योग के पथ पर Neelam Kulshreshtha द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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योग के पथ पर

योग दिवस, २१ जून पर विशेष कहानी

योग के पथ पर

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

"ओ---म, ---ओ---म, ----ओ---म, "आत्मा की अतल गहराइयों का उच्चारण हृदय से निकल कर गले से सरककर होठों से फूटता. बंद दोनों आँखों से एक आवाहन-आत्मा से निकलती एक पुकार ---आत्मा का परमात्मा के विलय का या 'वेलकम फ़ॉर गॉड 'यानि अपने अंदर भगवान का, वो भी उस भगवान का जिसका अता पता नहीं मालूम, जो एक भावना है., आवाहन ---क्या है ? ठीक ठीक बताना तो मुश्किल है लेकिन कहीं आत्मा में या कहिये मस्तिष्क में एक संतुष्टि की भावना फैलकर सारे शरीर की तानवग्रस्त शिराओं को सुकून पहुंचा देती है ---यही है कुछ पल का परमानंद---जो उसे ओम के उच्चारण के साथ आरम्भ किये हर दिन योग करते हुए टुकड़े टुकड़े मिलता रहा है ? ये भी तय है यदि कोई प्राणायाम रोज़ करे तो उसका दिमाग नहीं थकता चाहे शरीर थक जाता हो।

२१ जून २०१५ को सुबह सारा देश ओ---म, ---ओ---म, ---ओ--- म, ---से गुंजायमान है। चाहे अहमदाबाद में गुजरात यूनीवर्सिटी के मैदान में ७५, ०००० लोगो की भीड़ हो या १८, ८००फ़ीट सियाचिन के बर्फीली पहाड़ हो या न्यूयॉर्क का टाइम स्कायर हो या ब्रिटेन की टेम्स नदी का तट हो या ऑस्ट्रेलिया का ओपेरा हाउस हो---सारा आकाश गुंजायमान हो रहा था ओ---म, ---ओ---म, ---ओ---म ---सोचकर भी रोमांच होता है अनुमानत; दो करोड़ लोगो की प्रतिध्वनि---एक स्वर में नाद!और अपने घर में वह वज्रासन में हाथ जोड़े व आँख बंद किए बैठकर पतंजलि ऋषि को नमन कर रही है;

"योगेन चितस्य पदेन वाचा, मल शरीरस्य च वैद्धकेन.

योपाकरोतम प्रवरम मुनीना पतंजलि प्राज्जलिरान तोस्मि."

सैकड़ों वर्ष पूर्व जन्मे पतंजलि ऋषि कैसे होंगे ?अतिमानव ? भारतीयों का मन किसी अतिमानव को पौराणिक अवतार माने बिना नहीं रहता. तभी तो उन्हें विष्णु भगवान की शैया वाले शेषनाग का अवतार माना जाता है. मनुष्य की जिस एनाटॉमी को पढ़ने मेडिकल कॉलेजेज़ खोले गए हैं, उन्हें कैसे बिना वैज्ञानिक पढ़ाई के, एक्स रे या अल्ट्रासोनोग्राफी मशीन के शरीर की बनावट ज्ञात हो गई थी और उन्होंने शरीर को स्वस्थ रखने व रोगों के निवारण के लिये योग के आसान सुनिश्चित किए होंगे जिन्हें बाबा रामदेव सैकड़ों वर्ष बाद टीवी पर भी सिखा दें, तो अधिकतर लोग अपने रोग ठीक कर लें. उसे कभी बाबा रामदेव के योग करते विशाल मैदान में दरी पर सैकड़ों शिष्य याद आ रहे हैं या फिर कभी अपनी मौसी याद आती है.---कभी कानो को झनझनाता है दूर---पूना शहर की एक बहुमंज़ली इमारतों के जाल में एक इमारत के उस साधारण फ्लेट के बेहद साधारण रख रखाव के बीच फ़र्श पर दरी पर बैठे देश के एक टॉप एकेमेडिक युगल का गूंजता हुआ स्वर वही, "- "ओ---म, ---ओ---म, ---ओ---म --- ".

विदेश की भटकती हुई आत्मायें जिस शांति की तलाश भारत में आकर करती हैं क्या सच ही यहाँ शान्ति है ? लेकिन योग तो है शरीर को स्वस्थ करता, मन के घावों को मरहम जैसी शांति प्रदान करता या गीता के सार जैसा ' डिटैचमेंट फ्रॉम आल सॉरो एंड ग्रीफ़ ऑफ़ लाइफ '---- परम ब्रह्म में लीन आत्मा [ या इस बात का भ्रम ]---सारे दुखों से दूर---शान्ति---परम शांति।किसी भी ड्रग्स या शराब या गलीज सेक्स के नशे से पवित्र---अपने, नितांत अपने पास बैठ पाने की कोशिश --- जैसे किसी को अपनी लत अपने पास बुलाती है उसी तरह शरीर की आदत बन गया योग भी शरीर में करवट लेता पुकारता है, शरीर में ऐंठन करवटें लेती है कि अब योग करोगे तभी चैन पाओगे---यदि शरीर व मन स्वस्थ रहा तभी दुनियाँ की मुश्किल से मुश्किल मुसीबत से टकरा पाओगे---यही तो फर्क है गंदे नशे में डूबकर अपने को भूलने व योग में।निम्नतम नशा मनुष्य को पशुवत बनाता जाता है, उसे' बुरे'की तरफ़ धकेलता जाता है, उसका विवेक छीनता जाता है.उससे जुड़े लोगों का जीवन भी नरक बनता जाता है.

