विश्रान्ति
(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)
अरविन्द कुमार ‘साहू’
विश्रान्ति (The horror night)
( गाड़ीवान ने दुर्गा मौसी से कहा - "शायद आप उस खंडहर हवेली की बात कर रही हैं" ) -10
- “अरे दुर्गा मौसी ! मैं सारी बात समझ गया | लो अब तुम भी सुनो | वह सामने खंडहर हुए विशाल भवन और उसका मलबा देख रही हो न ?”
- “हाँ – हाँ”
“यही वो पुरानी हवेली थी, जो आपके ठीक सामने बाएँ हाथ के रास्ते पर, इस सड़क से सिर्फ पाँच सौ गज की दूरी पर है। हम इस समय ठीक उसी हवेली की जगह पर जाने वाले रास्ते पर यहाँ खड़े हुए हैं। वह देखो ........|”
बैलगाड़ी वाले ने एक सीधी उँगली उस ओर उठा दी थी, जहाँ दूर तक एक हवेली जैसा खंडहर भवन और उसका मलबा फैला हुआ था।
वह बताता गया – “इसी में मंगल सिंह नाम के एक जमींदार करीब चालीस वर्ष पहले तक रहा करते थे। अंग्रेजों के समय उनका परिवार बहुत क्रूर और अत्याचारी था। प्रजा से लगान वसूलने के लिए वे बड़ी ही निर्दयता से पेश आते थे। आस - पास की जनता पर बहुत अत्याचार करते थे। लोग त्रस्त होकर उन्हें मन ही मन बड़ी बद्दुआएँ दिया करते थे। लोग कोसते थे कि ईश्वर करे, इस अत्याचारी के घर कोई वंश चलाने वाला भी न बचे |”
दुर्गा मौसी के पास अब हुंकारी भरने वाले शब्द भी नहीं बचे थे | वह तो सिर्फ निशब्द हुई सुनती ही जा रही थी | बैलगाड़ी वाला बताता जा रहा था......
- “.......और शायद इन्हीं पीड़ितों में से सचमुच किसी की हाय लग गई थी उनके परिवार को। 1947 में इस देश से अंग्रेज़ो के जाते ही जमींदारों का सूरज भी अस्त होने लगा था । आजादी के बाद तो सारी कानून - व्यवस्था ही बदल गई थी |”
“जमींदार अकूत जमीनों के मालिक नहीं रह गये । उनके सारे अधिकार छीन लिये गये थे। उनकी सारी उल्टी - सीधी आमदनी खत्म हो गई थी। लेकिन उनके भोग - विलास जैसे दुर्व्यसन इतनी जल्दी बंद नहीं हो सके थे |”
“परिणामतः उनकी बची – खुची जमीन - जायदाद व खेत - बाग भी बिकते चले गए। कुछ जमीन दूसरे नए बने दबंगों ने हथिया ली। कंगाली के चलते न सिर्फ उनके नौकर – चाकर और कारिंदे, बल्कि फालतू का बैठकर खाने वाले उनके नाते - रिश्तेदार भी भाग गए |”
“सुना है, इस इकलौती बची हुई हवेली में खाने के भी लाले पड़ गए थे। यहाँ तक कि उसका बेटा अपनी नव - विवाहित बहू को यहीं छोड़कर परदेश कमाने चला गया या यूँ कह लो कि मजबूर होकर भाग गया था |”
“आखिर रोजी – रोटी चलने का भी कोई पुख्ता जरिया तो होना ही चाहिये न ?”
बैलगाड़ी वाले को शायद काफी मुकम्मल जानकारी थी उस ठाकुर मंगल सिंह के बारे में। सो वह आगे भी सब कुछ बताता ही चला गया।
- “.........और सुनो मौसी ! बेटे के भाग जाने के बाद ठाकुर को पता चला कि उसकी बहू तो गर्भवती थी। ठाकुर खुद भी काफी कमजोर और बीमार जैसा हो गया था। उसके पास दवा इलाज करने को भी पैसे कम ही बचे थे और पुराना पैसा कुछ था भी, तो इस गाँव या आस - पास का कोई व्यक्ति उसकी किसी भी प्रकार की मदद को तैयार ही नहीं हुआ |”
“…….न गाँव का कोई व्यक्ति उसकी मदद को आगे आया, न कोई महिला उसकी बहू की देख - रेख को तैयार हुई थी। सच मानिये मौसी ! ये सब उस मंगल सिंह के अत्याचारों और कुकर्मों का ही फल था।”
- “फिर उसके बाद उसके साथ क्या हुआ था ?”
