देह की दहलीज पर - 14 Kavita Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

श्रेणी
शेयर करे

देह की दहलीज पर - 14

साझा उपन्यास

देह की दहलीज पर

संपादक कविता वर्मा

लेखिकाएँ

कविता वर्मा

वंदना वाजपेयी

रीता गुप्ता

वंदना गुप्ता

मानसी वर्मा

कथा कड़ी 14

अब तक आपने पढ़ा :- मुकुल की उपेक्षा से कामिनी समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है ? वहीं नीलम मीनोपॉज के लक्षणों से परेशान है। एक अरोरा अंकल आंटी हैं जो इस उम्र में भी एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं। मुकुल अपनी अक्षमता पर खुद चिंतित है वह समझ नहीं पा रहा है कि उसके साथ ऐसा क्या हो रहा है ? सुयोग अपनी पत्नी प्रिया से दूर रहता है एक शाम उसकी मुलाकात शालिनी से होती है जो सामने वाले फ्लैट में रहती है। कामिनी का मुकुल को लेकर शक गहरा होता जाता है और उनके बीच का झगड़ा कमरे की सीमा पार कर घर के अन्य सदस्यों को भी हैरान कर देता है। रात में मुकुल अकेले में अपनी अक्षमता को लेकर चिंतित होता है समाधान सामने होते हुए भी आसान नहीं है। अरोरा आंटी की कहानी सुन कामिनी सोच में डूब जाती है तभी उसकी मुलाकात सुयोग से होती है और वह वह उसके आकर्षण में बंध जाती है। अतृप्त कामिनी फंतासी में किसी को अनुभव करती है लेकिन अंत में हताश होती है। शालिनी अपने अधूरे सपनों से उदास हो जाती है।

अब आगे

वक़्त का मिजाज ही होता है बदलना, जो बदलते वक्त के साथ खुद को भी ढाल ले वह अमूमन खुश रहता है। कभी कभी हम सोचते कुछ हैं, चाहते कुछ और हैं, किन्तु हो कुछ और ही जाता है। कामिनी ने भी इतने प्यार और परिश्रम से अपने घर को सँवारा था, उसका घर हमेशा चहकता और महकता रहता था। उनके प्यार की महक और बच्चों की चहक घर के माहौल को हमेशा खुशनुमा बनाए रहती थी। अब यकायक ही एक सन्नाटा सा पसर गया था।

कामिनी और मुकुल के बीच अनचाहे ही एक दूरी आ गई थी। माँजी और बच्चों के सामने जरूर वे सहज रहने की कोशिश करते किन्तु अकेले में दोनों ही एक दूसरे से नज़रें चुराने लगे थे। अपने अपने खोल में सिमटे हुए वे अपने से ज्यादा दूसरे के बारे में सोचते। मुकुल एक अपराध भावना से खुद को घिरा हुआ पाता। मुकुल के दिमाग में एक बात उथल पुथल मचाती रहती कि क्या वाकई देह की दूरी, दिल की दूरी का कारण बन जाती है?

दूसरी तरफ कामिनी भी एक गिल्ट फील करने लगी थी। कुदरत ने उसकी झोली में कायनात की सारी नेमतें बख्शी थीं। सुंदर देहयष्टि और तेज़ दिमाग की तारीफ तो स्कूल और कॉलेज में भी होती ही थी। हमेशा ही उसे 'ब्यूटी विथ ब्रेन' के टाइटल से नवाजा जाता रहा। मुकुल से मिलकर ज़िंदगी ने उसे अपने भाग्य पर इठलाने का एक मौका और दे दिया था। बड़े जतन से इतना प्यारा घरौंदा बनाया था दोनों ने मिलकर, देखने वाले भी उनकी किस्मत से रश्क करते। पद, पैसा, प्रतिष्ठा, परिवार और भरपूर प्यार करने वाला पति, सब कुछ तो इतना बढ़िया था और आज भी है सिवाय पति के प्यार के... वह सोच सोचकर बेचैन हो जाती किन्तु मुकुल की उपेक्षा की वजह नहीं ढूंढ पा रही थी। उस दिन के झगड़े के बाद मुकुल अधिकांश समय घर पर बिताता, किन्तु दोनों के रिश्तों की उष्णता एक शीतलता का आवरण ओढ़ चुकी थी और ताज्जुब इस बात का था कि यह शीतलता उसे ज्यादा जलाने लगी थी। उसे लगता कि बर्फ की सिल्ली के नीचे एक आँच दहक रही है, जो धीमे धीमे उसे सुलगा रही है। उसे डर था कि यह आग दावानल की भांति प्रचण्ड रूप धारण कर उसकी सुखी गृहस्थी को कहीं स्वाहा न कर दे। उसे कभी आश्चर्य, शर्मिंदगी, और ग्लानि का मिला जुला भाव बेचैन करता और कभी खुद की देह में उठता कामाग्नि का ज्वर... उसे समझ में नहीं आ रहा था कि यह चोट उसने मुकुल के पुरुषत्व को पहुंचाई थी या खुद की अस्मिता को? अपनी इस सौतिया डाह में अब वह खुद झुलस रही थी।

