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गूंगा गाँव - 11

ग्यारह
गूंगा गाँव 11
रात भर बादल छाये रहे। लोग पानी बरसने की आश लगाये रहे। पानी की एक भी बूँद न पड़ी। सुबह होते-होते आकाश पूरी तरह साफ हो गया। किसान निराश होकर आकाश की ओर ताकते रह गये। जिनके पास कुँए थे, वे मौसम के हालचाल देखकर बैंक से कर्ज लेने के लिये दौड़-घूप करने लगे। पहला कर्ज बकाया होने से निराशा ही हाथ लगी। जिले भर में बकाये की अधिक राशि निकल रही थी तो इसी सालवई गाँव पर। गत वर्ष भी फसल अच्छी न आई थी।
इधर वर्षा लेट होती जा रही थी। उधर सरकार ने कर्ज बसूल करने के लिये खूब हाथ-पैर मारे। थोक में कुर्की बारन्ट निकले। गाँव के अधिकांश किसानों ने अपने गहने-गुरिया गिरवी रखकर अपनी इज्जत बचाने का प्रयास किया। जिनके पास वह भी नहीं थे , उन्होंने अपनी जमीन बेचने का प्रयास शुरू कर दिया। जिनके पास पैसा था, वे सस्ते दामों में मौके की जमीनें हड़पने में लग गये। यों बैंक के कर्ज की अदायगी में पूरा गाँव ही तवाह होगया।
सुबह ही गाँव का चौकीदार उदयसिंह कासीराम तेली को बुलाने पहुँच गया। वह अपने बैलों को बाहर बाँध रहा था।चौकीदार ने उसे रौब बतलाते हुये कहा-‘ दरोगा जी ने तोय थाने बुलाओ है।’
यह सुनकर तो वह काँप गया। बदन पसीने से सरावोर होगया। इन यमदूतन के आदेश को मानना ही पड़ता है। वह समझ गया अब पीछे आदमी चाहिये। गरीब की मदद करिवे बारे ज गाँव में कोऊ नाने। यह सोचकर वह चौकीदार से बोला-‘ बुलाया है तो चलना ही पड़ेगा। चौकीदार साब, ज बात कामता की बाई से कह दऊँ, तासे व तिवाई महाराज से कह आयेगी। वेई चाहें हमाई मदद कद्दें।’यह कहते हुये वह घर के अन्दर चला गया। पत्नी को समझा-बुझाकर चौकीदार के साथ ही थाने चल पड़ा।
जब कामता की बाई देवा, तिवारी लालूराम के यहाँ पहँची, तिवारी जी अपने काम में व्यस्त थे। पता चला आज उनकी बिटिया को देखने के लिये कोई ग्वालियर से आ रहे हैं। वह डूबते-उतराते मन से उनसे बोली-‘कक्का जू विन्हें चौकीदार थाने में बुला ले गओ है। हमाओ अबा सरपंच के अबा से कितैक दूर लगो है। बिनसे तो काऊ ने कछू नहीं कही। गरीब जान के हमें फसा लये।’
तिवारी लालूराम सोचते हुये बोले-‘पुलिस तो खावे फित्ते। फिर काऊ न काऊ के नाम से ज केस मढ़नों ही परैगो कै नहीं? बड़िन के नाम से तो मढ़ो नहीं जा सकत।’
देवा बोली-‘कक्का जू ज तो सरासर अन्याय है।’
तिवारी लालूराम ने न्याय -अन्याय की परिभाषा दी-‘न्याय-अन्याय को देख रहो है।गरीब आदमी हमेशा से मत्त आओ है। अभैऊ मर रहो है। चाहें राज तंत्र रहे, चाहे प्रजातंत्र आये। गरीब को तो मरिवोई है।मुन्नी घोवी ने ठाकुर लालसिंह की शरण गह लई है। कछू दे ले लओ होयगो, तईं बच गओ। सरपंच कौं तो तें जानतई है।’
देवा अपनी बात पर आते हुये बोली-‘अब जिन्हें कैसें हू छुटवाऊ तो।’
