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विश्रान्ति - 4

विश्रान्ति

(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)

अरविन्द कुमार ‘साहू’

विश्रान्ति (The horror night)

(उस रहस्यमय व्यक्ति की आहट से गाँव के कुत्ते व सियार भी अजीब से बेचैन थे) -1

- “हूँ...., तभी तो मैं सोचूँ कि मुझे ऐसा कोई नाम ध्यान में क्यों नहीं आ रहा है?”

दुर्गा मौसी ने कुछ संतुष्टि की साँसें ली। लेकिन वह अब भी जैसे कुछ याद करने का ही प्रयास कर रही थी |

इसलिए आगन्तुक युवक उन्हें फिर से जल्दियाते हुए बोला – “सोच - विचार में समय न गँवाइए मौसी ! जल्दी चलिए , मैं बैलगाड़ी लेकर आया हूँ। लालटेन भी साथ में है। वो देखिये बैलगाड़ी में ही टँगी हुई है |”

युवक का लम्बा तड़ंगा एक हाथ अँधेरे में ही बैलगाड़ी की ओर इशारा करते हुए एक ओर को तन गया था | जिसे मौसी ने उसके लपेटे हुए कम्बल से बाहर निकलते हुए बिलकुल भी नहीं नहीं देखा था | न ही वापस कम्बल के भीतर ले जाते हुए देख पायी थी |

दुर्गा मौसी सिर्फ उसके ताने हुए लंबे हाथ की दिशा में ही देख पायी थी, जहाँ एक जुगुनू जैसी एकदम मद्धिम रोशनी झलक रही थी | वह समझ गयी कि वहीं पर उसकी लालटेन और बैलगाड़ी खड़ी होगी, जिस ओर आगंतुक का इशारा था |

“मौसी जल्दी से चलिये | मेरी पत्नी का प्रसव करवा दीजिये, वर्ना वो भीषण दर्द से तड़प – तड़प कर मर जायेगी। मैं काम पूरा होते ही आपको वापस भी छोड़ जाऊँगा।”
- “हाँ हाँ , ठीक बात है |”

उस युवक के अनुनय – विनय से दुर्गा मौसी का हृदय द्रवित होने लगा था | अतः उसने भी पूछताछ या सोच विचार में और अधिक समय बर्बाद करना ठीक न समझा।

कहने लगी – “कोई बात नहीं बेटा, ज्यादा परेशान मत हो। चलो देख लेते हैं।सब कुछ ठीक हो जायेगा | कुछ नहीं होगा तुम्हारे पत्नी या बच्चे को |”
किसी की तकलीफ देखकर दुर्गा मौसी का दिल बड़ी जल्दी पसीज जाता था। एक अच्छे चिकित्सक की तरह सबसे पहले उनका ध्यान सामने वाले की तकलीफ दूर करने पर ही जाता था। बाकी बातों पर बाद में कभी सोचना हो पाता, कभी – कभी तो वो भी नहीं।

वह रहती ही इतना व्यस्त थी कि एक के बाद एक नये काम में उलझ कर पिछली बातें अक्सर भूल जाया करती थी।

वैसे तो वह आस – पास के गाँवों के अधिकांश लोगों को जानती थी, फिर भी कई बार कुछ अजनबी भी आ जाते थे | जो शायद किसी के रिश्तेदार या नये निवासी होते थे या फिर पुराने निवासी होने के बावजूद पहली बार दुर्गा मौसी के घर आते थे।

अतः वह कहने लगी – “तुम बस दो – चार पल और ठहरो, मैं अपना कम्बल ले लूँ |....और कुछ जड़ी बूटियाँ भी साथ ले कर चलती हूँ | वहाँ जरूरत पड़ सकती है |”

इसके बाद दुर्गा मौसी तेजी से वापस घर के भीतर लौटी | अब तक उनकी आँखें इस वातावरण में भी काफी कुछ साफ देख - समझ पाने की अभ्यस्त होने लगी थी |

उन्होंने घर के भीतर दीपू की चारपाई के पास आकर फटाफट उसको झिंझोड़ कर जगा दिया |

उठाते हुए कहने लगी – “दीपू ! जल्दी से उठ तो सही, ....और सुन ! मुझे इसी समय काफी दूर पूरब नायन गाँव तक जाना होगा। एक जच्चा – बच्चा के प्रसव का बड़ा जरूरी मामला आ गया है।”

अब तो दीपू को भी न चाहते हुए भी बिस्तर से निकलना ही पड़ा।

दुर्गा मौसी का परिवार बड़ा छोटा था। सास – ससुर शादी के बाद ही परलोक सिधार गये थे। देवर, जेठ या ननद कोई भी पहले से ही नहीं था। इस इकलौते बेटे के जन्म के बाद भरी जवानी में ही उनके पति की भी मौत हो गयी थी। घर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था।