वह २१ जून, योग दिवस को को फ़ेसबुक पर गायत्री मौसी का फोटो डाउन लोड करती है व ममेरी बैन को सम्बोधित करते लिखती है---"याद है संचु !४०-४५ वर्ष पहले कैसे सारा खानदान मौसी का मज़ाक उड़ाता था क्योंकि वे सबको पकड़ पकड़ कर योग सिखाती रहतीं थीं. अपने बड़े मामा जी की शादी के सारे बाराती बस में बैठ गए थे लेकिन हमारी प्रोफ़ेसर गायत्री मौसी नहीं नज़र आ रहीं थीं.तभी बस की छत पर मिठाई के टोकरे चढ़वा कर आ रहे बड़े मौसाजी ने बताया था कि अरे गायत्री तो हॉल में नवीन भइया व रमेश फूफाजी को योग सिखा रही है।छोटे मामा दुल्हिन के सामान का बॉक्स बस की सीट के नीचे खिसकाते व बड़ी मौसी को उसकी देख रेख करने का इशारा करते उन्हें बुलाने भागे थे।

तब ये किस्सा ख़ानदानी किस्सा बन गया था लोग मौसी का मज़ाक उड़ाते, "लो देखो। राजे की बरात जा रही थी और गायत्री लोगों को योग सिखा रही थी। तब मुझे कहाँ अक्ल थी की समझे कि पहली बार रोशनी दिखाने वाला व्यक्ति हमेशा मज़ाक का पात्र बनता है. गायत्री मौसी ने उसे भी २४ वर्ष की उम्र में योग सिखाने की भरपूर कोशिश की थी.

फ़ेसबुक पर ही संचु उत्तर मिला था, "हाँ दीदी ! मै व भइया छोटे थे तो वो हमे भी ब्रेकफ़ास्ट के बाद योग करने के लिए' होल्ड 'कर लेती थीं."

उसका उत्तर था, "और देखो आज मोदी जी अपने भारत के योग से सारी दुनियाँ को होल्ड कर रहे हैं."

संचु की लाइनें थी, "मतलब हमारे यहाँ रोशनी ज़माने से बहुत पहले फैल चुकी थी."

उसकी लाइनें थी, "क्योकि हमारे परिवार की ये बेटियाँ स्वतंत्र भारत की पहली पढ़ी लिखीं लड़कियाँ थी.तुम्हें तो पता ही है कि डॉक्टर मौसी के कारण फ़ैमिली प्लानिंग भी हमारे यहाँ साठ - पेंसठ वर्ष पहले आ गया था."

शिक्षा ही अगर हर प्रगति का उत्तर है तो क्यों बीच बीच में उसके मन में गूँजता पूना के फ़्लेट में ध्यानमग्न बैठी सुनयना व उसके पति का स्वर उसके ज़ेहन में घुमड़ता उसे बेचैन किए रहता है.कैसी बेचैनी है वह जाने कि प्रोफ़ेसर सुनयना के साथ क्या हादसा हुआ था ? सिर्फ़ प्रोफ़ेसर ? वह भी कहाँ की ----भारतीय प्रबंधन संस्थान की --किस शहर की ? ये तो मानना पड़ेगा कि जो बेहद ज़हीन दिमाग व नसीब लेकर पैदा होते हैं ---देश की क्रीम होते हैं, वही इन संस्थानों में पढ़ पाते हैं. आजकल इन संस्थानों की फीस साठ सत्तर लाख प्रतिवर्ष के आस पास है, तब बीस तीस लाख प्रतिवर्ष के आस पास तो रही होगी, जब सुनयना ने एम बी ए किया होगा.चलिये मान लेते हैं कि उसने एम बी ए आई आई एम ए यानि कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट, अहमदाबाद से किया होगा. तब वह नई ही थी इस संस्थान में. एक दिन उसे यूनिवर्सिटी रोड के एक बुटिक पर अपनी सहेली राखी के साथ जाना था.उसने आई आई एम के गेट से बाहर निकल कर ऑटो पकड़ा, उसके साथ आई राखी ने कहा, "भइया ! सड़क पार करके सामने वाले रास्ते से ले चलिए."

उसने राखी से पूछा, "तू सही रास्ता बता रही है?"

"हाँ, मै पहले भी इधर से जा चुकी हूँ."

सड़क के पार वाले रास्ते पर जाते ही सड़क के दोनों ओर दूर दूर तक बड़े बड़े पेड़ों की डालियों को झूमते देखकर उसे लगा कि किसी खूबसूरत हरे भरे जंगल में निकल आई है.अहमदाबाद जैसे गर्म शहर की हवा भी नम हो उठी है.थोड़ा आगे जाते ही 'बांयी तरफ़ 'इसरो' [स्पेस रिसर्च संस्थान] की भौतिक प्रयोगशाला का बोर्ड व इमारत नजर आई, आगे चली तो दांयी हाथ की तरफ़ 'अटीरा "[अहमदाबाद टेक्सटाइल रिसर्च एसोसिएशन ] का बोर्ड नज़र आया.वह् थ्रिल्द हो उठी, "जिनके बारे में मै सुनती रही हूँ, ये बिल्डिंग्स देखकर मज़ा आ गया "

राखी मुस्कराई थी, "अभी और आगे देखना."

