रोबोट वाले गुण्डे
बाल उपन्यास
-राजनारायण बोहरे
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प्रोफेसर सर्वेश्वर दयाल को नगर की हलचलो से कुछ मतलब न था, वे जब खूब आराम चाहते थे तो किसी नदी का किनारा खोजते थे और दिनभर वही आसन जमाये रहते थे।
एसा ही उस दिन हुआ।
वे अपने एक नौकर को लेकर पास बहने वाली नदी ”शरबती“ के किनारे पहुँच गये और दूब से भरे मैदान में दरी बिछाकर लेट गये। नौकर ने पास लाकर टेप चला दिया, जिससे धीमा-धीमा संगीत निकलकर वातावरण को संगीतमय बनाने लगा था। प्रोफेसर दयाल आसमान की ओर ताकते चुपचाप लेटे थे। नौकर खाना सजा रहा था।
नगर यहा से चार किलोमीटर दुर था।
आसमान पर बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े रूई के फोआ के समान तैर रहे थे, उनसे नीचे कुछ चील और बाज अपने डैन फैलाये हवा में कुचाले भर रहे थे।
एकाएक सन्नाटा भंग हुआ।
बड़े जोरदार धमाके की आवाज़ आई थी, जो निश्चित ही शहर की ओर से आई थी।
प्रोफेसर दयाल उठकर बैठ गये और शहर की और ताकने लगे।
यह क्या ? शहर के बीच वे एक लपलपाती आग तीर की तरह आसमान की ओर उठी जा रही थी।
वे चौंके। गले में लटकी दुरबीन अपनी आँखो से लगा ली। उन्हें दाल में काला नजर आ रहा था।
दुरबीन से दिखा कि सचमुच ही जोरदार लपटों के पीछे छोड़ता हुआ एक कत्थई रंग का गोला आसमान की ओर भागा जा रहा था।
वे एकाएक खड़े हुये और बिना कुछ सोचे-समझे-बोले कस्बे की ओर दौड़ लगा दी।
चेहरे पर भय और आश्चर्य के भाव लिये वे भागते चले जा रहे थे और लोग उन्हेंं चौंक कर देख रहे थे।
बस्ती में जाकर उनका संदेह विश्वास में बदला। मोहल्ले के लोग उनके घर की आर भाग रहे थे। उन्होंने अपनी गति बढ़ा दी और आनन फानन में दरवाजे तक जा पहुँचे।
उनका ताला तोड़ दिया गया था और उसमें अनेको पुलिस मैन व नागरिक प्रविष्ट हो रहे थे।
सबको धकियाते वे अंदर पहुँचे।
प्रयोग शाला का दरवाजा खुला था और उससे लगा हवाई मोटर की ओर खुलने वाला दरवाजा भी खुला पड़ा था, उसके किबाड़ सपाट खुले थे।
वे में आंगन में पहुँचे।
काटों तो खून नही
आंगन मे से हवाई मोटर और रामबाण गायब थे और ठीक उसी जगह पर खुलगती हुई राख पड़ी थी।
बदहवास दयाल साब चीखे और बेहोश हो गये।
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अजय और अभय हवाई मोटर में कैसे पहुँचे ?
घटना एसे हुई कि जिस क्षण से अजय-अभय ने हवाई मोटर और रामबाण देखा था, उन्हें बड़ी उत्सुक्ता हुई कि इस हवाई माटर में बैठकर खेलने पर कैसा लगेगा।
वे दोनो स्काउट के छात्र थे, और उन्हें सिखाया गया था कि खतरो से खेलने वाले हमेशा बहादुर बनते हैं।
अगले दिन उन दोनो ने स्कुल से छुट्टी ली । एक कोने में बैठकर कर खूब गुपचुप चर्चा की। अंत में निश्चित किया कि आर-या-पार कुछ भी हो वे हवाई मोटर में बैठेगे।
संयोग से अगले दिन ही मौका मिला,
बिलकुल सुबंह दयाल अंकल अपने नौकर के साथ पिकनिक पर निकल गये थे, अजय-अभय बस्ते उठाकर निकले । वे सीधे दयाल साहब के घर में घुस गये।
बहुत पहले उन्होंने दयाल अंकल के ताले की एक चाभी उड़ा दी थी आज वह चाभी काम आई। वे बड़े आराम से हवाई मोटर तक पहुँचे गये।
अजय अपने बस्ते में ढ़ेर सारा खाना बोतल में पानी लाया था। वे जल्दी से सीड़ी चढ़कर हवाई मोटर में जा बैठे। वहा सब कुछ था यानि कि ऑक्सीजन की टंकी लगी अंतरिक्ष यात्रियो की दो पोशाके, खाने पीने की ढ़ेर सारी ट्युब भी।
अजय ने सीढ़ी गिराकर हवाई मोटर का दरवाजा बंद कर दिया। वे लोग देर रात तक बैठे रहे फिर बिना उद्देश्य ही ईधर उधर की बटने दबाने लगे। यका यक.....
