विश्रान्ति - 8 Arvind Kumar Sahu द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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विश्रान्ति - 8

विश्रान्ति

(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)

अरविन्द कुमार ‘साहू’

विश्रान्ति (The horror night)

("ये लो बेटी"- बूढ़े ने ढेरों चमचमाते हुए चाँदी के सिक्के दुर्गा मौसी के आंचल में उड़ेल दिये)-7

- “जा बेटा ! दुर्गा मौसी को उसके घर तक वापस छोड़ दे। आधी रात बीत चुकी है।”

बूढ़े ने चटपट बिना किसी भूमिका के बेटे को आवाज लगाते हुए कहा।

जैसे दुर्गा मौसी को जल्दी से जल्दी वहाँ से विदा कर देना अथवा भगाना चाह रहा हो।

……और फिर दुर्गा मौसी की ओर वापस घूमकर बोला - “....... और यह लो दुर्गा ! मेरी ओर से एक छोटी सी भेंट है, मना मत करना। हम तुम्हारे सेवा भाव और गुणों की कीमत तो नहीं दे सकते, लेकिन इस समय हमारे पास तुम्हें देने के लिए बस यही उपहार है ।”

दुर्गा मौसी का किसी और आशंका की ओर घूमता मन फिर से निर्मल हो गया। उसने कुछ दिखावटी ना – नुकर करते हुए थोड़ा – बहुत मेहनताना मिलने की उम्मीद में प्रसन्नता पूर्वक अपना आँचल फैला दिया था ।

लेकिन यह क्या.....?

उसके फैले हुए आँचल में तो बूढ़े ने ढेर सारे खनखनाते हुए चाँदी के पुराने सिक्के उड़ेल दिए थे।

कम से कम पसेरी भर | ……यानी पाँच या दस किलो से कम वजन क्या रहा होगा ?

निश्चित ही वे सिक्के काफी संख्या में थे। वे कितनी कीमत के और कितनी गिनती में रहे होंगे ? यह तो उस समय निश्चित नहीं हो सका | पर इतना तो तय हो गया था कि दुर्गा मौसी ने इतनी दौलत अपनी जिंदगी में एक साथ कभी नहीं देखी रही होगी।

यह उनकी जिंदगी भर में कमाई गई पूरी रकम से भी ज्यादा लग रही थी। इसे देखते हुए उनकी आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयी थी।

जिस दुर्गा मौसी को अब तक उस रहस्यमय युवक और उसके बूढ़े बाप का चेहरा और यहाँ तक कि उनकी सद्य प्रसूता बहू तक का चेहरा भी साफ नहीं दिखाई पड़ा था। उसी दुर्गा मौसी को इन चाँदी के सिक्कों की चमक इस कोहरे भरे हल्के अँधेरे में भी एकदम साफ – साफ दिखाई देने लगी थी।

जैसे अभी – अभी ढले हुए और टकसाल से निकालकर लाये गये हों |

“अरे इतने धन की क्या जरुरत थी ?” - अन्दर से बेहद खुश हो चुकी दुर्गा मौसी बावली सी होकर बोली।

बूढ़े ने जवाब दिया – “रख लो, तुम्हारी मेहनत के सामने ये धन कुछ भी नहीं है। आज हमें जो खुशी मिली है, वह अनमोल है।”
दुर्गा मौसी ने बड़ी खुशी – खुशी और जल्दी से वह सारा धन आँचल में ही गठरी बनाकर बाँध लिया | फिर दोनों हाथ जोड़कर बूढ़े को नमस्कार करती हुई इन सिक्कों के बोझ को उठाये हुए एक झटके के साथ बैलगाड़ी की ओर चल पड़ी |

इतने वजन के चाँदी वाले सिक्कों की गठरी बाँधकर, उसका वजन उठाकर एकाएक वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। वह इस गठरी के वजन से बार – बार असंतुलित सी हो जा रही थी | अड़गड़ा कर गिरने के डर से और फिर संभलने के प्रयास में उसकी इठलाती हुई चाल देखने लायक थी।

पहले तो शायद बूढ़ा जमींदार ही दुर्गा मौसी को किसी वजह से भगाने की जल्दी में था, किन्तु अब मौसी खुद ही भागने की जल्दी में थी। लेकिन सिर्फ इस डर से कि कहीं किसी वजह से बूढ़े का मन बदल न जाये।

