Vishanti - 11 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

विश्रान्ति - 11 - अंतिम भाग

विश्रान्ति

(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)

अरविन्द कुमार ‘साहू’

विश्रान्ति (The horror night)

(दुर्गा मौसी द्वारा उन सिक्कों के कारण देखा गया, दीपू की शादी का सपना टूट गया) -11

न पड़ जाएँ। या खुद दुर्गा मौसी का भी हाल ठाकुर मंगल सिंह के परिवार जैसा न हो जाये ?

यह सोचना ही था कि उसने सारे सिक्के बड़ी निर्ममता से समेटे और धुंधलके में ही पास के मंदिर में जाकर, चुपचाप उसके दान पात्र में डाल आयी। ऐसा करते हुए उसे किसी ने भी नहीं देखा था। पुजारी ने भी नहीं |

......और घर लौटने पर उसके बेटे ने भी नहीं कुछ नहीं जाना ।

सब कुछ सामान्य जताने के लिए वह किसी तरह फिर से भगवान का नाम लेते हुए बिस्तर पर लेट गई।

अब उसका मस्तिष्क हल्का हो चुका था | उसे बड़ा सुकून मिल रहा था। उसके दिमाग से सारी भुतहा घटनाओं का बोझ और सभी प्रकार की काली शक्तियों का डर एकदम से निकल गया था।

वह थोड़े ही प्रयास में फिर से गहरी नींद सो गयी | अब इस नयी सुबह की नींद में उसे कोई बहुत अच्छे सपने तो आने की उम्मीद नहीं थी । लेकिन यह उम्मीद जरूर थी कि अब कोई बुरे सपने भी उसके पास नही फटकेंगे ।

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फिर काफी दिन चढ़े जब दुर्गा मौसी की नींद टूटी तो उसने पाया कि कहीं भारी शोरगुल मचा हुआ था | एक बार फिर किसी अनजानी सी आशंका ने उसके मस्तिष्क को घेर लिया।

उसने आवाज लगाकर अपने बेटे दीपू को पास बुलाया | फिर पूछने लगी – “गाँव में यह कैसा शोरगुल मचा हुआ है ?”

तब उसे पता चला कि पास वाले मंदिर के पुजारी बाबा चिल्ला रहे थे कि न जाने कौन वहाँ के दान पात्र में ढेर सारे ऐसे विचित्र सिक्के छोड़ कर चला गया है जो दिखते तो चाँदी – सोने की बनावट के हैं, लेकिन पूरी तरह मिट्टी से ही गढ़े हुए हैं। मानो किसी बच्चे के खेलने के लिए ढाले गये हों |

दीपू ने बताया कि वो पुजारी सारे गाँव को इकट्ठा करके खरी – खोटी सुनाकर चीख रहा था कि अब लोग भगवान से भी इतना बेहूदा मज़ाक करने लगे है।

दीपू कह रहा था कि इसी हंगामे की वजह से सारा गाँव मंदिर के पास इकट्ठा हो गया है और लोग तरह – तरह की बातें कर रहे हैं ।

दुर्गा मौसी को फिर कुछ खटका सा हुआ | अब वो आगे की बात जानने के लिए खुद ही भागकर गिरते – पड़ते मंदिर तक जा पहुँची ।

(पुजारी मिट्टी के सिक्के लिये चिल्ला रहा था - लोग अब भगवान से भी मज़ाक करने लगे)-12

वहाँ जाकर मौसी देखती क्या है कि ये सारे सिक्के तो वही है, जो उसने मुँह अन्धेरे ही दान पात्र में डाल दिये थे। इन सब को पुजारी दानपात्र से निकाल कर चिल्लाते हुए मंदिर से बाहर फेंक चुका था। बड़े आश्चर्य की ही बात थी कि सुबह दान पात्र में डालने के पहले तक चाँदी की तरह चमकने वाले वे सारे सिक्के अब मिट्टी के हो चुके थे।

यह सब देख – समझकर अब आखिरी बार दुर्गा मौसी को सही समय पर गाँव के किसी जानकार व्यक्ति की कही हुई यह बात याद आयी कि किसी रहस्यमय भूत – प्रेत आदि के दिये हुए किसी कीमती धातु के सिक्के या गहने होश आते ही भगवान को समर्पित कर देने चाहिए |