थोड़ा आगे बांयी तरफ़ था 'गर्ल्स पॉलीटेक्निक '----रास्ता वही झूमते पेड़ों की सरसराती ठंडी हवाओं वाला.आगे फिर दिखाई दिया दान्यी तरफ़ 'गुजरात यूनिवर्सिटी 'का बोर्ड सड़क के दूर तक दिखाई देते मोड़ तक जिसका अहाता फैला हुआ था ----उसे लगा वह कितनी भाग्यशाली है कि एक प्रबुद्ध संस्थान से निकल एक अलोकमय ज्ञान के पथ पर बड़ी जा रही है या कहना होगा ज्ञान के समुद्र में तैर रही है.हर तरह उम्दा दिमागों का ज्ञान बिखरा हुआ है.वह कितना समेट पायेगी?

सुनयना की बात सोचते सोचते उसे याद आया --- अरे हाँ, मल्लिका साराभाई ने भी तो अहमदाबाद के इस संस्थान में एम बी ए करने के दौरान हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर के कहने पर भ्रष्टाचार के कारणों पर शोध किया था. परिणाम ये पाया कि जो बच्चे अपने माँ, बाप या शिक्षक में किसी को ईमानदारी करते देखते हैं वही भ्रष्टाचार नहीं फैलाते.और ईमानदार बच्चे होते कितने हैं ?बस दस प्रतिशत.तो वो यानि कि सुहासनी को तंग करने वाल वो प्रोफ़ेसर, [चलिए सुहासनी की तरह उसका नाम बदल लेते है – प्रोफ़ेसर पी.के.]उन नब्बे प्रतिशत में से एक रहा होगा.जी हाँ, आप इन संस्थानों में लाखों रुपये ख़र्च करिये, अपना सारा समय पढ़ाई में झोंक दीजिये, ये कोई गारंटी नई देते कि आप सौ प्रतिशत अच्छा व ईमानदार जीवन जीयेंगे.

वह इधर उधर की बाते इसलिए सोच रही है उसके पास सुहासनी से जुड़ी बहुत अजीब सी कहानी का फ़्रेम भर है जिसे उसने अख़बार में ये समाचार पढ़ा था व हतप्रभ हो गई थी --ऎसा कैसे हो सकता है, प्रसिद्ध पुस्तक जैसा-'मोंक हूँ सोल्ड हिज़ फ़रारी '. उसकी नज़र अखबार में सुहासिनी की फ़ोटो पर गई थी। सुहासनी अख़बार में प्रकाशित फ़ोटो में ब्याय कट बालों वाली, लम्बी कटीली आँखों व तीखे नैन नक्श वाली एक स्मार्ट युवती लग रही थी.आजकल जादुई करिश्मा है फ़ेसबुक, उसने उसने इनके बारे में और जानने के लिए 'सर्च 'में 'सुहासिनी, पूना 'लिखा सुहासिनी की तसवीर उभर आई.मैसेज बॉक्स में लिखा -' मै आप पर कहानी लिखना चाह्ती हूँ- विश्वास करें नाम बदल दूँगी, कुछ विस्तार से बताये."उत्तर नदारद ही रहा था.

तो उसके पास कहानी के लिये उस अख़बार की कटिंग भर रक्खी है.अब क्योंकि पाठकों ! आपकी उत्सुकता अपने चरम पर पहुँच हो गई होगी, वह बात सुनने के लिये जब वह बात किसी आई.एस. या आई.पी. एस. या आई.आई.एम. के एम.बी ए.से जुड़ी हो ----- कल्पना कीजिये एक मध्यम शहर की लड़की दिन रात किताबों में डूबी दुनियाँ से बेखबर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारिया कर रही है कि उसे यहाँ दाखिला मिल जाए.उसका दाख़िला तो हो गया है.पिता ने पढ़ाई के लिये लोन की भी व्यवस्था कर ली है लेकिन पढ़ते पढ़ते उसकी कमर में दर्द होने लगा है, हल्की स्पोंडोलायसिस की शिकायत शुरू हो गई है, इधर नये पाठ्यक्रम का बोझ, उधर रोज़ फिज़ियोंथेरेपिस्ट के पास जाने की ज़हमत.फिर भी वह् रोज़ लुईस कॉन, अमेरिकन आर्किटेक्ट की साठ एकड़ ज़मीन पर बनाईं आभाहीन लाल रंग के पत्थरो की इस अद्भुत स्थापत्य की इमारत [अरे! आपने तो इसे 'टू स्टेट्स 'फ़िल्म में देखा ही होगा ], जिसके लोहे के गेट पर दो वॉचमेंन खड़े रहते हैं, सब का पहचान पत्र देखकर उसे अन्दर जाने की अनुमति देते है, के अन्दर जाकर वह गर्व से भर जाती है, बहुत कठिन डगर से गुज़रकर यहाँ पढ़ने का अधिकार प्राप्त कर पाईं है.