ये तो कहो कि दुर्गा मौसी मायके से ही दाईगिरी का हुनर सीख कर आयी थी | सो, इसी के सहारे ससुराल का घर सम्भाल लिया। कहने को तो वह इस गाँव की बहू थी। लेकिन उसकी सेवा भावना ने उसे इस गाँव की बहन – बेटी ही बना कर रख दिया था |

…..और इसी रिश्ते के सहारे आगे बढ़ते हुए वह पहले हम जैसे छोटों की मौसी बनी, फिर हर एक की मौसी के रूप में प्रख्यात हो गयी। आस - पास के अनेक गावों के सभी लोग, क्या बच्चे – बूढ़े और क्या जवान, सभी के लिए वे दुर्गा मौसी के रूप में ही जगत विख्यात हो गयी थी।

इस मौसी के घर में उनके परिवार के नाम पर अब ले देकर एक बेटा ही था, जो उनका ख्याल रखने की कोशिश कर सकता था और वह सचमुच उनकी परवाह करता भी था ।

इस समय वही बेटा जिसका नाम दीपू था, उनके बराबर में खड़ा होकर कह रहा था – “मौसी, मैं भी साथ चलूँ क्या ?”

अघोषित और आश्चर्यजनक रूप से दुर्गा अपने बेटे के लिए भी कब ‘अम्मा’ से ‘मौसी’ हो गयी थी, इसका किसी को कभी आभास तक नहीं हुआ ।

उनके इस बेटे ने जब से अपना होश सम्भाला था, अपनी इस ‘अम्मा’ को संबोधित करने के लिये, हर किसी के मुँह से इतनी बार ‘मौसी’ शब्द सुना था कि वह खुद भी उन्हें ‘मौसी’ ही कहने लगा था |

पहले तो दुर्गा ने भी इस बात बार ध्यान नहीं दिया था | लेकिन जब तक ध्यान गया, तब तक उसकी जुबान से इस ‘मौसी’ शब्द को छुड़वाना या बदलवाना असम्भव हो चुका था |

वैसे भी माँ हो या मौसी, रक्त के सम्बन्धों और निश्छल भावनाओं के लिये इस सम्बोधन से कुछ भी फर्क पड़ने वाला नहीं था | बल्कि यह तो उनकी लोकप्रियता का ही एक प्रमाण था | अपनी ममता, सेवा और वात्सल्य भाव के लिये ही तो इतना लोकप्रिय हो चुकी थी ‘दुर्गा मौसी’।

बहरहाल, दुर्गा मौसी ने दीपू को तुरन्त कोई जवाब दिये बिना, झटपट अपने बिस्तर से एक मोटा कम्बल खींच कर ओढ़ा | आवश्यक जड़ी – बूटियों की हमेशा तैयार रखी रहने वाली छोटी सी पोटली उठाई और आगंतुक युवक के साथ चल पड़ने को तत्पर हो गई ।

उनके साथ ही उनका बेटा दीपू भी उनके साथ निकलकर घर से बाहर तक आ गया था। फिर से कहने लगा – “मौसी ! मैं भी आपके साथ में चला चलता हूँ |”

लेकिन उन्हें लेकर जाने वाला आगंतुक युवक जल्दी से बोल पड़ा – “अरे रहने दो, चिन्ता की कोई बात नहीं | मैं हूँ ना ? जैसे इन्हें लिवाकर जा रहा हूँ, उसी तरह वापस भी छोड़ जाऊँगा..., पूरी ज़िम्मेदारी के साथ।”

इस बात पर मौसी ने भी दीपू को निश्चिन्त करते हुए कहा – “हाँ, हाँ | तुम घर पर ही रहो बेटा | इस भयानक ठंड से भरी रात में तुम्हें भी बाहर भटकने की कोई जरूरत नहीं। मैं अकेले ही अपनी देखभाल ठीक तरह से कर सकती हूँ। भीतर जाओ, दरवाजा बंद करके आराम से सो जाना। मुझे लौटने तक सुबह का धुंधलका भी हो सकता है।”

- “ठीक है मौसी ! जैसी आप कहें।” दीपू ने किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह सिर हिलाया और घर के भीतर वापस चला गया।

“आओ मौसी जल्दी चलो।” – दीपू के वापस पलटते ही आगंतुक ने बैलगाड़ी की ओर आगे बढ़ने का इशारा किया।

इस पूरी बातचीत के दौरान हर बार उसकी रहस्यमय आवाज वैसे ही नकनका कर निकल रही थी, जैसे सचमुच वह नाक से ही बोल रहा हो |