....और मंदिर में जाते ही अगर वे सब सिक्के या गहने मिट्टी के रूप में परिवर्तित हो जाएँ तो समझ लेना चाहिए कि उन सिक्कों या उन्हें पाने – लाने वाले इंसान से भी उन काली शक्तियों के सारे प्रभाव समाप्त हो चुके है।

दुर्गा मौसी सोच रही थी कि शायद ये मनचाहा चमत्कार उन सिक्कों को भगवान के पवित्र मंदिर में छू जाने से ही हुआ था। वह सोचने लगी .....|

- “काश ! इन सिक्कों की तरह ही उस ठाकुर मंगल सिंह के परिवार की आत्माओं को भी सद्गति मिल गई हो।

.....और दुर्गा मौसी के ऐसा सोचते ही मंदिर से - “ॐ जय जगदीश हरे, प्रभु जय जगदीश हरे ।

भक्त जनों के संकट क्षण में दूर करें।

ॐ जय जगदीश हरेsssss ।|”

आरती की आवाज हर तरफ गूँजने लगी थी। साथ में घंटे – घड़ियाल, झाँझ – मंजीरे सब कुछ बजने लगे थे ।

एक मधुर और भक्ति भाव से भरा गीत चहुँ ओर से आकर कानों में विशेष प्रकार का रस घोलने लगा था | जो निश्चित रूप से तन – मन की पवित्रता और शुद्धता का अहसास कराने में पूरी तरह सक्षम था ।

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उपसंहार

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आप विश्वास कीजिये, जब भी मेरे मन में कहीं से भी कोई भुतहा या डरावना विचार आ जाता है, तो यह आरती मेरे मन में वैसे ही बजने लगती है, जैसे उस समय मंदिर में और दुर्गा मौसी के तन - मन में बजने लगी थी। तब मन का सारा भय, दोष, विकार अपने आप ही नष्ट हो जाता है और अद्भुत विश्रान्ति की अनुभूति होने लगती है |

- “चल उठ जा मेरे भाई, इस भजन या आरती के रूप में इस भूतही फिल्म का ये आखिरी दृश्य था |

…...और इसी के साथ ये फिल्म भी खत्म हो चुकी है |”

अपनी सीट छोडकर उठते हुए जैसे मेरे मन ने मुझसे कहा |…..और फिर इसी के साथ ही यह डरावनी कहानी मैं अपने मन – मस्तिष्क से भी झटकने की कोशिश करता हुआ सिनेमाहाल से बाहर निकल आया |

कड़क सर्दियों का दिन होने से कहीं भी भीड़ – भाड़ नहीं थी | बाहर अँधेरा घिर चुका था | आसमान में आज पूर्णिमा की चाँदनी छाई हुई थी, लेकिन कुहरे की वजह से उजाला नाम मात्र का ही था | अतः देखते ही देखते सिनेमा हॉल से बाहर निकली भीड़ अपने – अपने रास्तों पर मानो गुम हो गयी |

वैसे भी चूँकि ये सिनेमा का आखिरी शो था | इसलिये अब वहाँ दर्शकों की कोई नई भीड़ नहीं आनी थी | कर्मचारी फाटक बन्द करने जा रहे थे |........और मुझे भी घर पहुँचने की बहुत जल्दी हो रही थी।

अतः मैं भी तेजी से सिनेमा स्टैंड की ओर बढ़ा, जहाँ मेरी मोटरसाइकिल खड़ी थी | टोकन देकर मैंने अपनी मोटरसाइकिल बाहर निकालने की कोशिश की | लेकिन तब मेरा दिल धक्क से रह गया, जब मैंने उसका एक पहिया पंक्चर देखा |

“अब क्या हो सकता है ? इस समय तो कोई पंक्चर बनाने वाला भी नहीं मिलना |” – मैंने अपने आपसे कहा |

स्टैंड वाले ने मेरी समस्या देखते हुए कहा – “बाबू जी, मोटरसाइकिल यहीं छोड़ कर किसी दूसरे साधन से निकल जाइये | कल दिन में इसे बनवाकर ले जाइयेगा |”

