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विश्रान्ति - 3

विश्रान्ति

(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)

अरविन्द कुमार ‘साहू’

विश्रान्ति (The horror night)

(दुर्गा मौसी मरीज देखने के लिये रात - बि- रात और दूर – दराज तक भी चली जाती थी) - 2

मरीज देखने की एवज में दुर्गा मौसी किसी से मुँह खोलकर कुछ नहीं माँगती थी। लेकिन सक्षम लोग उन्हें सम्मान और उपहार के अलावा यथाशक्ति धनराशि मेहनताना भी दे देते थे। इससे मौसी को कुछ नकद आमदनी भी हो जाती थी, जो लगातार बढ़ती मंहगाई में घर चलाने के काम आती थी।

हम कह सकते हैं कि समाज सेवा के साथ ही यह उनकी रोजी रोटी का जरिया भी था। शायद यह भी एक कारण था, जिससे कि दुर्गा मौसी इस कडक ठंड में भी रज़ाई से बाहर निकलने से अपने आपको ज्यादा देर तक नहीं रोक सकती थी |

बहरहाल, बर्फ की तरह ठंडे फर्श पर जैसे ही उन्होने अपना नंगा पाँव जमाने की कोशिश की, उन्हें ठंडक भरा एक जोरदार झटका लगा था | तीखी ठंड की सिहरन उनके पैरों से होती हुई पसलियों तक दौड़ती चली गयी थी | मानों बिजली के नंगे तार से करंट छू गया हो |

इसीलिए न चाहते हुए भी दुर्गा मौसी के मुँह से घुटी – घुटी सी चीख निकल गयी थी |

– “अरे बाप रे ! लगता है इतनी ठंड में शरीर की हड्डियाँ भी गल जायेंगी | हे प्रभु ! सबके ऊपर दया करना | गरीबों और बीमारों के दिन - रात पता नहीं कैसे कट रहे होंगे ?”

दुर्गा मौसी किसी भी परिस्थिति में भगवान को याद करना नहीं भूलती थी | उसका मानना था कि जिसका कोई नहीं होता, उसकी सहायता तो भगवान ही करते हैं |

फर्श की ठंडक का अहसास करके एकबारगी तो मौसी ने अपना पैर रज़ाई में वापस ही खींच लिया था, लेकिन फिर धीरे – धीरे कडक ठंड का अहसास कराती हुई रज़ाई को पूरी तरह हटाकर बिस्तर से नीचे उतर आयी |

ठंडे फर्श पर नंगे पैरों को धीरे – धीरे जमाकर खड़ी हो गयी | फिर उसने एक दो कदम चलकर आगे बढ़ने का प्रयास किया |

पूरे घर में घुप्प अंधेरा छाया हुआ था | शायद कमरे में जलने वाली ढिबरी से मिट्टी का तेल अर्थात केरोसीन खत्म हो चुका था | ....या हो सकता है कि मंहगा केरोसिन बचाने के लिये दीपू ने सोने से पहले उसे बुझा दिया हो |

रोशनी के नाम पर कमरे में इस समय आँगन की तरफ लगे रोशनदान से चाँदनी रात होने का हल्का सा आभास हो रहा था | लेकिन कमरे के भीतर तो हाथ को हाथ भी नहीं सुझाई देता था |

ठंड से सिकुड़ती दुर्गा मौसी अपनी पतली सूती धोती को शरीर में हर तरफ से अच्छी तरह लपेटकर ठंड से बचाने का प्रयास कर रही थी | फिर यही करते हुए वह दरवाजा खोलने के लिये अंधेरे में ही अंदाज से आगे बढ़ने लगी |

वैसे तो कमरे का कोना – कोना उनका जाना - समझा हुआ था | कहाँ क्या रखा हुआ है और किधर से दरवाजे की तरफ बढ़ना है ? उन्हें सब पता था | फिर भी वह अँधेरे में दीपू की चारपाई से टकराकर गिरते – गिरते बची |

- “हे भगवान ! ये कुहरे भरा अँधेरा भी न जाने कितने दिन बाद छंटेगा ?”

