साझा उपन्यास
देह की दहलीज पर
संपादक कविता वर्मा
लेखिकाएँ
कविता वर्मा
वंदना वाजपेयी
रीता गुप्ता
वंदना गुप्ता
मानसी वर्मा
कथाकड़ी 10
अब तक आपने पढ़ा :-मुकुल की उपेक्षा से कामिनी समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है ? उसने अपनी दोस्त नीलम से इसका जिक्र किया। कामिनी की परेशानी नीलम को सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर उसके साथ क्या हो रहा है। वहीँ अरोरा अंकल आंटी हैं जो इस उम्र में भी एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं। रविवार के दिन राकेश सुबह से मूड में था और नीलम उससे बचने की कोशिश में। एक सितार के दो तार अलग अलग सुर में कब तक बंध सकते हैं। मुकुल अपनी अक्षमता पर खुद चिंतित है वह समझ नहीं पा रहा है कि उसके साथ ऐसा क्या हो रहा है ? कामिनी की सोसाइटी में रहने वाला सुयोग अपनी पत्नी प्रिया से दूर रहता है। ऑफिस से घर आनेके बाद अकेलापन उसे भर देता है। उसी सोसाइटी में रहने वाली शालिनी अपने प्रेमी अभय की मौत के बाद अकेले रहती है। वह अपने आप को पार्टी म्यूजिक से बहलाती है लेकिन अकेलापन उसे भी खाता है। वह अकेले उससे जूझती है। फिर एक शाम आती है जो कामिनी को एक आस बंधाती है लेकिन वह भी टूट जाती है।
अब आगे
आज की शाम जितनी खुशनुमा थी, यह रात उसे उतनी ही मनहूस लग रही थी। अरोरा दम्पत्ति के परस्पर प्यार को देख उसे अपने जीवन की रिक्तता और भी गहराई से महसूस हो रही थी। उसने आकाश की ओर नज़र उठाई, बालकनी से झुककर देखा, आज का चँद्रमा बहुत ही खूबसूरत था। धवल और शीतल चाँदनी, मदमस्त सी बयार और यह रोमांटिक वातावरण सब मिलकर कामिनी के दग्ध हृदय को उदासी की ओर धकेल रहे थे। चँद्रमा जो प्रेम का प्रतीक है, जिसे देखकर इस उम्र में भी अरोरा दम्पत्ति प्रेमिल अहसास में सराबोर हैं, वही कामिनी को मुकुल के पास होते हुए भी उसकी दूरी का अहसास करा रहा था।
उसने बालकनी की खिड़की से एक नज़र सोते हुए मुकुल पर डाली। नाईट लैंप की उजास उसके चेहरे पर पसरी थी। एक सुकूँ उसके चेहरे पर देखकर कामिनी के तन-मन में फिर आग सी लग गई। उसे याद आया कि एक बार ऐसे ही किसी पार्टी से लौटने पर वह कितनी थकी हुई थी। सुबह कॉलेज भी जल्दी जाना था और बच्चों का स्कूल भी था। उसे बहुत नींद आ रही थी, किन्तु मुकुल ने सोने ही नहीं दिया था। सिर्फ एक ही रट थी, कि पार्टी में जो शोले भड़काए हैं, उन्हें बुझाए बिना कैसे सो जाओगी। उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया था। उन पलों में वे दोनों हमेशा ही एक दूसरे में खोकर खुद को पा लेते थे। फिर अब क्या हुआ...? उसका मन हुआ कि झिंझोड़ कर जगा दे मुकुल को...! आज बहुत देर तक हाई हील्स पहनकर डांस किया था, इस समय तन से ज्यादा मन बोझिल था... पता नहीं कब उठकर वह मुकुल के पास आकर लेट गई।