सदमे जैसी हालत में सारी कहानी सुन रही दुर्गा मौसी के दिल की धड़कनें बढ़ती ही जा रही थी। तभी तो उसने इतनी बेकरारी से इस के आगे का किस्सा भी पूछ डाला था। मौसी की डूबी – डूबी आवाज जैसे कहीं बहुत दूर से आ रही थी।
बैलगाड़ी वाला कहने लगा – “मैंने बचपन में सुना था कि उनकी बहू की भी प्रसव पीड़ा के दौरान सही इलाज न मिल पाने से मौत हो गयी थी। रात के बारह बजे उसके घर से किसी बेटी के पैदा होने की आवाज कुछ गाँव वालों ने सुनी थी। लेकिन किसी ने अपने घर की महिलाओं को उसकी मदद के लिए नहीं भेजा था |”
“……..बाद में पता चला कि उस जच्चा की बेटी भी शायद भूख से ही मर गई थी। प्रसव के तुरन्त बाद माँ के मर जाने से बेचारी दुधमुंही बेटी को भर पेट दूध भी नसीब नहीं हुआ था। सुबह तक अपनी मरी हुई माँ की छाती चूसते – चूसते वह भी काल के गाल में समा गयी थी।”
- “क्या उस दौरान मंगल सिंह का बेटा भी वहाँ नहीं पहुँच पाया था ?” – बड़ी मुश्किल से अपना थूक सटकते हुए दुर्गा मौसी आगे कुछ पूछ पायी थी।
- “आया था। ठाकुर से किसी प्रकार खबर पाकर उनका बेटा भी आया था। उसने भी किसी दाई को रात में ही बुलाकर लाने की काफी कोशिश की थी, किन्तु कोई भी इस हवेली में आने को तैयार नहीं हुआ था। आखिरकार उसकी पत्नी और नवजात बच्ची दोनों ही तड़प – तड़प कर इसी हवेली में मर गये थे | अपनी पत्नी और बच्ची की अपने सामने ही मौत होती पाकर उसका बेटा भारी सदमें में आ गया था |”
“..फिर इन्हीं बाप - बेटों ने मिलकर किसी प्रकार उन दोनों माँ – बेटी के लिए हवेली परिसर के किसी कोने में एक गड्ढा खोदा और उसी में दफना कर उनका अंतिम संस्कार कर दिया। क्योंकि कोई भी पंडित या महाब्राह्मण उनकी अंतिम क्रिया के लिए भी उनकी हवेली नहीं गया | इन्हीं सारी घटनाओं की वजह से मंगल सिंह के बेटे का दिमाग फिर गया था | वह पागल हो गया था |”
“.....कुछ लोग कहते हैं उसकी ही पत्नी और बेटी का भूत उसके सिर पर हर समय चढ़ा रहता था। हर कहीं रात – बि – रात वह बैलगाड़ी लेकर एक अदद प्रसव कराने वाली दाई की तलाश करता घूमता रहता था | इसी चक्कर में हमेशा वह यहाँ – वहाँ भागा – भागा फिरता रहता था |”
“फिर उसके बाद आज तक उसका कुछ पता नहीं चला। कुछ लोग कहते हैं कि वह पागल होकर कहीं मर खप गया है। कुछ जानकार लोग कहते हैं कि वह आज भी भूत – प्रेत के रूप में अपनी पत्नी का प्रसव कराने के लिए किसी दाई की तलाश में आधी रात को घूमता रहता है।”
बैलगाड़ी वाला इस रहस्य कथा की परतें लगातार उघाड़ता चला जा रहा था और दुर्गा मौसी बेहोशी जैसी हालत में यह सब कुछ सुनती चली जा रही थी। न उनके दिमाग में कुछ हजम हो रहा था, न तो वह उस कथा पर अविश्वास ही कर पा रही थी।
