जिंदगी की साँझ Sunita Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जिंदगी की साँझ

मिस्टर अशोक शर्मा जो सेवानिवृत एकाउंट अफसर हैं।बड़ा रौब था जवानी में उनका किसी भी कार्यालय में उनके काम में जरा भी लेट लतीफी हुई कि तुरंत पूरे कार्यालय को हड़का देते थे।और उनके पद की वजह से सहन भी कर लेते थे।उनके दो बच्चे थे एक लड़का और एक लड़की दोनों ही बच्चे अच्छे पदों पर थे बेटी और बेटा दोनों ही सॉफ्टवेअर इंजीनियर के पद पर थे बेटी ऑस्ट्रेलिया में है और बेटा अमेरिका चला गया था। तेवर ऐसे कि घर में भी अफ़सरगिरी दिखाने से बाज नहीं आते पत्नी शर्मिला एक टांग पर खड़ी होकर उनके हुक्म का पालन करती उनके अपने माता पिता और भाई बहिनों पर उनका खूब रौब चलता घर के सबसे बड़े बेटे जो थे। ससुराल में भी उनका खूब रौब था घर के बड़े जमाई जो थे। बच्चों पर भी खूब सख्ती बरतते थे साथ ही प्यार भी बहुत करते थे।दोनों को पढ़ा लिखा कर खूब काबिल बनाया । बेटी की खूब दहेज देकर अच्छे घर में शादी की सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि कुछ महीने पहले ऐसी दुर्घटना हुई कि उनकी जिंदगी ही बदल गई।एक दिन शर्मा जी डयूटी से घर आ रहे थे कि उनका एक्सीडेंट हो गया।उस एक्सीडेंट में जान तो बच गई पर वो हाथ पैरों से लाचार हो गए अब वह बिना सहारे और बैसाखी के चल फिर नहीं पाते थे ।उनके एक्सीडेंट के वक्त भी सुदेश नहीं आ पाया था उस वक्त उनके मित्र और पड़ोसियों ने उनकी बहुत मदद की थी जिससे उनका इलाज सम्भव हो पाया था।
पिछली बातें याद करते करते देवेश कहीं खो गए थे।कितना कहा था सुदेश से "बेटा यहाँ अच्छी खासी नौकरी है घर परिवार है फिर अमेरिका जाने की जिद क्यों?तुम्हारी दीदी सृष्टि भी ऑस्ट्रेलिया में है फिर हम यहाँ किसके सहारे रहेंगे"।दोनों ही बच्चे होनहार निकले आई आई टी से इंजीनियरिंग करने के बाद दोनों की अच्छी कंपनियों में नौकरी लग गई थी।फिर सृष्टि की उसके सहकर्मी सार्थक के साथ शादी भी हो गई थी। फिर दो साल बाद दोनों ऑस्ट्रेलिया चले गए थे।सुदेश भी अमेरिका जाने की ठाने बैठा था।उनके समझाने पर पर बोला था" पापा आपने ही सिखाया था तरक्की करो बड़ा आदमी बनो।
फिर में दो साल के लिये ही तो जा रहा हूँ"।देवेश निरुतर हो गए थे एक महीना सुदेश की तैयारियों में कैसे बीता पता ही नहीं चला।देवेश को विदा करते समय बड़ी मुश्किल से संभाला था उन्होंने खुद को। हफ़्तों तक उनका मन नहीं लगा था।किसी तरह दो साल बीतने पर जब सुदेश आने वाला था वो एक एक दिन गिनते थे।
जब सुदेश लौटकर आया तो वह बहुत खुश थे कि अब सब साथ रहेंगे।इधर उसके लिये रिश्ते भी आ रहे थे।उन्होंने लड़की वालों को कह रखा था कि सुदेश के आने पर ही बात आगे बढ़ाएंगे।सुदेश के आने पर वह उसका रिश्ता कर देना चाहते थे ।सुदेश को भी इस बात से कोई एतराज न था।अतः कई लड़कियाँ देखने के बाद नेहा सुदेश को पसंद आ गई थी वह अच्छे परिवार की आधुनिक लड़की थी।फिर क्या था एक महीने के भीतर ही पहले सगाई फिर शादी कर दी गई।इस शादी में उनकी बेटी सृष्टि भी अपने पति और बेटी के साथ एक हफ्ते के लिये आई।