कहीं वह अपनी दी हुई यह रकम अभी किसी बहाने से वापस न माँग ले।

दुर्गा मौसी अब जल्दी से जल्दी अपने घर वापस पहुँच जाना चाहती थी। अपने बेटे को भी यह बता देना चाहती थी कि उसके विवाह के खर्च और बहू के लिए गहनों का जुगाड़ हो गया है। साथ ही उसके परिवार के लिये बिना कमाये भी जिंदगी भर बैठ कर खाने का इंतजाम हो गया है।

फिर दुर्गा मौसी एक झटके से बैलगाड़ी पर जा बैठी थी | उसके बैठते ही बैलगाड़ी वापस चल दी थी। वही युवक फिर उसी तरह बैलगाड़ी हाँकने के लिये आगे जाकर अपनी जगह बैठ चुका था | लेकिन वैसी ही रहस्यमय खामोशी के साथ, जैसी हवेली की ओर आते समय उसके साथ थी।

इतनी सारी घटनाएँ और फिर उसकी खुशियों भरी परिणति होने बाद मौसी के दिमाग से अब किसी भी अनहोनी या आशंका के बादल बिलकुल छँट चुके थे। वो खूब प्रसन्नचित्त थी। वो कहावत है न कि अन्त भला तो सब भला।

एक ऐसी ही अच्छाई पहले की सारी बुराइयों को झूठ साबित कर देती है |

जब कि ऐसी कहावतें कभी - कभी इस तरह से पलट कर भी बोली जाती हैं कि एक ही बुराई पहले की सारी अच्छाइयों को भी हर लेती है।

अब इस कहावत में कितना दम था, कितनी सच्चाई थी ? इसका अहसास दुर्गा मौसी को इस समय तो बिलकुल भी नहीं था | लेकिन जल्दी ही ऐसा कुछ जरूर हो सकता था।

बहरहाल, यदि ऐसा कुछ होना भी था, तो वह अब भी भविष्य के गर्भ में ही छुपा था। उस भावी घटनारूपी परिणति का प्रसव कितने दिनों बाद होने वाला था ? यह तो दुर्गा मौसी जैसी सिद्धहस्त दाई भी नहीं बता सकती थी। क्योंकि वह लाख गुणवती सही, किन्तु कोई कुशल ज्योतिषी तो थी नहीं।

.... और सच कहें तो किसी ज्योतिषी को भी यह ठीक – ठीक कहाँ पता होता है कि भविष्य में खुद उसी के साथ क्या होने वाला है ?

*****

पूरी तरह से बेफिक्र और अपनी तरफ से एकतरफा बेतकल्लुफ़ हुई घर को वापस लौट रही दुर्गा मौसी को फिर उस युवक से उसके बारे में किया गया अपना सवाल याद आ गया। जिसका संतोषजनक जवाब उसे अब तक नहीं मिल सका था।

बैलगाड़ी फिर अपने सफर पर चल पड़ी थी | वही कुहरे भरी रात, वही पगडंडी, वही गन्ना, ज्वार और बाजरे के लहराते खेत | सब कुछ वैसे ही रास्ते से गुजरते – छूटते चले जा रहे थे | लेकिन रास्ते का सन्नाटा भी फिर से वैसी ही बोरियत पैदा करने पर आमादा था |

अतः इस लंबे सफर को बातों ही बातों में फिर से में काटने और अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए दुर्गा मौसी ने फिर उस युवक से बातचीत करने की सोची।

उसे संबोधित करते हुए बड़े प्यार व अपनेपन से कहने लगी – “बेटे ! तुम मुझे अपने और अपनी पत्नी की बीमारी के बारे में इस वापसी के समय कुछ और बताने वाले थे ......।”

दुर्गा मौसी ने जैसे ही ये सवाल पूछने का प्रयास किया वैसे ही युवक का जवाब आने के बजाय फिर कुछ नया घटित हो गया |

हुआ यह था कि सवाल के जवाब में कोई नया किस्सा शुरू होने बजाय बैलगाड़ी ही अटक गयी |

वह ‘चर्र ...चूँsss....’ की पूर्व परचित अजीब सी लम्बी आवाज के साथ एक झटके से जहाँ की तहाँ खड़ी हो गयी थी |

