विश्रान्ति
(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)
अरविन्द कुमार ‘साहू’
विश्रान्ति (The horror night)
मुख्य मार्ग पर सामने से किसी राजा के महल जैसी भव्य दिखने वाली उस विशाल हवेली के पीछे भी किसी पर्वतीय पर्यटन स्थल जैसा ही शानदार और आकर्षक नजारा था | हर तरफ प्रकृति का मनमोहक सौंदर्य फैला हुआ था | दूर – दूर तक रंग-बिरंगे फूलों और मौसमी फलों से लदे विशाल हरे – भरे पेड़ खड़े थे, तो बीच – बीच में छोटी – बड़ी झड़ियां और घास के मैदान भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में पीछे नहीं हटना चाहते थे |
इस हवेली के पीछे, सुरक्षा दीवार से लगी हुई सई नदी बहती थी, जिसके ठंडे पानी को छूकर आने वाली हवा कमाल की थी | इसकी ताजगी बदन को छूते ही सारी थकान छू-मंतर कर देती थी | यहीं एक बड़े और ऊँचे टीले पर जमींदार की शिकारगाह बनी हुई थी, जिसमें सुख सुविधा के सारे साधन मौजूद थे |
जमींदार अक्सर यहाँ शिकार के लिये आते थे | यहाँ अय्याशी और मौज मस्ती के सारे साधन मौजूद थे | जमींदार के अलावा उसके परिवार के कुछ सदस्य भी यदा – कदा यहाँ टहलने या हवाखोरी करने चले आते थे |
उस दिन भी सर्दी के मौसम की एक सुहानी दोपहर थी | ऐसे मनोहारी वातावरण में उस शिकारगाह की बेंच पर बैठा एक युवा जोड़ा अपनी ही बातों में खोया हुआ था | वातावरण में ठंडी हवा की तेज सिहरन महसूस हो रही थी, किन्तु सिर पर चढ़ आयी खिली हुई चटख धूप ने उसे भी मखमली अनुभूति में बदल दिया था |
“कितना सुन्दर नजारा है जयंत ! जैसे हम किसी पहाड़ की सुन्दर वादी में बैठे हुए हैं |....हैं न ?” – कुछ देर की खामोशी को तोड़ते हुए दुल्हन जैसी सुन्दर पोशाक पहने उस युवती के गुलाबी लबों ने सरगोशी की |
“हाँ शैली ! मन करता है कि हम यूँ ही हाथों में हाथ डाले बैठे रहें और वक्त यहीं थम कर रह जाये |” – राजसी वस्त्र पहने उस युवक ने भी युवती के हाथों को धीरे से दबाते हुए कहा |
“तुम्हारे साथ बैठे हुए तो वक्त का पता ही नहीं चलता | देखो धूप सिर पर चढ़ आयी है | हमें हवेली में वापस चलना चाहिए |”- युवती ने उठने का प्रयास करते हुए कहा |
“हाँ, ठीक कहती हो | कुछ देर में खाने का वक्त भी हो जाएगा | वहाँ लोग इंतजार करके परेशान होने लगेंगे | लेकिन क्या करूँ ? तुम्हारे साथ रहता हूँ तो इतनी जल्दी यहाँ से जाने का मन ही नहीं करता |” - युवक ने उसका हाथ वापस खींच कर नीचे बैठाते हुए कहा |
“आप भी न....? आपका तो कभी मन ही नहीं भरता मेरे साथ रहते हुए |” - युवती के गुलाबी गाल शर्म से लाल हो गये थे |
“अरे ! तुम हो ही इतनी सुन्दर और सुशील | जबसे तुम ब्याह कर आयी हो, मैं तुम्हारे चक्कर में हवेली का काम – काज भी भूल गया हूँ | पिताजी भी भुन्नाते जरूर होंगे, लेकिन प्रकट में कुछ कहते नहीं | सोच रहा हूँ किसी दिन डांट न पड़ जाये |” – युवक शरारत से हँस पड़ा |
“ना जी ना, ....अब तो बिलकुल भी नहीं डाटेंगे | बल्कि तुम्हें मेरा ख्याल रखने के लिये और भी कायदे से ताकीद कर देंगे |”
“क्यों ? ऐसा क्या बदलाव आ गया है मुझमें या तुममे ?” – युवक चौंक कर उसके चेहरे पर नजरें गड़ाता हुआ बोल पड़ा |
“हूँ....ह....|” – युवती के चेहरे पर दोबारा शर्मीली सी लालिमा फैल गयी |
कहने लगी - “बदलाव तो सभी को जल्द ही दिखने लगेगा, बस पहले तुम्हें और ससुर जी को तो खबर लग जाये |”
“हाँयsss ऐसा क्या ? शैली ! मेहरबानी करके पहेलियाँ न बुझाओ | सच बताओ, क्या बात है ?” – युवक ने जैसे जिद करते हुए उसके कन्धों पर दोनों हाथ रखकर हिला डाला |
वह खिल-खिलाकर हँस पड़ी | ऐसा लगा जैसे किसी मंदिर की सैकड़ों घंटियाँ एक साथ बज उठी हों |
- “अरे बाबा छोड़ो तो सही मुझे, बताती हूँ ना | दरअसल बात ये है कि.....”