तिवारी लालूराम उसे समझाते हुये बोले-‘छूटे कैसें, तें सब जान्ते। तितैक वे दे आये, तें दे नहीं सकत। तें चिन्ता मत करै, जमानत होनों है,कोऊ वकील कन्नो परैगो। सो भें मेरे परिचित एक वकील हैं , वे सब करवा दंगे। आज तो तें देख रही है , मेरो जावो मुश्किल ही है। कल मैं भोर ही चलो जाउँगो। तोनों तें दाम पइसा को बन्दोबस्त करले। कोर्ट-कचहरी हैं जिनपै चढ़िवे के हू पइसा लगतयें।’
यह सुनकर देवा को लगा-किसी ने उसे मूँदी मार दी है, जानै किस जनम को बदलो निकारो है।यह सोचकर वह फुसफुसाकर रोते हुये बोली-‘पइसा को दयें देतो। काऊ के झें जातेंओं, दे देगो तो।’ यह कह कर वह आँसू पोंछते हुये चली गई।
दोपहर का वक्त हो गया। मेहमानों के आने का समय निकल गया। कुन्दन की माँ अपने भाग्य को कोसते हुये बोली-‘ जाने ज मोड़ी के कैसे भाग्य हैं? जहाँ बात डालते हैं ,वहाँ मना करने के लिये बहाने की कोई न कोई बात निकल आती है। लड़का बारिन के सोऊ सौ- सौ नखरे होतयें। नो मन तेल तो विनके सजिवे में ही जल जातो। जों नहीं सोचत कै दूसरे पै का बीतत होयगी।’
तिवारी लालूराम ने अपनी व्यथा उड़ेली-‘ फित्त-फित्त पाँव पीरे परि गये। तोऊ हिल्लो नहीं परो। बैसें जों कहतयें कै जा दिना समय आ जायगो वा दिना बात बन्त में देर नहीं लगेगी।’
वे यों सोच-सोचकर मन को धीरज बँधा रहे थे। फिर भी मन ने धीरज नहीं धरा तो उन्होंने जय से पूछा-‘क्यों जय क्या कहा था, उनने आने के बारे में?अरे! आयेंगे कै नहीं?’
जय ने सोचते हुये उत्तर दिया-‘उन्हें अब तक आना तो चाहिये था। आने की पक्की बात कही थी।’
लालूराम ने उसे डाँटते हुये कहा-‘उन्होंने जाने क्या कहा होगा और इसने जाने क्या सुना होगा? जाने किस नशे में रहता है?’
कुन्दन ने जय का पक्ष लिया-‘आप जय को व्यर्थ ही डाँट रहे हैं। इसका क्या दोष? उन्होंने कह दी और वे नहीं आये।’
कुन्दन की माँ ने उन्हें कोसना शुरू किया-‘अरे! ये नहीं आते तो बरसाने वालों से बात पक्क्ी कर दो। यही है बरसाना यहाँ से थोड़ी दूर है इसलिये सोच रहे थे। ये पास की पास में हैं। भाग्य में जहाँ का अन्न जल लिखा होगा ये वहीं जायगी।’
ये बातें हो ही रहीं थीं कि एक मोटर साइकिल दरवाजे पर आकर रुकी। किसी ने कहा-‘ वे आ गये,वे आ गये।’ घर में भाग दौड़ शुरू होगई। मेहमानों को बैठक में बैठाया गया। सोना बिटिया को सजाया जाने लगा। कुन्दन की पत्नी आनन्दी ने उसे समझा बुझाकर चाय देने के लिये भेजा। जब सोना बैठक में चाय की ट्रे लेकर पहुँची सभी उसे वे-रहमी से घूर रहे थे।कुन्दन को उनका इस तरह घूर कर देखना अच्छा नहीं लगा। वे कुन्दन की निगाह पहचान गये तो उन्होंने मुस्कराकर बात टाल दी। मजबूर होकर कुन्दन को वहाँ से हटना पड़ा। सोचने लगा-ये तो चमड़ी के ग्राहक लगते हैं। काश! सोना का रंग साँवला न होता तो पता नहीं इसके ब्याह की समस्या कब की हल हो गई होती। ये गुण के ग्रहक भी नहीं लगते। गुणों की पहचान कुछ ही समय में कोई कैसे कर पायगा? जब सोना उन्हें चाय देकर चली गई, कुन्दन बैठक में पहुँच गया। उनमें जो सबसे वृद्ध दिख रहे थे ,मुझे देखकर बोले-‘ कुन्दन जी अपनी बहन को एक बार और बुलाने का कष्ट करेंगे।’