आखिर ये बैलगाड़ी वाला उन्हें कोई झूठी कहानी क्यों सुनाएगा ? वह भी तब, जब इतनी सारी घटनाएँ उसकी भुतहा कहानी से पूरी तरह मेल खाती चली जा रही थी।
बैलगाड़ी वाला मौसी की प्रतिक्रिया देखे बिना ही आगे की कहानी भी सुनाता चला जा रहा था |
– “.......और बेटे के भी इस तरह गायब होने के बाद बेचारा बूढ़ा मंगल सिंह भी इसी अफ़सोस में अथवा भूख या किसी गंभीर बीमारी ग्रस्त होकर चल बसा। राम जाने कैसे घिसट – घिसट कर मरा होगा ? हवेली में उसे कोई पानी तक देने वाला नहीं था |”
“ गाँव के पुराने लोग कहते हैं कि वह पुरखों के सँजोये हुए चाँदी के सिक्के फेंक – फेंक कर लोगों को आकर्षित करता था कि कोई तो उसे खाना – पानी दे जाये। लेकिन उसके फेंके चाँदी के सिक्कों को कोई छूता तक नहीं था। गाँव के लोगों में उसके परिवार के प्रति नफरत इस कदर समाई हुई थी कि लोगों ने हवेली के इस रास्ते से आना तक बंद कर दिया था |”
“ जमींदार अपने आखिरी दिनों में चलने – फिरने से भी मुहताज हो गया था। उसका पूरा परिवार तो पहले ही समाप्त हो गया था। खाना – पानी व दवा- इलाज न मिल पाने से उसकी भी कब और कैसे मौत हो गई होगी, यह भी किसी को सही से पता नहीं चला था |”
“गाँव वालों को उसके भी मरने का पता तभी चला, जब उसकी लाश सड़ने से सारे गाँव की हवा में जबर्दस्त बदबू फैलने लगी थी। क्योंकि उसका तो अंतिम संस्कार करने वाला भी कोई नहीं था। बेचारा मंगल सिंह भी जाने कैसे एड़ियाँ घिसट – घिसट कर मरा होगा?”
गाँव वालों की इतनी नफरत के बावजूद इस बैलगाड़ी वाले की जुबान पर मंगल सिंह के लिए बेहद करुणा के भाव उभर आए थे। बैलगाड़ी वाला अब भी बताता जा रहा था |
– “मौसी ! आज आखिरी बार ठीक से दिन के उजाले में देख लो। यह वही पुरानी हवेली थी, जो वर्षों पहले ही खंडहर में तब्दील हो चुकी है। लेकिन पता नहीं कैसे आप यह कह रही हैं कि आपने उन सबको देखा है ? उनकी बहू का प्रसव भी कराया है ? कहीं आप ने भी उन सबका भूतहा नाटक तो नहीं देख लिया था ?”
कहानी समाप्त करते हुए एक प्रश्न पूछकर जब गाड़ीवाले ने जवाब पाने के लिए बड़ी आशा भरी निगाहों से दुर्गा मौसी की ओर देखा तो महा-आश्चर्य से खुद भी पत्थर होने के कगार पर पहुँच गया।
दुर्गा मौसी की आँखें मानो पथरा गई थी | ये नजारा देखकर बैलगाड़ी वाले की खुद की आँखें भी फटी की फटी रह गयी थी।
उसने किसी अनहोनी की आशंका में दुर्गा मौसी को ज़ोर – ज़ोर से झिंझोड़ डाला। आखिर, मानना ही होगा दुर्गा मौसी को ....कि वो सचमुच बड़े जीवट वाली महिला थी। वो लगभग बेहोश होते - होते बची थी। बस सदमें जैसी स्थिति में लगातार शून्य को ताके जा रही थी |
बैलगाड़ी वाले के झिंझोड़ने से मौसी की कुछ चेतना वापस लौट आयी थी | लेकिन इस तरह होश में आते ही वाह फिर से वही सोचने लगी कि क्या सचमुच वह उस रात में हवेली के भूतों के ही साथ थी ?