और शादी के दो दिन बाद ही वो बापिस ऑस्ट्रेलिया चले गए थे। सुदेश ने भी घर में कह रखा था कि वह अगस्त से नौकरी जॉइन करेगा। शादी के एक महीने बाद सुदेश खाने की मेज पर बोला "पापा मुझे अगले हफ्ते बापस अमेरिका जाना होगा"। वो हैरान हो गए थे" अमेरिका क्यों तुम तो कह रहे थे कि दो साल बाद तुम यहीं जॉब करोगे" उसकी माँ बोली। सोचा तो यही था माँ पर यहाँ जॉब कहाँ मिल रही है और जहाँ मिल रही है वो अच्छी सेलेरी नहीं दे रहे हैं।वहाँ अच्छी खासी जॉब है और जब यहाँ अच्छी मिल जाएगी तो बापिस आ जाऊँगा"।देवेश और देव्यानी समझ गए कि ये सब कुछ पहले से प्लान करके आया है और उन्होंने कोई बहस करना उचित नहीं समझा।एक हफ्ते बाद ही सुदेश अपनी पत्नी को लेकर अमेरिका रवाना हो गया था।
और आज चार साल हो गए पलट कर नहीं देखा । एक बार उन्हें ही अमेरिका बुला लिया था जब उसका बेटा आरव हुआ था। तब वह एक महीना वहाँ रहकर आये थे।अब तो आरव भी दो साल का हो गया। इन्हीं ख्यालों में गुम थे कि देव्यानी ने चाय लेकर कमरे में प्रवेश किया।"कहाँ खो गए कितनी बार कहा है ज्यादा सोचा मत करो देवयानी बोली" ।"कैसे न सोचा करूँ देव्यानी यादें तो हवा के झोके की तरह होती हैं आ ही जाती हैं?।मेरी छोड़ो क्या कोई भी ऐसा दिन गया है जब तुम बच्चों को याद नहीं करतीं। सुदेश को पूरे चार साल हो गए गए हुए ।बड़ा हो गया है न हमारे बिना जीना सीख गया है ।लेकिन हम क्यों नहीं सीख पाए उसके बिना जीना।कितनी मन्नतों से पैदा हुआ था कहाँ कहाँ माथा नहीं टेका था तुमने।सृष्टि के पैदा होने के छ साल बाद पैदा हुआ था।कितनी तकलीफ सही थी तुमने उसके पैदा होने में।और तुम तुम्हारी जिंदगी तो बच्चों के आस पास घूमती थी तुम्हारी हर बात बच्चों से ही शुरू होती थी और बच्चों के लिये तुम मुझसे भी लड़ जाया करती थीं। अब मुझसे कह रही हो में उन्हें याद न करूँ।फ़ोन पर बात करके समझ लेते हैं उनकी जिम्मेदारी खत्म"।
" बस करो जी दिल छोटा क्यों करते हैं। अगर वो हमारे बिना खुश हैं तो ऐसे ही सही फिर हम कब तक हैं, उनकी जिंदगी है वो चाहे जैसे जियें हमारा फर्ज था उन्हें पाल पोश कर लायक बनाना वो हमने पूरा किया। फिर बेटियाँ तो होती ही पराई हैं उन्हें तो एक न एक दिन जाना होता है ।और रही सुदेश की बात तो वो वहाँ खुश है तो हम भी खुश हैं। हाँ तुम ठीक कहती हो इसमें बच्चों का कोई कसूर नहीं सारा कसूर हमारा है हमने उन्हें पैसा कमाना तो सिखाया रिश्ते कमाना न सिखा सके । हम बच्चों को सिखाते रहे कि लायक बनो वो लायक बन भी गए पर हम उनके लायक नहीं रहे। हमने ही उन्हें रिश्ते नातों से दूर रखा कभी भी महीने दो महीने के लिये अपने माँ पिताजी को अपने पास नहीं बुलाया इस डर से कि बच्चों की पढ़ाई खराब न हो। रिश्तेदारों से भी एक दूरी बनाकर रखी ताकि उनकी पढ़ाई खराब न हो। उन्हें रिश्तेदारों से ज्यादा मिलने जुलने भी नहीं दिया ताकि उनकी पढ़ाई में कोई व्यवधान न पड़े। वो व्यवहारिक तो बन गए पर अपने माता पिता देश परिवार किसी से उनका भावनात्मक जुड़ाव न रहा । देव्यानी ये हमारी जिंदगी की साँझ है पता नहीं कब हमारे जीवन का सूर्य अस्त हो जाए बस एक ही चिंता मन में रहती है कि हमारे अंतिम समय में भी हम अपने बच्चों से मिल पाएँगे या नहीं"।