घर में व्याप्त इस खामोशी के शोर को माँजी के अनुभवी कानों ने भी सुन लिया था। आँखे तो देख ही रहीं थीं कि किस तरह से मुकुल, कामिनी और बच्चे एक यंत्रचालित सी ज़िंदगी जी रहे हैं। एक दूसरे को खुश रखने और परवाह जताने की कोशिश ही उनके मन की छिपी परतों में दबी चीखों को उजागर कर रही थी। वह भी उम्र के इस दौर से गुजर चुकी थीं। उन्हें यकीन हो चला था कि बढ़ती उम्र में बहू की कामेच्छा में जरूर कमी आयी है और इसीलिए बेटा उससे नाराज़ है। उनके अनुभव से इतर भी कुछ हो सकता है इसका अंदेशा उन्हें नहीं था। जो गलती वह कर चुकी थीं, वे नहीं चाहती थीं कि उनकी बहू करे। वे मौका ढूंढ रही थीं इस विषय पर कामिनी से खुलकर बात करने का और उन्हें जल्द ही अवसर मिल भी गया।

उस दिन कामिनी कॉलेज से जल्दी निकल कर घर चली आई थी। आजकल उसका मन कहीं नहीं लगता। घर में होती है तो सोचती है यहाँ से भाग जाये कॉलेज में होती है तो इच्छा होती कि घर के सन्नाटे में बिस्तर पर पड़ी रहे और फैंटसी में आये उस के साथ रहे जिसका कोई चेहरा अभी तक नहीं मिला था। उस दिन माँजी को जैसे मुँह माँगी मुराद मिल गई।

कामिनी के रूम में जाते ही, वे दो कप कॉफ़ी और कुछ सोया नट्स और मेरी बिस्किट्स लेकर उसके रूम में चली गईं। "आज जल्दी आ गई, तबियत तो ठीक है न?" उन्होंने टेबल पर ट्रे रखते हुए उनके बैडरूम का मुआयना किया कि शायद उनकी उदासी की इबारत कहीं लिखी मिल जाए।

"अरे मम्मीजी! आपने क्यों तकलीफ की? मैं ठीक हूँ, आज एक पीरियड फ्री था इसलिए जल्दी आ गई। मैं बना लेती चाय या कॉफी, रोज की तरह पीते।" माँजी समझ गईं कि रोज़ की तरह से कामिनी का मतलब लिविंग रूम में बैठने से है, किन्तु वह तो आज ठान चुकी थीं कि उसके निजी पलों में झाँककर उन दोनों के उधड़े सम्बन्धों को तुरपना ही है, यह बोझिल चुप्पी रिश्तों की खाई को और चौड़ा करे, उसके पहले ही इसे भरना होगा। वे बेड साइड के सोफे पर पसर कर बैठती हुई बोलीं कि.. "बेटी मैं देख रही हूँ कि कुछ दिनों से तू परेशान सी है और उधर मुकुल भी कुछ चुप सा रहता है। हालाँकि मुझे तुम दोनों के बीच में बोलना उचित नहीं लगता, शायद तुझे भी अच्छा नहीं लगे, किन्तु मैं तुम दोनों की माँ हूँ और इतना अधिकार है मेरा कि तुम्हारी परेशानी की वजह पूछ सकूँ।"

"ऐसी कोई खास बात नहीं है मम्मीजी, बस वर्क प्रेशर कुछ ज्यादा है, इसलिए शायद आपको ऐसा लगा हो।"