थोड़ा सा बड़बड़ाने के बाद वह दरवाजे की ओर मुँह करके अपेक्षाकृत ज़ोर से बोली – “अरे ठहरो भाई ! बस करो | आ रही हूँ दरवाजा खोलने |”

इस हड़बड़ाहट व चारपाई में लगे धक्के से दीपू एक बार फिर कुनमुनाते हुए करवटें बदलने लगा था | लेकिन दुर्गा मौसी उसे बिना जगाये ही सांकल की खट-खट करती हुई आवाज के सहारे आगे बढ़ती हुई चली गयी और दरवाजे तक पहुँच भी गयी | दोबारा कहीं लड़खड़ाये या टकराये बिना | फिर उन्होने दरवाजे को खोलने के लिये अपने हाथ बढ़ा दिये |

अँधेरे में टटोलते हुए उनके हाथ पहले उढ़की से टकराये | आकस्मिक रूप से दरवाजे को खुलने से बचाने के लिये उन दिनों पल्ले के पीछे पारम्परिक रूप से बेड़ा – बेड़ा करके लंबा सा बाँस लगा दिया जाता था | उसी को उढ़की कहते थे |

बहरहाल, मौसी ने अँधेरे में भी बड़े आराम से उढ़की वाले बाँस को हटाकर किवाड़ का एक पल्ला खोल दिया |

दरवाजा खुलते ही तेज हवा का एक सर्द झोंका उनके बदन से टकराया तो मौसी के मुँह से ‘सीsss सीsss’ करती हुई एक आह सी फिर निकल गयी | लेकिन अपनी सूती धोती को लपेटती - संभालती हुई वह धीरे से खुले हुए किवाड़ का एक पल्ला भीतर की ओर धकेल कर घर के बाहर निकल आई।

–“ क्या बात है ? इतनी रात गये इस भीषण ठंड में दरवाजा क्यों पीट रहे हो ?”
अंधेरे में ध्यान से देखने या पहचानने की कोशिश करते हुए सामने खड़े आगन्तुक से उन्होने बड़े संकोच में पूछा |

*****

वहाँ एक लंबा चौड़ा काले - भुजंग साये जैसा रहस्यमय व्यक्ति खड़ा था। थोड़ा ध्यान से देखने पर समझ में आया कि शायद उसने एक कम्बल ओढ़ रखा है। वह कम्बल भी शायद काले रंग का ही था, जो इस मद्धिम रोशनी वाली घने कुहरे भरी रात में उसको और भी रहस्यमय बनाये दे रहा था।

डील - डौल से वह किसी अच्छे - खासे खाते - पीते घर का कोई स्वस्थ युवक लग रहा था। लेकिन उसका चेहरा दुर्गा मौसी को कुछ साफ नहीं दिख पाया। शायद उस व्यक्ति का अधिकांश चेहरा भी उसके ओढ़े हुए कम्बल से ही ढका हुआ था |

.....या फिर इस नीम अँधेरे में उसका चेहरा जितना भी, थोड़ा या बहुत खुला रहा होगा, वह भी किसी काली परछाईं की तरह ही लगता था।

हो सकता है उसके चेहरे पर काले रंग की घनी दाढ़ी – मूँछें भी रही हों, जिनकी वजह से उसका चेहरा बिलकुल भी साफ नजर नहीं आ रहा हो। कुछ तो इस रात में रोशनी की भारी कमी की वजह से भी ऐसा हो ही रहा था।

उस समय रात गहरा रही थी और सारे गाँव में मरघट जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ के सबसे सतर्क चौकीदार अर्थात गाँव के कुत्ते भी शायद नींद व ठंड में कहीं दुबके हुए पड़े थे, जैसा कि इस माहौल में स्वाभाविक भी था।