उस रात की सारी घटनाएँ किसी भूतहे चलचित्र की तरह लगातार उसके मस्तिष्क में बार घूम - घूम कर चलती ही चली जा रही थी । बैलगाड़ी वाले की सुनाई कहानी और उसकी आपबीती दोनों की शब्दावली काफी हद तक एक दूसरे के साथ तर्क संगत ढंग से सही साबित हो रही थी।
अब मानसिक उलझन से दुर्गा मौसी ने अपना सिर दोनों हाथों से पकड़कर बुरी तरह थाम लिया था। उसका सिर बेहद भारी हो रहा था। बार – बार चक्कर खाने लगा था। उसे लग रहा था कि वह अभी यहीं गिर पड़ेगी और अब की बार सचमुच में पूरी तरह बेहोश हो जाएगी।
बैल गाड़ी वाले ने दुर्गा मौसी की यह हालत देखी तो झट उसने बैलगाड़ी में रखी सुराही से पानी निकाला। पानी की कुछ ठंडी छींटे उसके मुँह पर मारी और थोड़ा सा पानी किसी तरह उन्हें पिलाने की कोशिश की। तब कहीं जाकर दुर्गा मौसी की हालत में कुछ सुधार हुआ।
दुर्गा मौसी को अब पूरी तरह विश्वास हो चला था कि वह निश्चित ही उस रात मंगल सिंह के परिवार वाले भूतों के चक्कर में पड़ गई थी। ये तो उसकी किस्मत अच्छी थी कि उन सबने उसको किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचाया था | अन्यथा उसके साथ जाने क्या हो सकता था ? *****
अब इस अनघटी घटना का अनघटा परिणाम सोच - सोचकर ही दुर्गा मौसी की रूह बार – बार काँप जा रही थी।
फिर अचानक ही दुर्गा मौसी को जैसे कुछ और भी याद आया। बैलगाड़ी में ही लुढ़कती – पुढ़कती सी वह सिहर कर फिर किसी आशंका से बेचैन हो उठी थी। लेकिन काफी हिम्मत करके बेचैनीपूर्वक ही सही, उठ बैठी।
फिर बैलगाड़ी के चालक से बोली – “ तेजी से वापस नायन गाँव को ले चलो। मुझे जल्दी से जल्दी अपने घर पहुँचना है। मेरी तबीयत अंदर से कुछ ज्यादा ही खराब होती लग रही है। घर पहुँचते ही मुझे कुछ दवाएँ खानी होंगी, जो यहाँ इस समय मेरे पास नहीं हैं |”
अब दुर्गा मौसी को उस हवेली के खंडहरों की ओर देखना भी गवारा नहीं था। उनके मन में भय के भूत ने सचमुच ही कब्जा जमा लिया था, जिससे किसी भी कीमत पर उन्हें खुद को बचाने की पूरी फिक्र हो चली थी।
उनकी सदमे जैसी हालत भाँप कर गाड़ीवान ने बैलगाड़ी तुरंत आगे बढ़ा दी। वह कई घंटों की इस यात्रा को, जितनी जल्दी हो सकता था, पूरी करके सीधे गाँव आ पहुंचा ।
घर आ गया तो गाड़ीवान ने उनके बेटे को आवाज देकर बुलाया। उसने सहारा देकर मौसी को नीचे उतारा। फिर बैलगाड़ी वाला मौसी के बेटे दीपू को उनकी तबीयत खराब होने की बात बताते हुए उनके घर के भीतर तक उन्हें छोड़ कर वापस चला गया।
बेटे ने उनके मुँह पर पानी के छींटे मारे। कुछ चैतन्य होते ही मौसी ने कुछ औषधियाँ उससे मँगवाकर खायी, तब कहीं जाकर उनकी हालत कुछ सामान्य हुई। वो बिस्तर पर आराम करने के लिए लेट गई। लेटते ही उन्हें बड़ी गहरी नींद आ गई। जैसे कि वह कई दिनों की जागी हुई रही हों।
बहरहाल, वो कई घंटों तक बेखबर सोती ही रह गई। शाम पहले ही होने वाली थी, अब तो रात भी हो चली थी। उन्होंने कुछ खाया भी नहीं, बस नींद के आगोश में पड़ी सोती ही रह गई।
बेटे ने भी उनकी तबीयत खराब जानकर उन्हें जगाने का प्रयास नहीं किया था, क्योंकि उसे पता था कि भरपूर नींद ले लेने बाद उनकी तबीयत में अपने आप ही सुधार आ जाएगा।
आखिरकार सुबह के तड़के तीन बजे किसी बड़े भयानक सपने के साथ दुर्गा मौसी की नींद एक झटके से खुल गई।
