गूंगा गाँव - 1 रामगोपाल तिवारी (भावुक) द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गूंगा गाँव - 1

एक

भोर होते ही चिड़ियों ने चहकना शुरू कर दिया। उनमें एक संवाद छिड़ गया था। कुछों का कहना था-‘इस गाँव का किसान बड़ा खराब है, हमारे पहुँच ने से पहले खेतों पर पहुँच जायेगा। जब हम चुनने लगेंगे तो हाय-हाय करेगा। भला ऐसा अन्न क्या अंग लगेगा!’

कुछों का कहना था-‘ यहाँ का आदमी यह नहीं सोचता कि हमारे क्या खेती होती है? हम अपना पेट भरने कहाँ जायें? क्या करें? गोदामों में पहुँचने के बाद तो हमें अनाज की सुगन्ध भी नहीं मिलने की । इस तरह का खाना किसी को भी अच्छा लगेगा! किन्तु हम क्या करें? मजबूरी में पेट की आग तो बुझाना ही पड़ती है। पेट के लिये आदमी भी क्या नहीं करता?’

कुछों ने कहा-‘बेचारा किसान भी क्या करे? जो देखो उसीसे आशा लगाये बैठा है। दिन-रात मेहनत करै, तब कहीं ये दाने दिखते हैं। इन पर भी जिसकी देखो उसकी दाढ़ है। मण्डी में तो इन दानों पर मोटे पेट वाले सेठ चीलों की तरह झपटते हैं।’

यह सुनकर तो कुछ कहने लगे-‘ हम इस व्यर्थ के विवाद में क्यों पड़े, दिन निकलने को हो गया, जल्दी चलें जिससे पेट भर लेंगे।’ अब एक-एक दो-दो करके वे उड़ने लगीं फिर कुछ झुन्ड बना कर उड़ गईं।

यह एक ऐसे गाँव की कहानी है , जिसके चारो ओर नीम बबूल, बेर और पीपल के वृक्षों का तो बाहुल्य है लेकिन इसके इतिहास में एक भी आम जैसे फलदार वृक्षों का नामो-निशान नहीं मिलता। इस क्षेत्र में हरसी के बाँध से सिचाई होती है। यह बाँध.सन् 1943ई0 के लगभग जीवाजी राव सिन्धिया नरेश ने पार्वती नदी पर बनबाया था। इसकी विेश्षता यह है कि यह मिट्टी का बना बाँध है। इसकी जल संग्रह की क्षमता 12380 लाख फुट है। इस बाँध के कारण यह धान, गन्ना, गेंहूँ की खेती का प्रमुख क्षेत्र बन गया है।

फागुन के महीने में फसलें पकने को हो जातीं हैं। इस गाँव के दोनों ओर तालाब हैं। उत्तर के तालाब को सनोरा ताल एवं दक्षिण के छोटे तालब को बन्डा ताल के नाम से लोग परिचित हैं। दोनों तालाबों में लोग मसूर और मटर की खेती करते हैं। होली के समय मसूर को उखाड़ने का कार्य तेजी से शुरू हो गया है।

पिछले वर्ष की तरह इस अवसर पर मौजी जल्दी ही उठ गया था। यों तो रोज ही जल्दी उठना पड़ता है, पर होली के दिन की उमंग और भी जल्दी जगा देती है। वह उठकर सीधा पोखर की तरफ निकल गया, वही से खेतों पर पहुँच जायेगा। उसकी पत्नी सम्पतिया उर्फ पचरायवारी सरपंच विष्णू शर्मा उर्फ विशन महाराज के यहाँ गोबर डालने चली गई। जब वह लौटी, मौजी उससे पहले ही लौट आया था। पत्नी को देखते ही बोला-‘बड़ी देर कद्दई। का सरपंच के संग होरी खेलन लगी।’

उसकी यह बात उसे बहुत बुरी लगी। वह प्रश्न के स्वर को पकड़कर बोली-‘ सरपंच का मेरो लोग लगतो सो बाके संग होरी खेलती। अरे! मोय काये कों अलग लगातओ। तुम अपयीं तो कहो तुम्हें कितैक होरी चढ़ते, इतैक औरउ काउये चढ़ते’

यह सुन मौजी हिनहिनाकर हँसते हुये बोला-‘अभै नो तो मैं चलो जातो। जौ सोचकें रह गओ कै तो सों होरी खेल चलों।’

सम्पतिया आनन्द सागर में डुबकी लगाते हुये बोली-‘मो सौं होरी काये कों खेलतौ। आज तो गाँम में हँू होरी खेलबे बारीं मुलुक बैठीं होगीं।’

एक क्षण के लिये उसके मन में समता की उमंग उठी। वह भूल गया कि वह किसी जाति के पतनकाल में पला आदमी है। दूसरे ही क्षण उसे लगा-जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों ने उस पर आक्रमण कर दिया है। वह उनसे दबा जारहा है। उसी व्यथा को व्यक्त करने के लिये बोला-‘गाँव में हमें को पूछतो, हम तो बिनकी चाकरी करिवे पैदा भये हैं। मौको लगि जातो तो वे ही हमाई बहिन-बिटियन कों हूँ नहीं छोड़ रहे। बड़िन की बातें बड़ी हैं। हम इतैक का जाने? मैं तो तोसों होरी खेल कें मन भर लेतों। फिर तेरे संग होरी खेलवे में जो मजा आतो....।’

सम्पतिया मन ही मन पुरानी बातें याद करते हुये बोली-‘जे बातें छोड़ो, बूढ़े हो गये, नाती-पोता होगये और तुम वेई बातें कत्त रहतओ।’

मौजी मौज में था। उसने जाने कितनी देर से सलवल की दोंच-दुचारी लुटिया में रंग घोल कर रख लिया था। वक्त पाकर उसने लुटिया के रंग को पत्नी पर उड़ेला। पत्नी ने लुटिया पकड़ली, छीना-झपटी होने लगी। रंग दोनों ओर छलका, इधर मौजी के काले शरीर पर, उधर पचरायवारी की उस धोती पर जिसने साबुन फूटी आँखों से न देखा था। किसी पक्के रंग पर दूसरा कोई रंग कैसे चढ़ सकता है? उसकी धोती का और धरती का रंग एक होगया था। लुटिया फड़फड़ाकर दूर जा गिरी थी। आवाज सुनकर बच्चे तमाशा देखने निकल आये थे।