युवती अचानक ही बोलते – बोलते रुक सी गयी थी | उसके सुन्दर मुखड़े पर दर्द की कुछ परछाइयाँ उभर आई थी | बड़ी मुश्किल से बोल पायी – “जयंत ! मेरा जी मिचला रहा है और सिर भी चकरा रहा है | लगता है उल्टी हो जायेगी |”
फिर वह माथा पकड़कर जमीन की ओर झुकती चली गयी – “....अ...आ...आsssक...थूsss |”
यह देख युवक बनावटी गुस्सा करके कहने लगा - “ओह शैली ! तुम भी न ? कितनी बार तुम्हें कहा है कि सुबह – सुबह ज्यादा तेल मसाले वाली और खट्टी - तीखी चीजें मत खाया करो | लेकिन तुम हो कि मानती ही नहीं | जब पिताजी को तुम्हारी ऐसी तबीयत की खबर लगेगी तो तुम्हारा ज्यादा ध्यान रखने के लिये मुझे अलग से नहीं सहेजेंगे तो और क्या करेंगे ?”
“नहीं जयंत ! मेरा विश्वास करो, मैंने ऐसा कुछ भी नहीं खाया | ऐसे तो हल्का - फुल्का सिर दर्द और जी मिचलाना तो कई दिनों से हो रहा है | यही सब बात तो मैं तुम्हें बताने वाली थी |”
“ओह ! आओ, पहले ठंडी हवा में थोड़ा सा पैदल टहलते हैं, तुम्हें राहत महसूस होगी |” – जयंत ने युवती का हाथ पकड़ कर उठाते हुए कहा |
“हाँ – हाँ, चलो थोड़ा पैदल टहल लेते हैं, फिर ऐसे ही धीरे – धीरे हवेली वापस लौट चलेंगे |”
दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकड़ा और प्रकृति की सुंदरता को निहारते हुए टीले पर टहलने लगे | दोनों की बातें अधूरी ही छूट गयी थी |
टीले से नीचे बहती हुई सई नदी की कल – कल करती अविरल धारा और ऊपर से पेड़ों की शाखों से टकराकर, झड़ियों से सरसराकर आती हुई हवा, कानों में शहनाई और बांसुरी जैसी मधुर आवाजें घोल रहे थे | जैसे दोनों ही संगीत की अद्भुत जुगलबंदी पेश करने पर आमादा थे |
कुछ दूर तक धीरे – धीरे पैदल टहलने से युवती को सचमुच राहत महसूस होने लगी थी | वे टहलते और बतियाते हुए अब तक टीले के बिलकुल किनारे पर आ गये थे | इस जगह से ठीक नीचे नदी के स्वच्छ पानी की मोटी सी धार बहती हुई एकदम साफ दिखाई दे रही थी |
शैली उस मनोरम दृश्य को देखने के लिए पल भर को रुकी | नदी के सौंदर्य को निहारते हुए अभिभूत होकर कहने लगी – “जयंत ! प्रकृति का कमाल देखो तो सही | धूप में नहाई हुई नदी का चमचमाता हुआ स्वच्छ पानी ऐसा लगता है, जैसे पिघली हुई चाँदी की धार बह रही है |”
-“हाँ शैली ! यह दृश्य मुझे भी बहुत लुभाता है | जरा उन विशाल रोहू मछलियों की उछल कूद ध्यान से तो देखो, जैसे जंगल में हिरण के शावक कुलांचे मारते फिरते हैं | एकदम मस्तमौला, दुनिया की दुश्वारियों से बेफिक्र.....|”
अब वे दोनों एक साथ गहराई की ओर झांकते हुए नदी के सौंदर्य का पान करने लगे | पानी में छप – छप करके उछलती हुई छोटी – बड़ी मछलियों की अठखेलियाँ ध्यान से देखने के लिए खड़े – खड़े ही नीचे की ओर झुक गये थे |