हरे पेड़ों के बीच खड़ी इस हल्के लाल रंग की इमारत तक जाने के लिये लॉन की घास के बीच में से रास्ता है.इसके अर्द्धचन्द्राकार बने दरवाजे व आयताकार झरोखों वाले बरामदो में घूमो तो लगता है किसी छोटे मोटे किले में घूम रहे हैं. दायी तरफ़ ' यू शेप' की तिमज़ली इमारत के बीच में बड़ा लोन है.जहाँ अकसर दुनियाँ के मशहूर पॉप ग्रुप्स का म्यूजिक कंसर्ट होता रह्ता है.वह् भी छात्रों के साथ आगे खड़ी दोनों हाथ उठाये झूमती रहती थी, दोनों हाथ होठों के पास पर रखकर चिल्लाती रह्ती थी, "ऊ---ऊ---."

ना उसे पता था कि ये मस्ती, ये शोखियाँ निराकार योग के ' ओम 'में बदलने वाली है.ना उसे ये पता था कि वह इसी संस्थान में प्रोफ़ेसर बनाने वाली है.बस वह् आश्चर्य ये करती कि क्यो स्त्री पुरुष समानता की बात चलती रहती है क्योंकि वह तो यहाँ से जाते ही पास की सोसायटी में लिये हुए किराये के कमरे में पहले बिस्तर पर गिर जाती थी. बाद में जब दोनों रूम मेट आती तब चाय बनाकर पी जाती थी लेकिन उसने सुन रक्खा था होस्टल के लड़के रात मे पढ़ने के बाद डिनर के बाद आई.आई.एम.इंस्टीट्यूट के मैदान में रात के दो बजे तक बौलीबौल खेलते रहते हैं और सुबह की कक्षा में तरोताजा बने मुस्कराते आकर बैठ जाते हैं.

वह जब यहां पढ़ाने आई थी तब इस संस्थान की नई इमारत काफ़ी दूर बनाई गई थी.इन दोनों इमारतों को सड़क के नीचे जा रही टनल से भी जोड़ दिया था कि कही ट्रैफ़िक में फँसकर छात्रों का समय ना नष्ट हो. अलबत्ता समय तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ गया था.किसी शनिवार के म्यूज़िक कंसर्ट में वह और फ़ेकलटीज़ के साथ एक तरफ़ कुर्सी पर बैठी होती थी और जगह जगह लगी होती थी बड़ी बड़ी वीडियो स्क्रीनस.स्टूडेंट्स जिनमें अपने अक्स को देखते और भी ज़ोर ज़ोर से हाथ ऊँचे किए लहराते रहते थे.

एम बी ए करके सिर्फ़ उसने कुछ वर्ष तक कोर्पोरेट कंपनी में काम किया होगा, जहां उसकी मुलाकात शिशिर से हो गई व उसने विवाह कर लिया.उसके बाद ही तो उसका चयन बतौर प्रोफ़ेसर पचास वर्ष पुराने इसी आई. आई. एम. ए.में हो गया.इस इमारत व यहाँ की शिक्षा के स्तर का लोहा सारा विश्व मानता है.जिसका मूलभूत सिद्धांत है -'विध्या विनियोग विकास "अर्थात प्रबंधन से शिक्षा को उस चरम सीमा तक ले जाओ जहाँ तक मनुष्य का विकास हो सके.'

तभी कभी विशेषज्ञों के अलावा मुंबई के डिब्बा वालों व लालू यादव को भी निमंत्रित करके समझा जाता है कि प्रबंधन क्या होता है.शायद तभी इन संस्थानों से इधर के वर्षो में निकले छात्रों में से विदेशों की कम्पनियो का लाखों डॉलर्स का लालच ठुकरा कर कोई गाँवों में किसानों को खेती का प्रबंधन सिखा रहा है या रिक्शाचालकों को संगठित कर रहा है या कुछ और.

लेकिन नहीं ऎसे स्वच्छ स्थान पर, विद्ध्या के पवित्र मन्दिर में कुछ तो दुर्गध फैलाने वाले लोग होते ही हैं.दरअसल सुहासिनी को इस बात को टालते टालते एक वर्ष हो गया था. पहले प्रोफ़ेसर पी.के. अकसर बहाना लेकर ब्रेक में उसके अपने रूम में आ जाते थे.उसे भी जब तब उनसे गप्पे मारना अच्छा लगता था क्योंकि प्रतिदिन के तंग दिनचर्या में मनोरंजन की बात सोची नहीं जा सकती थी. कभी क्लास में जाने से पहले लाइब्रेरी में नोट्स बना रही हो तो वो भी पास बैठकर कोई पुस्तक खोलकर बैठ जाते थे. धीरे धीरे वह कभी कभी फुसफुसा कर कहने लगे, "यू आर लुकिंग वेरी यंग एंड ब्यूटीफुल."

वह धीरे से कह देती, "थैंक्स."

यहाँ तक तो बात ठीक थी लेकिन एक दिन जब वह् जींस पर सफेद झालर लगा काला रंग का टॉप पहनकर गई तो उन्होंने कमरे में अन्दर आते ही कहा, 'ओ---यू आर लुकिंग वेरी हॉट एंड सेक्सी."