बड़ी लड़की रधिया को बुढ़ापे की होली रास नहीं आई, बोली-‘दादा बूढ़ो होगओ तोऊ जाकी वे बातें नहीं गईं।’

सम्पतिया को लड़की की यह दखलंदाजी पसन्द नहीं आई। बोली-‘बूढ़ो आदमी है, रोज तो सबकी चिन्ता में सूखिवे कत्तो। मैं तो मत्त से कहतेओं कै अब जे बातें छोड़।’

रधिया माँ की ये बातें सुनकर तिलमिला गई थी। गुस्से के मारे अपनी मड़रिया में चली गई। दोनों ने उसकी पर्वाह नहीं की। दोनों बातों में मस्त हो गये। मौजी बोला-‘री ज होरी न होती तो तें मे संग काये कांे लगती।’

सम्पतिया की यादें ताजा होगईं, बोली-‘बा साल सरीकी होरी फिर तुम पै फिर कबहूँ नहीं चढ़ी।’

मौजी अपने प्यार के बीच में खोड़ के राजा को लाते हुये बोला-‘खोड़ के राजा सोऊ तोपै ऐसे रीझे कै मोय तो जों लगी कै तें रानी बन्ते।’

सम्पतिया ने अपने भाग्य की सराहना की, बोली-‘ अभै का रानी नाने। तुम और रन्धीरा लाला मिलिकें दो-दो आदमी, दिन-रात मेरी सेवा में लगे हो।’

उसी समय महाते दीनानाथ लठिया पटकते-पटकते दरबाजे पर आ गये थे। बोले-‘मौजी तुम्हें होरी चढ़ी है। खेत में मसूर कुर रही है। अरे! वाय दानास की बेर नों बीन लातये।’

उनकी ये बातें सुनकर मौजी की होली ढीली पड़ गई। अपराधी की भाँति उनके सामने खड़े होकर बोला-‘महाते, खेतन्नों पहुँचत में दानास की बेर हो जायगी।’

वे बोले-‘तुम्हें दानास की परी है। जही खेती-बाड़ी से सब अच्छे लगतयें। जही से सबैय बड़ी-बड़ी बातें आतें।’

मौजी समझ गया कि ये काम पर पहुँचा कर ही रहेंगे,बोला-‘महाते, आज चाहें कछू कह लेऊ, आज तो नहीं चल सकत।’

यह सुनकर महाते गुस्से में आगये , बोले-‘तो हमाओ हिसाब कर देऊ, जो होय सो देऊ-लेऊ। जब तुम हमाओ हानि-लाभ नहीं देख सकत तो फिर तुम कायेके हमाये आदमी?’यह आदेश देकर महाते चले गये। बड़ी देर तक वह दरबाजे पर खड़ा-खड़ा सोचता रहा।

सम्पतिया ने उसके पास आकर समझाया-‘अरे !ऐसी चिन्ता काये कत्तओ। ऐसी चिन्ता तो तुमने राजन की नहीं करी। ज तिहार अच्छे मना लेऊ ,फिर चिन्ता करिवे तो सब जिन्दगी डरी है।’यह सुनकर तो मौजी में कई गुना स्फूर्ति आगई थी।

आठ बजे का समय होगया। दानास का कुछ सिलसिला ही नहीं दिख रहा है। अब काये की होली है। एक जमाना था ,जब बड़े उत्साह से सारा गाँव इकट्ठा होता था। नगड़िया सुबह से ही बजने लगती थी। तुरही सभी को बुलाने का निमन्त्रण देने लगती थी। इस वर्ष धन्ना बराहर नहीं रहा तो क्या तुरही नहीं बजेगी? उसके लड़के भी तो सयाने होगये हैं ,पर उनसे कहने कोई गया ही नहीं होगा। किन्तु हर वर्ष धन्ना से कहने कौन जाता होगा? वह अपने आप इस काम में लग जाता था।

गाँव के सरपंच विशन महाराज को क्या पड़ी है होली से? वे तो भाँग छान कर कहीं पड़े होंगे। कुछ आ गये हांेगे तो चिलम चल रही होगी। उनके कुछ साथी गाँजे की बिरुदावली गा रहे होंगे-

‘जिसने न पी गाँजे की कली, उस मर्द से औरत भली।’

हनुुमान चौराहे के कुछ लोगों ने सोचा-‘कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है, जो दानास का सिलसिला ही नहीं दिख रहा है।’ इसी समय कुछ लोग होली के चक्कर में अपना काम निपटाकर खेतों से लौट आये थे। उन्होंने नगड़ियाँ उठाई और हनुमान चौराहे के मन्दिर के चबूतरे के नीचे नीम के पेड़ की छाया में हर वर्ष की तरह आकर बैठ गये। नगड़ियों से तरह-तरह की ध्वनियाँ निकालने लगे। नगड़ियों की ध्वनि सुनकर लोग इकट्ठे होने लगे।मौजी भी आ गया। उसे देखकर सभी के चेहरे खिल गये। उससे बातें करने के लिये नगड़ियाँ बजाना बन्द करदीं।

खुदाबक्स बोला-‘यार मौजी भज्जा,हम तुम्हाई कब से बाट चाह रहे हैं! हम सोच रहे थे, कहीं भौजी ने तो नहीं पकड़ लिये। तुम्हाये आवे से होरी में मजा आजातो।’

कुन्दन बोला-‘तुम्हें फागें आतें तासे नखरे कत्तओ।’

मौजी ने रिरियाते हुये उत्तर दिया-‘अरे नहीं महाराज! स्ुसुर मुजिया चमार का नखरे करेगो। ब तो आज होरी को डोल-डाल ही नहीं दिख रहो। तासे देर होगई।’

मिश्री धेाबी बोला-‘जाटव मोहल्ला को तो कोऊ नहीं दिख रहो।’

मौजी झट से बोला-‘ सुनतयें रात बिनसे झगड़ा होगओ।’

किसी ने प्रश्न कर दिया-‘कौन-कौन में होगओ झगड़ा। हमें तो पतो नाने।’

खुदाबक्स बोला-‘ज बात सुनी तो हमनेऊँ है।’

कुन्दन ने प्रश्न कर दिया-‘का सुना है ? हम भी तो सुनें।’

खुदाबक्स ने उत्तर दिया-‘यही कै जाटव मौहल्ला के कछू मनचले गढ़ी पै चढ़ि कें गन्दे-गन्दे रसिया गान लगे।’

किसी ने पूरी बात जानने के लिये प्रश्न कर दिया-‘फिर?’