अचानक शैली लहराई और जयंत का एक हाथ ज़ोर से पकड़ने का प्रयास करते हुए एकदम से नीचे की ओर को लटकती चली गयी |
उसकी चीख जैसी आवाज निकली - “जयंत ! पकड़ो, मुझे फिर से चक्कर आ रहा है.....|”
“अरे - अरे ! संभल कर, फिसलना मत |.....इधर कच्ची बलुआ मिट्टी की तेज ढलान है, कहीं फिसल न जाओ ....|” - जयंत चेतावनी के स्वर में बोला था |
लेकिन शैली तब तक लुढ़क चुकी थी | उसकी घुटी – घुटी सी चीख उभरी - “जयंत ! बचाओsss मुझे, अरेsss अरेsss नहींsss, मैं गिरीsssss|”
जयंत के देखते ही देखते शैली कच्ची मिट्टी की ढलान पर सचमुच बुरी तरह फिसल चुकी थी |
जयंत ने उसका एक हाथ पहले से पकड़ा हुआ था और अब दोनों हाथों से उसे मजबूती पूर्वक थामे रखने की कोशिश कर रहा था | फिर इसी कोशिश में उसका भी संतुलन बिगड़ गया और वह भी ढलान की ओर पिचहत्तर अंश के कोण पर लटकता चला गया |
उसने शैली को थामने की भरपूर कोशिश की | लेकिन तब तक शैली का शरीर पूरी तरह नीचे लटक चुका था और उसको ऊपर खींचना अकेले जयंत के लिये बेहद मुश्किल हो रहा था |
क्योंकि ......जयंत को उसके पैरों के नीचे भुरभुरी बलुआ मिट्टी भी लगातार ढलान पर नीचे की ओर धसकती प्रतीत हो रही थी |
अब घबराये हुए जयंत ने लगभग लेटी हुई अवस्था में जैसे ही नीचे की ओर भरपूर नजर डाली तो उसके होश उड़ गये | वह ढलवा मिट्टी की अंतिम कगार पर था जो किसी भी समय धसक सकती थी और नीचे बहती हुई नदी के अलावा और कुछ भी नहीं |
उसे अच्छी तरह समझ में आ गया था कि यहाँ से फिसली हुई शैली को बचाने वाला कोई न मिला, तो वो लुढ़कते हुए सीधे नदी की धारा में जा गिरेगी |
अब उसके पास मदद की गुहार लगाने के सिवा कोई चारा नहीं था | वह चीखा – “अरे कोई है यहाँ ? मेरी पत्नी को बचाओ |”
लेकिन जयंत की आवाज नीचे की घाटी से टकराकर फिर वापस लौट आयी थी | नदी का वह क्षेत्र भी निर्जन ही लग रहा था | अब जयंत ने अंतिम आशा के रूप में टीले के ऊपर शिकारगाह की ओर भी गर्दन घुमाकर पुकार लगायी | लेकिन वहाँ से भी सन्नाटे के अलावा कोई प्रतिध्वनि नहीं आयी | उसकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं था |
दरअसल, यहाँ एकान्त पलों के विहार अथवा गोपनीय व विघ्न-विहीन विश्रान्ति की व्यवस्था होने के कारण, सामान्यतः कोई नौकर भी नजदीक में तैनात नहीं किया जाता था |
अंततः निराश जयंत ने नीचे नदी की ओर ही मुँह करके अपनी पूरी ताकत से, फिर से अन्तिम पुकार लगाई | शायद नदी में नाव लेकर घूम रहा कोई मछुआरा ही उसकी पुकार सुन ले |
- “बचाओssss, कोई है क्या नदी के पास ?”