स्टैंड वाले की बात भी ठीक थी | इससे ज्यादा वह मेरी मदद नहीं कर सकता था |

अतः मैं उसे धन्यवाद देते हुए बाहर सड़क की ओर निकल आया |

इस समय बाहर की सड़क सुनसान हो चुकी थी | काले तारकोल से रंगी काली सड़क पर वैसा ही काला सन्नाटा भी छाया हुआ था | मैं ईश्वर से दुआ कर रहा था – “काश ! जल्दी से कोई साधन मिल जाये |”

छोटे शहरों या कस्बों की सड़कों पर इतनी रात गये, वह भी इतनी सर्दी की वजह से कोई साधन मिलना आसान नहीं होता | फिर भी मैं बड़ी आशा भरी निगाहों से टकटकी लगाये दूर तक सड़क का एक्सरे कर रहा था |

मुझे घर पहुँचने के लिए बहुत देर हो चुकी थी | मैं सोच रहा था – “घर पर सब लोग मेरा इंतजार कर रहे होंगे |”

मैंने कलाई में बँधी घड़ी पर एक नजर डाली | उसके रेडियम से चमकते हुए डायल में देखा, सुइयाँ बारह पर पहुँचने के लिए बुरी तरह बेताब थी | मिनट की बड़ी सुई घंटे वाली छोटी सुई को आतंकित करते हुए उसके ऊपर चढ़ने की तैयारी कर चुकी थी |

यह समय देखकर, उस घड़ी के साथ ही मेरी बेचैनी और भी बढ़ती जा रही थी | लग रहा था, कहीं इस बियाबान सन्नाटे में पैदल ही जाना पड़ गया तो, घंटों बाद भी घर पहुँचना मुश्किल हो जायेगा |सो मन ही मन प्रार्थना करने लगा था |

- “हे प्रभु ! कोई भी साधन मिल जाये तो मैं लपक कर सवार हो लूँ |”

फिर शायद मेरी प्रार्थना सुन ली गयी | मैंने दूर सड़क के क्षितिज पर एक धुँधली सी रोशनी चमकती देखी, जो हिलती – डुलती हुई लगातार मेरी ओर बढ़ती चली आ रही थी | इससे मेरी आँखें खुशी से चमक उठी |

थोड़ा पास आने पर पता चला कि वह रोशनी वाली वस्तु किसी वाहन पर लटकी हुई थी, जो अँधेरे में शायद मार्ग दर्शक की तरह काम कर रही थी | इसी के साथ कुछ ऐसी आवाजें सुनाई पड़ी, जैसे उस वाहन में लगे कुछ पुर्जे घर्षण की वजह से चीख पुकार रहे हों |

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ | सोचने लगा, ऐसी आवाजें तो आजकल के सामान्य वाहनों की नहीं हो सकती | फिर दिमाग पर ज़ोर देते ही लगा कि ये आवाज तो कुछ पहचानी सी लग रही है | कहीं सुना तो है और शायद देखा भी है ऐसा कोई वाहन |

पर कहाँ देखा है ?

कहाँ देखा है ?

इस खोजबीन में मेरा दिमाग जितनी तेजी से दौड़ रहा था, सड़क पर चलता हुआ वाहन भी उतनी ही तेजी से मेरी ओर आता जा रहा था |

अचानक उस पास आते वाहन में कुछ ऐसा दिखा कि भय से मेरी आँखें चौड़ी हो गयी | वो उस वाहन के आगे चल रही दो काले रंग की विशाल आकृतियाँ थी | जिनकी लाल – लाल आँखें किसी अंगारे जैसी प्रतीत हो रही थी | उनकी साँसों की तेज और विचित्र सी आवाज ऐसी लग रही थी, मानों वे गुस्से में फुंफकार रहे हो |

काली रात, काली सड़क, काला सन्नाटा और काले – काले ये भयंकर जीव, क्या है ये सब ? सिनेमाहाल हाल में देखी गयी भुतहा फिल्म का डर मन पर अचानक ही फिर से हावी होने लगा | गले में कुछ अजीब सा फँसता हुआ महसूस हुआ | डर के मारे भय की एक ठंडी सी लहर पसलियों में समाती चली गयी |

वाहन अब तक सामने आ चुका था | तभी उसमें से एक चेतावनी भरी चीख जैसी उभरी |

- “अँधेरे में बीच सड़क पर मरने का इरादा है क्या ? बाजू हटो |”

- “नहीं, नहीं | मैं तो घर जाने के लिए साधन की प्रतीक्षा में था |” पता नहीं कैसे मेरी जुबान से गिड़गिड़ाते हुए शब्द निकले थे |