कुन्दन को वेवसी में कहना ही पड़ा-‘जी, बैसे बात ये है, गाँव की लड़की है,शहर की लड़कियों की अपेक्षा शर्मीली होतीं हैं। बैसे आज के युग में लड़कियों को बोल्ड होना चाहिये।’
उन्होंने झट से उत्तर दिया-‘नहीं, इतनी बोल्डनेस भी अच्छी नहीं लगती कि मर्यादाओं को भंग करदे।’
कुन्दन ने मन ही मन दोहराया-एक बार देखने से मन नहीं भरा तो श्रीमान दोवारा बुला रहे हैं। लड़की वालों की कितनी लाचारी होती है। यह सोचते हुये कुन्दन घर के अन्दर चौक में पहुँच गया। आवाज दी-‘सोना बेटी, जरा एक वार बैठक में और आना।’
सोना शीध्र ही दूसरे घर में से निकल कर भैया के पास आ गई। उसके पीछे-पीछे चलकर बैठक में पहुँच गई। कुन्दन बोला-‘ अब तुम इस कुर्सी पर बैठ जाओ।’
वह कुर्सी पर बैठ गई।कुन्दन फिर से बाहर निकल आया। एक ने पूछा-‘ तुमने रीढ़ की हडडी नामक नाटक तो पढ़ा होगा।’
‘जी’
पंडित दीनानाथ ने लड़कों की बात को बदलने के लिये पूछा-‘ तुम्हारी हायर सेकन्ड्री में कौन सी डिवीजन रही?’
‘सेकन्ड’ उसने संक्षिप्त उत्तर दिया।
वे बोले-‘ठीक है गाँव की लड़की का इतना फर्स्ट के बराबर है। गाँव के लोगों में भी चेतना का संचार हो रहा है। वे अब अपनी बच्चियों को पढ़ाने में रुचि लेने लगे हैं।’ वे एक क्षण रुक कर बोले-‘ अच्छा बेटी अब जा। पहले इन लोगों ने बोतें नहीं कर पाईं थी। अब ये सभी संन्तुष्ट हो गये होंगे।’ उनकी बात सुनकर सोना वहाँ से चली आई।
घर के सभी लोग परिणाम जानना चाहते थे। सभी अपने-अपने इष्ट का स्मरण करने लगे- ‘हे भगवान ,ये लोग सोना बेटी का रिस्ता स्वीकार करलें।’
सोना के पापा लालूराम जी अपने इष्ट से टेर लगा रहे थे-हे हनुमान बब्बा, आप तो हमारे पड़ोसी है। आज तक आप हमारी रक्षा करते आये हैं। प्रभु ,यह काम होने पर सत्य नारायण की कथा कराऊँगा।’यही सब सोचते हुये वे बैठक में पहुँच गये। उन्हें देखते ही पं दीनानाथ जी बोले-‘देखो तिवारी जी, हम जानते हैं विवाह में आप कोई कसर नहीं रखेंगे। हमें लड़की पसन्द है। गाँव की पढ़ी-लिखी बच्ची भगय से ही मिलती है। आपका हमारे लड़के से मन भर गया हो तो लड़की पक्की करना चाहते हैं।’
यह सुनकर उनका दिल उछलने लगा। घर के सभी लोग बहुत प्रश्न्न हो गये। तिवारी जी ने उनके मन की बात लेना चाही, पूछा-‘ हम आपका उतना सम्मान नहीं कर पायेंगे,आप क्या चाहते हैं बतला देते, जिससे बाद में झिकझिक न हो। यह हमें पसन्द नहीं है।’
तिवारीजी की यह बात सुनकर पं0 दीनानाथ ने बोले-‘पाँच-पाँच हजार के ही ठिक से कम पर इज्जत नहीं बच पायेगी। फिर जैसा आप उचित समझें।’
कुन्दन झट सें बोला-‘पिछले चार साल से फसल साथ ही नहीं दे रही है। फिर भी हम आपकी इज्जत बचाने में कसर नहीे छोड़ेंगें।’