खुदाबक्स ने ही झट से जबाब दिया-‘फिर का ब्राह्मनन् ने अपये आठ-दस मोड़ा भेज दये। उन्ने ऐसे गीत गावे की मना करी।’

वे बोले-‘तुम दानास में ऐसे गीत गात निक्कतौ, तब हम तो तुम्हें रोकत नाने।’

वे बोले-‘अब कोऊ तुम्हाये मोहल्ला से ऐसे गीत गात नहीं निकरेगो,लेकिन अब ऐसे गीत तुम्हू मत गाऊ।’ भज्जा, झगड़े की सम्भावना बढ़ गई है। अपुन बिनके मोहल्ला में से गन्दे रसिया गात निकरे कै झगड़ा भओ, आदमी मज्जायगो।’

कुन्दन सोच के सागर में डुबकियाँ लगाते हुये बोला-‘हम तो गाँव में जैसे रह ही नहीं रहे हैं। गाँव में क्या हो रहा है? हमें कुछ पता ही नहीं चलता। अब पतो चलो , जईसे होरी ठंडी पड़ गई है। नौ बजिवे बारे होगये। अभै तक होरी को कछू डोल-डाल ही नहीं दिख रहो।’

मिश्री ने शंका व्यक्त की-‘अरे ! होरी तो होरी है किन्तु अभी पानी बारे हू नहीं निकरे!’

इसी समय सरपंच के दरबाजे पर तुरही की आवाज सुनाई पड़ी। स्वतंत्रता के पहले तो होरी की शुरुआत जमींदार ठाकुर लाल सिंह के यहाँ से होती थी। बाद में इसका स्थान बदल गया। जो भी सरपंच बना, उसी के घर से होरी की शुरुआत होती रही। इस बार पण्डित विष्णू शर्मा उर्फ विशन महाराज सरपंच बने हैं तो उन्हीं के यहाँ से होली के दानास की शुरुआत हुई है। तुरही की आवाज सुनकर सभी के चेहरे खिल गये। उधर से विशन महाराज अपने साथियों के साथ हनुमान चौराहे पर आ गये। इधर यहाँ की सभा समाप्त करदी गई। सभी दानास में चलने के लिये उठ पड़े। जुलूस का रूप बन गया ,किन्तु उसमें गत वर्ष की तरह उमंग न दिख रही थी।लग रहा था- किसी खास रस्म की अदायगी वेमन से करने के लिये, अलसाये से कदमों से लोग चले जा रहे हैं। यों होरी के दिन से इस वर्ष इस नई परम्परा ने नौ सिखिये की तरह घँुघरू बाँध लिये हैं।

इस गाँव में छुआछूत की समस्याओं ने आदमी की जिन्दगी बद से बदतर बना दी है। होली के अवसर पर इस गाँव में पग-पग पर शोषकों के नकली प्यार दिखाने वाले दाँत भी दिख रहे हैं। एक समय था जब एक के दुःख में सभी दुःखी होते थे और दूसरे के सुख में सभी सुखी।जब किसी के यहाँ बारात आती तो लगता था बारात उसके अपने घर आई है। सभी तन,मन और धन से सेवा करने लग जाते थे। उसमें यह भी होसकता है कि यह सेवा भाव भी इसी तरह छलावा ही रहा हो । जिससे आदमी खूँटा से बँधा रहे और ऐसे अवसरों पर चाकरी दूने उत्साह से करता रहै।

आप सभी मानते होंगे कि पुराना आदमी ईमानदार था। किसी के उपकार का अहसान मानता था। भले ही लोग उसका शोषण करते रहे हों ,पर वे क्षण जिनमें प्यार की भावनायें उमड़ती हैं, निःसन्देह ईमानदार जरूर रहे होंगे। यह ईमानदारी एक व्यक्ति की नहीं बल्कि पूरे समाज की हुआ करती थी।

आज सभी के मन में उन ईमानदार क्षणों के प्रति कृतज्ञता थी। लोग चाहते तो उन अश्लील रसिया के गायकों को प्यार से समझा सकते थे। शायद वे मान भी जाते पर किसी ने उन्हें समझाने का प्रयास ही नहीं किया।

मौजी सोच रहा था-ससुरे बमना जब किले पै चढ़िके टडारतये तब कोऊ बात न हती। अब हमाये बारे ज करन लगे तो इज्जत चली गई। जे सब मोय जों जान्त होंगे,कै मैं कछू नहीं जान्त, किन्तु ससुरे मुजिया कों तो पेट की आग खाये जाते। तईं मोय चाहे जैसें नाच नचा लेऊ। नहीं, मेंऊ बिनिके संग पहुँच जातो तौ कितैक मजा आतो।

यह सोचकर उसे आत्मबोध हुआ-हम सच्चेऊ स्वतंत्र होगये हैं। नहीं जे सब हमाये बारिन की इतैक न सुन लेतये। मैं ही मूरख हों जो जिनके पीछे लगों हों। यह सोचकर उसे लगा- मैं यहाँ से भागकर अपने दल में पहुँच जाऊँ।

यह सोचते हुये उसके पग उन सब के पीछे-पीछे चलते रहे । सरपंच विशन महाराज के दरवाजे पर जाकर दानास की बैठक जम गई। समय का अन्दाज लगाते हुये मौजी बोला-‘दानास उठिवे में टेम भौत हो गओ। पूरे गाँव को चक्कर लगानों परैगो। अब काये बैठिकें रह गये, चलो उठो।’

कुछ सोचने लगे-मौजी जाति का चमार जरूर है, पर बात तो सही कह रहा है। और कुछ सोचने लगे-यह कब से दानास के बारे में ठेकेदार होगया है? दानास के चलने की आज्ञा देने वाले लोग तो अलग ही हैं। वे जब चाहेंगे तब उठेगा दानास।

पण्डित नन्दराम शर्मा की इस तरह के मामलों में अच्छी पूछ थी। यह विरासत उन्हें अपने पुरखों से प्राप्त हुई थी। पण्डित नन्दराम शर्मा के सहयोग से ही विशन महाराज सरपंच बन पाये थे। यह बात वे अच्छी तरह जानते थे। अतः सरपंच ने लोगों को देखने-दिखाने के लिये पण्डित नन्दराम शर्मा से सलाह-मसबरा करने का नाटक किया और दानास को उठने का आदेश दे दिया।