एक भयानक विस्फोट सा हुआ और अजय-अभय को लगा कि उनके पेट में हवा सी भर गई हो।
उनकी स्प्रिंगदार कुर्सीयां झुकती चली गयी और हवाई मोटर तुफान की तरह ऊपर उढ़ने लगी थी। भयानक शोर कान के पर्दे फाड़ रहा था, घबराकर दोनों ने एक दुसरे की ओर देखा, और अपने कान बंद कर लिये।
नीचे क्या हो रहा है ? यह देखने के लिये दोनों ने खिड़की से अपनी आँखे लगा दी । रामबाण में लगे पेट्रोल में भयानक रूप से लपटें निकल रही थी, लगता था कि हवाई मोटर जल जायेगी। डर से उनका हृदय धड़क उठा।
वे खिड़की के पास से हट गये । उनका यान आसमान की ओर बढ़ता जा रहा था।
अब दोनो बड़े परेशान थे, खेल खेल में यह क्या कर बैठे ?
कभी उन्हें उबकाई आती और कभी पेट में एठन होने लगती, सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी थी। सारे शरीर में सुईयों की चुभन सी लग रही थी।
अजय की निगाह पास पड़ी यात्रियों की पोशाक पर गई तो उसने अभय को संकेत किया। दोनो ने फटाफट वे पोशाकें उठाई और पहनने लगे।
एकाएक उन्हें लगा कि जैसे हवाई माटर के चारो ओर आग लग गई हो। चिंगारियों की बरसात सी हो रही थी। हालांकि हवाई मोटर के भीतर उसका कुछ असर नही हो पा रहा था, फिर भी घबराकर के वे एक दूसरे के पास खिसक आये।
एक जोर का झटका लगा
एसा महसुस हुआ कि उन्हंेी हवाई मोटर को किसी ने जमकर पाव से किक मार दी । हवाई मोटर लुड़कती पुड़कती उछलने लगी, उन्होंने अपनी सीट पकड़ ली।
काफी देर बाद मोटर स्थिर हुई तो उन्हंने बाहर झांका बाहर एक नया संसार उग आया था और उसमें कही दूर-दूर तक रंग बिरंगी गेंदे सी घूमती हुई नजर आ रही थी। पहले महसुस होने वाली परेशानियां भी अब नही हो रही थी।
यहा आकर उन्हें एसा लगा कि जैसे उनका बजन एकदम घट गया है। हवाई मोटर में एसी हवा सी भर गयी है कि जरा सी ठोकर लगते ही वे उसमें तैरने लगेंगे। मोटर में लगे कुछ हथौड़े और पाने-पेंचकस सचमुच छत से जा टकराये थे। वे अजीब हालत में थे, रोंये या हंसे, यह नही समझ पा रहे थे।
धीरे-धीरे उनका भय समाप्त होने लगा।
अंतरिक्ष यात्रियों की पोशाक में लगी दुरबीनें उनने आँखो से लगा ली और खिड़की से चारो ओर का नजारा देखने लगे।
दुर उनके सामने एक रंग-बिरंगी बड़ी सी गेंद तैर रही थी, अभय उसे बड़े गोर से देख रहा था, उसने अभय को भी देखने को कहा। दोनो ने देखा उस गेंद पर कई छोटी बड़ी मक्खियाँ सी भिन्ना रही थी।
“भैया अजय, ये हमारी पृथ्वी है” अभय बोल उठा।
“लेकिन इसका रंग ? अभय को शंका थी।
“रंग तो दूर से देखने पर हरेक का बदल जाता है और फिर हमारी पृथ्वी पर फैली हरियाली, फूल और रंग-बिरंगी प्राकृतिक चीजे भी तो इन सब बातों पर असर डालती हैं। अभय ने समझाया।
“इसका मतलब है कि ये मक्खियाँ हमारी पृथ्वी वासियों द्वारा छोड़े गये उपग्रह हैं।
“हाँ तुमने ठीक सोचा”
अभय दुसरी ओर देखने लगा था और चौक उठा था। पृथ्वी के आकार का एक ओर सूर्खलाल ग्रह दुसरी ओर दिखने लगा था जिसके चारों ओर भी अनेक उपग्रह उड़ते दिखाई देते थे। उन्हंने इधर उधर भी देखा।
चारों ओर देखते उनकी हिम्मत पस्त हो गई तो वे अपनी सीट से सिर टिकाका बैठ गये। आँखे मुंदे अभय बोला” अजय एसा न हो कि हमारी हवाई मोटर उस लाल ग्रह की ओर ही सरकने लगे।”
“तो क्या होगा”
“होगा क्या ? अरे हम किसी नये चक्कर में न फस जायें।”
“घर्र-घर्र-घर्र हवाई मोटर में लगे टेलीविजन से आवाज आने लगी थी, एक दुसरे की ओर देख कर अजय ने पासमें लगें टेलीफोन को अपने कानों ओर मुँह पर चढ़ा लिया। वह प्रसन्न हो उठा।