मुकुल के चेहरे को एकटक निहारते हुए उसे उसपर प्यार आने लगा। शाम की खुमारी फिर से छाने लगी। बदन में फिर एक झुरझुरी सी आई, उसका मन हुआ कि अपने तप्त अधरों की प्यास उसके अधरों को छूकर बुझा ले... वह उसके नज़दीक सरकने लगी कि यकायक पिछली रातों की उपेक्षा का दंश उभर आया। खुद के आवेग को नियंत्रित करते हुए उसने एक भरपूर नज़र डाली और करवट बदल ली। चादर की सिलवटें उसके मन पर भी पड़ने लगी थीं। हर सिलवट में एक चित्र बन रहा था। अतीत के मधुर पल कहाँ खो गए, वह समझ ही नहीं पा रही थी। सोच में गुम वह पीछे जा रही थी और रात आगे सरक रही थी। धीरे धीरे रात की स्याही गहरी होती गई और थकान से बोझिल उसकी पलकें मूंदती गईं।
यकायक मुकुल की गर्म साँसों को महसूस कर उसकी नींद खुल गई। मुकुल उसके एकदम पास आ गया, उसका हाथ उसकी कमर से फिसलते हुए उसकी नाइटी की डोर तक पहुँच गया। उसके दग्ध अधर कामिनी के अधरों के रसपान को व्याकुल हो उसकी ओर बढ़ने लगे... कामिनी की धड़कन तेज़ हो गई और अचानक उसे चेहरे पर तीव्र गर्मी महसूस हुई। जब ताप बर्दाश्त के बाहर हो गया, उसने अचकचाकर आँखें खोल दीं। इधर उधर देखा, मुकुल कहीं नहीं था। खिड़की से आती सूर्यकनियों की उजली धूप और उसके उष्ण तन मन की तपिश ही उसे झुलसा रही थी। ओह तो यह सपना था। आज इतनी देर तक सोती रही... बहुत देर से नींद आई थी शायद। लेकिन मुकुल ने भी नहीं जगाया... क्यों..? एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह उसके जेहन में अंकित हो गया था।
यंत्रचालित सी वह डेली रूटीन निबटाने में लग गई। चाय का कप लेकर बालकनी में आई तो मुकुल किसी से मोबाइल पर बात कर रहा था। चाय के घूँट के साथ कुछ और भी उसके अंदर उतरता रहा, वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे क्या हो रहा है। कांता बाई को आवश्यक निर्देश देकर वह बाथरूम में घुस गई। आज किसी से भी बात करने का मन नहीं था। सबके लिए नाश्ता बनाकर और अपना टिफिन पैक कर वह चेंज करने रूम में आई। मुकुल ने पीछे से आकर उसकी कमर में हाथ डालकर उसे एक टाइट हग दिया। वह बिफर पड़ी.. "क्या है मुकुल! मुझे लेट हो रहा है, तुमने जगाया भी नहीं और हर चीज का एक समय होता है, यह शायद तुम भूल रहे हो।" मुकुल के फक्क पड़े चेहरे को नज़रअंदाज़ कर वह रूम से निकली, पर्स और चाबी लेकर नाश्ता किए बिना ही घर से निकल पड़ी।
कार के पहिए से भी तेज गति से उसकी सोच का पहिया उसे ज़िंदगी में पीछे ले जा रहा था। कुछ वर्ष पहले बच्चों की प्रतियोगी परीक्षा के समय बिटिया तनावग्रस्त थी। उसे चाय, कॉफी या स्नैक्स देना हो, या कि सिर्फ उसके साथ बैठकर हौसला देना हो, उन दिनों कामिनी बेटी के साथ कई बार रात रात भर जागी थी। मुकुल नाराज़ हो जाता था कभी-कभी... "यार बच्चे पढ़ लेंगे, हमेशा ही पढ़ते हैं, तुम उनके पास बैठकर कौन सी घुट्टी पिला दोगी?" उसे पता था कि पढ़ना बच्चों को है किंतु प्रतियोगिता के इस युग में उनका मानसिक सम्बल बना रहना भी जरूरी है। उसने बड़े प्यार से मुकुल को समझाया था... "कुछ दिनों की बात है, सब्र और इंतज़ार का फल हमेशा मीठा होता है।" बच्चों को उज्ज्वल भविष्य की राह मिल जाने दो, फिर हम दोनों सेकंड हनीमून पर चलेंगे।" उसकी बात सुन मुकुल की आँखे रोशनी से चमक उठी थीं। "ह्म्म्म...सेकंड हनीमून का आईडिया अच्छा है, मुकर मत जाना बाद में..." वह तो नहीं मुकरी, किन्तु मुकुल ही बदल गया है और यह बदलाव कोई एक दिन में नहीं आया है।
