतो। व अपनी तरह गरीब तोऊ है।’

मौजी बात सुनकर बोला-‘ तें कछू समझत नाने। बड़िन की इज्जत खराब करिवो ठीक नाने। धनसिंगा हार गओ तो बाको का बिगर गओ। अरे! वे हार जातये तो जिनकी सात पीढ़ी की डूब जाती।’

मुल्ला ने गाँव की व्यवस्था पर अपना निर्णय सुनाया-‘ दादा , लालूराम तिवाई सरपंच बन जातये तो गाँव को कछू काम तो करा देते।’

मौजी ने अपनी मोथरी तलवार से उसकी बात को काटते हुये कहा-‘रे! अपुन कों का बिनसे बैल बाँधानों है। अरे !जैसे साँपनाथ बैसे नागनाथ। न जिनमें राम है न बिनमें कछू।’

इसी समय जाटव मोहल्ले के देवेन्द्र जाटव ने आकर दरवाजे पर आवाज दी-‘ओ मौजीऽऽ कक्काऽऽ।’

मौजी दरवाजे पर किसी की आहट सुनता है तो चाहे उसके हाथ का कौर हाथ में हो, चाहे मुँह का कौर मुँह में हो, वह दरवाजा खेालने दौड़ पड़ता है। आज भी वह दावाजा खोलने बाहर निकल आया। बोला-‘का बात है भज्जा? कैसो कष्ट करो?’

देवेन्द्र जाटव ने उसे सूचना दी-‘अपने मोहल्ला के रामदयाल भज्जा के बैठका में सब इकठ्ठे हो रहे हैं। एक सभा कन्नो है। तुम्हें सोऊ सबने बुलाओ है। जरूर आनों है।’

यह सुनकर मौजी सोचने लगा- सबके बुलाने पर जानों ही परैगो। पंचायत कत्त होंगे। कै मैं बड़िन कौ संग छोड़ दऊँ। इनके संग रहूँ। तहीं बुला रहे हैं। जो हो, जानों तो परैगो ही। यह सोचकर बोला-‘तुम चलो, मैं अभिहाल आतों।’

देवेन्द्र चला गया। मौजी ने मीटिंग में जाने के लिये अपने अंग में कमीज डालना चाही। पत्नी पचरायवारी को आवाज दी-‘ अरी गुईयाँ सुनते।’

घर के अन्दर से सम्पतिया ने जबाव दिया-‘ काये चोंचिया रहे हो?’

मौजी ने अपनी बात रखी-‘ मेरी कमीज तो निकार दे। जाटव मोहल्ला में कछू की पंचायत है। बुलावो आओ हैं तो जानों ही परैगो कै नहीं?’

पंचायत में क्या होने वाला है? इस बात का वह अन्दाज लगाते हुये बोली-‘पंचायत में तुम का कत्तये?तुम पै ही डाँढ़-बाँध कत्त होंगे। एन चले जाओ।’

मौजी जाने की तैयारी करते हुये बोला-‘मेरी कमीज तो निकार दे।’

सम्पतिया बोली-‘ कमीज का बक्सा में धरी है। नाज बारे घैला में खुस्सी होयगी।’

उसकी बात सुनकर मौजी जेउने घर में चला गया। एक कोने में मिट्टी के बरतनों का ढेर लगा था। जिनमें घर गृहस्थी की चीजों को सँभार कर रखा था। मौजी ने एक बरतन में हाथ डाला। हाथ में सुई और अटिया पकड़ में आगई। उसे पत्नी पर प्यार उमड़ आया। वह बड़बड़ाया-‘ ज सुई और ज अटिया कितैक सम्भार के धरी है। अरे! चीज है तो बक्त वे बक्त फटे-पुराने कपड़ा गूँथ तो लेतयें।’

उसकी बड़बड़ाहट सुनकर सम्पतिया बोली-‘ जाने का खखेार रहे हो। नहीं तुमने गुंजें गढ़ा के धर दई। तिन्हें ढूढ़ रहे हो। अरे! तुम्हाई कमीज तो कारे घैला में पवर रही होयगी।’

