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विश्रान्ति - 6

विश्रान्ति

(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)

अरविन्द कुमार ‘साहू’

विश्रान्ति (The horror night)

(बूढ़ा कह रहा था, "मैं हूँ ठाकुर मंगल सिंह")-5

मौसी को वह रहस्यमय साये जैसा व्यक्ति बूढ़ा इसलिये लगा क्योंकि उसके चेहरे पर सफ़ेद कोहरे जैसी लंबी - लंबी घनी मूँछें व दाढ़ी लटकती हुई साफ दिख रही थी । लेकिन उसके भी चेहरे की रंगत शायद साँवली ही रही होगी या फिर हवेली की छाया में पड़ने वाले झापक अँधेरे की वजह से दुर्गा मौसी को ऐसा लग रहा था ।

फिर दुर्गा को महसूस हुआ कि वह भी पूरा काला परछाईं जैसा ही इसलिए लग रहा था कि उसने भी काले कम्बल जैसा ही कुछ ओढ़ या लपेट रखा था |

वह बूढ़ा भी हाथ में वैसी ही मद्धिम सी जलती हुई एक लालटेन लिए हुए था, जैसी कि एक उस बैलगाड़ी में लटकी हुई थी, जिस बैलगाड़ी से वह इस हवेली तक आयी थी।

न जाने क्यों दुर्गा मौसी को इस समय भी ऐसा क्यों लग रहा था कि उस लालटेन से कुछ रोशनी तो निकलती लग रही है, किन्तु उसमें भी किसी बाती की लौ जलती हुई नहीं दिख रही। आखिर उसे ऐसा क्यों लग रहा था ?

इतना ही नहीं, उस जगह यह जो बूढ़ा व्यक्ति लालटेन लिए हुए खड़ा था, उसका भी चेहरा उस साथ में आये रहस्यमय युवक की तरह ही साफ नहीं दिख रहा था। ऊपर से वह बूढ़ा भी वैसी ही रहस्यमयी नकनकाती हुई पतली आवाज में बोल भी रहा था। मौसी ने अनुमान लगाया कि ये बीमार है शायद इसीलिए इसकी भी आवाज ठीक से नहीं निकाल पा रही |

पुराने बूढ़े शेरों की भी बीमारी की वजह से भीगी बिल्ली जैसी हालत होते देर नहीं लगती | यह विचार आते ही वह एक पल के लिये मन ही मन मुस्कुरा उठी |

बूढ़ा कह रहा था – “मैं हूँ ठाकुर मंगल सिंह। इस लड़के का पिता। इस पुरानी हवेली का मालिक और यहाँ का पुराना जमींदार।”

- “मुझे आपके दर्शन करके अच्छा लगा। लेकिन आपने भी मुझे मौसी ही क्यों कहा ? मैं तो आपसे उम्र में बहुत छोटी होऊँगी, बेटी के बराबर।”

- “ही ही ही ही।” बूढ़ा अजीब सी नकनकाती हुई आवाज में हँसा।

- “क्योंकि तुम भी तो बच्चों जैसे ही सवाल करती हो। अरे तुम तो जग-विख्यात मौसी हो। सबकी चहेती, सबका कल्याण करने वाली। इसलिए मैंने भी तुम्हें प्यार से मौसी ही कह दिया। बुरा मान गयी क्या ?”

- “अरे नहीं, मैं भला इस बात का बुरा क्यों मानूँगी ? बल्कि यह तो आपका बड़प्पन है, जो मेरे जैसों को भी इतना सम्मान दे रहे हैं।”

दुर्गा कुछ हड़बड़ा सी गयी थी।

फिर बूढे साये ने एक ओर को गर्दन घुमायी और जल्दी से बोला – “बातें तो बाद में भी कर लेंगे। फिलहाल इधर चलो दुर्गा ! बड़ी देर हो रही है। पहले अपने मरीज से तो मिल लो।”

- “....हाँ हाँ, जल्दी दिखाइये कहाँ है मरीज ?”

- “ये इधर से आगे वाले कमरे में जाकर देखो। आज तुमने यहाँ तक पहुँचने में जरा सी भी देर कर दी होती तो मेरी बहू के साथ कोई अनहोनी घटना अवश्य घट जाती।”

- “मैं तो बुलावा मिलते ही घर से निकल पड़ी थी।.....और रास्ते में भी कुछ ज्यादा देर नहीं लगी। वो बैलगाड़ी भी काफी तेजी से चलती हुई आयी है।”

- “हाँ भई, पुराने रजवाड़े वाले जमकर खाये- पिये बैल हैं। बड़ा तेज चलते हैं।” बूढ़े की बातों में अपनी शानो शौकत के लिये प्रशंसा के भाव थे |

- “जी सही कहा। जरा मुझे फिर से बताइये, क्या इस तरफ के कमरे में जाना है ?”