"हां बेटी मैं समझती हूँ, इस उम्र में मेनोपॉज के कारण हम औरतों में हॉर्मोनल चेंज आते हैं, ये मर्द लोग इस बात को नहीं समझते, इन्हें तो बस अपनी इच्छापूर्ति से मतलब रहता है, मैं उसी दिन समझ गई थी, जब तुम दोनों का झगड़ा हुआ था। घर में बड़े बड़े बच्चे हैं, तू चिन्ता मत कर, मैं उससे भी बात करूँगी, वह भी अपने बाप के पदचिन्हों पर चल रहा है।" माँजी ने बेड पर अलग अलग दोहर रखे देखे तो उनका शक यकीन में बदलने लगा।

"नहीं मम्मीजी, ऐसी कोई बात नहीं है, आप चिंता न करिए..." कहने के साथ ही एकबारगी कामिनी सोच की गहरी खाई में गिरने लगी। नीलम ने भी यही समस्या बताई। मतलब सभी पुरुष इस उम्र में अति कामुक हो जाते हैं शायद, फिर मुकुल क्यों धारा के विपरीत है। जरूर उसकी जिंदगी में कोई और है, वरना मेरी उपेक्षा की कोई और वजह हो ही नहीं सकती। सोचने के साथ ही उसकी आँखों में नमी उतरने लगी। माँजी ने देखा तो उसे गले लगाकर बोली कि "रो मत और दिल छोटा न कर...सब ठीक हो जाएगा।" माँजी के स्नेहिल स्पर्श की ऊष्मा से मन पर जमी बर्फ पिघलने लगी। वह उनके गले लग जोर से रो पड़ी... "मम्मीजी! आप गलत सोच रही हैं, वे तो अब मेरे पास आते ही नहीं, जरूर उनकी ज़िंदगी में कोई और है, वरना....." अब चौंकने की बारी माँजी की थी... "तो उस दिन तुम दोनों का झगड़ा.... क्या इसी बात पर हुआ था। देह का रिश्ता वह गोंद है जो दिलों को जोड़े रखता है। तुम कह रही हो कि मुकुल तुमसे दूर रहता है... ऐसा कैसे हो सकता है? मैं उससे पूछूँगी कि कामिनी जैसी सुंदर पत्नी के होते हुए वह..... क्या तुम्हें कोई जानकारी मिली है कहीं से या केवल शक की बिना पर तुमने ये इल्जाम लगाया है।"

"मुझे शक है मम्मीजी, हालांकि पहले कभी ऐसा लगा नहीं... पर आप ही बताइए न कि फिर क्यों वे मुझसे कटे कटे रहते हैं?" माँजी उसे समझाने के अंदाज़ में फिर बोलीं कि "तू चिंता मत कर....अधिक गोंद भी सूखने के बाद चिकनाई खोकर खुरदुरा हो जाता है, जो रिश्तों की मखमली चिकनाहट को भी धीरे धीरे सोखने लगता है। ऐसे में दिमाग का काम बढ़ जाता है, दिल और देह को कंट्रोल में रखने का।" कामिनी ने कुछ बोले बिना उनके सीने से लग अपने दर्द को आंसुओं के साथ बह जाने दिया। मम्मीजी उसकी तकलीफ को समझ रही हैं और उसे समझा भी रही हैं, यह बात उसके दिल को छू गई थी।

उस दिन डिनर के बाद अचानक ही माँजी ने मुकुल से कहा... "बेटा! मैं सोच रही हूँ कि बहुत दिनों से तुमने और कामिनी ने साथ में कोई छुट्टी नहीं मनाई है। तुम दोनों कुछ दिन ब्रेक लेकर कहीं घूम आओ..." मुकुल ने कामिनी की और इस यकीन के साथ देखा कि जरूर उसने माँजी से कुछ कहा होगा। कामिनी के चेहरे पर भी चौंकने वाले भाव देखकर उलझन भरे स्वर में बोला..."लेकिन मम्मी अभी कैसे जा सकते हैं, कामिनी को भी छुट्टी मिलना सम्भव नहीं होगा और फिर अभी बिज़नेस टूर पर जाना है मुझे..."