दानास उठ पड़ा। रसिया गायकों की टोली ने रसिया गाना शुरू कर दिये। मिश्री धोबी ने नगड़िया अपनी कमर में बाँध ली।खुदाबक्स ने उनका साथ दिया। मौजी के निर्देशन में फागों के गायकों की टोली अलग बन गई। गुलालकी जगह धूल और घरों की मोरियों की कीचड़ उछाली जाने लगी। मस्ती में झूमता हुआ दानास थोड़ा ही आगे बढ़ा कि पहला पड़ाव आगया।

इस बस्ती के जमींदार ठाकुर लालसिंह का यह पुस्तैनी मन्दिर है। जमींदारी के जमाने से ही दानास के यहाँ ठहरने की परम्परा रही है। ठाकुर साहब तो गाँव के बाहर अपनी हवेली में रहते हैं। जमीदारी गये पचास वर्ष होने को हैं। यह मन्दिर वर्षों से सूना पड़ा है। अब तो यह गिर रहा है। किन्तु दानास अपनी पुरानी परम्परा का निर्वाह करता आ रहा है।

इस में राम-जानकी,राधा-कृष्ण और श्री गणेश जी की अलग-अलग मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। लोग मूर्तियों को गुलाल अर्पित करने मन्दिर के अन्दर चले गये। फगुआ फागें गाने लगे। अब फाग के बोल निपट गये तो दानास यहाँ से शीघ्र ही उठ पड़ा। इस मन्दिर के पास में ही गाँव के सेठ श्याम लाल ने शंकरजी की एक तिवरिया बनवा दी है। इसके आसपास अब कोई सेठ-साहूकार नहीं रहते। सब के सब डाकुओं के डर से पास के शहर में जा बसे हैं।

इसके पास में एक पेन्टर का घर है। वह भी दानास का सम्मान करने गुलाल थाली में भरकर ले आया। वह यहाँ का रहने वाला नहीं है। विहार प्रान्त का वह रहने वाला है।वह डाबर कम्पनी में पेंन्टर का काम करता था। इस गाँव में कम्पनी की ओर से पेंन्टिग करने आया था। उसने गाँव में फैली गरीबी देखी। उसने यहाँ जमीन खरीदना शुरू कारदी। लोगों की सिधाई का लाभ लेकर, लोगों को चुपड़ी-चुपड़ी बातें देकर कम से कम दामों में बहुत बड़ी जायदाद बना ली है। यों वह एक जमीदार बन बैठा है।

वह इस वर्ष बीमार पड़ गया। तमाम इलाज कराया गया किन्तु उसे बचाया नहीं जा सका। होली के अबसर पर लोग उसकी स्मृति में उसके लड़के अखिलेश के गुलाल लगाने लगे। गुलाल लगाते में लोगों को याद हो आई अखिलेश के भाई महेश की। जिसे पिछले वर्ष डाकुओं ने मार डाला था।

बात यह थी, पेंन्टर की स्थिति इस क्षेत्र के डाकुओं से भी छिपी नहीं रही। वे महेश की पकड़ करने के इरादे से आये थे। डाकू उसे अपने साथ ले जाने के लिये डराने धमकाने लगे। वह लड़का बड़ा बहादुर था। उसने एक डाकू की बन्दूक छीनना चाही तो दूसरे डाकू ने उसके गोली मार दी। उसकी उसी समय मृत्यु होगई। आज तक लोग उसकी बहादुरी को नहीं भूल पाये हैं। अब लोग अखिलेश को गुलाल लगाते हुये आगे बढ़ गये। थेाड़ा ही चले कि गाँव के सुनार का घर आ गया। पता नहीं कितनी पीढ़ियों से इसके दरवाजे पर दानास रुकता आया है।

सुनते हैं सोनी जी के बाबा तन्त्र विद्या के अच्छे जानकार थे। सोनी चरन दास ने यह विद्या विरासत में पाई थी। गाँव का प्रतिष्ठित आदमी भी सोनी जी को प्रणाम करता है। वे काम चलाऊ वैद्यगिरी भी जानते हैं। मोतीझरा के मरीजों को भी ठीक करने का दावा करते हैं। अब एलोपैथिक इलाज ने इनकी पूछ कम करदी है। गाँव के गरीब लोग जो अपने मरीज को पैसे के अभाव में शहर नहीं ले जा पाते, वे इलाज इन्हीं से कराते हैं। इस वर्ष इनका स्वयं का स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा है। बेचारे कूलते हुये दानास का स्वागत करने हाथ में गुलाल की थाली लेकर, लोगों के गुलाल लगाने लग गये। नगड़िया फाग की लय में तेजी से भागने लगी-

हरि को बारह गज कौ फेंटा।

हरि को बारह गज कौ फेंटा।

सब सखियन के मन कौ भातो।

राधा जी के प्राण सुखातो

हरिको बारह गज कौ फेंटा।। हरि को....।

कुछ आपस मे गले मिल रहे थे और कुछ सोनी जी की मोरी के कीचड़ में सन कर खुश हो रहे थे। कुछों ने अपना लक्ष्य गाँव भर की मोरियों की सफाई का बना लिया था। जिस किसी के घर की मोरी दिखी, वे टूट पड़े अपने साथियों को उसमें विगाड़ने के लिये।यों सफाई अभियान भी अपने आप चल रहा था। बीड़ी-सिगरेट का बिस्तार प्रतिष्ठित लोगों तक ही सिमिट कर रह गया था। फाग के बोल समाप्त होते ही तुरही आगे बढ़ने के लिये बज उठी। सभी चल पड़े। काछियों का मोहल्ला आ गया। स्वतंत्रता के बाद ये लोग अपने को कुशवाह ठाकुर कहने लगे हैं।

यह गाँव के उत्तर का हिस्सा है। इस मोहल्ले में बसे कुशवाहों ने एक बैठका बनवा लिया है। दानास के स्वागत में सभी यहाँ खड़े मिले। दानास थम गया। सारे मोहल्ले के लोग अपनी-अपनी थालियों में गुलाल ले आये। गवैया फागें गाने लगे। मौजी मस्ती में नाचने लगा। लोग आपस में गुलाल लगाकर गले मिलने लगे। उस मोहल्ले में जगनू कुशवाह की अच्छी चलती रही है। देवीराम कुशवाह के वोट अधिक हैं। जब कभी दोनों में ठन जाती है। जगनू उम्र में बड़े हैं , इसीलिये देवीराम को उम्र का लिहाज कर झुकना पड़ता है। उसके इस झुकने में बोट भी झुक जाते है।