लेकिन एकाध कुत्ते जो शायद इस आगंतुक की आहट से जाग गए थे, वे भी कुछ अजीब सी रोंघी – रोंघी और धीमी आवाज में ही भौंक पा रहे थे |

कुछ कुत्ते हल्की सी गुर्राहट भी कर रहे थे। लेकिन यह बात ठीक से समझ में नहीं आ रही थी कि पता नहीं वो भौंक या गुर्रा ही रहे थे या फिर किसी रहस्यमयी अनोखी शख्सियत की गैर-जरूरी मौजूदगी के अहसास से, या किसी डर से, उनकी आवाज उनके गले में ही फँसी – फँसी घुटी जा रही थी।

ऐसा लगता था जैसे वे कुत्ते किसी प्रेतात्मा या राक्षसी छाया को देखकर बुरी तरह डर रहे हों। ……..या फिर कोई विशेष अनजानी, ना-समझी या बहुत डरावनी चीज देखकर दबी हुई जुबान से भौंक कर अपना ही डर छुपाने का प्रयास कर रहे हों।

जैसा कि कुछ जानकार लोग कहते हैं कि जानवरों और पक्षियों को मनुष्यों की अपेक्षा अधिक जल्दी पारलौकिक या रहस्यमयी शक्तियों का आभास हो जाता है | ठीक वैसे ही, इस समय ये जानवर भी कुछ ऐसा ही हाव भाव या व्यवहार अपनी आवाज से प्रदर्शित कर रहे थे |

इन कुत्तों की ऐसी आवाजों से शायद उस नव-आगन्तुक को भी कुछ अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही थी, जैसे किसी चोर को उसकी कारस्तानी रंगे हाथों पकड़े जाने का डर हो गया हो। क्योंकि इन कुत्तों की अजीब गुर्राहट से उसका भी ध्यान भंग होता प्रतीत हो रहा था |

वह बार – बार उन कुत्तों की आने वाली रोंघी गुर्राहट की दिशा में गर्दन घुमाकर बेचैनी से देख लेता था |

दुर्गा मौसी भी शायद उसकी मनोदशा भाँप गयी थी | सो, उसे निर्भय करते हुए किंचित मुस्कान से बोली – “डरो नहीं | इस गाँव के कुत्ते खतरनाक नहीं है | अनजान लोगों को देखकर भौंकना तो इनकी आदत ही है | लेकिन ये नहीं समझ में आ रहा कि ये सब आज इस तरह की डरी – डरी सी आवाज कुछ ज्यादा ही क्यों निकाल रहे हैं ?”

“वहीं तों सोंचकर मैं भी परेंशान हूँ |” – युवक ने पहली बार अपने मुख से कोई शब्द निकाले |

दुर्गा मौसी को लगा कि जैसे इस युवक की आवाज नाक से निकल रही थी | उसने सोचा, हो सकता है ठंड में जुकाम से उसका गला खराब हो गया हो |

फिर मौसी ने हँस कर मानो अपने सवाल का जवाब खुद ही दे दिया – “कड़ाके की ठंड का असर इन कुत्तों पर भी कुछ ज्यादा ही हो रहा है | शायद ठंड इनके भी गले तक असर डाल गयी है |”

लेकिन दुर्गा मौसी के आश्वासन के बाद भी वह युवक आश्वस्त नहीं हुआ था |......या फिर अपनी दुश्वारियों की वजह से ही वह कुछ ज्यादा परेशान था |

वह अब भी कुछ घबराया हुआ ही लग रहा था और शायद उस घबराहट की वजह से ही उसकी आवाज भी कुछ अजीब ढंग से नक-नकाती हुई सी निकल रही थी – “ओं हाँ, हाँ | खैर, छोंडिए इनकीं बाँत | जल्दीं चंलियें दुर्गाँ मौंसी ! मेंरी पत्नी कों बच्चाँ होंने वांला हैं। वंह दर्द सें छंटफंटा रंही है। देंरी होंने पंर ऊँसके प्राण भीं जाँ संकतें हैं |”