अन्त में पं0 दीनानाथ ने निर्णय सुनाया-‘ हमें लड़की पसन्द है, फिर आप हमारे सम्मान में तो कमी रखेंगे नहीं। इसलिये इस बारे में हमें आप से कुछ नहीं कहना।’
दोनों पक्ष सम्बन्ध के लिये राजी हो गये। गाँव भर में गोद भराई का बुलउआ लगा। गाँव के लोग आने लगे। औरतें लोक गीत गाने लगीं। सोना को बुलाकर जाजम पर बिछोना बिछाकर उस पर बैठया गया। पं0दीनानाथ ने सोना की गोद भरी। उनको भोजन कराया। औरतों ने लोक गीतों की झड़ी लगा दी।
गौरा,गनपति कों लेऊ मनाय,सजन घर आये हैं।
बाद में उन्हें उनके सम्मान में दान-दक्षिणा देकर विदा कर दिया।
शाम होते-होते सरपंच शहर से लौटकर आये। रास्ते में तिवारी जी का घर पड़ता था। दरवाजे पर तिवारी लालूराम और कुन्दन बैठे थे। सरपंच मौजी के प्रकरण में अपने को विरोधियों के सामने निष्कलंक घोषित करना चाहते थे। इधर तिवारी जी लड़की की सगाई से निवृत होकर चैन की सँास ले रहे थे। लालूराम को दरवाजे पर बैठा देखकर सरपंच विशन महाराज ठुमके। लालूराम उनकी चाल पहचानते हुये बोले-‘आओ, सरपंच जी आओ। आज बड़े प्रश्न्न दिख रहे हो! बैठ लो।’
वे चबूतरे पर तिवारी जी की बगल में बैठते हुये बोले-‘ सुना है , आज सोना बेटी की गोद भराई का कार्यक्रम निपट गया।’
तिवारी जी ने सहज बनते हुये कहा-‘सरपंच जी, जहाँ उसकी किस्मत ले गई, वहीं सम्बन्ध हुआ है। सब पूर्व जन्म का लेखा-जोखा है।’
सरपंच जी अपनी बात पर आ गये। बोले-‘चलो यह ठीक ही रहा। सब किस्मत की बात है। मैं भी आज शहर से आ रहा हूँ। अखबार में देखो तो आज यह क्या छपा है?’
कुन्दन ने आगे बढ़कर अखबार हाथ में ले लिया। उसे जोर-जोर से पढ़ने लगा-‘सालवई गाँव के सवर्णों ने दलित का घर फूँका।’
सालवई गाँव के सवर्णों ने एक गरीब दलित का घर इसलिये फूँक दिया क्योंकि वह गाँव में बधुआ मजदूरी का विरोध करने लगा था। उसे गाँव से भगाने के उदेश्य से सवर्णेंा ने उसके घर में आग लगा दी। पुलिस मुस्तैदी से घटना की जाँच कर रही है। अभी तक कोई भी अपराधी पकड़ा नहीं गया है। उसी गाँव के दलितों ने कलेक्टर महोदय की ओर एक प्रार्थना पत्र भेज कर अनुरोध किया है कि दोषी को तत्काल गिरफ्दार किया जावे।’
कुन्दन ने समाचार पढ़कर सुनाया। सरपंच जी बोले-‘ देखा, तिवारी जी हम सब आपस में बटे हुये हैं। ये दलित लोग इकत्रित होकर सर उठा रहे हैं। भई, किया भी क्या जाये, उनका राज्य जो है? काशीराम तेली को पुलिस ने बन्द कर ही दिया है।’
लालूराम तिवारी क्रोध व्यक्त करते हुये बोले-‘ इसका मतलब है, उसके सिर पर केश लाद दिया गया है। अरे! सरपंच जी मौजी की मड़रिया में आग लगी है तो तुम्हारे भट्टे से अथवा मुन्नी धोबी के भट्टे से। उसका भट्टा तो बहुत दूर लगा है। तुम दोनों तो ले देकर बच गये। केश लद गया गरीब आदमी के ऊपर। देखना उसकी बददुआयें कहीं तुम्हें ले न डूबें।’