"यू शट अप ----आई डोन्ट लाइक सच टायप ऑफ़ वल्गर लैंग्वेज."

प्रोफ़ेसर पी.के. का चेहरा क्रोध से तमतमा गया, उलटे पैरों वापिस हो गए थे.अब उन्होंने उसके कमरे में आना छोड़ दिया था लेकिन उसे गन्दे जोक्स या गन्दे एस एम एस भेजे जाने लगे, किसी और नंबर के मोबाइल से.जब किसी औरत पर इस तरह के आक्रमण होते हैं तो सिर्फ़ वही समझ सकती है कि ऎसा कौन कर रहा होगा ? और कितना मुश्किल होता है प्रमाण जुटाना.

वह शिशिर से ये सब कहने में हिचक रही थी.उसकी अपनी ही प्रोफ़ेशनल व्यस्त्तायें थीं.अकसर वह टूर पर रहता था.और फिर उस जैसे संस्थान में काम करने वाली लड़की किसी का सहारा क्यों ले ? और वह जिस गरिमापूर्ण पद पर थी तो किससे ये बात शेयर कर सकती थी ? वह अजीब पशोपेश में थी. स्वयम्‌ मार्केटिंग पढ़ाती प थी तो अपनी इस बात की मार्केटिंग कैसे कर सकती थी?

वह जिस भी तराष्ट्रीय स्तर के जर्नलस में लिखती उसके पेपर्स को पढ़कर लोग प्रभावित होते थे. इस संस्थान की प्रोफ़ेसर भी एक आम औरत के धरातल पर खड़ी थी, थोड़ा भयभीत, अपने अंगों को संबोधित करती गलीज़ भाषा से चिढ़ती हुई.जब कभी मोबाइल किसी एस एम एस आने का 'टुन' कर संकेत देता, उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगता कि पता नहीं क्या अश्लील पढ़ने को मिलेगा. जब मोबाइल पर देखती शिशिर ने या उसकी किसी कलीग ने संदेश भेजा है तो तब कही उसकी जान में जान आती थी.

वह हर समय कन्फयूज्ड रहती कि क्या करे, जब तब पी.के. को धमकी दे चुकी थी कि वह प्रशासन से शिकायत कर देगी.वह फुसफुसा देता, "प्रूफ़ कैसे करोगी कि मैं तुम्हें ये एस एम एस करता हूँ."

तब वह् कहाँ समझ पाती थी कि स्त्रियों के साथ घर व बाहर होने वाली नब्बे प्रतिशत ज़्यादतियो को प्रमाणित करना संभव नहीं हो पाता. उनके लिए लोगों ने कितना बड़ा दुशचक्र बना कर रक्खी है ये दुनियाँ.

ये कहानी आगे क्लाइमेक्स पर कैसे पहुँची?अनुमान ही लगाना होगा.एक अनुमान तो ये हैं कि सुहासनी के मोबाइल पर कोई वीडियो [किस तरह का होगा ये बताने की जरूरत नहीं है ]भेजा गया होगा.उसने पी.के. को लाइब्रेरी में बुलाया होगा क्योकि अपने कमरे में बुलाने का तो सवाल ही नहीं उठता था कि पता नहीं एकांत में किस बदतमीज़ी से पेश आए.

लाइब्रेरी के कोने में उसने ने क्रोधित होकर वीडियो की बात कही होगी.एक उन्मादी व अहंकारी पुरुष की तरह उसने फुसफुसा दिया होगा, "हाँ, ये पोर्न वीडियो मैंने ही भेजा है, तुम चाहो तो हम इस तरह एक्ट कर सकते है."

होना तो ये चाहिए था कि वह अंगारे बरसाती क्रोधित होती लेकिन उसने शांत स्वर में कहा होगा."आप मेरे सीनियर हैं इसलिए लिहाज करती रही लेकिन अब रुकूँगी नहीं, मै कमप्लेन करके रहूँगी. "

वह बेहया हंसी हंस दिया, 'सो वॉट ?प्रूफ़ कैसे करोगी ?तुम लेडीज़ की यही मुसीबत है कि अपनी यंग एज बेकार में ही जाया कर देती हो.देखती नहीं हो इंस्टीटयूट के आस पास की सोसायटी में कमरा लेकर यहाँ के लड़के लड़कियां लिव -इन में रहकर किस तरह भरपूर ज़िन्दगी जी रहे है."

' 'उन लड़कियों की अपनी मर्ज़ी है लेकिन आप अब ऐसी कोई गन्दी हरकत नहीं करेंगे.दिस इज़ माई लास्ट वार्निंग. "

वह ढीठ मुस्कान मुसकरा दिए, "मै करता भी रहा तो तुम प्रूफ़ कैसे करोगी ?"