मौजी ने कमीज ढूढ़ निकाली। उसकी गुमड़न मिटाने के लिये उसे धीरे से फटकारा। फटकारने से डरा कहीं फट न जाये। नहीं अंाग में डालने कुछ भी नहीं है। वह कमीज की ओर देखकर सोचने लगा- ज कमीज तो पण्डित जी को भलो होय। न चुनाव होतये न वे मोय बुलातये। बिनसे रिटार होगई सो बिन्हें मोय दे दई। यह सोचकर वह सम्पतिया से बोला-‘गुइयाँ ज कमीज निकरी कै नेता जी की याद हो आई। जाय तीन सालें तो होगईं होयगीं। अब तो जामें आँखें सी निकर आईं है।’ यह कहते हुये उसने उसे अपने शरीर में डाल ली। वह समझ रहा था,इस कमीज पर थोड़ा सा तनाव पड़ा कि यह तार-तार हो जायगी।

कमीज पहनकर वह घर के आँगन में आगया। मुल्ला अपनी टपरिया में से बाहर निकल आया। दादा को कमीज पहने देख वह समझ गया कि दादा किसी मीटिंग में जा रहे हैं। यह सोचकर उसे लगा -दादा की सोऊ पूछ है। यह सोचकर तो उसकी छाती चौड़ी होगई।

मौजी घर से निकल चुका था। जब वह बैठक में पहुँचा, लोग फर्स पर बैठते जा रहे थे। कुछ एक और जाजम बिछा रहे थे। मौजी बिछात कराने में सम्मिलित होगया। उसे आया देखकर कल्याणसिंह बोला-‘मौजी भज्जा अब तो बिनकी चमचागिरी करिवो बन्द कर देऊ।’

मौजी ने अपनी मजबूरी बतलाई-‘ का करैं, ज पेट नहीं करन देत। हमें का है हमें तो पेट के काजें चहिये। चाहे तुम देऊ, चाहे वे दें।’

सुम्मेरा झट से बोला-‘पेट को तो भज्जा न हम दे पाँगे न वे दे पा रहे हैं। काम करा- करा के टस निकार लेतये ंतब कनूका बतातयें। ऊपर से व्याज-त्याज लगातयें।’

मौजी का यह सुनकर सोच बदला, बोला-‘ बात तो तुम्हारी सच्ची है, पर का... करें? आज ही काऊ के से नाज उधार लानों है। तब पिसेगो। तब कहूँ संझा कों पेट में परंगीं।’

अब तक सभी बैठ चुके थे। मौजी भी बैठ गया। वह जाजम पर नहीं बल्कि उसके किनारे पर अछूतों की तरह बैठा था। उसे अपने लोगों और सवर्णेंा में कोई अन्तर नहीं दिख रहा था।श्रद्धेय भन्तेजी तख्त पर जो आसन बिछी थी उस पर विराजमान थे। उनके पीछे लोढ़ लगा था जिसके सहारे वे टिके आराम से बैठे थे।

सभा की कार्यवाही शुरू होगई। अतिथि को मालायें पहनाने का कार्यक्रम चला। मौजी से भी माला पहनवाई गई। मन ही मन मौजी प्रसन्न हो गया। उसके बाद डॉ0 अविनाशी ने बोलना प्रारम्भ किया- ‘मित्रो, आज आपकी बस्ती में श्रद्धेय भन्ते जी पधारे हैं। उन्होंने आप लोगों की व्यथायें सुन ली हैं। यहाँ के सवर्ण आज भी आप लोगों के साथ भेद-भाव रखते हैं। आप लोग इस घृण-द्वेष से छुटकारा कैसे पायें? यह आपकी समझ में नहीं आता। जिस धर्म में आपको घृणा मिलती हो, फिर भी आप उस धर्म से चिपके हुए हो। मैं तो इतना जानता हूँ , आप लोगों के लिये उस धर्म में कोई स्थान नहीं है। यदि वहाँ आपके लिये कोई स्थान है तो वह है घृणा सहकर सेवा करते रहने का।’

‘होली हिन्दुओं का भेदभाव मिटाने वाला त्योहार है। यहाँ तो कुछ और ही सुनाई पड़ रहा है। इससे मन में इतनी पीड़ा हुई कि उसे सहन नहीं कर पा रहा हूँ। अपनी इस पीड़ा को मैंने श्रद्धेय भन्ते जी के समक्ष रखा। उन्होंने अपना अमूल्य जीवन आप लोगों की सेवा में अर्पित कर दिया है। वे आज हम सबके बीच में उपस्थित हैं।