जयंत की तेज आवाज इस बार घाटी में दूर तक गूँजती चली गयी थी |
शैली को संभालने के प्रयास में जयंत पसीने – पसीने हो गया था | पसीने की चिप-चिपी फिसलन उसकी हथेलियों तक पहुँच गई थी | उसे जल्दी ही समझ में आ गया था कि शैली के हाथों पर उसकी पकड़ फिसल रही है | जल्द ही कुछ करना जरूरी था |
अतः आखिरी प्रयास के रूप उसने मिट्टी के एक ढूह पर अपने पैर जमाकर एक बार फिर से शैली को ऊपर खींचने का प्रयास किया, लेकिन इस जोरदार प्रयास में ही उसके पैरों तले की मिट्टी भी धंसक गयी |
इससे जयंत का रहा - सहा संतुलन भी पूरी तरह गड़बड़ा गया था | ……और फिर न चाहते हुए भी शैली के साथ ही वह भी नीचे घाटी में लुढ़कता चला गया |
नदी में ज़ोरों से छपाक की आवाज हुई थी |
जयंत और शैली, दोनों ने ही आखिरी बार एक दूसरे की चीख निकलते हुए तो सुना, लेकिन फिर उन्हें कुछ भी होश नहीं रहा..... कि वे कहाँ और कितनी गहराई में डूबते चले जा रहे हैं ?
उन्होंने जीवन की आस छोड़ दी थी |
*****
इस घटना को बीते एक घंटे भी नहीं हुए होंगे कि हवेली कोहराम मच गया था | जिसे देखो वही इधर – उधर बदहवास सा दौड़ा चला जा रहा था | नौकर – चाकर भयभीत से आपस में बतियाये जा रहे थे |
- “अरे बाप रे ! आज अगर बाबू साहब और बहू रानी को कुछ हो गया तो मालिक हमारी खाल खिंचवा लेंगे |”
- “सही कहते हो भइया ! आज तो भगवान ही हमारा मालिक है |”
- “लेकिन भइया ! हमारी तो कोई गलती भी नहीं है | मालिक लोग जब शिकरगाह में होते हैं तो हममें से किसी को आसपास भी फटकने नहीं दिया जाता | ऐसे हम उनकी देखभाल या मदद कैसे कर सकते थे ?”
- “यहाँ तो यही मुसीबत है भइया | अपनी गलती का दण्ड तो भुगतना ही पड़ता है लेकिन जहाँ किसी और की गलती हो वहाँ भी हमें ही दण्ड का भागीदार बना दिया जाता है |”
- “करे कोई, भरे कोई | चलो देखा जाएगा | जब ओखली में सिर पड़ा ही है तो चोट से कब तक बचेंगे ? जैसी मालिक की मर्जी |”
इन दोनों मजदूरों की बात बेहद सच थी | थोड़ा आगे बढ़ते ही दोनों ठिठक गये | दोनों के मुँह से एक साथ निकला – “अरे वह देखो, सामने | इनका क्या हाल हो रहा है ?”
हवेली परिसर के एक कोने में चार मछुआरों को बुरी तरह एक मोटे पेड़ से बांधकर पीटा जा रहा था |
पीटने वाले जमींदार के कुछ सेवक ही थे, जो लगातार गंदी – गंदी गालियाँ देते हुए चीख रहे थे – “नीच जात ! कमीनों ! तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई बाबू साहब और बहूरानी जी को छूने की ?”
- “जमींदार साहब के परिवार की इज्जत को हाथ लगाने की ?”
“तुम्हारी रूह नहीं काँपी, शिकारगाह की तरफ जाने से पहले ?”
पिटते हुए लोग रो – रोकर सफाई दे रहे थे – “हुजूर ! हम तो नदी में मछलियाँ मार रहे थे | हमने अचानक उनकी चीख सुनी, जो जान बचाने की गुहार लगा रहे थे |”
“इंसानियत के नाते हम जब भागते हुए वहाँ पहुँचे तो देखा कि एक युवक और युवती पानी में डूब रहे हैं | हमने किसी तरह उन्हें बचाकर बाहर निकाला |”
“हम तो किसी को पहचानते भी नहीं थे | हमने उनके अच्छे और मंहगे कपड़ों से अनुमान लगाया कि वे हवेली के ही लोग होंगे, इसलिए हम किसी तरह उन्हें यहाँ लेकर आये |”