......या यूँ भी कह लें कि उस चतुर चालाक रहस्यमय युवक द्वारा उसी जगह फुर्ती से रोक दी गई थी।

- “बाकी बातें फिर कभी करेंगे दुर्गा मौसी ! पहले तुम यहाँ उतरो तो सही।”

युवक के स्वर में एक अजीब से आदेश का पुट था | जिसका मतलब था कि इसी जगह, इसी वक़्त, इस बैलगाड़ी से उतरना ही उतरना है | अब इससे आगे का सफर दुर्गा मौसी को इस बैलगाड़ी से बिलकुल नहीं कराया जा सकता है | कहीं अब उनके साथ कोई अनहोनी तो नहीं घटने वाली है ?

कोई भी ऐसी सोच पैदा होते ही शंका का भूत दिमाग में खलबली मचाने लगता है | सो, अब ऐसे ही संदेह से दुर्गा मौसी का भी दो - चार हो जाना स्वाभाविक ही था |

- “यहाँ ....? इस सन्नाटे और बियाबान जगह में ? तुम्हारे होश तो ठिकाने हैं ?”

इस प्रकार अचानक बैलगाड़ी रोककर उनको यहाँ उतार देने की बात पर दुर्गा मौसी का धैर्य जवाब दे गया था।

- “हाँ मौसी, आपको यहीं पर उतरना होगा |” युवक की वैसी दृढ़ता और किंचित आदेश से भरी आवाज फिर से सुनाई दी |

अब तो न चाहते हुए भी दुर्गा मौसी के मन में ढेरों आशंकाएँ फिर से घर कर ही गई । लेकिन थोड़ा हिम्मत करके कुछ झिझकती सी आवाज में बोली - “ मैं तो यहाँ बिलकुल भी नहीं उतरने वाली। तुम मेरे साथ ऐसी कोई जबर्दस्ती भी नहीं कर सकते हो ।”

मौसी अचानक ही बेहद परेशान हो उठी थी। कहीं यह रहस्यमय युवक उसके साथ कोई अनहोनी तो नहीं करना चाहता ?

शायद उसके बाप के दिये हुए पैसे वापस छीन लेना चाहता हो ?

या फिर बार - बार उसके बारे में पूछने से नाराज होकर उसे बीच रास्ते में ही उतार कर चल देना चाहता हो ?

कभी इस तरह से न घबराने वाली दुर्गा मौसी के मन में जाने क्यों एकबारगी ही घबराहट भरने लगी थी | इस रहस्यमय वातावरण का डर फिर से उन पर हावी होने लगा था।

घर से निकलने के समय से होने वाली सारी घटनाएँ अचानक ही उनके मस्तिष्क में किसी भुतही फिल्म की तरह ‘साँय – साँय’ करती हुई निकल गई।

परिणामतः वह यहाँ तक सोच बैठी कि कहीं अब यह युवक गुस्से में उनकी हत्या न कर दे ?

.....और फिर इतना सोचना ही था कि उनकी रीढ़ की हड्डी में भय की एक ठंडी लहर बिजली की तरह समाती चली गई । अपनी हत्या किये जाने की बात सोचते ही इतनी निर्भीक दुर्गा मौसी के चेहरे पर मानो भय की सफेदी छा गयी |

उन्हें लगा कि उनके मस्तिष्क की नसों में अचानक ही रक्त का संचार बाधित होने लगा है | उन्हें महसूस हुआ कि इस कड़ाके की ठंड में भी उनके चेहरे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आयी थी ।

उनके हाथ अनायास ही अपने चेहरे पर फिसल गये, उस पसीने की चिपचिपाहट का अहसास करने के लिए | उसे पोंछने के लिए | उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा कि इतनी कड़ाके की ठंड में भी उनके चेहरे पर पसीने की बूँदें कैसे आ सकती थी ?

....और ये सच होता तो सचमुच बड़ी ही अजीब बात हो जाती | जैसा कि तुरन्त ही उन्होने फिर महसूस कर लिया |

वह अपने गालों पर बार – बार हाथ फिराते हुए परेशान हो गयी, लेकिन वहाँ उन्हें पसीने की बूँदों जैसा कुछ भी न मिला। वह समझ गयी कि ऐसा अचानक ही बड़े भय से उपजे भ्रम के कारण हो रहा था |

अतः वह फिर से दिमाग को ठंडा करने का प्रयास करते हुए सोचने लगी – “लेकिन यह युवक भला इतनी सी बात के लिए मेरी हत्या क्यों करना चाहेगा ?”