सरपंच बोले-‘ देखो तिवारी जी, बददुआओं की बात तो बाद की है। वह तुम्हारा आदमी है, चुनाव में उसने तुम्हारा खुलकर साथ दिया था। तुम उसकी दुआयें लेलो। मैं यही कहने तुम्हारे पास आया था। अब चलता हूँ।’
लालूराम ने उनकी आव-भगत में कहा-‘ अरे! रुकिये, चाय बनी जाती है।’
चाय के नाम पर वे उठते हुये बोले-‘अरे! इसकी क्या जरूरत है। सुबह का निकला हूँ। जरा जल्दी में हूँ।’
जब वे चलने को हुये तो तिवारी जी खींसे निपोरते हुये उनकी आव-भगत में खड़े होगये।
जब वे चले गये। जय उनकी बातें सुन-समझ चुका था। बोला-‘आजकल पैसे से सब कुछ हो सकता है। भ्रष्टाचार चरम सीमा पर पहुँच गया है। हम ईमानदार बने रहें तो भूखों मरने की नौवत आ जायगी।दन्द-फन्द करके, दे-लेकर कहीं चिपक जाता तो आप सुनते नहीं हैं।’
बात का जबाव लालूराम ने न देकर कुन्दन ने दिया-‘भइया सब करेंगे। पहले बहन का ब्याह तो निपट जाने दे। जैसे समय निकल रहा है थोड़ा सा और निकाल लो।’
लालूराम ने अपने क्षेत्र में चल रही राजनीति पर अपना आक्रोश व्यक्त किया-‘ज एम0 एल0 ए0 हू कछू काम को नाने। देखिवे- दिखावे कों ईमानदार बनतो। फिर ईमान दारी से कौनसा काम बना है!’
जय ने अपना आक्रोश उड़ेला-‘ ज शक्कर म्ील से लाखो डकार जातो। गन्ना को भाव काये नहीं बढ़त। सब जई की कारस्तानी है।रुपइया बढ़नो चहिये तब आठ आना बढ़ंगे।’
कुन्दन ने अपना अनुभव व्यक्त किया-‘हमें ऐसे लोगों को चुनना ही नहीं चाहिये ।हम हैं कि कहीं जाति के नाम पर, कहीं पार्टी के नाम पर गलत प्रत्यासी को अपना मत दे आते हैं। बाद में हमें उसके लिये पश्चाताप करना पड़ता है।’
लालूराम ने अपनी बात रखी-‘चुनाव में अच्छे लोग खड़े ही नहीं हो पाते। जिसके पास पैसा है, वही चुनाव लड़ पाता है। अपने गाँव में हीं देख लो, विशन महाराज सरपंच कैसे बन पाये! सारे देश में यही हाल है।’
कुन्दन सोच में डूब गया-कहाँ खो गया गाँन्धी जी का सपना? आज वे होते तो वे भी इस व्यवस्था को देख-देखकर सिर धुन रहे होते। जब तक देश के लोगों का सोच नहीं बदलेगा तब तक कहीं कुछ होने बाला नहीं है। अब तो कोई नया गाँन्धी सामने आये तभी बदलाव सम्भव है। जन बल की मानसिकता जब तक नहीं बदलेगी तब तक यह बदलाव सम्भव नहीं है।
कुन्दन की माँ ने बैठक में बड़बड़ाते हुये प्रवेश किया-‘ अब ये पंचायत ही करते रहोगे या कुछ काम-धन्धा भी देखोगे। तुम्हारे बाप ने तो अपनी जिन्दगी नेतागिरी में खराब करली। अपना काम धन्धा छोड़कर नेतागिरी करने लगे। गाँव को लूटने का मौका तलाशते रहे। सो मिल नहीं पाया। अरे! यहाँ विशन महाराज जैसे बड़े- बड़े घाघ बैठे हैं। सो अभी तक सारी जिन्दगी निकल गई ,इस गाँव के सरपंच तो बन नहीं पाये। बिटिया का ब्याह बिना कर्ज लिये हो पाना सम्भव नहीं है।’
कुन्दन समझ गया माँ का पारा गरम है। उन्हें शान्त करते हुये बोला-‘ माँ छोड़ इन बातों को, पिताजी के दायित्व का एक यही काम बचा है। वह भी अब तो निपट ही जायेगा। फिर हम किसलिये हैं। बहन के प्रति हमारा भी कोई दायित्व है कि नहीं!’