वह सोच नहीं पाया था कि उसकी आवाज़ सुहासिनी के मोबाइल में रिकॉर्ड हो रही थी. दूसरा अनुमान ये है कि किसी और जूनियर प्रोफ़ेसर को किसी सेमिनार में मह्त्वपूर्ण काम दे दिया होगा या पी.के. के हाथ में ही होगी सी आर यानि कि कौंफिदेंशिअल रिपोर्ट जिसे उसने भरपूर दिल से खराब किया होगा. बहरहाल कोई भी अनुमान सच हो सुहासिनी ने मय प्रमाण केम्पस की जेंडर कमेटी से शिकायत कर दी होगी.प्रथम अनुमान में मोबाइल रिकॉर्डिंग सहित या दूसरी स्थिति में अपने कैरियर की कैफ़ियत देते हुए सारे दस्तावेज सहित. जेंडर कमेटी के प्रमुख ने उससे धीमी स्वर में उसका शिकायत पत्र लेते हुए कहा होगा, "मैडम !सोच लीजिये.मिस्टर पी.के 'स फ़ेमिली हेज़ वेरी नियर रिलेशन विद एजुकेशन मिनिस्टर."

"सो वॉट ?वो चाहे किसी को भी विक्टिम बना सकता है ?मै शिकायत नहीं करूँगी तो कल किसी और को शिकार बनाने की कोशिश करेगा. "

उसकी शिकायत से सारा कैम्पस सनसना गया होगा. ऎसे शानदार प्रतिष्ठान में ऐसी शिकायत ?वो भी एक सीनियर प्रोफ़ेसर के विरुद्ध ? शरीर को लेकर आजकल ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है और मैडम की ऐसी शिकायत ?शिकायत करने के बाद उसने शिशिर को सब बताया होगा.ये प्रेम विवाह था, शिशिर बेहद आहत हुआ होगा, "तुम अकेले इतना झेलती रही और तुमने मुझे बताने की तकलीफ भी नहीं की ?'

ज्वालामुखी की जलती तड़प से उसकी आवाज़ काँप होगी, "क्या कहती कि मेरे आई आई एम से एम बी ए करना कोई मायने नहीं रखता? यहाँ प्रोफ़ेसर होना कोई मायने नहीं रखता ? मै सिर्फ़ एक मादा हूँ, सिर्फ़ मादा.जिसे जब भी कोई मर्द चाहे इस्तमाल करने का प्रस्ताव रख सकता है? "

शिशिर ने अपनी बाहों में उसे कोमलता से घेर लिया होगा, "कंट्रोल योरसेल्फ़ !आई एम विद यू."

शिकायत करने के बाद वह व उसकी एक एक नस हर उस स्त्री की तरह सोते, जगते गुस्से से फड़कती रही होगी कि मै इंसाफ़ लेकर रहूंगी. शिकायत करने के बाद इंसाफ की प्रतीक्षा करते उबलते गुस्से की पीड़ा बही स्त्री समझ सकती है जिसने कभी अपने शोषण के प्रयास के खिलाफ किसी की शिकायत की हो. उनके लिए इतनी ऊँचाइयों पर पहुँच कर कितना गलीज लगता है अपने को एक शिकार समझा जाना, मात्र शिकार? और स्त्रियों की तरह बिचारी ये भी नहीं जानती थी कि इस सत्ता में किसी एक पुरुष की शिकायत करने का मतलब है, एक के बाद एक और पुरुषों का दुश्मन होते जाना.

जेंडर कमेटी के हैड उसके मार्केटिंग डिपार्टमेंट के हैड ही थे.जब भी वह किसी काम से उनके पास जाती, मुँह चढ़ाये उसकी बात सुनते व कोशिश करते जितना हो सके उसके काम को पूरा होने से टाला जाए.साथ में काम करने वाले भी उसके साथ नपी तुली बात करते नजर आते जैसे कह रहे हो -तुमने तो हमारी सत्ता को चुनौती दे डाली.कैम्पस से गुज़रती तो छात्र व छात्रा उसे घूरते हुए, कुछ फुसफुसाते या व्यंग से मुस्कराते.

चाहे उसने मोबाइल पर रिकॉर्ड की पी.के. की आवाज़ पेश की हो या दस्तावेज, सुहासिनी को पूरा विश्वास था कि विजय तो सत्य की ही होती है.ऊपर से शांत दिखाई देते, अन्दर से गुस्से से खौलते मन से जैसे वह एक एक दिन जी नहीं रही थी, एक एक दिन कटीले तारों पर चलती तड़प रही थी.प्रतीक्षा कर रही थी कि संस्थान प्रोफ़ेसर पी.के.के लिए क्या सज़ा चुनता है.तब तक वह् 'इंटरनेशनल कौंग्रेस ऑन पर्वेसिव कंप्यूटिंग एंड मैनेजमेंट'के एडवाइज़री बोर्ड में चुनी जा चुकी थी.विभाग के पुरुषों ने टेढ़ मुँह से ही उसे बधाई दी थी, अलबत्ता साथ की महिला सहकर्मियों ने इस ख़ुशी को होटल ' मेरिएट्स 'में सेलेब्रेट किया था.पार्टी में वह खुश होने का नाटक कर रही थी लेकिन उसकी आत्मा पूरी शिद्दत से पी.के के अपराधी प्रमाणित होने का विकट इंतज़ार कर रही थी.वह प्रतीक्षा कर रही थी ज़िन्दगी के सबसे बड़े लक्ष्य तक पहुँचने की.