“क्या कुछ उल्टा - पुल्टा सोच रही हो मौसी ?” - युवक ने इस अंधेरे में भी जैसे उनके मन की बात ताड़ ली थी।

- “आंss...हाँ ...हाँ | अरे ! ....नहीं, नहीं | ऐसा तो कुछ भी नहीं है |” उनकी बातों से ही उनकी हड़बड़ाहट साफ परिलक्षित हो गई थी |

जवाब में वह युवक भी ‘फिस्स’ से हँस दिया था | मानो मौसी की हड़बड़ाहट से उसे मजा आ गया हो | लेकिन फिर संयत होकर कहने लगा - “अरे तो फिर जल्दी उतरिये मौसी | आपको अपने घर नहीं जाना क्या ?”

- “हाँ हाँ, जाना क्यों नहीं | घर ही तो लौट रही हूँ | लेकिन यहाँ इस जगह ?” मौसी के स्वर में अब भी शंका साफ जाहिर हो रही थी |

- “ओफ्फ़ मौसी, क्या इस जगह, उस जगह लगा रखी है ? अरे ठीक से देखिये तो सही, आपका घर आ गया है। बैलगाड़ी इस गली से और आगे नहीं जा सकती | लगता है इस कुहरे की वजह से आपको गलत रास्ते का भ्रम हो गया है |”

- “क्याsssss....?”

अब जो दुर्गा मौसी ने अपनी नजरें सामने उठाकर ध्यान से देखा तो हक्की - बक्की रह गई। ये बैलगाड़ी तो सचमुच ही ठीक उनके घर के पास, दरवाजे पर जाने वाली पतली सी कोलिया के ठीक मुहाने पर आकर खड़ी हुई थी।

उनकी चेतना को एक झटका सा लगा | यह क्या ? उन्हें तो अबकी बार गाँव के बाहर वाले उस बरगद के पेड़ के नीचे से भी गुजरने का अहसास नहीं हुआ।

क्या इस बार बैलगाड़ी किसी और रास्ते से चलकर आयी थी ?

या फिर हवा में उड़कर हेलीकॉप्टर की तरह सीधे उसके घर के सामने पहुँचकर रुक गयी थी ?

(उस रात दुर्गा मौसी को रास्ते के पेड़ और पक्षी भी विचित्र व रहस्यमय दिख रहे थे)-8

“अरे! इतनी जल्दी पहुँच गये ?” - दुर्गा मौसी को अब भी कुछ ठीक से समझ नहीं आ रहा था।

- “जल्दी करो मौसी | मुझे वापस भी जाना है | आपको उतरने में कोई परेशानी हो रही है तो ? ......लाइये, आपकी गठरी मैं सम्भाल लेता हूँ |” युवक ने फिर से मौसी को चेताया तो झट से उनकी चेतना संयत होने लगी |

वह जल्दी से अकचकाई आवाज में बोली – “आँss... हाँss उतरना है, उतर रही हूँ । भला अपने घर में क्यों नहीं उतरूँगी ? वो तुम सही कह रहे थे | मुझे इस कुहरे की वजह से ही रास्ते का ठीक से पता नहीं चला | दिशा भ्रम हो गया है शायद | .....कि कहाँ से चले और इतनी जल्दी कहाँ पहुँच गए ? मैं समझी कि कहीं रास्ते ही उतार दे रहे हो।”

मंत्रमुग्ध सी दुर्गा मौसी की आवाज जैसे कहीं बहुत दूर किसी पर्वत की घाटी से निकल रही थी।

वह जल्दी – जल्दी बैलगाड़ी से उतरती हुई बोली – “लगता है मुझ पर बुढ़ापे का असर अभी से आने लगा है | मुझे माफ करना बेटे ! इस कड़ाके की ठंड में मेरी बुद्धि भी ऐंठ गई है। ठीक से काम ही नहीं कर पा रही। हें हें हें हें .........|” दुर्गा मौसी के मुँह से निकली अनपेक्षित सी हँसी भी बड़ी ही अजीब लगी थी |

- “तो अब भोजन में देशी घी की मात्रा थोड़ा सा बढ़ा कर खाया करना मौसी |” युवक भी मानो विनोद के मूड में बोल रहा था |

