विश्रान्ति - 2 Arvind Kumar Sahu द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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विश्रान्ति - 2

विश्रान्ति

(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)

अरविन्द कुमार ‘साहू’

विश्रान्ति (The horror night)

(...और तब, जमींदार के अत्याचारों से उपजी घृणा व जुगुप्सा भरी एक रहस्यमय कहानी)-1

रहस्य एक रात का

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वह पूष अर्थात दिसंबर माह की एक बेहद सर्द रात थी। मटमैले बाजरे को पीसकर बने चितकबरे रंग के आटे जैसे रात के माहौल में, पीली – सफ़ेद रंग की उड़ती हुई धुन्ध में, आइसक्रीम जैसी नाजुक, जमती - पिघलती हुई महीन बर्फ से निर्मित घने कुहरे का साम्राज्य दूर – दूर तक फैला हुआ था।

हालाँकि आज पूर्णिमा की रात थी और भरे – पूरे चाँद की मदमाई चाँदनी अपनी पूरे यौवन के साथ आसमान में अंगड़ाई लेने को बेताब थी, किन्तु कुहरे के भीषण आवरण ने उसे बीमार जैसा बना कर रख दिया था | वह चमकना चाहकर भी निस्तेज और पूरी तरह बेबस होकर रह गई थी ।

कुहरे के भीषण आवरण को भेदकर धरती तक थोड़ी सी रोशनी लेकर पहुँचने में भी चाँदनी को नाकों चने चबाने पड़ रहे थे। ऐसे में दस - बीस कदम दूर तक भी साफ देखना बेहद मुश्किल हो रहा था। दोनों ओर मकानों से घिरी गाँव की पतली गलियों, ऊँचे भवनों की छाया और घने पेड़ों की झुरमुट में तो हाथ को हाथ तक सुझाई नहीं दे रहा था |

लगता था हर तरफ बस बीमार चाँदनी का मुकुट लगाये अंधकार के राजा तमराज का घना अंधेरा साम्राज्य ही कायम रहेगा |

खुली जगहों में, पेड़ों की पत्तियों से, कच्चे घरों की खपरैल वाली ढलवाँ मुँडेरों से, पक्के घरों के आँगन में पड़े लोहे के जाल से और बरामदे में छाये हुए छप्पर की कोरों से बेचैन और बे-आवाज कुहरा गल – गल कर बूँद – बूँद टपक रहा था |

लगातार बढ़ती ठंड में लगातार जमती और गलती बर्फ का नजारा कुछ इस तरह था, जैसे चारों ओर से तबाही मचाने आया हुआ बर्फ का कोई भीषण तूफान, किसी शक्तिशाली तपस्वी द्वारा जहाँ का तहाँ थाम लिया गया हो, अथवा श्राप देकर जड़वत कर दिया गया हो।

.........या फिर उसकी तपस्या के प्रताप से वह जमा हुआ बर्फ़ीला तूफान बूँद – बूँद करके पिघलकर नष्ट हो रहा हो।

यह सब ठीक वैसा ही हो रहा था, जैसे जलती हुई लौ की गर्मी पाकर मोमबत्ती की मोम बूँद – बूँद करके पिघलती हुई टपक कर नष्ट होती रहती है।

ऐसे में अपने ठहरने या छुपने के ठिकानों से धरती के दूसरे जीव – जन्तुओं को तो छोड़िये, सबसे सक्षम प्राणी इन्सान भी बाहर निकलने में लाचार महसूस कर रहे थे।

हवा में उड़ सकने वाले परिंदे पेड़ों की शाखों पर अपने घोसलों में छुपे सुबह होने और धूप निकलने का इंतजार कर रहे थे |

रेंगने वाले जानवर अपनी लम्बी और गहरी बिलों में घुसे धरती की गर्मी के अहसास से अपनी खाल को बचाये हुए थे |

दौड़ सकने वाले चौपाये अपनी छोटी खोहों अथवा बड़ी गुफाओं में स्थित अपने ठिकानों में दुबकने को मजबूर थे |

.......और इंसान ? वह तो सीधे अपने घरों के बन्द कमरों में गद्देदार गरमागरम बिस्तरों में घुटनों के बल तुड़े – मुड़े या कपड़ों की गठरी जैसे बने घुसे पड़े थे।

सचमुच बेहद कड़क और हाड़ कँपाने वाली ठंड थी। ऐसे मौसम में रजाई से सिर निकालने की जहमत या हिम्मत शायद बहुतों को भी गवारा नहीं थी।