अब तो साफ लग रहा था कि उसकी आवाज सीधे उसके मुँह से न निकल कर नाक से ही निकल रही है।

अचानक दुर्गा मौसी के दिमाग में कुछ खटका सा हुआ | एक बात याद आ गयी | गाँव में जादू – टोने के जानकार लोग यह कहा करते थे कि भूत - प्रेतों या रहस्यमय शक्तियों की आवाज उनके मुँह से नहीं बल्कि उनकी नाक से नकनकाती हुई ही निकलती है।

यह बात दिमाग में आते ही मौसी को डर नहीं लगा, बल्कि ज़ोरों की हँसी आते – आते बची | अथवा यूं कहिए कि उसने अचानक निकलने वाली इस हँसी को बड़ी कुशलता के साथ रोक लिया था |

वह भी इसलिए कि कहीं आगंतुक को बुरा न लग जाये कि मौसी उसकी आवाज की विकृति पर व्यंग्य की हँसी हँस रही है | ये तो उनके दरवाजे पर खड़े जरूरतमन्द के साथ बहुत गलत बात हो जाती |

दुर्गा मौसी इस तरह की भुतहा कहावतों के बारे में खूब सुन चुकी थी | लेकिन इसे हमेशा मज़ाक में ही लेती थी | जैसा कि इस समय भी हुआ था | वैसे भी इस समय वह ऐसी सुनी- सुनाई रहस्यमय बातों को याद करके अनावश्यक सोच- विचार में पड़ने वाली महिला नहीं थी।

मौसी का सारा ध्यान तो आगंतुक की उस परेशानी की ओर था, जिसकी वजह से वह इस हाड़कँपाती ठंड भरी, अंधेरी रात में, इस तरह चलकर उनके दरवाजे तक आया था।

इस समय उस युवक के चेहरे पर भी शायद बेहद बेचैनी के भाव ही रहे होंगे, जो इस माहौल में साफ दिख तो नहीं रहे थे किन्तु उसकी संक्षिप्त और जल्दी – जल्दी बोली गयी बातों से ही बखूबी समझ में आ रहे थे।

वह जल्द ही इस माहौल से वापस लौटना चाहता था | अतः फिर बेचैनी से बोला – “जल्दी चलिये मौसी ! चलेंगी न ?”

अतः किसी भी आशंका से निश्चिंत दुर्गा मौसी ने पूछा – “हाँ, हाँ, ठीक है जरूर चलूँगी | लेकिन ये तो बताओ कि जाना कहाँ है ? किस गाँव से, किसके घर से मुझे बुलाने आये हो ?”

युवक वैसी ही नकनकती आवाज में बोला – “मौसी ! यहाँ से छह कोस दूर के गाँव पूरब नायन में हमारा घर है |”

- “अरे ! इतनी ठंड भरी रात में तुम अकेले ही इतनी दूर से चले आ रहे हो ?”

- “हाँ मौसी ! ऐसी रात में अचानक साथ देने वाला कोई मिला ही नहीं था | वहाँ की हवेली वाले ठाकुर मंगल सिंह को तो आप जानती ही होंगी। मैं उन्हीं का बेटा हूँ।”

- “हूँ......? मंगल सिंह ?....कौन मंगल सिंह ? … कुछ याद नहीं आ रहा है।”

दुर्गा मौसी ने दिमाग पर ज़ोर देकर ऐसा कोई नाम याद करने की कोशिश की, लेकिन वे नाकाम ही रही।

अतः फिर कहने लगी –“ मुझे ऐसा कोई नाम तो अभी ध्यान में नहीं आ रहा है। वैसे मुझे लगता है कि मैं उनके घर आज तक कभी गयी भी नहीं हूँ।”

- “हाँ, हो सकता है कि नही गयी होंगी। क्योंकि हमारा परिवार बीसों साल से ज़्यादातर बाहर ही रहता है। कभी – कभार ही कुछ दिनों के लिए इस गाँव की तरफ आना हो पाता है।”

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