- “हाँ हाँ , हाँ हाँ |”

मौसी भी अनचाही सी हँसी हँसते हुए आगे बोलती चली गई – “मैं भी सचमुच ही बावली हो गई हूँ। बेवजह ही जाने क्या - क्या सोचती चली गई थी।”
दुर्गा मौसी को अपनी मनःस्थिति पर मानो खुद ही हँसी आ रही थी। लेकिन उसे एक सवाल अब भी बुरी तरह कचोटने की कोशिश कर रहा था कि छह कोस के घंटों दूर का रास्ता क्या वह उड़कर पार कर आयी है ?

युवक से उसके बारे में आगे पूछने या बतियाने का प्रयास करते ही दोनों बार अचानक ऐसा कैसे हो गया ?

उसने आसमान की ओर देखकर तारों की स्थिति से समय का अंदाजा लगाया। अभी तीसरा पहर भी ज्यादा नहीं बीता था। ठीक आधी रात के बाद का शायद एकाध घंटा ही बीत रहा होगा इस समय।

हवेली से चले ज्यादा देर नहीं हुई थी अभी | बूढ़े जमींदार ने खुद ही कहा था कि आधी रात बीत चुकी है | लेकिन अभी भी तो आधी रात के बाद से बहुत ज्यादा समय नहीं बीता है |

सुबह होने में तो अभी कई घंटों की देरी बची थी। आसमान में तारों की स्थिति तो समय का अब भी कुछ ऐसा ही आभास करा रही थी |

“आपका बहुत – बहुत धन्यवाद दुर्गा मौसी ! मैं वापस जाता हूँ |” - कहते हुए वह युवक बड़ी तेजी से बैलगाड़ी समेत मुड़ चुका था | फिर वैसे ही रहस्यमयी ढंग से मौसी की आँखों से ओझल होता हुआ निकल गया ।

क्या इस डर से कि मौसी कहीं फिर से कोई सवाल न दोहरा दे ? मौसी की अनचाही हँसी फिर छूटते – छूटते रह गई।

लेकिन उस युवक के जाने बाद भी अजीब से विचारों में खोयी दुर्गा मौसी इस सन्नाटे में काफी देर तक अकेले खड़ी रह गयी थी, अपने घर के दरवाजे पर ही |

एक विचित्र से अहसास ने अचानक उसके कदम रोक लिए थे, क्योंकि अभी दुर्गा मौसी को दोबारा साफ - साफ महसूस हुआ कि अचानक ही फिर से गाँव के कुत्ते उसी तरह रहस्यमयी आवाज में रोने और भौंकने लगे थे। जैसे उस युवक के साथ जाते समय चिल्ला रहे थे, रो रहे थे।

..... और फिर एक बार वही चमगादड़ जैसा बड़ा सा पक्षी उस बैलगाड़ी की जगह पर उसके सिर के ऊपर से एक गोल – गोल चक्कर काटकर घबराया हुआ सा उड़कर भाग निकला था। ये क्या रहस्य था ?

जो भी हो, इस थोड़ी सी हलचल के बाद फिर से धीरे – धीरे गाँव में चारों ओर रात का वैसा ही भयानक सन्नाटा पसरता चला गया था।

*****

इतना सब लगातार होते जाने से सारी परिस्थितियों और शंकाओं के झंझावात में डूबी हुई दुर्गा मौसी काफी देर बाद संयत हुई |

चाँदी के सिक्कों के बोझ से उनके हाथ दर्द करने लगे थे | तब जाकर उसने अपने बेटे को आवाज लगाते हुए दरवाजे की साँकल खटखटाई – “दरवाजा खोलो दीपू ! मैं वापस आ गई हूँ।”

एक – दो पुकार के बाद ही घर का दरवाजा जल्दी से खुल गया। उनका बेटा भी शायद उनकी प्रतीक्षा में जग ही रहा था।

घर के भीतर पहुँचते ही दीपू ने दरवाजा वापस बंद कर लिया | भीतर आते ही मौसी थकान और मानसिक अवसाद के कारण सीधे बिस्तर पर लुढ़क गई। वह कुछ देर तक अपने आपको संयत करने का प्रयास कर रही थी।

बेटे ने पूछा – “मौसी, आपके लिए पानी लाऊँ क्या ?”

*****