इस मोहल्ले के अधिकांश परिवारों के पास जमीनें नाम मात्र की हैं। जिसमें वे कछवाई करके पेट पालते रहते हैं। कुछ दूसरों के खेतों में बटाई से कछवाई करते हैं। सिर पर टोकरी रख कर सब्जी बेच आते हैं और कैसे भी अपना पेट पालते रहते हैं।

कुछ रामहंस जैसे मन मौजी भी इस मोहल्ले में बसते हैं। यह तो पूरा आलसी राम है। यह भगवान पर पूरा विस्वास रखता है। उसे आशा है कि किसी दिन भगवान स्वयं आकर अपने हाथ से खाना खिलायेंगे। वह अपनी मस्ती में भंग के नशे में लोगो के गुलाल लगा रहा है। छोटे-बड़े सभी के पैर छूने को आतुर दिखाई दे रहा है।

अभी गुलाल का कार्यक्रम चल ही रहा था। इसी समय मिर्धापुरा के लड़के एक जत्था बनाकर शराब में धुत दानास में आकर मिल गये। मर्यादा छोड़कर फूहड़ और अश्लील रसिया गाने लगे। कुछ शान के देवताओं को यह बात अच्छी नहीं लगी , पर कौन कहे होली के हुड़दंग में सब चलता है। वे कड़वे घूँट पीकर ऐसे मुश्कराने लगे मानो उनकी बातों का आनन्द लेकर उन्हें ऐसा करके प्रोत्साहित कर रहे हों।

इसी समय तुरही बजी। सभी आगे बढ़ने के लिये उठ खड़े हुये। गाँव के पूर्व में पहुँचकर होली की परिक्रमा लगाते हुये हनुमान चौराहे पर पहुँच गये। यहाँ दानास के अधिक देर तक ठहरने की परम्परा है। सभी खेरापति हनुमान लला के गुलाल लगने लगे। बैठक जम गई। फागें होने लगीं। होली के अश्लील रसिया नव युवक एक झुन्ड में खड़े होकर गाने लगे-

ओऽऽ धेाती फट गई, रेऽऽ भैाजी की धोती फट गई।

ओऽऽ बम्बई वारी भैाजी की धोती फट गई।

ओऽऽ चोली फट गई, रेऽऽ भैाजी की चोली फट गई।

ग्वालियर वारी भैाजी की, चोली फट गई।

मोहल्ले के घरों से गुलाल की थाली आ र्गइं। लोग एक दूसरे के गुलाल लगाने लगे। मल-मल कर एक-दूसरे के गाल लाल रंग से लाल करने लगे।

गाँव के चौधरियों की पंचायत शुरू हो गई। किसी ने कहा-‘ अभी तक तो दानास यहीं से जाटव मोहल्ले से होकर जाता था। अब कहाँ से होकर जायेगा? यह सुनकर विशन महाराज बोले-‘जहाँ से जाता था, वहीं से जायेगा।’

पण्डित नन्दराम झट से बोला-‘ यार, तुम्हें बिनसे वोट लेनों होयंगे। तुम सबै काये अपने संगें घसीट रहे हो। तुम्हें बिन्हें सरपंच बनाओ है सो तुम चले जाओ बिनके मोहल्ला से।’

वे बोले-‘ अरे! ज बात नाने।बिनके वोट हमें काये कों मिले हैं। हम तो जों सोचकें कह रहे हैं कि हमें सबको संग लेकें चलनें चहिये कै नहीं,बोलो?’

प्रसादी शुक्ल ने शंका व्यक्त की-‘एक ही बात को डर है कि झगड़ा हो परो तो का होयगो?’

नन्दराम ने प्रसादी की बात का समर्थन करते हुये कहा-‘जही बात तो मैं कह रहों हों। अरे !लड़ाई-झगड़ा बरकावे में ही फायदा है। तासे गढ़ी पै से गैल बरका के निकर चलो। हमईं छोटे भये जातैयें।’

बैजू नाई ने पण्डित नन्दराम की बात का समर्थन किया-‘ज बात ठीक है। काये को रट्टे में पत्तओ। भैया बिनकी मदद सरकार हू कर रही है।’

भीड़ में से कोई बोला-‘यह बात देश की एकता ,अखंड़ता के लिये अच्छी नहीं है। सब एक गाँव में मिल-जुल कर रहें,सब लोग शान्ति पूर्वक चलें। वहाँ से निकलते में गन्दे रसिया न गायें फिर झगड़ा ही क्यों होगा?’

भीड़ में से किसी ने उसे डांटा-‘बड़े आये देश की चिन्ता करिवे बारे। नेक कछू बात भई देश को बीच में ले आँगे।’

पाण्डे राम मोहन ने उसे भी डाँटा-‘ हम अपनो धर्म खतम करदें। तुम होटलन में खात होगे। हमने तो आज तक कहीं पानी ही नहीं पिओ। समझ नहीं आत बिनसे दवै ही काये चाहतओ?’

प्रसादी शुक्ल पुनः बोले-‘अपन तो एन चले चलें पर वो लोग भी तो इतैं नहीं आये।’

तिवारी लालूराम बड़ी देर से इन बातों को सुन रहे थे। सोच के सागर में डुबकियाँ लगाते हुये बोले-‘न हो तो जाटव मोहल्ला के चार भले आदमिन ने बुला लेऊ।’

भीड़ में से किसी ने उनकी बात का विरोध किया-‘अरे! ऐसी अटकी हू का है। भेंऊँ भलिन कों को पूछतो। गुण्डन की चलती सब जगह होगई है। फिर जैसे तुम सोच रहे हो वैसे वेऊ सोच रहे हैं कै नहीं?’

किसुना गोली बोला-‘ जे बातिन में टेम खराब मति करो। अरे !जब वे इतै नहीं ढूँके ,अपुन बितै काये कों चलतओ?’झगड़े के डर से अधिकांश लोग गैल काटकर चलने के मूड़ में आ गये। यह जान कर किसी ने तुरही बजवा दी। तुरही वाले को गढ़ी के रास्ते से चलने को कह दिया। दानास उठ खड़ा हुआ । सब चुपचाप तुरही के पीछे-पीछे चल दिये।

दानास का रास्ता बदल गया। पहले धोबियों का मोहल्ला मिला।रास्तें में लोगों ने गुलाल लगाकर स्वागत किया। तेलियों के मोहल्ले के लोग इकट् होकर दानास का स्वागत करने आगये। उनके जीवन काल में दानास पहली बार उनके दरवाजे से निकल रहा था। लोगों ने तेलियों के आतिथ्य को खड़े-खड़े ही स्वीकारा। कमीन-कुरियों के दरवाजे पर भले लोग क्यों बैठने जायेंगे? यह बात काशीराम तेली ने सुन ली। उस समय तो वह कड़वा घूँट पीकर रह गया था। लेकिन जब दानास चला गया। उसने अपने मोहल्ले के लोगों के सामने यह बात रखी-‘अपन साहू वैश्य लोग हैं। तेल का धन्धा करने से लोग हमें तेली कहने लगे। अपन ने सबकों बैठिवे ज जाजम बिछाई, जानतौ वे जापे काये नहीं बैठे?’