दुर्गा मौसी सामने दिख रहे एक धुँधले से कमरे की ओर इशारा करती हुई बोली।

- “हाँ - हाँ , कमरे के भीतर नि:संकोच चली जाओ और अब जल्दी से सब कुछ सम्भाल लो, तो मुझे चैन मिले। मेरी बहू मौत जैसी प्रसव पीड़ा से गुजर रही है।”

बूढ़े की आवाज से लग रहा था कि वह अपनी बहू- बेटे से बहुत प्रेम करता है और इस समय उसका ये दुख उससे देखा नहीं जा रहा है।

इतना सुनते ही दुर्गा मौसी का जिम्मेदाराना व्यक्तित्व फिर एक झटके से जाग उठा। उस का मन भीतर तक सहानुभूति से द्रवित हो गया था । अपने मरीज को तुरन्त राहत देने के लिए वह तेजी से उस कमरे की ओर बढ़ती चली गयी।

लेकिन यह क्या ? उस तरफ भी एक ही जैसे कई कमरों की लाइन लगी हुई थी। वह थोड़ा आगे बढ़ते ही फिर उलझन में पड़ गयी। उसने उलझन से पीछे मुड़कर उस बूढ़े की ओर देखा।

बूढ़ा उसके मन की बात शायद समझ रहा था | इसलिए उसने फिर आगे बढ़ने का इशारा किया। लेकिन दुर्गा को किसी कमरे में थोड़ी भी रोशनी या कोई चहल - पहल तक न दिखाई दी।

फिर भी अब बिना किसी से कुछ पूछे या बताये कि किस तरफ और कौन से कमरे में जाना है ? वह अनचाहे ही एक ओर को जैसे उड़ती हुई चाल से बढ़ती चली गई। जैसे कोई अनजानी ताकत उसे आगे ही आगे की ओर धकेलती लिये चली जा रही थी |

लम्बे गलियारे में एक के बाद एक और अनेक कमरे पार करते हुए अचानक ही वह एक ऐसे कमरे के सामने पहुँच गयी, जहाँ से किसी के कराहने व रोने की हल्की – हल्की आवाजें आ रही थी। उसे समझ आ गया कि संभवतः यही उसकी मंजिल थी |

फिर देखते ही देखते किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से वह उसी कमरे के भीतर प्रवेश करती चली गयी |

अजीब से अंधेरे में न रास्ता समझ आ रहा था, न कमरे का सही से दरवाजा दिख रहा, फिर भी किसी ने मानो छू मन्तर करते हुए ठीक उसी कमरे के भीतर पहुँचा दिया था , जहाँ अंदर भी अजीब सा धुँधलका ही छाया हुआ था |

घटनाएँ इतनी तेजी से घट रही थी कि उसे आश्चर्यचकित होकर सोच समझ पाने का मौका भी नहीं मिल पा रहा था। उसने कमरे के भीतर पहुँचते ही सामने की जगह पर एक उड़ती हुई सी नजर डालने की कोशिश किया कि आखिर उसका मरीज यानी कि जच्चा कहाँ है ?

दुर्गा मौसी के ऐसा सोचते ही कमरे में एक धीमी रोशनी का झमाका सा हुआ |

अब उसने देखा कि यहाँ इस कमरे में भी वैसी ही एक और लालटेन टँगी हुई थी, जिसकी अजीब सी हल्की – हल्की रोशनी कमरे में फैली हुई थी। लेकिन कमरे के बाहर से इसके भीतर आते हुए दुर्गा मौसी को इस रोशनी का बिलकुल भी अहसास नहीं हुआ था |

उसे लग रहा था शायद घने कुहरे के असर से ही आज उसकी आँखें कुछ कमजोर सी हो गयी है ? या फिर इस लालटेन की रोशनी थी ही इतनी हल्की व बुझी - बुझी सी कि रोशनदान से झाँकती कुहासे वाली नाम मात्र की चाँदनी और इस लालटेन की रोशनी में फर्क करना भी मुश्किल हो गया था |

दुर्गा मौसी को बार – बार यह खटक रहा था कि उन दोनों लालटेनों की तरह इस तीसरी लालटेन में भी जलती हुई दिया – बत्ती की तरह आग जैसी कोई बात नहीं दिख रही थी | केरोसिन या मिट्टी के तेल जैसी कोई चिर-परिचित गंध भी नहीं आ रही थी |

दुर्गा मौसी ने थोड़ा पास जाकर भी देखा | लेकिन उस लालटेन के जरा भी गरम होने का एहसास तक नहीं हो रहा था। मानो लालटेन में दिया - बाती की जगह कोई नागमणि रखी हुई हो, जो अपने आप अपनी दिव्य शक्ति से धीमी - धीमी चमक रही हो |

वह सब कुछ ऐसा ही था, जैसे इक्कीसवीं सदी के जमाने का कोई छोटा सा बैटरी से जलने वाला एलईडी बल्ब ठंडी सी मद्धिम रोशनी फैला रहा हो। जैसा कि बैटरी के डिस्चार्ज होने समय रोशनी धुँधली से धुंधली होती चली जाती है |

बहरहाल, पहले अपना कर्तव्य पूरा करने के चक्कर में दुर्गा मौसी इस बार भी इस ओर कोई ज्यादा ध्यान नही देना चाहती थी। अतः उसने कमरे में चारों तरफ नजर दौड़ाकर देखने की कोशिश किया कि आखिर कहाँ पर क्या रखा है ?

अब उसने कमरे के पास से सुनी गयी कराहने की आवाज पर ध्यान लगाया | उसे महसूस हुआ कि ये दर्द भरी हल्की सी कराह वाली आवाज ठीक उसके सामने से ही आ रही है | उसने धुन्ध भरे अंधेरे में फिर ध्यान से देखा, तब उसकी नजर ठीक सामने पड़े एक पलंग पर जाकर टिक गयी |

मौसी ने आगे देखा कि इस शानदार पलंग के नर्म – मुलायम गद्दे पर उस अजीब से माहौल में एक अकेली औरत प्रसव पीड़ा के असहनीय दर्द से बुरी तरह तड़प रही थी ।

वो बार – बार कराह रही थी और जार – जार करके रो रही थी। लेकिन विचित्र बात थी कि उसकी रोने - चीखने की आवाज बड़ी मुश्किल से कमरे के बाहर तक निकल पा रही थी | उस आवाज को सुनने के लिये भी कानों को ध्यान लगाना पड़ रहा था |

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