डॉ0 भीमराव अम्बेड़कर जी , जिन्दगी भर इस घृणा को सहते रहे। सारे तथ्य अच्छी तरह समझ लेने के बाद उन्होंने जीवन के अन्तिम दिनों में बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिया। वे हम लोगों के मसीहा थे। वे जिन्दगी भर हिन्दुओं से लड़ते रहे। वे हमें जो रास्त दिखा गये हैं वही सही है। हमें एक होकर सत्ता में अपना स्थान निश्चित करने का प्रयास करना चाहिये। गाँव की राजनीति में हम अपना हित देखकर ही वोट का उपयोग करें। मुझे आप लोगों से यही कहना है। वैसे आप सभी लोग समझदार हैं। आप लोगों ने स्वयं ही सघर्ष का विगुल बजा दिया है।

हमारे बीच में श्रद्धेय भन्ते जी विराजमान हैं ही। आप उनके विचारो से अवश्य ही लाभ उठायेंगे।’ यह कह कर डॉ0 अविनाशी अपने स्थान पर बैठ गये।

अब श्रद्धेय भन्ते जी ने सभा को सम्बोधित किया-‘ धर्म ,प्रेम से रहना सिखाता है। मैं आप लोगों के अन्दर से घृणा निकालकर प्यार बाँट ने आया हूँ। हमारे धर्म का आधार करुणा है। विश्व के सभी धर्मों में सदाचार और भाईचारे की बातें कही गईं हैं। हिन्दू धर्म में हमें कुछ और ही बातें देखने को मिल रहीं हैं। उनमें हमें समानता कहीं भी दिखाई नहीं देती। उनमें तो हमें भेदभाव, छुआछूत, ऊँच-नीच की विरासतों से हिन्दू धर्म सजा-सँभरा है। युगों-युगों से हम लोग पता नहीं क्यों, इनसे चिपके हुये हैं। हमको इनसे मिल रहा है घृणा-द्वेष, भेदभाव और अपमान। हमें मिलना चाहिये थी समता, स्नेह और मान। यह हिन्दू धर्म से कभी सम्भव नहीं जान पड़ता। इनके धर्म में हमें कोई अच्छाई ही दिखाई नहीं देती। यह ब्राह्मणवाद पर आधारित है। यह एक ऐसा वर्ग है जिसने अपने लिये सारी सुविधाएँ अपने धर्म ग्रंथें में अंकित कर रखी है। हमारा हक खा-खा कर ये लोग सन्ट पड़ रहे हैं।

हम धर्मग्रंथों की बातें करें? लेकिन क्या फयदा? सभी में अधिकांश बातें उन्हीं के फायदे की हैं। अधिक कहने से भी क्या लाभ? मेरा तो आप लोगों से यही कहना है कि इस कष्ट से निकलिये और बौद्ध बन जाइये। फिर देखिये आपके विकास में किस तरह दिनों- दिन बृद्धि होती है। अम्बेड़कर जी के जीवन से शिक्षा लीजिये और बदल जाइये। यह बदलना इस तरह का है जैसे हम किसी जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को उतार फेंकें।

अब ऐसे लोग हाथ उठाइये जो बौद्ध बनना चाहते हैं।’

यह सुनकर पहले कुछ हाथ उठे। उसके बाद सभी ने अपने-अपने हाथ उठा दिये। मौजी का हाथ सबसे पीछे उठा। वह बदलने के लिये नहीं वल्कि इसलिये कि सबने अपने हाथ उठा दिये थे। उसने सोचा एक हाथ ना भी उठे उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा किन्तु यह उसे यह अच्छा न लग रहा था। इसीलिये उसे भी हाथ उठाना पड़ा। सभी के उठे हुये हाथ देखकर भन्ते जी पुनः बोले-‘बस-बस मैं समझ गया कि आप भगवान बुद्ध की करुणा के पात्र हो। अब आप लोग जो भी दिन निश्चित करेंगे, उसी दिन हम आकर आप लोगों को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर जायेंगे। जय भीम जय- जय भीम, जय भारत। धन्यवाद।

डनके भाषण के बाद एक खद्दर धारी नेताजी बोलने के लिये उठे। उन्होंने यों बोलना शुरू किया-‘ मुझे आप लोगों की सेवा करते हुये बारह वर्ष से अधिक समय व्यतीत होगया है। कहते हैं बारह वर्ष में तो घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। आप सब मुझे पहचानते ही होंगे।’

भीड़ के बीच से आवाज आई-‘ अरे साब! आपको कौन नहीं जानता है! पहले आप काँग्रेस में थे । बाद में आप भाजपा में चले गये थे। अब आप बी. एस. पी. के सक्रीय कार्य कर्ता हैं।’