"मम्मीजी बच्चों की एग्जाम खत्म होने दो, फिर हम फैमिली ट्रिप प्लान करेंगे।" कामिनी ये कहकर टेबल पर से प्लेट्स और डोंगे समेटने लगी। बच्चे भी उठकर अपने रूम्स में चले गए।

हॉल में सिर्फ टीवी की आवाज़ गूँज रही थी। मुकुल और माँजी बहुत देर तक चुप बैठे रहे। शायद दोनों ही उलझी बातों का सिरा खोज रहे थे।

अचानक से माँजी ने पूछ लिया... "मुकुल बेटा मैं देख रही हूँ कि उस दिन की बहस के बाद से सिर्फ तुम ही नहीं, वरन हम सभी परेशान हैं। कामिनी भी बुझी बुझी सी है, तूने देखा बच्चे भी कितने चुप से हैं, मेरा भी मन नहीं लगता... आखिर वजह क्या है? क्या चल रहा है तुम दोनों के बीच..? इस खामोशी में घुटन सी होने लगी है?"

"कुछ भी तो नहीं हुआ है माँ... बस आजकल थकान जरा जल्दी हो जाती है, इसलिए कामिनी को समय नहीं दे पा रहा हूँ, वह उस दिन सब जाँचे करवाईं थी, दवाई भी चल रही है, शायद उसकी वजह से ड्राउज़ीनेस रहती है। तुम नाहक चिंता न करो।" माँजी को तो समझा दिया मुकुल ने... किन्तु खुद से फिर जूझने लगा। बेडरूम में आया तब तक कामिनी सो चुकी थी। उसके आकर्षक मासूम चेहरे को देखकर उस पर प्यार आ गया। मन हुआ कि उसे चूम ले, अपनी बाँहों में भरकर पहले की तरह प्यार करे... उसकी ओर करवट लिए एकटक निहारता रहा, निकट खिसका भी, उसके चेहरे के नज़दीक जाकर फिर रुक गया... "यदि इस पल कामिनी जाग गई तो? फिर मैं उसे कैसे समझाऊंगा? मैं उसे कैसे बताऊं कि मैं बेतहाशा प्यार करता हूँ उसे, मेरी पौरुषीय कमजोरी की बात उसे बताना उचित होगा? क्या सोचेगी वह मेरे बारे में? क्या मेरी वजह से उसे अपनी इच्छाओं का दमन नहीं करना पड़ रहा है? उसने मुझ पर इतना बड़ा अविश्वास किया, सिर्फ इस वजह से... क्या देह से परे प्यार का वजूद नहीं है? इतने सालों के साथ के बाद हमारा रिश्ता चटक क्यों रहा है? क्या दाम्पत्य की नींव इतनी कमजोर होती है कि दिल के रिश्ते देह की दहलीज पर आकर बिखर जाते हैं? सोच में गुम वह बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। उधर कामिनी भी जाग रही थी। उसने नोटिस भी किया कि मुकुल उसके नज़दीक आते आते रुक गया। वह इंतज़ार करती रही और कल्पना में ही साहचर्य सुख की कामना के वशीभूत हो देह में उठती हिलोरों को दबाने का असफल प्रयास करती रही। एक बार मन हुआ कि मुकुल को बता दे कि वह सोयी नहीं है, किन्तु बार बार की उपेक्षा से दंशित अपनी कल्पना को साकार नहीं हो पाने की निराशा से अवचेतन अवस्था में ही उस आनन्द को अनुभूत करने लगी। चरमोत्कर्ष की अवस्था में उसने खुद को उन्हीं बलिष्ठ भुजाओं की कैद में पाया, जो मुकुल की नहीं थीं... अनजाने ही एक सिसकारी के साथ वह मुकुल से लिपट गई और अचानक से मोहभंग की अवस्था में मुकुल को जागता देखकर एक अजीब दहशत भरे भाव से लरजते हुए नींद में होने का नाटक करती हुई दूर छिटक गई।

रात कितनी भी लम्बी हो, सुबह जरूर आती है। कामिनी और मुकुल के न चाहने पर भी इस रात की सुबह भी आ गई। दिन के उजाले में एक दूसरे की नज़रों से बचना आसान नहीं होता। पहले वह सामीप्य के लिए रात को रोके रखना चाहते थे और अब एक दूसरे से बचने के लिए... उस छः बाई छः के बेड पर दोनों अजनबी के समान थे।