“कमीनों ! तुमने बेहोशी की हालत में मेरी बहू का चेहरा देखा, शरीर देखा | उसे छुआ, उसे यहाँ तक उठाकर भी लाये | हमारे आदमी मर थोड़े गये थे, वे पहुँच ही जाते | उनको बचाकर ले ही आते | आखिर तुमने क्यों हाथ लगाया ? तुम जानते नहीं कि इस हवेली और उसमें रहने वालों की ओर तुम्हारा नजर उठाकर देखना भी गुनाह है |” – अबकी बार जमींदार की गुर्राती हुई आवाज निकली, जो थोड़ी ही दूर आरामकुर्सी पर पसरा हुआ मूंछे ऐंठ रहा था |
“हुजूर ! माफ कर दीजिये | गलती हो गयी | हम तो उनकी जान बचाने के लिए नदी में खुद अपनी जान जोखिम में डाल कर कूदे थे |”- मछुआरे फिर गिड़गिड़ा रहे थे |
- “हाँ हुजूर ! हमें बिलकुल भी नहीं पता था कि उसमें कौन डूब रहा है ? हम इंसानियत के नाते दौड़ते हुए चले गये थे |”
- “हाँ हुजूर ! इस बार माफ कर दो | आगे से किसी हवेली वाले को इस तरह मरते हुए देखकर भी छूने या बचाने की हिम्मत नहीं करेंगे |”
“कमीनों ! गलती करते हो और हमें सफाई भी देते हो |” – जमींदार ने उठकर पास आते हुए दो कोड़े और फटकार कर उनकी खाल उधेड़ दी |
तभी हवेली के भीतर से जमींदार के दो कारिंदे दौड़ते हुए आये – “हुजूर ! बाबू साहब और बहूरानी को होश आ गया है | सिर में चक्कर आने से बहूरानी फिसल कर गिर पड़ी थी और उसे बचाने के चक्कर में बाबू साहब भी लुढ़क गये थे |”
- “हाँ मालिक ! अब वे ठीक हैं, होश में हैं | उनके पेट से सारा पानी बाहर निकाल दिया गया है | उपचार का तत्काल असर हो रहा है |”
“क्या वैद्य ने यह भी बताया कि बहू को अचानक चक्कर क्यों आया था ?” – जमींदार ने दहाड़ कर पूछा |
“हुजूर ! अच्छी खबर है |” – एक कारिंदे ने जबर्दस्ती चेहरे पर मुस्कन लाने की की कोशिश किया |
“सिर में चक्कर आने से कौन सी अच्छी खबर बन जाती है बेहूदों ?” – जमींदार ने कोड़े का रुख कारिंदों की ओर किया ही था कि दोनों घबराकर वहीं घुटनों के बल बैठ गये |
- “माफी हुजूर ! दरअसल वैद्य जी कह रहे थे कि बहूरानी उम्मीद से हैं | सिर का अचानक चकराना अथवा मिचली आना, उल्टी हो जाना आदि उसी के लक्षण थे |”
“क्याssss ?”- जमींदार के मुँह से हर्ष मिश्रित गर्जना सी निकली |
“जी हुजूर ! वैद्य जी ने किसी दाई को बुलाने के लिये कहा है |”- कारिंदे थूक सटकते हुए बोले |
- “ठीक है, भागो यहाँ से और जल्दी किसी अच्छी दाई को बुलाकर ले आओ | मैं भी वैद्य से पूछकर देखता हूँ | खबर गलत निकली तो उसके साथ सबकी चमड़ी उधड़ जाएगी |”
“ज...ज..जी मालिक |” - सेवकों ने सिटपिटाकर थूक निगल लिया |
“इन चारों का क्या करें हुजूर ?” – जमींदार को दूसरी दिशा में बढ़ते देख चारों मछुवारों की पिटाई करने वाले कारिंदों ने हाथ रोक कर पूछा |
- “खुशखबरी मिली है | इसलिए अभी छोड़ दे रहा हूँ | चारों को हवेली के बाहर फिंकवा दो | दोबारा आस – पास भी नजर आयें, तो सीधे गोली मार देना |”
जमींदार कारिंदों को निर्देश देते हुए जल्दी – जल्दी हवेली के भीतर की ओर दौड़ता सा चला गया |
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जमींदार के बहू – बेटे की जान बचाने वाले चारों मछुआरे अपनी – अपनी जान छूटते ही गिरते - पड़ते गाँव की ओर भागे |
फिर शाम होते – होते जंगल की आग की तरह यह खबर चारों ओर फैल गयी कि जमींदार ने फिर बेहद जालिमाना और कमीने इंसान वाली हरकत की है |
उसने अपने ही बहू – बेटे की जान बचाने वाले मछुआरों को सिर्फ इसलिए मारा कि वे उसकी शिकारगाह की ओर क्यों गये ? उसकी बहू के शरीर को हाथ क्यों लगाया ?