मन्नूलाल सेन दानास के साथ आकर यहाँ रुक गया था। उसने भी यह बात ध्यान से सुनी थी। उसने बात को उकसाने के लिये पूछा-‘ वे काये नहीं बैठे?’

काशीराम ने ही उत्तर दिया-‘अरे! वे कमीन- कुरियों के यहाँ कैसे बैठते? वे ठहरे बामन -बनियाँ।’

कुढ़ेरा तेली ने प्रश्न किया-‘पहलें ज बताऊ, ज कमीन-कुरियों की बात कैसें भई?’

चिन्टू ने उत्तर दिया-‘दानास में वे आपस में बातें कर रये थे। मैंने ही सुनी, मोय सुन्त देख वे चुप रह गये।

मन्नूलाल सेन ने बात को पूरी तरह उकसाने के लिये पुनाः पूछा-‘को का बात कर रये थे ,साफ-साफ कहो?’

चिन्टू ने ही उत्तर दिया-‘वे ही हतै, जिनको गाँव में चलावा है, फिर नाम को ले दे।अरे! तके गाँव में रहनों ताकी हाँजू कन्नो ही परैगी कै नहीं!’

मन्नू में छत्तीस गुण थे। वह बात निकालना जानता था। बोला-‘यार चिन्टू तें तो पिंधोला है। दूर से ही डर रहो है। झें कुन वे सूनवे आ रहे हैं।’

चिन्टू ने बात पर अपना निर्णय दिया-‘अरे! नेक काऊ ने झूठी ही भिड़ा दई तो कुन एक भावई है। वे खेत को पानी न निकरन दंगे। अरे! गैल निकरिवो मुश्किल पज्जायगी।’

बातें सुनकर मोहल्ले के लोग झिमिट आये थे। भीड़ होगई। बात फैल गई। सभी को लगने लगा-हम कितने वेवश और दबे हुये हैं। गाँव में ऐसो कोऊ नाने जो दबत न होय। पूरो गाँव गूँगो है......गूँगो।

काशीराम ने फैसला सुनाया-‘अब दानास झेंई से निकरिवे करेगो, किन्तु अब पारसाल से ज जाजम बिछावे की जरूरत नाने।’

कुढ़ेरा तेली ने उसकी बात का समर्थन किया-‘जई बात ठीक है। अरे! जैसो व्येाहार करंगे तैसो करा लेंगे। जाटव मोहल्ला के लोगन ने ज ठीक करी। अपये मोहल्ला में से जिनको दानास बन्द कर दओ। जबात ठीक रही, जिनके दिमांग सही हो जांगे।’

मन्नू ने संगठन के महत्व को स्वीकारा-‘भज्जा बिनमें संगठन है। वे काये कों दवै। दबो तुम जिनमें संगठन नाने।’

बात सभी को मंत्र की तरह लगी। वे अन्दर ही अन्दर मुक्त होने के लिये छटपटाने लगे। इसी समय तुरही की आवाज गढ़ी के ऊपर सुनई पड़ी। दानास गढ़ी पर पहुँच गया था।

यह गढ़ी बहुत पुरानी है। यह एक पहाड़ी पर स्थित है। कहते हैं जब सिंधिया ने ग्वालियर पर अपना राज्य स्थापित किया, तब इस गढ़ी पर बदन सिंह नामका जाट राजा राज्य करता था। पन्द्रहवी सदी में इस किले के पास गाँव चिटौेेेेेेेेली में एक प्रसिद्ध संत दूधाधारी निवास करते थे। उन दिनों उनके शिष्य वहाँ साधना में लीन थे। राजा बदन सिंह को उनका आर्शीवाद प्राप्त था। इससे उनके लड़ाकू सिपाहियों का मनोबल कई गुना बढ़ गया था। यों छह माह तक सिन्धिया से युद्ध चलता रहा।

इस गढ़ी से आधा किलो मीटर की दूरी पर दूधाधरी संत के उस शिष्य की समाधि बनी हुई है। कहते हैं उस शिष्य ने जीवित समाधि ली थी। दीपावली के दिन गाँव के लोग उनकी समाधि पर दीपक रखने जाते हैं और यह कामना करते हैं कि महाराज जी की कृपासे हमारी स्वतंत्रता अमर रहे।

इस क्षेत्र की यह प्रसिद्ध गढ़ी है। गड़ी के चारों कोनों पर चार गुर्जें बनी हुई हैं। किले में गणेशजी का एक प्रसिद्ध मन्दिर है। पुजारी दानास की स्थिति से अवगत होगया था। इसी कारण उन्होंने मन्दिर के पट खोल कर रखे थे। लोग वर्षें बाद किले के ऊपर आये थे। इसी कारण मन्दिर के दर्शन करने लोग व्याकुल दिख रहे थे। उसमें स्थित जाले इस बात की गवाही दे रहे थे कि मन्दिर वर्षेा बाद सुला है।

इस मन्दिर से बहुत बड़ी जायदाद लगी है। जो पुजारी के घर रूपी अंधकूप में समा जाती है। कभी-कभी जब उन्हें अपने कर्तव्य की याद आती है तो पुजारी जी भगवान को दर्शन दे जाते है। जिससे लोगों को इनकी पूजा अर्चना पर सन्देह न हो।

मन्दिर के पास में ही एक गहरा अंधकूप है। खूब गहराई पर उसमें पानी चमकता है। पन्द्रहवी-सोलहवी शताब्दी में इस कुये का पानी उपयोग किया जाता था। वहाँ पहुँच कर तो लोग भूल गये कि वे होली के क्रम में यहाँ आये हैं। यहाँ आकर तो लोग इतिहास के पन्ने पलटने लगे। सभी अपने-अपने तरीके से उन दीवारों को घूरने लगे।