कॉलेज में भी कामिनी का मन नहीं लगा। क्लास में उसका ध्यान बार बार भटक रहा था। तभी अचानक... "मेम! यह टॉपिक तो हो चुका है, आज तो डिफिकल्टी सॉल्विंग की क्लास है।" कामिनी ने देखा... सामने खड़े स्टूडेंट की तरफ... "ओके, देन आस्क योर डाउट्स... आयम नॉट फीलिंग वेल टुडे..." कामिनी सिर पकड़ कर चेयर पर बैठ गई...सामने खड़े स्टूडेंट में उसे जो अक्स दिखा, वह घबरा गई... 'उफ्फ ये क्या हो रहा है मुझे, हर जगह वही... मैं कहीं पागल तो नहीं हो रही।' जैसे तैसे क्लास खत्म कर वह नीलम के केबिन में पहुँच गई। माँजी से हुई बातें उससे शेयर कर कुछ हल्का महसूस किया खुद को। "और तू सुना क्या हाल हैं हमारे राकेश भाईसाहब के, आपको उन पर तरस आया कि वे ही अभी तक तरस रहे हैं?" कामिनी ने चुहल के अंदाज़ में पूछा।

"अज़ी तरस तो हमें खुद पर ही आ रहा है, काश कि इस तरसन को दूर करना हमारे बस में होता..? नीलम के जवाब को सुनकर कामिनी का मन हुआ कि वह खुद जिस सम्मोहन के चक्र में उलझी है, उसका जिक्र करे, परन्तु खुद को गलत समझे जाने के ख्याल से चुप रह गई। मन की गाँठे खुलनी शुरू हो चुकी थीं, जल्दबाज़ी करना उसे सही नहीं लगा। "आज फिर डॉक्टर ने राकेश और मुझे बुलाया है, देखते हैं, क्या निदान निकलता है?"

"हम्म सही है यार कम से कम तेरी प्रॉब्लम में राकेश तो तेरे साथ है, मैं और मुकुल तो दिन ब दिन दूर होते जा रहे हैं।" उसके मुँह से निकल ही गया।

"एक बात कहूँ, गलत मत समझना..?" कहते हुए नीलम ने कामिनी के चेहरे पर नज़रें गड़ा दीं। उसकी स्वीकृति पाते ही आगे बोलना शुरू किया... "मैं तेरी बात सुनने, समझने और तेरा साथ देने को हमेशा तैयार हूँ, फिर भी मेरा कहा मानकर एक बार मुकुल से सीधे बात करने की कोशिश कर... तुम दोनों के बीच की प्रॉब्लम तुम दोनों ही बेहतर तरीके से सुलझा सकते हो। माँजी और मैं चाहते हुए भी समस्या की जड़ तक नहीं पहुँच सकते। दाम्पत्य में सब कुछ पारदर्शी होते हुए भी तन-मन की कुछ परतें अपारदर्शी रह जाती हैं, जहाँ पर पति और पत्नी के अलावा कोई और चाह कर भी नहीं पहुँच सकता। मेरी बात समझ रही है न...?"

"तू शायद सही कह रही है.." कहते हुए कामिनी वहाँ से उठ गई।

वापसी में ड्राइव करते हुए उसके जेहन में नीलम की बात दस्तक दे रही थी। सही कहा उसने... 'मैं आजकल मेरी फैंटेसी में खोकर जिस अनुभूति को जी रही हूँ, वह मुकुल नहीं जानता, क्या पता उसके मन की कोई तह हो जो मेरी पहुँच से परे हो... हमारा रिश्ता इतना कमजोर कैसे हो गया?' गहन सोच में गुम घर पहुँचने के पहले ही वह एक निश्चय पर पहुँच चुकी थी।

क्रमशः

डॉ वन्दना गुप्ता

drvg1964@gmail.com

डॉ. वन्दना गुप्ता

निवास- उज्जैन (मध्यप्रदेश)

विधा- कविता, लेख, लघुकथा, कहानी, उपन्यास

प्रकाशन- काव्य संग्रह 'खुद की तलाश में', कथा संग्रह 'बर्फ में दबी आग',

मातृभारती पर एक उपन्यास 'कभी अलविदा न कहना'