अपने उस लक्ष्य पर पहुँचना इतना कठिन होगा ये वह सोच भी नहीं पाई थी.सन् 2009 की बात रही होगी. ज़ेंडर कमेटी की रिपोर्ट देने उसके हैड ने अपनी कार्यालय में बुलाया था। वह अपने धड़कते दिल से बहुत आस के साथ उनके ऑफ़िस की कुर्सी पर बैठी थी।

उन्होंने एक बंद लिफ़ाफ़ा उसकी तरफ़ नज़रें चुराते हुए बड़ा दिया था, " प्लीज़ ! टेक दिस रिपोर्ट."

"सर क्या रहा ?"कहते कहते उसका गला रुंध गया था। "

"आप खुद पढ़ लीजिये, मुझे एक अर्जेंट मीटिंग में जाना है। "वे जल्दी से हड़बड़ाते उठकर कमरे से बाहर चले गए थे।

उसने अपने केम्पस कमरे में जाकर बेसब्र हाथों से उस लिफ़ाफे को खोला था और उसे लगा था कि उसका शरीर ठंडा पड़ गया है। ज़ेंडर कमेटी ने तमाम सबूत होते हुए भी प्रोफ़ेसर पी.के. को साफ़ क्लीन चिट दे दी थी. क्या बीती होगी सुनयना पर ? आई आई एम की प्रोफ़ेसर पर?

रात भर शिशिर की बाँहों में रोती कैसे तड़पती रही होगी वह? वह जानलेवा दर्द शिशिर की आत्मा को कैसे किर्च दर किर्च काटता रहा होगा? उस खौलती, उस तड़पती तकलीफ़ कैसे शब्दों की राह चल सकती है ? इतने प्रबुद्ध लोगो के बीच झूठा पड़ जाने का दर्द वह कैसे झेल पाती इसलिए उसने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.उस पर क्या बीती होगी सोचकर भी रूह कांप जाती है.वह एक औसत स्त्री है लेकिन सुनयना देश की क्रीम थी, उन मुठ्ठी भर जहीन लोगो में से एक--तो उसके बे---इंतिहा दर्द का अनुमान लगाना भी मुश्किल है.उन दोनों ने अहमदाबाद छोड़ने का फ़ैसला कर लिया था.

शिशिर जो एक एम एन सी में एच आर हैड था कितना बेहिंतहा प्यार करता होगा अपनी प्रेयसी बनाम पत्‍‌नी से जो उसने भी नौकरी छोड़ने का फ़ैसला कर लिया.जी हां.इस कहानी के' ट्विस्ट एंड टर्न 'भी इसके पात्रों जैसे ही उच्चकोटि के हैं.सुनयना ने व शिशिर ने मुंबई आकर अपनी एक 'कंसल्टेशन फ़र्म 'आरंभ की.लेकिन सुनयना के सीने की बेचैनी उसे आग बनकर जला रही थी.उस आग में शिशिर भी जल रहा था, अपने बेपनाह प्यार के कारण जल रहा था.फ़र्म अच्छी चलनी ही थी लेकिन फिर भी जैसे इस दंपत्ति का सब कुछ उजड़ चुका था -'एक हादसे से ज़िन्दगी खत्म तो नहीं हो जाती '-जैसे जुमले उनके लिए बेअसर थे. ज़िन्दगी को पूरी शिद्दत से जीने की चाहत को जैसे नियति ने चट्टान से दफन कर दिया था. फिर पता नहीं कैसे क्या हुआ वो अपना फ़्लैट, कम्पनी बेचकर पूना में सन्यासियो की तरह रहने लगे.दस दस घंटे ध्यान करने लगे.उस फ़्लेट के बाहर आवाज़ आती रहती, " ओ ---म , ---ओ---म, ---ओ--- म , --- "

बरस तो गुज़रने ही थे गुज़रते रहे.

बरसों बाद अचानक सुनयना अहमदाबाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करके प्रगट हुईं. उसने प्रेस को बताया था, "मै अपना अतीत पूरी तरह भूलकर पूना चली गई हूँ.मेरे साथ जो इस शहर में हुआ उसके लिए मै किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराती.मैं उन बातों से ऊपर उठ गई हूँ क्योकि ये बंदरों की दुनियाँ है जहाँ हर कोई'रैट रेस 'में भाग रहा है.पूना में जब मेरा मन होता है ध्यान करती हूँ, कभी डांस करती हूँ.जब मन चाहा सोती हूँ, खाती हूँ.हम दोनों अपने इस निर्णय से अपने को भगवान के बहुत क़रीब पाते हैं."

कैसे हो गई थी दो उच्चकोटि के महत्वाकांक्षी भविष्य की निर्मम हत्या ? सुनयना के इस वक्तव्य को पढ़कर वह सोचती रह गई थी. वह हैरत में रह गई थी जिसने दुनियाँ से किनारा कर लिया था, उसने उसी शहर में वापिस लौटकर एक थ्री स्टार होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों आयोजित की ? ऐसा तो नहीं था द्रौपदी की खुली छ्टपटाती, लहराती अग्नि सी जलती ज़ुल्फ़ों ने दुर्योधन के रक्त से स्नान कर लिया था ?