कॉलेज पहुँचकर भी आज कामिनी अन्यमनस्क थी। वह अपने और मुकुल के रिश्ते में आई इस ठण्डक की वजह तलाशने की कोशिश कर रही थी। आज कामिनी को याद आ रहा है कि उस दौर में मुकुल घर से बाहर अधिक वक़्त बिताने लगे थे। शाम को घर आना भी लगभग छूट गया था। पूछने पर एक ही जवाब कि "तुम्हारे पास अब मेरे लिए वक़्त ही कहाँ हैं...?" आज उसके दिमाग में रह रह कर यह ख्याल आ रहा था कि घर से बाहर अधिक समय बिताने की मुकुल की कोई खास वजह तो नहीं....?
आज क्लास में भी मन इधर उधर भटकता रहा। जैसे तैसे खत्म कर वह नीलम के डिपार्टमेंट में चली गई। सोचा तो था कि उससे इधर उधर की बात कर मन बहल जाएगा। बातें हुईं भी इधर उधर की, किन्तु लौटते समय एक नया तनाव जन्म ले चुका था। वहाँ कुछ और साथी प्राध्यापिकाएँ मौजूद थीं और हॉट टॉपिक था, दीक्षित सर का, जिनका एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर लाइम लाइट में था। वह वहाँ होकर भी जैसे कहीं और थी। उस दिन स्कूटी पर दिखी महिला उसकी नज़रों के आगे घूम रही थी। एक नए शक ने जन्म ले लिया था।
घर पहुँचने तक उसका खराब मूड और भी ज्यादा खराब हो गया था। उसने अपनी चाबी से लॉक खोला और सीधे रूम में जाकर कटे पेड़ की तरह बेड पर गिर पड़ी। बच्चे इस समय कोचिंग पर थे और माँजी अपने रूम में टीवी देखती हुई उसके आने की प्रतीक्षा कर रही थीं। जब बहुत देर तक वह रोज की तरह चाय बनाकर माँजी के रूम में नहीं पहुँची, वे खुद ही उसके रूम में आ गईं। उनकी आहट सुन कामिनी खुद को सम्भालते हुए उठी... "थक गई हूँ, फ्रेश हो लूँ जरा.." कहती हुई बाथरूम में घुस गई। बेसिन में बहते पानी के साथ अपने तनाव को बहाने का निरर्थक प्रयास कर वह सूट पहनकर लिविंग रूम में आ गई। चाय पीकर माँजी को टी वी देखने में व्यस्त पाकर वह पुनः रूम में आ गई।
आज बेमन से डिनर लगाया, बच्चे और माँजी टीवी देख रहे थे। मुकुल भी फ्रेश होकर डाइनिंग टेबल पर बैठ चुका था। डिनर करते समय बच्चे और मुकुल अपना दिनभर का ब्यौरा बताते रहे। उसकी चुप्पी सबने नोटिस की। माँजी ने सबको ताकीद कर दी थी कि उसे तंग न किया जाए, उसकी तबियत ठीक नहीं है।
डिनर के बाद मुकुल को टीवी के आगे बैठा देखकर माँजी ने टोक दिया... "कामिनी कुछ अनमनी है, देखो उसे कुछ दवाई चाहिए हो तो..." कामिनी बेड पर अधलेटी सी थी। एक हाथ से आँखे ढक रखी थीं। मुकुल ने उसका माथा छूते हुए कहा... "बुखार तो नहीं है, क्या हो गया..?" वह उसका हाथ हटाते हुए झटके से उठ बैठी... "तुम्हें क्या मतलब है, मुझे कुछ भी होता रहे, आए भी हो तो माँजी के कहने से... तुम्हें अब मेरी परवाह क्यों होने लगी। मेरी जगह किसी और ने ले ली है... जाओ उसी के पास..."