दुर्गा मौसी को जाने क्यों एक क्षण के लिए ऐसा लगा था कि यह आगन्तुक दीपू या शायद कोई और भी होता तो उसको अपने साथ बिलकुल भी नहीं ले जाना चाहता था। लेकिन मौसी को इस समय ऐसी कोई चिंता बिलकुल भी नही हुई या ऐसी किसी भी अनहोनी की संभावना का अहसास भी नही हुआ।

वैसे भी दुर्गा मौसी अक्सर अकेले ही ऐसे सफर पर आया – जाया करती थी | वह ऐसे आगंतुकों पर जल्दी भरोसा भी कर लेती थी | उसका मन साफ था और वह दूसरों को भी साफ मन का ही समझ लेती थी |

वह सामान्य अवस्था में ही अपने घर से निकली थी और उस रहस्यमय आगन्तुक के पीछे चलते हुए बैलगाड़ी की ओर आगे बढ़ती चली गई थी।

*****

घर की पतली कोलिया से थोड़ी दूर, चौड़ी गली की ओर आगे बढ़ते हुए मौसी की आँखें अब अपने आस - पास और अधिक स्पष्ट देखने का प्रयास करने लगी थी।

बैलगाड़ी उधर ही खड़ी थी। घर तक इतनी चौड़ी बैलगाड़ी आने के लिए रास्ता बिलकुल भी उपयुक्त नहीं था। बैलगाड़ी तक पैदल चलकर जाना मजबूरी थी | अतः यहाँ तक पहुँचते हुए थोड़ा खुले में आकर मौसी ने हल्के धूमिल प्रकाश में देखा कि …..

.......वह आगंतुक अजीब सी चाल चल रहा था। चल क्या रहा था ?.....जैसे हवा में हौले - हौले से उड़ रहा हो। उसके पैरों की पदचाप भी नहीं सुनाई दे रही थी। जबकि मौसी को अपने पैरों की आवाज साफ सुनाई पड़ रही थी।

.....और यह भी बड़े ही विस्मय की बात थी कि इतना नजदीक होने के बावजूद दुर्गा मौसी को उस आगंतुक के पैर नहीं दिखाई पड़ रहे थे, जबकि मौसी को अपना पैर साफ दिख रहा था।

लेकिन मौसी का ध्यान इस समय इस बात पर भी ठीक से नहीं गया। उन्हें लगा कि शायद मौसम के धुँधलके की वजह से ही उन्हें ऐसा लग रहा है।

बहरहाल, अच्छा भी हुआ, जो दुर्गा मौसी को उसके पैर नहीं दिख रहे थे। वरना उसके पैरों में कुछ ऐसा वैसा दिख गया होता तो मौसी डर कर उसके साथ जाने से वहीं तुरन्त ही इंकार कर सकती थी।

.....क्योंकि सामने वाला सचमुच अथवा शंका का भूत ही समझ में आ जाता तो वह डर भी सकती थी |......या वह सचमुच ही कोई आत्मा – वात्मा होता तो शायद उन्हे कोई नुकसान भी पहुँचा देता। …..या शायद वहीं पर मौसी का खून – वून चूस कर पी जाता या फिर चिढ़कर जान से मारकर किसी पेड़ – वेड़ में लटका देता।

तात्पर्य यह कि ऐसा कुछ भी हो सकता था |

इसलिए जो भी हुआ, जैसा भी हुआ, बस अच्छा ही हुआ | भले दुर्गा मौसी को उस आगंतुक के पाँव अब तक नहीं दिखे थे ।

क्योंकि गाँव के जानकार लोग कहा करते हैं कि भूतों या प्रेतों के पाँव ही नहीं होते। पाँवों की जगह कुहरे की तरह लगने वाली सिर्फ पूँछ जैसी कोई एक रहस्यमय चीज ही होती है। .....अरे, वह भी होती क्या है ?......सिर्फ होने का भ्रम मात्र पैदा करती है।

.....और, भूतों की कुछ प्रजातियों के पाँव यदि होते भी हैं, तो उनके पंजे सामने की ओर न होकर पीछे की ओर होते हैं।

इसीलिये वे मनुष्यों की तरह सामान्य रूप से नहीं चल पाते और चलते भी हैं, तो उनकी चाल उड़ती हुई सी लगती है। जैसे उनके पाँव जमीन पर टिकते ही न हों |

.......और सचमुच, यहाँ भी ऐसा ही कुछ जरूर हो सकता था, यदि उस समय दुर्गा मौसी ने उसकी चाल या पाँवों को ज्यादा ध्यान से देख लिया होता।