लोगों में भारी आक्रोश था जमींदार की इस हरकत पर | भला उस शिकारगाह के पास गये बिना और उन बहू – बेटे को हाथ लगाए बिना उनकी जान बचाना कैसे संभव होता ? नेकी करो, तब भी लट्ठ खाओ |
यह आये दिन की खबरें थी | उन दिनों जमींदारों के लिए आम बात थी | ये उनका आतंक था | इसी आतंक व दमन के बल पर उनकी जमींदारी चलती थी | वे प्रजा को दबाकर रखते थे | निचले तबके के लोगों का शरीर छू जाना भी गुनाह मानते थे | भले ही उनकी जान बचाने के लिये ही उन्हें किसी कमजोर या गरीब द्वारा छू लिया गया हो |
इन बातों से दबे – कुचले लोगों में जमींदार और उसके परिवार के प्रति घृणा बढ़ती ही जा रही थी | भविष्य के लिए प्रतिशोध की भावना से झुलसते लोगों में यह संदेश किसी प्रतिज्ञा की तरह तेजी से फैलने लगा था कि अब जमींदार के परिवार के किसी मरते हुए व्यक्ति को भी कोई नहीं छुयेगा, उन्हें अपने हाथ से पीने का पानी तक नहीं देगा |
....और इस तरह दिनों दिन बढ़ती यह नफरत एक अलग ही कहानी बनाने के लिए आगे ही बढ़ती ही चली जा रही थी |
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अगले दिन सुबह – सुबह जमींदार की चौखट पर एक सरकारी हरकारा खड़ा था | उसने कमर तक आदाब से झुकते हुए - “सलाम हुजूर !”
“क्या कहने आए हो ?” – उसके सलाम का जवाब दिये बिना ही जमींदार ने ठेठ लहजे में कहा |
“हुजूर ! कलक्टर साहब के दफ्तर से आपके लिए दिल्ली सरकार का मसौदा आया है | जरूरी ऐलान है |” – हरकारे ने बड़े अदब से सीलबंद लिफाफे को आगे करते हुए कहा |
“खोलकर पढ़ो और सुनाओ मुझे |” – जमींदार ने आदेश के लहजे में कहा |
“जी हुजूर !” – हरकारे ने अदब से सिर हिलाया | फिर लिफाफे की सील खोलकर चिट्ठी बाहर निकाली और पहले लगा |
“जैसा कि आप सभी जानते हैं कि अंग्रेज़ बहादुर देश छोड़कर हमेशा के लिए कूच कर गये हैं और अब देश की बागडोर जनता द्वारा चुनी गई सरकार के हाथों में रहेगी | अतः नए इंतजामिया ने फैसला किया है कि देश को एकजुट व मजबूत बनाने तथा हर खासो आम को बराबरी का हक देने के लिए सभी राजे - रजवाड़ों और जमींदारों से उनसे सारे अधिकार वापस लिए जाते हैं और प्रिवीपर्स कानून के अनुकूल उन्हें देश में रहने का आदेश सुनाया जाता है |………”
इसके आगे जमींदार कूच सुनने की हालत में नहीं रहा | उसे सब समझ में आ गया था कि ये क्या हुआ है | उसके मुँह से बड़ी मुश्किल से ये वाक्य निकले -
“ओह ! जिसका डर था वही हुआ | ये गोरी चमड़ी की अंग्रेज़ सरकार जाते – जाते हमें भी बर्बाद कर गयी | अब क्या होगा ?”
........और इसके बाद वह अपनी आरामकुर्सी पर ही ढेर होता चला गया | शायद सदमें से बेहोशी की हालत में जा पहुँचा था | सारे नौकर सन्नाटे में आ गये | सरकारी हरकारे ने एक अजीब सा मुँह बनाया और उल्टे पाँव वापस लौट पड़ा |
एक अध्याय का पटाक्षेप हो चुका था |
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रायबरेली जनपद की तहसील सलोन और उससे छह कोस की दूरी पर सई नदी के दूसरी ओर बसा गाँव पूरब नायन, जहाँ अंग्रेजों के समय जमींदारों की हवेली हुआ करती थी | इन हवेलियों के जमींदार खुद तो भारी शानो-शौकत में रहा करते थे, लेकिन अपने अनाप – शनाप खर्चों को पूरा करने के लिये प्रजा पर मनमाना अत्याचार करते थे |
......तब यहाँ से जन्मी एक और कहानी, जो लोगों की घृणा, जुगुप्सा और वीभत्स बदले पर आधारित थी | वर्षों बाद इस कहानी ने लोगों की जुबान पर इतिहास बनाना शुरू कर दिया था |
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