मुकुल एकदम भौंचक्का सा उसे देखता रहा, फिर बोला... "ये क्या कह रही हो तुम, मेरी ज़िंदगी में तुम्हारे सिवाय कोई और..? यह सोच भी कैसे लिया तुमने?"
"बेहतर हो कि मुझसे पूछने के बजाय खुद से पूछो... मुझे अब समझ में आया कि क्यों तुमने शाम को घर आना बंद किया, क्यों तुम्हें मेरी जरूरत नहीं रही और क्यों....."
"अपना दिमागी फितूर कंट्रोल करो, फालतू नहीं घूमता हूँ बाहर, देश में आई आर्थिक मंदी का असर हमारे बिज़नेस पर भी होता है, शेयर्स देखने पड़ते हैं, सी ए के साथ मीटिंग होती है, तुम्हें क्या पता, तुम्हारे जैसे नहीं कि कुछ घण्टे गए और मोटी तनख्वाह आ गई जेब में... बिज़नेस में दस लफड़े होते हैं, किन्तु तुम्हें क्या मतलब मेरी परेशानी से... हुह..." उसकी बात काटकर मुकुल भी गुस्से से चिल्लाकर बोला।
"अच्छा मैं मुफ्त का वेतन नहीं लेती हूँ, कॉलेज की नौकरी आजकल कितनी मुश्किल हो गई है, उसपर घर की जिम्मेदारी से एक स्त्री मुक्त नहीं हो सकती। बिज़नेस पहले भी करते थे, तब मेरे लिए टाइम था, अब क्यों नहीं...? मुझे अवॉयड करने लगे हो, क्या मुझे समझ में नहीं आता...?"
इस आरोप से मुकुल एकदम परास्त सा महसूस करते हुए धीरे से उसे मनाने की कोशिश करता हुआ बोला... "तुम्हें क्यों अवॉयड करूँगा मैं..? ऐसा होता तो क्या कल पार्टी में तुम्हारे साथ एन्जॉय करता? आई लव यू एंड ओनली यू... कभी कभी ज्यादा वर्क के प्रेशर से थक जाता हूँ और अब हम उम्र के उस पड़ाव पर हैं, जहाँ एक दूसरे को समझने की जरूरत है, अब इस उम्र में कौन दूसरी मिलेगी मुझे? तुम्हीं मेरी इकलौती पत्नी और प्रेमिका हो, विश्वास करो और धीरे बोलो बाहर माँजी सुनेंगी तो....?"
मुकुल के स्पष्टीकरण से कामिनी और भड़क उठी..."दूसरी कौन मिलेगी या मिल चुकी है... मुझसे बेहतर तुम्हें पता है, तुम जो एक दिन, या कहूँ कि एक रात भी मेरे बिना नहीं रह पाते थे, अब क्या हो गया... इस चौखट के बाहर की नहीं, मैं अंदर की बात कर रही हूँ।"
मुकुल ने उसका हाथ पकड़कर फिर उसे मनाने की कोशिश की..."चुप हो जाओ अभी... तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है, हम बाद में बात करेंगे.."