वे झट से बात काट कर बोलीं-‘ अभी तक सारे काम पुरखों की जायदाद बेच-बेच कर निपटाये हैं। मेरे बाप ने भी इतना दिया था कि सँभल नहीं रहा था। अब घर में कुछ भी नहीं बचा है। थोड़ी बहुत जमीन बची है वह भी बिची जाती है मुझे तो तुम लोगों का सोच है फिर तुम कैसे क्या करोगे? इस वर्ष अभी तक पानी की एक बूँद भी नहीं पड़़ी है।’
लालूराम ने पत्नी को समझाना चाहा-‘बैंक वाले चढ़े थे सो गेंहँ बेचकर बैंक का कर्ज निपटा दिया। महावीर बब्बा की कृपा से सोना का ब्याह पक्का होगया है, सो वे ही उसे पार लगायेंगे।’
कुन्दन की माँ ने बदरा को गालियाँ दीं-‘जैसा आदमी बेईमान हो गया है बैसा ही ये बदरा हो गया है। पानी कहाँ से बरसे, सुनतयें काऊ बड़े सेठ ने पानी गहरे पर गाड दिया है।’
कुन्दन ने यह बात पहली बार सुनी थी। पूछा-‘ यह क्या होता है माँ?’
वे कुन्दन को समझाते हुये बोलीं-‘ होता क्या है? जे पइसा बारे एक घड़े में पानी भर कर जमीन में गाड़ देते हैं। फिर वे अपना अनाज मुँह माँगे दामों में बेचते रहते हैं। जब उनका पेट भर जाता है , वे उसे गड़े हुये पानी को उखाड़ देते हैं तब पानी बरसने लगता है। ज बड़े आदमिन को तन्तोरा है।’
माँ की बातें सुनकर सभी इस बात के सत्य को जानने के लिये अपने अन्तस् में डुबकी लगाने लगे। किसी को इसमें कोई वैज्ञानिक सोच पकड़ में नहीं आया। कुन्दन को तो यह सारा का सारा सोच अन्धविश्वास की परिधि में डूबा हुआ लग रहा था।
गाँव भर में इस तरह वे-सिर पैर की बातें चल रहीं थीं। मौजी के प्रकरण के बहाने गाँव के दलित अपने पुराने घाव खुजलाने लगे। उनमें बूढ़े-पुराने लोग अपने शोषण की कथा इस तरह सुना रहे थे जैसे ब्राह्मण रटे रटाये वेद मंत्रों को सुनाते हैं। काशीराम तेली इस बात में पिर रहा था। एक गरीब आदमी के झूठे फसने का दुःख दोनों ही पक्षों में था। पानी न बरसने का कारण सभी की दृष्टि में ऐसे ही पाप हैं ,जो बड़ों के पाप गरीब के सिर मढ़ दिये जाते हैं। उससे जो आह निकलती है वही आह ही यह जुल्म ढाह रही है। गाँव के लोग इस बात को ही पानी न बरसने का कारण मान रहे हैं। कुछ अपने अनुभव से कह रहे हैं कि मौजी की टपरियों में आग तो उसके चूल्हे की आग से ही लगी है। वह तो काशीराम के सिर इसलिये मढ़ी है जिससे हमदर्दी में सरकार से मौजी को अधिक लाभ मिल सके।
गाँव के बीच में एक प्राचीन माता मैया का मन्दिर है। मन्दिर में माता मैया की आदम कद मूर्ति देखते ही बनती है। माता मैया की बड़ी-बड़ी आँखें देखकर तो अच्छा-भला आदमी ही डर जाये। क्षेत्र भर के लोग मैया के दर्शन करने के लिये आते रहते हैं। यहाँ आकर लोगों की मनोकामना पूर्ण हो जातीं हैं, ऐसे अवधारणा जनश्रुति के रूप में व्याप्त है। यों प्रतिदिन लोगों का आना-जाना लगा रहता है।गाँव के लोग हनुमान मन्दिर के अलावा यही बैठकर चर्चायें करते रहते हैं। आज कुछ लोग यही बैठे चर्चा में व्यस्त दिख रहे हैं। सरदार खाँ ने बुलन्द आवाज में कहा-‘ज काशीराम साहू तो बड़े-बड़िन के चक्कर में झूठो फस गओ। जाको अवा तो सबसे दूर लगों है।’