- “नायन गाँव को जाओगे ?” उसके इतने सटीक सवाल से मेरे पसीने छूट गये |

“तुम्हें कैसे पता ?” – मेरे गले से फंसी - फंसी आवाज निकली |

वाहन अब ठीक मेरे सामने खड़ा था |

मैंने बड़ी मुश्किल से सिर उठाया | डर के बावजूद मद्धिम चाँदनी में एक नजर देखने की कोशिश की | ठीक उसी भुतहा फिल्म का सीन मेरे सामने था |

काली सड़क पर एक बैलगाड़ी खड़ी थी | उसी पर वो मद्धिम प्रकाश वाली लालटेन टंगी थी, जिसका प्रकाश दूर क्षितिज से महसूस हो रहा था | सामने से दिखने वाले दोनों भयंकर जीव उसे खींचने वाले बैल थे | जिनकी अँधेरे में चमकती हुई आँखें दूर से किसी लाल अंगारे जैसी लग रही थी |

भयंकर फुफकार जैसी आवाज उनके नथुनों से निकलने वाली साँसों की थी |

बैलगाड़ी पर हुबहू वैसा ही बैलगाड़ी का रहस्यमय चालक बैठा था | काला कम्बल लपेटे हुए | ...और तो और, उसकी आवाज भी उसी तरह नकनकाते हुए निकल रही थी, जैसे भूतों की निकलती है

“चलना है तो बैठो जल्दी | देर हो रही है |” –

दोबारा उस चालक की नाक से निकलती आवाज सुनते ही मुझे पक्का विश्वास हो गया कि हो न हो, ये भूत ही है | भयंकर डर से मेरे तिरपन काँप उठे | सिर बुरी तरह चकरा उठा था | .......और, मेरे जैसे ताजा – ताजा भुतहा फिल्म देखकर आने वाले कच्चे दिल के आदमी को होश खो देने के लिए इतना ही काफी था |

मेरी पलकें अप्रत्याशित रूप से भारी होते हुए फड़की, फिर आँखों के सामने वही गहरा, काला और रहस्यमयी अँधेरा पसरता चला गया | मैं सड़क पर किसी नशेड़ी की तरह लहराया और मेरी चेतना लुप्त होती चली गयी | क्या वह सचमुच भूत था ?

“हा…हाsss, हा…हाsss”,- आखिरी बार मैं सिर्फ उसकी बेहद भयानक और डरावनी हँसी ही सुन सका था |

******

......और ये हँसी अब तक मेरे दिमाग में बुरी तरह गूँज रही थी | अंधड़ मचाये हुए थी |

मेरे होश में आने तक |

पाठकों ! ये किस्सा पढ़ते – पढ़ते......कहीं आप भी सचमुच तो डर नहीं गये ? डरो मत दोस्त | थोड़ा साहस व धैर्य भी बनाये रखना चाहिये |

......और सच मानिये, यह भयंकर हँसी मेरे बेहद मज़ाकिया और ड्रामेबाज़ मामा जी की थी |

रात वाले वे भूत भी मामा जी ही थे, जो उस समय बैलगाड़ी पर कुछ सामान लादकर बगल के गाँव बगहा से वापस लौट रहे थे | उन्हें भी किसी कारण से देर हो गयी थी | गाँव में सामान ढोने के लिए अब भी बैलगाड़ियों का प्रयोग होता रहता है |

रास्ते में सिनेमाहाल के पास अँधेरे में मुझे पैदल सड़क पर खड़ा देख कर वे पहचान नहीं पाये थे और उन्होने ही जान-बूझकर डांट लगाई थी | फिर मेरे बेहोश होने पर उन्होने पास जाकर देखा तो पहचान गये | मुझे उठा कर वापस उसी बैलगाड़ी से घर ले आये थे |

......और जानते हैं, मेरे बेहोश होने का सही कारण जानकर उन्होने मुझे कौन सी कहानी सुनायी ?