कुछ उत्तर पूवै का गुर्जों पर जा चढ़े। वहाँ एक विशाल तोप पड़ी थी। उसका सूक्ष्म निरिक्षण करने लगे। इसी समय कुछ लोगों की निगाह दूर चली गई। दिखने लगी सिरोही गाँव की गढ़ी। वहाँ के महन्त नारायण दास बहुत दमदार आदमी थे। उसी सीध में दिख रही थी, डबरा शुगर फैक्ट्री की धुँआ उगलती चिमनी। भवभूति की कर्मस्थली के नरवर-डबरा रोड़ पर दौड़ता हुआ एक लाल डिब्बा नजर आ रहा था। कुछ लोग गढ़ी की दक्षिण-पूर्व की गुर्ज पर जाकर बैठ गये। वे जाटव मोहल्ले में रंग लाती होली को ललचाये मन से देख रहे थे। उनका मन उसमें पहुँचने के लिये वैचैन हो उठा। लालाराम जाटव के दरवाजे से दानास सहदेव जाटव के घर की ओर जा रहा था। उनके रसियेंा का स्वर किले के ऊपर सुनाई पड़ रहा था।

सड़क पर दौड़ता हुआ लाल डिब्बा काशीपुर गाँव पर आकर खड़ा होगया था। दूर दिख रही थी ,चिटौली गाँव की पहाड़ी। उस पर बना माता का मन्दिर अलग ही चमक रहा था। कुछ पश्चिम की गुर्ज पर चले गये थे। वे लिधैारा गाँव से आते हुये व्यक्ति की पहचान करने कर रहे थे कि कौन होसकता है? कुछ लोगों को नोन नदी के पुल का अनुमान ठीक ढंग से हो गया था। उसी तरफ स्थित पद्मावती नगरी की चर्चा करने में वे मगन हो गये। संस्कृत साहित्य के गौरव महाकवि भवभूति विदर्भ प्रान्त से व्याकरण,न्यायशास्त्र और मीमांशा का अध्ययन यहाँ करने आये थे। यहाँ रहकर उन्होंने महावीर चरितम्,मालती माधवम् एवं उत्तर रामचरितम् की रचना की है।

उधर कुन्दन भी बुर्ज पर बैठा इसी चिन्तन में डूवा था-

इसी रोड़ पर आगे नोंन नदी को पार करते हुये करियावटी गाँव में पहुंँचते हैं। यहाँ से बाँयी ओर साँखनी गाँव के लिए रास्ता जाता है। आगे बढ़ने पर पार (पाटलावती) नदी को पार करने पर एक रास्ता बाँयी अेार मुड़ता है। यहीं से एक रोड़ हमें धूमेश्वर महादेव के मंदिर तक ले जाता है।

इतिहासकारों का कहना है कि यह नगरी ईसा की पहली शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक फली-फूली है। यहाँ उस समय नागों का शासन रहा है। धूमेश्वर का मंदिर इस क्षेत्र में आज भी तीर्थ-स्थल बना हुआ है। इसका पुनर्निर्माण ओरछा के राजा वीरसिंह जूँदेव ने करवाया था। भवभूति के नाटकों में कालप्रियनाथ की यात्रा उत्सव के समय उनके नाटकों का मंचन इस बात का प्रतीक है। यहाँ प्राचीनकाल से ही बड़ा भारी मेला लगता आया है। यह धूमेश्वर का मंदिर ही कालप्रियनाथ का मंदिर था। ओरछा के राजा को यहाँ यह मंदिर बनवाने की क्या आवश्यकता थी ? यहाँ के लोग यह मानते हैं कि शायद कालप्रियनाथ के मंदिर को यहाँ आये मुस्लिम शासकों ने मस्जिद बना दिया होगा।

इस मंदिर की दीवार पर दो फारसी के शिलालेख आज भी मौजूद हैं, जिन्हें पढ़ कर व्याख्यायित किए जाने की आवश्यकता है। तभी यह स्पष्ट हो पाएगा कि यह मंदिर क्यों और कैसे बनवाया गया है ? इस क्षेत्र के कुछ लोग यह मानते हैं कि ओरछा नरेश ने इस मस्जिद को पुनः मंदिर में बदल दिया। इस मंदिर के सामने की जो गुम्बद बनी है, वे कही मस्जिद के बदले हुए रूप की तो नहीं है? यदि यह परिवर्तन हुआ है तो निश्चित रूप से कालप्रियनाथ के मंदिर की यात्रा में आये बदलाव का प्रमाण हैं। सिकन्दर लोधी यहाँ आया था। यहाँ कुछ मकबरे भी मिलते हैं, क्या उसने कालप्रियनाथ के मंदिर को यथावत् रहने दिया होगा अथवा उसका रूप भी बदला ही होगा। वर्तमान में जो शिवलिंग उपलब्ध है, वह तो ओरछा नरेश के द्वारा स्थापित किया गया है। उक्त तथ्यों की विवेचना एवं इसकी प्राचीनता के आधार पर इसे कालप्रियनाथ से जोड़ना हमें सुखद लगता है।

इस मंदिर के पास ही एक जलप्रपात है, जिसका वर्णन मालतीमाधवम् में भी आया है। मंदिर के पास से ही नदी के अंदर किनारे से लगा हुआ एक नौ चौकिया बना हुआ है। कुछ लोग इसे पद्मावती के समय की इमारत मानते हैं, कुछ विद्वान् इसे मंदिर के समकालीन और कुछ इसका संबंध पृथ्वीराज से जोड़ते हैं। हाँ ईटें, पत्थर और चूने के मिश्रण से इसका मूल्याँकन करने वाले इस इमारत को मंदिर के समकालीन मानते हैं।

यहाँ के पास में ही मलखान पहाड़ी है, मलखान एक वीर पुरुष था। कहते हैं जब वह यहाँ आकर ठहरा तथा उसने अपनी साँग गाड़ दी थी, तभी से इस पहाड़ी का नाम ही मलखान पहाड़ी पड़ गया है। उनकी साँग पिछले कुछ दिनों तक यहाँ गड़ी रही है। यह भी कहते हैं यह एक प्राचीन सिद्ध स्थान है।