भरोसा मिर्धा बोला-‘ जे बड़े-बड़े आदमी ,ते गरीब बेल में आत जातो ताय एक एक करके फसात जातयें,अपुन सबै मिल के चलनों चहिये।’
मनघन्टा बड़ी देर से इनकी बातें सुन रहा था, बोला-‘कोऊ काऊ के काजें पइसा लगायें नहीं देत। अरे! जाको मरै तइये रोनों पत्तो।’
प्रसादी शुक्ल बोले-‘अरे! ज जमाने से तो हमाये सिन्धिया को जमानों अच्छो हतो। आदमी काउये ऐसें झूठो नहीं फसातये। अरे! ऐसे अत्याचार तो न दिखतये।’
रामदास ने उसकी बात का विरोध करते हुये कहा-‘अरे! सिन्धिया के राज्य में बड़ो अन्धेर हतो। किसान पै बदन ढाँकिवे कपड़ा-लत्ता हू नहीं पुजतये। आदमी पइसा के दर्शनन को तरसतये।’
पाण्डे राम मोहन हनुमान मन्दिर के पुजारी थे। वे चुपचाप इन सब की बातों को सुन रहे थे। वे कडक आवाज में बोले-‘जे तेलियन के मिजाज ज्यादा बढ़ गये हैं। वे काउये नहीं गिनतये। अरे! नेक तेल पेरकें, मेन्त-मजूरी करके दो टेम खान-पीन लगे सो दिमाग आसमान पै चढ़ गये हैं।’
प्रसादी शुक्ल ने राम मोहन को समझाने का प्रयास किया-‘गरीबन के बारे में पाण्डे जी ऐसे मत सोचिवो करो। नहीं काऊ गरीब की हाय ऐसे लगेगी कै कहूँ के नहीं रहोगे।’
रामदास मजाकिया स्वभाव का था। वह बात का आनन्द लेने के मूड़ में आ गया था। बोला-‘ पाण्डेजी, तुम्हाई बहू काये नहीं आरही है?’
पाण्डे राम मोहन ने उत्तर दिया-‘ हम तो तीन-चार बेर लेवे फिर आये, बाके मायके बारे वाय भेज ही नहीं रहे।’
प्रसादी शुक्ल ने अपनी बात रखी-‘ यार ,तुम्हें अपनी बहू को ऐसी बुरी तरह पिटवानों नहीं चहियतो।’
पाण्डे राम मोहन को अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिये सफाई देना आवश्यक हो गया। बोले-‘अरे! मोड़ा और बहू लड़ पड़े, मोड़ा ने हाथ-पाँव चला दये। ज बात पै बहू को गुस्सा आ गई। बाने धतूरे के गटा खा लये। हमें ज बात को पतो चलो तो हम बाय अस्पताल ले भजे, सो व बच गई।’
रामदास ने पूछा-‘पण्डित जी पुलिस ने दो-चार हजार तो झटक लये होंगे।’
पाण्डे राम मोहन ने बात को असमय उखाड़ने वालों को मन ही मन गालियाँ देते हुये नरम पड़कर कहा-‘भइया, पुलिस काउये सूखो निकरन देते , ज तो तुम अच्छी तरह जानतओ।’ यह कहकर वे वहाँ से उठकर चले गये, किन्तु बात उनके जाने पर भी चलती रही।
प्रसादी शुक्ल ने अपनी चौधराहट कायम करने के लिये कहा-‘ ससुर चुकटिया ब्राह्मण हैं। बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। अरे! अपनो सुख देखतयें।’
रामदास ने अपना निर्णय सुनाया-‘अपनो गाँव तो ऐसो बिगरो है, पूरे पंचमहल में ऐसो एकऊ नहीं बिगरो।’