हुआ ये था कि पी. के. के उस विचित्र समाचार ने उसे मौका दिया कि वह गर्व से अपने बारे में बता सके, उस अपमान का बदला ले सके.या हम दुनियाँ को छोड़ने के लिये बने ही नहीं होते ?किसी दुर्घटना वश इसे छोड़ भी जाए तो ये फिर फिर हमें पुकारती है.कितनी तरह का योग होता है -रेट रेस में भागते लोगों के शरीर को स्वस्थ करता हुआ, शरीर को रोगों से मुक्त करता हुआ, बेहद विशाद में डूबे हुए मन पर शांति का फाया रखता हुआ लेकिन निर्वाण की तरफ़ ले जाता योग कैसा होता है ?

उसे ये कोई बताने वाला नहीं था कि इस दम्पत्ति के बच्चा क्यों नहीं हुआ ?अधिक जीनियस शिक्षित दम्पत्ति में बढ़ता ' इन्फ़र्टीलिटी रेट ' इसका कारण था या उनका व्यक्तिगत निर्णय ?शायद सुनयना समझ नहीं पाई थी अपने ख़ुद के बच्चे की नन्ही किलकारियाँ रेफ़री बनकर इस बंदरों की दुनियाँ में लोगो को 'रेट रेस 'में भागने के लिये उत्साहित करती है.हो सकता है अपने ख़ुद के बच्चे की ऐसी ही कोई किलकारी उसके यहाँ होती तो अपनी नन्ही गदबदी उंगली से सुनयना की उँगली पकड़ कर, अपनी नन्ही आँखें टिमटिमाकर, पोपले मुँह से, कोमल लाल होठों से लार टपकाती, मुस्कराती, किलकारी भरती, उसे संन्यास के रास्ते पर जाने से उसे रोक लेती, उसके ज़ख़्मों पर सुकून की मलहम रख देती. इससे कम से कम दो बेहद ज़हीन मस्तिष्क अपनी व्यक्तिगत कैरियर हत्या से तो बच जाते, देश के काम आते.लेकिन ऎसा हुआ कहाँ ? जब सुनयना अहमदाबाद आई थी तो ये स्वरचित कविता की लाइनें सुनयना ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में ये अनगढ़ दार्शनिक स्वरचित कविता सुनाई थी

"ना जानू अपने मन की मै, अब क्या कहाँ कब कौन बनूँ,

कुछ भी बना, या कुछ भी ना बना, बस बैठी रहूँ तेरे दर पे मैं."

ऐसी विरक्ति ? इस अनगढ़ कविता को अख़बार की उस कटिंग में पढ़कर अब तो उसे भी समझ में आ गया है कि इन संस्थानों में पढ़कर साहित्य रचने का मतलब ये थोड़े ही होता है कि हर कोई चेतन भगत बन जाए या सारे विश्व को अपने घुंघरुओं से छनकाती मल्लिका साराभाई बन जाए.

और हाँ, एक संन्यास लिया हुआ व्यक्ति यदि प्रेस से अपना दुःख दर्द बाँटे तो क्या उस दुःखभरी उस अथाह चोट का अनुभव नहीं होता जो सुनयना पर पड़ी होगी ?वह अखबार की कटिंग बरसों उसकी डायरी में पड़ी रही.वह हिम्मत नहीं जुटा पाई कि किस तरह उस देश के उच्चकोटि के ज़हीन दिमाग की गुंजलको से भरी जटिल कहानी लिखे, कैसे अनुमान लगाए उस चोट का लेकिन योग दिवस पर ओम की विश्व भर में गूँज ने शायद उसकी कलम को रास्ता दिखाया है, पूना के उस फ़्लेट से निकलती सुनयना और उनके पति की 'ओम 'की गूँज विश्व भर की 'ओम' की गूँज में घुल मिल गई है.

वह फिर तीन चार वर्षो बाद फिर फ़ेस बुक पर सुनयना को ढूंढ़ रही है--- उन्होंने फ़ेसबुक अकाउंट बंद कर दिया है. क्या था इस कहानी का खलनायक प्रोफ़ेसर पी. के. का वह विचित्र समाचार जिसे सुनकर अचानक सुनयना अहमदाबाद में प्रेस कॉन्फ़्रेंस करने आई थी?

इस अनसुलझी कहानी को आगे बढ़ा गई थी अचनाक उसे ट्रेन में मिली आई आई एम की एक प्रोफ़ेसर.वह अब जो बात आपको बतायेगी तो आप समझेगे कि वह आपको महाभारत की पांडवों के अंत की, उनके विजय की व्यथा कथा सुना रही है, जो अपनों के मृत होने पर जीतकर भी नहीं जीते थे।--- सुनयना की प्रेस कॉन्फ़्रेंस से एक महीने पहले प्रोफ़ेसर पी.के.उत्तराखंड की पौने तीन हज़ार फीट की उंचाई पर बसे देवप्रयाग, जहाँ दो नदियाँ अलकनंदा व भगीरथी की मचलती धारायें बहती है, कहते हैं इनमें सरस्वती नदी भी है, के बर्फ़ से ढके पहाड़ों की तरफ़ गये थे --फिर कभी कोई इस रहस्य को नहीं जान सका कि वे कहाँ आलोप हो गए --इस नदियों के संगम में या बर्फ से ढके पहाड़ों में ?

नीलम कुलश्रेष्ठ

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