उस टीले पर विचार करें,ं जिसका ग्वालियर राज्य के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन कार्य 1925 से 1941 ई0 तक करवाया था, इस पर पुरावत्ववेत्ताओं, इतिहासकारों एवं साहित्यकारों की दृष्टि लगी हुई है। श्री गर्दे ने उसे विष्णु मंदिर का नाम दिया है इसका कारण यह रहा है कि यहाँ विष्णु की मूर्ति मिली है। मिलने को तो यहाँ सूर्य भगवान की भी मूर्ति मिली है, अतः इसे क्या सूर्य मंदिर नाम देना उचित होता ? यदि सूर्य से कालप्रियनाथ का नाम जुड़ता है तो निश्चय ही यह मालतीमाधवत् में वर्णित कालप्रियनाथ का मंदिर है। जो भी हो उस समय इस नगर में विष्णु, शिव एवं सूर्य की उपासना की जाती थी। यहाँ जो स्मारक खुदाई में निकला है, उस चबूतरे का आकार 143 फीट लम्बा एवं 140 फीट चौड़ा है। उसके ऊपर जो चबूतरा है उसकी लम्बाई 93 फीट है, उससे ऊपर जो चबूतरा है वह 53 फीट ही लम्बा है। प्रत्येक भाग की ऊँचाई 10-12 फीट से अधिक ही होगी, अतः इसे विशाल चबूतरों का एकीकृत रूप कहा जा सकता है।

एक गीत, नृत्य एवं दृश्य की मूर्ति भी यहाँ मिली है, जो साहित्यकारों को अलग ही प्रकार से सोचने के लिए विवश कर देती है। इस मूर्ति को ध्यान से देखें तो लगता है यह इमारत न विष्णु मंदिर है, न शिव मंदिर और ना ही कोई राजसभा, बल्कि यह तो एक नाट्यमंच ही खुदाई में निकला सा लगता है। इस नाट्यमंच को सजाने के लिए ही इन मूर्तियों का उपयोग किया गया होगा। जो राजचिह्न मिले हैं, उससे लगता है कि राजा महाराजा यहाँ बैठकर नाटकों का आनन्द लेते होंगे। ऐसी मान्यता है कि भवभूति के नाटक कालप्रियनाथ के यात्रा-उत्सव में यहीं खेले गये।

मालतीमाधवम् में सिन्ध नदी और पारा नदी के संगम पर मालती को स्नान करते हुए प्रस्तुत किया जाना, नाटक में इन सभी नदियों का वर्णन, स्वर्णबिन्दु, श्रीपर्वत का वर्णन इत्यादि से सिद्ध होता है कि यह नाटक यहीं खेला गया होगा। यदि धूमेश्वर मंदिर को कालप्रियनाथ का मंदिर माना जाये तो यह नाट्यमंच मेला स्थल मंदिर से अधिक दूर भी नहीं है और मेले से हटकर नदी के पार बना हुआ है। जिससे शांति के वातावरण में इस पर मंचन किया जा सके। अब हम उस स्थान पर आप सभी का ध्यान केन्द्रित करना चाहेंगे, जहाँ सिंध ओर पारा नदी का संगम है। यहीं मालतीमाधवम् में मालती के स्नान करने का दृश्य वर्णित है। यहीं पद्मावती का ध्वस्त किला बना हुआ है। कहते हैं कि यह एक प्राचीन किला है, राजा नल से भी इसका संबंध रहा है तथा नरवर के कुशवाह राजाओं के द्वारा बनाया गया है। इस किले के पिछले कुछ दिनों तक अवशेष जीवित रहे हैं। यहाँ सिक्के मिलते हैं वे कई शताब्दियों के हैं। इस किले से नदी तक पक्की सीढ़ी बनी है। जिस पर लोग बैठकर स्नान करते होंगे। सीढ़ियाँ मिट्टी से दब गई हैं।

यहाँ से पूर्व की ओर 3-4 कि.मी. की दूरी पर एक स्वर्ण बिन्दु है। यह स्थान सिन्ध और महुअर नदी के संगम पर स्थित है।

भीतर-बाहर आने-जाने का मुख्य मार्ग वर्तमान में स्थित भितरवार बस्ती में स्थित था, जो आज भी अपने वैभव की कहानी स्वयं कहता सा लगता है। इस क्षेत्र का निवासी होने के नाते मैं अपना यह गहन सोच का परिणाम मानता हँू।

तेज धूप के कारण मुँह सूखने लगे। इसी समय तुरही का स्वर गूँजा। लोग आलस्य का परित्याग करके उठ खड़े हुये। बाबड़ी के पास से नीचे उतर कर मरधट में जा पहुँचे। इस सास्वत सत्य पर गुलाल चढ़ाकर सभी ने अभिनन्दन किया। तालाब के किनारे से चलकर दानास बालाजी के बाग में पहुँच गया। बालाजी मन्दिर की दुर्दशा देखकर उनका मन क्राेिधत होने लगा। मन्दिर की दीवारें फट गईं थीं। मूर्तियों की सुरक्षा का प्रश्न खड़ा होगया। लोग इसी विषय पर चर्चा करने लगे किन्तु डर रहे थे ,कहीं चँदा का चक्कर न चल पड़े। कुछ इसी टोह में थे। वे चँदा की चर्चा रुचि लेकर करने लगे किन्तु उन सबके प्रति चँदा खाने के पुराने आरोप जीवित हो उठे। उनकी कौन कहे सभी इस बात को लेकर चुप्पी साध गये।

इसी उधेड़बुन में दानास प्रसादी शुक्ल के दरवाजे पर थोड़ी देर के लिये ठहर गया। लोग गोस मोहम्मद को पकड़ लाये। वह अपने अभिनय से लोगों का मनोरन्जन करने लगा। तुरही बज गई। जमीदार ठाकुर लाल सिंह के दरवाजे पर पहुँच कर तो होली का हुडदंग शुरू होगया। एक वार दानास फिर अपनी जवानी पर पहुँच गया। रडुओं के दिल मचलने लगे। वातावरण में मादकता आगई।

यहाँ से उठा दानास अन्तिम पड़ाव पर पहुँच गया। मिर्धा मोहल्ले में पीपल के पेड़ की छाया में दारूगर मियां सरदार खान के दरवाजे पर दानास जम कर बैठ गया। नाल उठाने वाले नाल उठाने लगे। कुश्ती लड़ने के शोकीन अपने लिये जोड़ तलाशने लगे। कुश्तियँा लड़ी जाने लगीं। अन्दर ही अन्दर लोगों को खल रहा था तो ये कि काश! जाटव मोहल्ले के लोग भी यहाँ होते तो कितना मजा आता? कुश्तियों का आनन्द तभी मिलता है जब जोड़े बराबर के हों। इसी सेाच में इस वर्ष की होली की यह बैठक जल्दी ही उखड़ गई।

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