ऐसे में मेरी नानी के पड़ोस में रहने वाली अधेड़ उम्र की दुर्गा मौसी के घर पर देर रात गये, जब किसी ने बड़ी बेसब्री से सांकल खटकाना शुरू किया अथवा यूँ कहें कि जल्दी – जल्दी और ज़ोरों से दरवाजा पीटकर उन्हें जगाने का प्रयास शुरू किया, तो घर के किसी भी सदस्य को नागवार लगना स्वाभाविक ही था।

सबसे पहले दुर्गा मौसी की ही नींद टूटी थी। अपनी ही साँसों की गर्मी से वातानुकूलित हो चुके बिस्तर में, चैन से सोती हुई मौसी को अपना सिर किसी प्रकार रज़ाई से बाहर निकालना बड़ा मुश्किल हो गया था |

अलसाई हुई सी कहने लगी - “ओफ़्फ़ोह, पता नहीं कौन इतनी रात गये दरवाजा पीट रहा है ? अभी – अभी तो नींद का एक झोंका आया था, फिर इतनी जल्दी ही आँख भी खुल गयी।”

दरवाजे की खट-खट रुकने का नाम नहीं ले रही थी |

मौसी की अलसाई हुई आवाज से अब तक उनका इकलौता बेटा दीपू भी जाग गया था । वह रज़ाई के भीतर ही करवट लेते हुए पहले कुनमुनाया, फिर मन ही मन भुन्नाने लगा |

– “यहाँ भी कैसे – कैसे लोग हैं ? ऐसी भयंकर सर्दी की रात में भी चैन से सोने नहीं देते। लेकिन इसमें दूसरों की क्या गलती ? ये मौसी की समाज सेवा भी अजीब है। नफा चार आने से ज्यादा का नहीं, लेकिन बेचैनी हमेशा बारह आने की ओढ़े रहती है।भला ये भी कोई वक्त है किसी को जगाने का ?”

असमय नींद टूटने से दीपू का भुन्नाना भी स्वाभाविक ही था | शायद यही कारण रहा होगा कि उस खट – खट की आवाज को सुनने के बावजूद वह एकबारगी अनसुनी कर गया था |

उसने आलस्य में दूसरी ओर करवट बदली, चेहरे पर रज़ाई को और खींच लिया | फिर शरीर के चारों तरफ रज़ाई की कोर दबाकर, ज़ोरों से लपेटते हुए, उसमें तुड़ी मुड़ी गठरी बनकर दुबक गया।

कोई उसकी यह प्रतिक्रिया देख भी लेता तो यही समझता कि जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं। जबकि उसने इस खट-खट की आवाज को जानबूझ कर उपेक्षित कर दिया था।

लेकिन ये सांकल थी कि अब भी बजती जा रही थी, ज़ोरों से खटकती ही जा रही थी। उसकी बेचैनी भरी आवाज में चैन से सोने वालों की प्रतिक्रिया से कोई भी अंतर नहीं पड़ना था |

जैसे कोई दुखियारा भक्त किसी मंदिर में जाये और द्वार का घंटा तब तक लगातार बजाता रहे, जब तक कि मंदिर की देवी खुद निकल कर बाहर न आ जाये....और पूछ न ले – “भक्त ! आखिर क्या कष्ट है तुझे ?”

........ और ये किसी दुर्गा देवी का मंदिर भले न सही, लेकिन दुर्गा मौसी का घर तो था ही।

दुर्गा मौसी का ये घर अनेक बीमारों व दुखियारों के लिये दुर्गा देवी के मन्दिर से कुछ कम थोड़े ही था | जहाँ शायद ही कभी कोई जरूरतमंद बंदा खुले या बन्द दरवाजे से खाली हाथ वापस लौटा हो |

सामान्य परिस्थितियों में तो दीपू भी किसी फरियादी की फरियाद झटपट सुन लेता था और दुर्गा मौसी के घर पर उपस्थित न होने पर भी यथायोग्य उचित सहायता या मार्गदर्शन जरूर करता था | लेकिन आज की बात कुछ अलग ही थी | इस समय बिस्तर से निकलने का उसका बिलकुल भी मन नहीं हो रहा था |

दीपू भले ही संस्कारी था | अच्छे और परोपकारी स्वभाव का था, किन्तु था तो बच्चा ही | आखिर सोलह या सत्रह वर्ष की उम्र गम्भीरता के लिहाज से होती ही कितनी है ?

लेकिन दुर्गा मौसी के घर का यह परम सत्य था कि ऐसी परिस्थिति में भी घर का दूसरा सदस्य भले न उठे, पर मौसी को तो उठना ही था। मज़बूरी में ही सही लेकिन उन्हें तो उठकर देखना ही था कि इतनी रात गए, ऐसे भीषण ठंड के मौसम में न जाने कौन जरुरतमंद आन पड़ा था ?