"बाद में क्यों..? मुझे आज अभी और इसी वक्त जवाब चाहिए कि वह कौन है, जिसकी वजह से तुम मुझसे दूर रहने की कोशिश करते हो?" बोलते हुए कामिनी की आवाज़ गुस्से में तेज होती गई। मुकुल उसे धीरे बोलने की गुजारिश करते हुए अपनी सफाई देने की कोशिश करता रहा। इतने दिनों से जब्त भावनाएँ जब बाँध तोड़कर उमड़ी, तो उसमें अतृप्ति, आक्रोश, शक और अपनी उपेक्षा से उपजे तनाव के साथ उसके आँसू भी शामिल हो गए। उसे होश नहीं रहा कि कब उनका प्यार और आपसी समझ इन शब्दबाणों से घायल हो पीछे दुबक गए और गुस्से, क्षोभ और शर्म की आवाज़ें दरवाजों की सीमा से बाहर निकल गईं। कामिनी हतप्रभ थी, उसने खुद को इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया था... पति के किसी और के साथ होने की कल्पना मात्र से वह बेचैन थी। शक जब तक मन में हो, खुद को व्यथित करता है, जब जाहिर हो जाता है, तो खुद का यकीन बनकर दूसरे को व्यथित करता है। अभी तो उसके मन में कहीं एक दुबकी सी आशा की डोर थी कि शायद यह उसका वहम हो, किन्तु आज के बाद क्या यह सिर्फ वहम रह पाएगा। यदि वाकई कोई और होगी तो अब मुकुल क्या करेंगे। यह प्रश्न भी उसे मथ रहा था। दूसरी तरफ मुकुल कामिनी के आरोप से बिंधे अपने दिल के टुकड़ों को समेटने की कोशिश कर रहा था। यह एकदम अप्रत्याशित था। कामिनी और उसकी जोड़ी को देखकर सभी सराहने के साथ ईर्ष्या भी करते थे। अभी कल ही पार्टी में वे दोनों ही सबकी नजरों और बातों का केंद्र बिंदु थे। क्या किसी की नज़र लग गई? कामिनी बहुत अच्छी कुक है, उसके हाथ का सुस्वादु भोजन खाकर माँजी हमेशा कहती थी कि पति के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है और अंतरंग पलों में वह शरारतन जोड़ देता था कि पति के दिल का रास्ता पेट के नीचे से होकर भी जाता है। तो क्या पत्नी के दिल का रास्ता भी.....
तीर तरकश से निकल चुका था... कामिनी और मुकुल तो घायल हुए ही थे, एक शीशा दरक गया था... उनके विश्वास का, उनकी खुशी का और उसकी किरचें दूर तक छिटक कर तीन जोड़ी आँखों में उभरते प्रश्नों और चिंताओं को भी इस टूटन में शामिल कर चुकी थीं।
क्रमशः
डॉ वन्दना गुप्ता
drvg1964@gmail.com
निवास- उज्जैन (मध्यप्रदेश)
शिक्षा- एम. एससी., एम. फिल., पीएच. डी. (गणित) सम्प्रति- प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष
विधा- कविता, लेख, लघुकथा, कहानी, उपन्यास
प्रकाशन- काव्य संग्रह 'खुद की तलाश में', कथा संग्रह 'बर्फ में दबी आग', साझा लघुकथा संकलन 'समय की दस्तक'।
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, वेब पत्रिकाओं में कविता, लघुकथा, कहानी एवं लेख प्रकाशित।
ऑनलाइन पोर्टल मातृभारती पर अनेक कहानियाँ एवं एक उपन्यास 'कभी अलविदा न कहना' प्रकाशित।
पुरस्कार और सम्मान- अंतर्राष्ट्रीय काव्य प्रतियोगिता 2016 में प्रथम पुरस्कार, अखिल भारतीय साहित्य सारथी सम्मान 2018, मातृभाषा उन्नयन सम्मान 2019, अंतरा शब्दशक्ति सम्मान 2019, लघुकथा श्री सम्मान 2019, 'रत्नावली के रत्न' सम्मान - 8 मार्च 2020