सरदार खाँ नेे रामदास की बात पर अपनी पैनी करने के लिये कहा-‘गली-गाँव जही हाल हैं। पंचमहल के सब गावन में जही हो रहो है। सुनवई में तो सुनी है कै एक मोड़ी के संगे जाने कितेकन ने बलात्कार करो है।’
प्रसादी शुक्ल ने निराशा होकर कहा-‘ ज जमाने में ले दे कें सब बच गये होंगे।अरे! ऐसे दुष्टन ने तो फाँसी की सजा होनो चहिये, पर कहूँ कोऊ सुनवाई नाने।वोटन के चक्कर में बड़े-बड़े नेता चोर-उचक्कन को साथ खुल्लम-खुल्ला दे रहे हैं।’
रामदास ने अपना अनुभव व्यक्त किया-‘हमाओ ज गाँव तो भइया गूँगो है। झें गरीब की कोऊ नहीं सुन रहो। सब गरीबन को खून चूसिवे में लगे हैं।’
सरदार खाँ ने गाँव की राजनीति की ओर संकेत किया-‘जाटव मोहल्ले में बड़ी भारी एकता है। सब एक सूत्र में बंधे हैं। उनकी तरफ कोई आँख उठाकर नहीं देख सकत। अरे! अब तो जो संगठित नाने बिनपै अब तो सबकी दाढ़ है।’
बातों बातों में बात सूखे की समस्या पर आकर ठहर गई। रामदास ने इस विषय में सोचते हुये कहा-‘ अब पानी बरसने की आशा तो नाने। भज्जा, मैं तो कल बैंक से पम्प उठा रहो हों।’
भरोसा मिर्धा बड़ी देर से कुछ कहने की सोच रहा था। बोला-‘मैंने तो कल से रहट चलावो शुरू कर दओ। देखें ,भगवान कैसें पार लगायगो। चौपे भूखें मरैं लेतयें।’
भरोसा की बात सुनकर सभी चिन्तित हो गये। सभी की निगाहें शून्य आकाश को ताकने लगीं। उनके पास बैठी खजेलो कुतिया कूलने लगी। वह भी भूखी थी।
छोटे किसानों और मजदूरों के घरों का अनाज समाप्त हो गया था। वे मजदूरी की तलाश में बैठे थे। इन दिनों गाँव में मजदूरी कहाँ रखी। कोई उन्हें टके सेर न पूछ रहा था। कोई काम न रहा तो आदमी ने अपने हाथ खीचना शुरू कर दिये। पैसे घिस-घिसकर निकलने लगे। कहीं कोई मजदूरी मिल भी जाती तो लोग मजदूरी देने में उन्हें चार-चार चक्कर लगवाते तब कहीं मजदूरी के पैसे देते। वह भी इस तरह देते जैसे भीख दे रहे हों। सरकार की ओर से सूखे की स्थिति का आकलन करने के लिये घोषणा कर दी गई, जिससे लोग राहत महसूस कर रहे थे।
पन्द्रह दिन गुजर गये , तब कहीं सरकार ने इसे सूखाग्रस्त क्षेत्र घोषित किया। जिले बन्दी के आदेश हो गये। पशुआंे के लिये चारे की समस्या खड़ी हो गई। लोगों ने पशुओं के लिये चरू बो दी। जिससे अकाल के समय पशुओं की रक्षा की जा सके।
तेज घूप के कारण चरू सूखने लगी। ऐसी स्थिति में चरू लगने लगी। किसी के बैल चरू में जा लगे तो उनकी वहीं के वहीं मौत हो गई। यह खबर गाँव भर में फैल गई। सरपंच ने अपना दायित्व दुहाई फिरवाकर पूरा कर दिया। गाँव भर में दुहाई फिर गई-‘ सभी अपने-अपने चौपे सम्हार कर चरायें, चरू लगन लगी है।’ दुहाई सुनकर सभी की आँखों के सामने अन्धेरा छा गया। अब उनके पशु जीवित कैसे रहेंगे?

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