उन्होने सपने में देखा था कि हवेली के सारे भूत एक साथ उनके घर पहुँचकर अपने दिये हुए चाँदी के सिक्के वापस माँग रहे हैं | उनके सपने में वही हवेली वाली घटनाएँ बार – बार चलचित्र की तरह चलती जा रही थी। शायद इस डरावनी कहानी का असली क्लाइमेक्स तो अभी बाकी ही था।
मुँह अधेरे इस तरह अचानक नींद खुलने से हैरान परेशान दुर्गा मौसी थोड़ा संयत होते हुए उठ बैठी थी। उन्होंने दोबारा सोने की कोई कोशिश नहीं की। क्योंकि अब अच्छी नींद उन्हें आनी भी नहीं थी।
अपने सिर से सारी थकान और मानसिक डर का भार उतारने के लिए इस ठंड के महीने में भी उन्होंने मल – मल कर ठंडे पानी से खूब जमकर स्नान किया। जैसे इस डरावनी कहानी की सारी यादें पानी और मुलतानी मिट्टी वाले साबुन के साथ ही जल्दी से जल्दी धोकर फेंक देना चाहती हो।
फिर वह मंदिर जाने के लिए तैयार हो गई। अब उन्हें भगवान के दर्शनों की बड़ी शिद्दत से जरूरत महसूस हो रही थी। इसी बीच उन्हें फिर से एक और बात का ध्यान आ गया तो वे भाग कर अपने बकसिया के पास पहुँच गई।
लोहे के उनके बक्से में उनका लगाया हुआ वह ताला अब भी बड़ी शान और निर्भीकता के साथ लटक रहा था। मानो दुर्गा मौसी की निर्भीकता से अपनी निर्भीकता और मजबूती की कोई तुलना कर रहा हो।
तब मौसी ने अपने गले में बंधे हुए काले धागे से लटकती हुई इकलौती चाभी को निकाला | फिर किसी आशंका से डरते – डरते ही उस बकसिया को खोल डाला। उसे खोलकर देखते ही फिर से डर के मारे मानो उन की चीख निकल गयी थी ।
बक्से में चाँदी के वे सारे के सारे सिक्के जो कि मंगल सिंह अथवा उसके कथित भूत द्वारा दिये हुए थे, पूरी तरह सही सलामत थे | वे अभी भी वहीं बकसिया में पड़े हुए उसी तरह चमचमा रहे थे।
- “ हे भगवान ! तब तो वह सब सचमुच ही भटकती हुई आत्माएँ थीं |”
अब तो दुर्गा मौसी को इसमें रंच मात्र भी संदेह नहीं रह गया था। उनकी हालत ऐसी पतली और सूखी हो रही थी कि मानो उनको काट भी डालो, तब भी उनके शरीर से एक बूँद भी खून न निकले ।
पर वह अब भी बहुत ही साहसी महिला साबित हो रही थी। वे जानती थी कि अब और भी डरने से काम नहीं चलने वाला था। सो वह आगे बिलकुल भी नहीं डरी।
उसने पूरी हिम्मत से काम लेते हुए सब कुछ भगवान पर ही छोड़ देने का फैसला ले लिया था।
आखिर भगवान से बड़ा इन्सानों का दुख हरने वाला भला कौन हो सकता था ? इस अनोखे जगत में सारी आत्माओं – परमात्माओं को उन्हीं की शरण में विश्रान्ति मिलनी थी । उन्हीं के परमाणु में समाहित होकर मोक्ष प्राप्त होना था |
अतः, मौसी को लगा कि इन भयानक घटनाओं के गवाह बन चुके इन चाँदी के सिक्कों को अब घर में रखना कहीं से भी, रत्ती भर भी उचित नहीं था। दुर्गा मौसी ने इन्हें भी घर से दूर कर देने का स्पष्ट निर्णय कर लिया था।
उनका बेटा दीपू अभी सो ही रहा था। उसने एक नजर अपने सोते हुए बेटे पर डाली। फिर उसकी शादी पर होने वाले खर्चों के बारे में भी सोचा। उसका मन भर आया।
आखिर इन्हीं चाँदी के सिक्कों की बदौलत उसने अपने इकलौते बेटे की शादी बड़े धूमधाम से करने का सपना भी देख डाला था । लेकिन आज उसे अपने इन खुशियों से भरे सपनों की तिलांजलि देते हुए जरा भी अफसोस नहीं हो रहा था।
उसको यह भी आशंका हो रही थी कि कहीं इन सिक्कों का दुष्प्रभाव उसके भी बहू - बेटे पर
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