अकेला दीपू ही यदि इस समय घर में होता तो दरवाजा इतनी जल्दी बिलकुल भी न खुलता, किन्तु दुर्गा मौसी जब खुद घर पर मौजूद थी, जो हमेशा जरूरतमंदों या बीमारों की सेवा - सुश्रुषा के लिए हरदम तैयार रहती थी, तो दरवाजा इस समय भी जल्द से जल्द खुलना ही था |

रज़ाई से सिर बाहर निकाल चुकी दुर्गा मौसी ने एक बार सिर घुमाकर बगल में पड़े दीपू के बिस्तर की ओर होने वाली किसी संभावित हलचल का अंदाजा लगाने की कोशिश की | उन्होने सोचा था कि शायद दीपू ही दरवाजा खोलने के लिये उठ रहा हो | लेकिन उसकी ओर से कोई हलचल न पाकर उनकी अनुभवी चेतना को निराशा ही हाथ लगी |

तब उन्होने खुद कंधों से नीचे तक धीरे- धीरे रज़ाई से अपना शरीर बाहर निकाला और नीम अँधेरे में ही कनखियों से दीपू के बिस्तर की ओर देखते हुए उसकी स्थिति का जायजा लेने का प्रयास किया |

दीपू के बिस्तर की हल्की सी हलचल से ही उन्हें दीपू की मनःस्थिति का आभास हो जाता था | वह समझ गयी कि दीपू को इतनी जल्दी बिस्तर से निकलने का मन नहीं हो रहा था |

विवशता के बावजूद एक हल्की सी मुस्कान उनके चेहरे पर आ ही गयी | दीपू आखिर कितना भी बड़ा हो जाये, पर उनकी नजर में वह एक बच्चा था | ....और बच्चे व बुजुर्ग की नजरों में गंभीरता भरा अंतर हमेशा होता ही है |

सो, उन्होने खुद ही बिस्तर से निकल कर दरवाजा खोलने का मन बना लिया था।

गुनगुनी गर्मी का सुखद अहसास लिए हुए उनके पैर भी रज़ाई से बाहर निकलना नहीं चाहते थे | लेकिन दूसरे की परेशानी के बारे में सोचते हुए उन्होने अपने नंगे पैर धीरे – धीरे बिस्तर से बाहर निकाल ही लिए |

नीचे कच्ची मिट्टी का ठंडा और कष्टदायी फर्श एक रोमांचक सिहरन का अहसास कराते हुए उनके स्वागत को तैयार बैठा था |

“ऊईssss” - फर्श से नंगा पैर छूते ही उनके मुँह से एक सिसकारी सी निकल गयी |

दरअसल, उन दिनों गाँवों में दसियों कोस दूर – दूर तक अस्पताल या डॉक्टर ढूँढे नहीं मिलते थे | यहाँ तक कि बहुत कम पढ़े-लिखे और देशी आयुर्वेदिक दवाओं के जानकार वैद्य भी कहीं – कहीं ही होते थे |

ये उन्नीस सौ सत्तर के दशक की बात होगी | तब लोगों को छोटी – मोटी किसी भी बीमारी या जच्चा – बच्चा का प्रसव कराने के लिये स्थानीय झोलाछाप चिकित्सकों या दाइयों की मदद ही लेनी पड़ती थी।

ऐसे पुरुष चिकित्सक अथवा महिला दाइयाँ अनपढ़ होने के बावजूद पुरखों से प्राप्त पारंपरिक ज्ञान से भरे-पूरे होते थे और अनुभव बढ़ने के साथ ही किसी सिद्धहस्त चिकित्सक की तरह ही लोगों में अघोषित रूप से मान्यता प्राप्त हो जाते थे | आम लोग किसी भी प्रकार के उपचार के लिए इन्हीं लोगों पर आश्रित रहते थे |

दुर्गा मौसी भी ऐसी ही एक अनपढ़ सी वैद्य या दाई थी, लेकिन अपने काम में पूरी तरह सिद्धहस्त |

आस – पास के दर्जनों गाँवों तक उनकी बहुत ख्याति थी। दुर्गा मौसी को पारम्परिक चिकित्सा का इतना अच्छा ज्ञान था कि अनेक छोटी – मोटी बीमारियों का इलाज जड़ी – बूटियों के सहारे वे चुटकियों में ही कर देती थी।

सो, उनके घर पर अक्सर मरीजों का मेला जैसा लगा रहता था। इसके अलावा जो मरीज मौसी के घर तक खुद चलकर नहीं आ सकते थे, उनके परिजन दूर – दूर से मरीजों की निशक्तता का हवाला देकर उन्हें बुलाने चले आते थे। दुर्गा मौसी सबके साथ चली भी जाती थी। क्योंकि उनका मानना था कि गरीबों, बीमारों की सेवा करने से पुण्य-लाभ मिलता है, भगवान प्रसन्न होते है।

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