कहने लगे - “अरे यार ! ऐसे भय के भूतों को तो मैं अपने सिर की चुटिया में बाँधकर रखता हूँ | अक्सर इस तरह की रातों में वह मेरा रास्ता रोककर खड़े हो जाते हैं | कभी पीने के लिए बीड़ी माँगते हैं, कभी डरा कर बेवजह लड़ाई के लिए उकसाते हैं |”

फिर मामा जी ने पहलवानों की तरह मुट्ठियाँ बाँधकर दोनों हाथों को थोड़ा ऊँचा करके अपने बाहों की मोटी – मोटी मछलियाँ (मसल्स) दिखाते हुए कहा - “पर मैं भी किसी से भूत – वूत से कम हूँ क्या ? कई बार तो उन्हें पकड़ कर ऐसी पटखनी लगाई है कि उन्होने हमेशा के लिए उधर का रास्ता ही छोड़ दिया है |”

.......और फिर उन्होंने अपना मुँह मेरे कानों के पास लाकर बड़े रहस्यमय स्वर में कहना शुरू किया - “और....., जानते हो मुन्ना ! अपने बाबूजी जी यानी कि तुम्हारे नाना जी ने ऐसे चार भूतों की चुटिया काटकर अपनी चारपाई के चारों पाये में बाँध कर रख लिया था, जिससे वे भूत उनके गुलाम हो गये थे |

नाना जी उनसे घर व खेत का बहुत सा काम करा लेते थे |”

“अच्छा....?”- मामा जी के रहस्योद्घाटन से मेरा कल रात का भय गायब हो चुका था और मैं मुस्कराते हुए उनकी रहस्यमय फेंकू कहानी का आनन्द लेने लगा |

मामा जी बताते जा रहे थे - “वर्षों बाद जब नाना जी का अंतिम समय आया तो उन भूतों की ‘अम्मा चुड़ैल’ ने उनके पैर पकड़ लिए | गिड़गिड़ा कर कहने लगी थी कि अब तो आप परलोक जा ही रहे हैं, तो मेरे बच्चों को भी आजाद करके आखिरी पुण्य और कमाते जाइये | तब नानाजी ने दया करके चारों भूतों को मुक्त कर दिया था |”

फिर मामा जी ने आखिरी गप्प भी फेंक मारी – “इसी कारण से इलाके के सारे भूत अब भी मुझसे बुरी तरह घबराते है | वरना कल रात तुम्हारे बगहा वाले भूत को पटकनी लगाकर, तुम्हें छुड़ाकर मैं यहाँ न ला पाता | आज सुबह तक वह भूत तुम्हारा ‘आदम पुलाव’ बनाकर पुराने वाले बरगद के पेड़ पर बैठा दावत कर रहा होता |”

“हाहा , हाहा |” - अब ज़ोरों से ठहाका लगाने की मेरी बारी थी | उनके इस भूतिया मज़ाक से मेरे मन में बसा भय का भूत कब का खूँटा तुड़ाकर भाग चुका था |

मामाजी मेरे चेहरे पर ऐसी उन्मुक्त हँसी देखकर बेहद खुश हुए थे | फिर अचानक ही थोड़ा गंभीर होकर कहने लगे -

“....और हाँ, अगर दोबारा कभी सचमुच ऐसे किसी भ्रमजाल या डरावनी परिस्थितियों में फँस जाना तो बिलकुल भी घबराना मत | क्योंकि भय का भूत सिर्फ मन में ही होता है | अधिकांश तथाकथित भूत बाधा से ग्रस्त व्यक्ति मनोरोगी होते है | जो किसी अनजाने भय के कारण दिल की धड़कने असामान्य हो जाने पर मौत के घाट उतर जाते हैं | लोग समझते हैं कि उन्हें किसी भूत ने मार दिया है |”

“इसलिये कभी इनसे डरना मत | धरती पर इंसान से ज्यादा शक्तिशाली कोई नहीं | और यदि इंसान से बड़ी कोई शक्ति है तो वह सिर्फ ईश्वर की दैवीय शक्ति ही हो सकती है | किसी भूत – प्रेत की नहीं | अतः निश्चिन्त होकर सो जाओ चैन से, बिना किसी डर के |”

अब मुझे भी कहना पड़ा – “हाँ मामा जी ! .....आखिर भगवान तो सभी के साथ होता है, हम सबकी रक्षा के लिए। जैसे दुर्गा मौसी के साथ था और मेरे भी साथ | है न....?”

“हाँ, शबा खैर ! गुड नाइट !! शुभ रात्रि !!!

(समाप्त )
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