उन्होंने सफाई दी-‘मैं पहले भटका हुआ था। पिछली बार मैंने महाराज जी की बात सुनी तो मैं पूरी तरह बदल गया हूँ। हम सब संगठित होकर अपने वोट का उपयोग सत्ता में अपनी भागीदारी के लिये कर सकते हैं। इसी में हम सब का हित है।

श्रद्धेय भन्ते जी ने हम लोगों को अपना अमूल्य समय दिया, इसके लिये हम सब हृदय से उनका आभार मानते हैं। आशा है भन्ते जी समय-समय इसी तरह हमें दिशाबोध कराते रहेंगे। धन्यवाद। अब श्रद्धेय जी की आज्ञा से सभा समाप्ति की घोषणा की जाती है।

लोग अपने-अपने घर चले गये। यह बात गाँव भर में फैल गई। कुछों का कहना था कि इन लोगों को गाँधी जी सिर चढा़ गये हैं। जगनू कुशवाह कहता फिर रहा था-‘ इस देश का नाश तो इन ब्राह्मणों ने किया है। हमें भी ये लोग अछूत ही मानते हैं। उनके भगवान के लिये फूल भेजने का काम हम लोगों को मिला था। हम इसी में संतुष्ट रहे। हमारी जाति बहुत गरीब है। हम इसी में खुश हैं कि ये लोग हमारे हाथ का पानी पी लेते हैं।’

कुन्दन ने यह बात सुनी तो बोला-‘ कुछ लोगों ने धर्म के सम्बन्ध में विष वमन किया है। हम जानते हैं कि हमारे धर्म में तमाम तरह की कुरीतियाँ घर कर गईं हैं। स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों ने हमें सचेत करने का प्रयास किया है। महात्मा गाँधी ने हमें नई दिशा दी है। अब वह समय आ गया है जब छुआछूत जैसे अभिषाप को जड़ से मिटाने की आवश्यकता है।’

नारू केवट के मन में आक्रोश उठ खड़ा है। वह इसी गाँव के विद्यालय में भृत्य है। जब भी वह विद्यालय की घन्टी बजाता है तो वह उसे इस तरह जोर-जोर से पीटता है ,मानों उस पर वह अपना गुस्सा निकाल रहा हो।

इस गाँव में केवटों का अलग मोहल्ला है। इसी तरह इस गाँव में सभी जातियों के अलग-अलग मोहल्ले हैं। केवटों का मोहल्ला तेलियों और जाटवों के मोहल्ले के बीच में बसा है। जाटवों में आई चेतना को देखकर इन लोगों ने भी पंचायत कर डाली और तय किया गया कि अब कोई भी केवट जाति के लोग किसी की घिनौंची( घर का पानी रखने की निश्चित जगह ) कमाने नहीं जाएँगे।

अभी तक पता नहीं कितनी पीढ़ियों से इस जाति के लोग इस गाँव के रहीसों के घर पानी भरने जाते रहे हैं। इसके बदले में उन्हें मिलता है ,कलेउ की चार रोटियाँ और दस-पचास रुपये अलग से। इसके अतिरिक्त जिनके यहाँ पानी की ज्यादा जरूरत रहती है ,उन्होंने लगा रखा है उन्हें एक- दो बीघा जमीन का टुकड़ा। जिस पर ये लोग कछवाई करके अपना पेट पालते रहते हैं।

जब इन लोगों ने उनका पानी भरना बन्द किया तो जन्म-जन्मान्तर से लगा रोजगार भी छीन लिया। यह भी नहीं सोचा, यह तो उनका हक बन चुका है। उनमें इतना साहस कहाँ? जो वे उस पर अपना हक बतला सके। वे तो इसके बावजूद गूँगों की तरह मन मसोस कर रह गये।

गाँव के रहीसों के लड़के जब कुओं से पानी भरने, सिर पर घड़े रखकर निकले तो ऐसा महसूस कर रहे थे मानों उनका अपमान हो रहा है। नारु केवट तो कहता फिर रहा था-‘ का पानी पीवे में अपमान महसूस नहीं होत जो अपने लिये पानी भरने में हो रहा है।

ये बातें ठाकुर लालसिंह के लड़कों के कानों में पड़ी तो वे उसे मारने के लिये स्कूल पर ही पहुँच गये। वह तो स्कूल के हेडमास्टर सुरेश सक्सेना और शिक्षक वाभले ने यह लड़ाई बरका दी, क्योंकि वे स्कूल को गाँव की राजनीति से नहीं जोड़ना चाहते थे।

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