बहरहाल, मौसी की आँखों से उस समय भी ये रहस्य, बस रहस्य ही होकर रह गया था ।

(दुर्गा मौसी उस भयानक धुन्ध भरी रात में भी एक अजनबी की बैलगाड़ी में बैठकर चल दी)-3 )वैसे भी इन बातों पर ज्यादा ध्यान जाने से पहले या यूँ कहें कि पलक झपकते ही बैलगाड़ी मौसी के सामने आ चुकी थी। आगंतुक युवक या अब उसे रहस्यमय युवक ही कह लें, वह पहले ही लपक कर, आगे की ओर से बैलगाड़ी के चालक की जगह पर बैठ चुका था।

इसलिए दुर्गा मौसी भी फुर्ती से बैलगाड़ी के पिछले हिस्से से चढ़कर उसमें चुपचाप जा बैठी। ठीक से बैठने के बाद उन्होने अपना कम्बल अपने शरीर के चारों ओर खींचकर ठीक से दबा लिया था |

घर से बाहर की ठंडक तो बहुत ही ज्यादा तीखी थी | हवा के साथ उसका पतला सा अहसास भी शरीर में किसी धारदार तलवार की तरह प्रहार कर रहा था |

बहरहाल, दोनों ही लोग उस समय बहुत जल्दी में थे। उनके बैठते ही बैलगाड़ी तेजी से अपने सफर पर चल पड़ी थी।

अब मौसी ने कनखी से देखा | बैलगाड़ी में आगे बैठे रहस्यमय युवक ने अपने पैर नीचे को लटका रखे रहे थे। जिससे यहाँ भी उसका पैर उनको बिलकुल भी नहीं दिखाई दे रहा था |

बैलगाड़ी में चालक के बैठने का तरीका भी ज़्यादातर यही होता है। लेकिन सवारी पीछे आराम से पालथी मारकर बैठ सकती है या पाँवों को पूरा फैलाकर लेट भी सकती है। जैसे कि दुर्गा मौसी इस समय पीछे जाकर बड़े आराम से और निश्चिंत होकर कम्बल अच्छी तरह ओढ़ - लपेटकर बैठ गई थी।

बैलगाड़ी किस दिशा में जा रही थी या किधर ले जायी जानी थी ? ये देखना भी दुर्गा मौसी के वश का नहीं था। क्योंकि आगे की ओर टँगी हुई लालटेन का उजाला भी इस चाँदनी रात की तरह हास्यापद ही था।

वह लालटेन भी सिर्फ नाम के लिए ही रोशनी लुटा रही थी। इस भीषण कुहरे भरी रात में इस लालटेन की मद्धिम रोशनी में खुद लालटेन के सिवा और कुछ भी नहीं दिख पा रहा था।

पूरी तरह लकड़ी से बनी बैलगाड़ी और उसमें लगे दोनों लकड़ी के पहिये, उसके घर्षण करने वाले कल - पुर्जों में पड़े अरंडी के तेल की वजह से बड़ी अजीब तरह की ‘चर्र चूँ - चर्र चूँ’ की आवाज निकालते चल रहे थे।

ऐसा लग रहा था जैसे कोई कटकासुर यानी लकड़ी के शरीर से बना हुआ कोई राक्षस बड़ा ही बेसुरा गाना गाने की कोशिश कर रहा हो। लेकिन इस कटकासुर की आवाज या सुर ठीक से निकल न पा रहे हों और ऊपर से इस माहौल को और भी रहस्यमय बनाने में पूरी भागीदारी कर रहे हों।

बहरहाल, अभी उनकी बैलगाड़ी घर से थोड़ी ही दूर गई होगी कि गाँव की सीमा का सुनसान इलाका शुरू हो गया |

अचानक सामने वाले बरगद के ऊपर से एक बड़ा सा चमगादड़ जैसा पक्षी ‘फर्र - फर्र’ की आवाज करते हुए पंख फड़फड़ा कर उड़ा और फिर काफी ऊँचाई से ही उनकी बैलगाड़ी का गोल – गोल करके एक पूरा चक्कर लगा कर वापस चला गया।

मानो किसी अदृश्य डर की वजह से उस पक्षी की नींद खुल गई हो और वह बेहद घबराया हुआ सा कुछ जानने – समझने की कोशिश करने के लिये ही इधर चला आया हो। फिर कुछ भाँपकर या जासूसी करके चुपचाप वापस भाग गया हो |

लेकिन अजीब बात थी कि ठीक इसके बाद ही उस रास्ते से निकलते समय गाँव के कुछ भेड़िये और सियार जैसे जीव भी बड़ी अजीब सी रोने जैसी आवाज़ें निकालने लगे थे। मानो किसी को देखकर या किसी खास वजह से डर के मारे सहमे जा रहे हों।

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