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विश्रान्ति - 5

विश्रान्ति

(‘रहस्य एक रात का’A NIGHT OF HORROR)

अरविन्द कुमार ‘साहू’

विश्रान्ति (The horror night)

(दुर्गा मौसी को आज रास्ते के इस वातावरण में पेड़ और पंछी भी बड़े रहस्यमय लग रहे थे)-4

आगे उनकी देखा – सुनी रास्ते में मिलने वाले कुछ अन्य जानवर भी असमय जागते जा

रहे थे और सब के सब चिड़चिड़ाकर अजीब सी आवाज में भौंकते- गुर्राते या खौंखियाते इधर से उधर भागते चले जा रहे हों।

गाँव के वफादार चौकीदार कुत्तों व अन्य जंगली जानवरों की इस कुसमय भौंकने या चीखने की आवाजों से घबरा कर उस बरगद पर चमगादड़ जैसे कुछ अन्य पक्षियों की भी नींद टूट गयी थी। वे सब भी एकबारगी अचानक नींद से जागकर ‘चेंssचेंss,पींssपींss’ का अनर्गल शोर मचा बैठे थे |

लेकिन इन सब का कलरव – क्रंदन ज्यादा भयानक होकर कुछ अधिक डरावना माहौल पैदा करके दुर्गा मौसी को डर का अहसास करा पाता, उससे पहले ही बैलगाड़ी तेजी से आगे बढ़ती हुई बरगद की सीमा से दूर निकलती चली गई ।

गाँव के बड़े बुजुर्ग कहते थे कि इस बरगद के पेड़ पर भी कुछ ऐसी अदृश्य और रहस्यमय शक्तियाँ रहती हैं, जिन्हें अब के किसी जीते जागते व्यक्ति ने तो कभी नहीं देखा था, लेकिन मरे हुए बाप – दादों के समय से ही उनके बारे में अफवाहें ज़ोरों पर थी।

ऐसा कहा जाता था कि इस पेड़ पर रहने वाली शक्तियाँ अपने क्षेत्र में आने वाली किसी भी नई रहस्यमय शक्ति से तत्काल विचलित हो जाती थी। उस पर रहने वाले चमगादड़ और आस- पास के कुत्ते – सियार इसी प्रेरणा से अपनी रोंघी – रोंघी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करने लगते थे।

हो सकता है, इसीलिए बैलगाड़ी बड़ी तेजी से उस बरगद के पेड़ के नीचे से गुजर गयी थी। क्योंकि उसके चालक को भी इस बात का अहसास रहा जरूर होगा कि इस बरगद पर गाँव की कुछ रहस्यमय शक्तियों का बसेरा है, जो उसके आने से बेहद बेचैनी का अनुभव करने लगी हैं।

इन लोगों के गाँव से बाहर निकलते ही आगे का रास्ता अब पूरी तरह निर्जन इलाके में आ गया था । बैलगाड़ी की अजीब सी चूँ-चर्र के अलावा बाकी सब तरफ फिर से वैसा ही सन्नाटा छा गया था।

बैलगाड़ी इस रास्ते पर बनी पुरानी लीक अर्थात दूसरी बैलगाड़ियों के गुजरने से बने दो- दो बित्ता चौड़े निशान के सहारे आगे बढ़ती जा रही थी। वरना तो देहात के अंधेरे में, खेतों के बीच की चकरोड से इस तरह रास्ता खोजना आसान नहीं होता |

चकरोड के दोनों ओर गन्ना, ज्वार – बाजरा या मकई के छह – छह फुट तक ऊँचे और घने पौधों के बीच का रास्ता जितना गहरा और घुमावदार होता है, सन्नाटे में उतना ही रहस्यमय भी हो जाता है |

फसलों के ये पेड़ हल्की सी हवा के इशारे पर भी ऐसे झूम उठते थे या साँय – साँय की आवाज पैदा कर देते थे मानो माहौल को भूतहा बनाने का सारा ठेका इन्होंने ने ही उठा रखा है |

ऐसे ही माहौल में अकसर चोर – डाकू, लुटेरे या हत्यारे भी अपना काम कर जाते है |

फिर दुरात्माओं का डर तो अगर जरा भी शंका हो जाये तो और भी भयानक चीज हो सकता है | चाहे वहाँ आत्मा – दुरात्मा जैसी किसी चीज का कोई अस्तित्व तक न हो | भय के भूत से, मानसिक डर के कारण ही लोगों के हृदय की धड़कनें रुक जाती है और कितने ही लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं |

इस माहौल में इतना सब कुछ अप्राकृतिक रूप से घटित होता चला गया था कि कोई सामान्य अवस्था का व्यक्ति होता तो मानसिक भय से घबराकर ही बेहोश हो जाता या जान ही गवां बैठता।

मगर यहाँ तो बैलगाड़ी में निश्चिंत बैठी दुर्गा मौसी सच में इस तरफ कोई ध्यान न दे सकी थी।

जबकि गाँव के जानकारों से उसने भी यह सुन रखा था कि यदि अचानक कोई चमगादड़ जैसा रहस्यमय और डरावना पक्षी किसी के सिर के ऊपर से गुजर जाए, वह भी चारों तरफ का गोल – गोल एक चक्कर काटते हुए, तो पक्का समझ लेना चाहिए कि कोई रहस्यमय आत्मा आपके साथ-साथ चल रही है।

.....या आस-पास ही कहीं खड़ी आपके ही ताक में पड़ी हुई है। अतः, ऐसी परिस्थिति में सावधान जरूर हो जाना चाहिए।

दुर्गा मौसी तो इस तरह की ज्यादातर बातों को अनपढ़ों की चंडूखाने वाली गप्प ही मानती थी या फिर टाइमपास के लिए सुनाई जाने वाली कहानियाँ समझकर भूल जाती थी।

एक तरह से वह अच्छा ही करती थी | क्योंकि यदि वह भी ऐसी बातें सच मान रही होती तो आज या तो घर से निकलती ही नहीं या फिर ऐसी घटनाएँ देखते सुनते हुए, सच मानकर भविष्य में कुछ बुरा होने वाले अंदेशे से ही बेहोश हो जाती।

सच में बड़े दिल-गुर्दे वाली थी ये दुर्गा मौसी। भय के मानसिक भूत से तो बिलकुल भी डरने वाली नहीं थी।

अलबत्ता मौसी ने सफर के दौरान बैलगाड़ी पर बैठे ही बैठे कंबल से थोड़ा मुँह उठाकर आसमान की ओर जरूर देखा। उसका यह प्रयास ‘तारों के झुंड’ को देखकर समय बताने वाली प्राकृतिक घड़ी का अंदाजा लगाने के लिए था। इस प्रक्रिया में गाँव के लोग प्रायः अब भी माहिर होते हैं।

पहले आज की तरह समय बताने वाली अँग्रेजी घड़ी या मोबाइल हर व्यक्ति के हाथ में नहीं होते थे। बिजली भी हर गाँव तक नहीं पहुँची थी। सो खुले आकाश में तारों की स्थिति देखकर ही रात में समय का अंदाजा लगा लिया जाता था।

वैसे भी गाँव से बाहर यहाँ तक पहुँचकर रास्ते का कुहरा थोड़ा कम लगने लगा था। चाँदनी का प्रकाश धरती तक थोड़ा ज्यादा मात्रा में पहुँच रहा था और आसमान के ज्यादा चमकीले तारे कुछ - कुछ पहचाने जाने की स्थिति में दिख जा रहे थे।

मौसी को तारों की स्थिति से स्पष्ट लग रहा था कि आधी रात होने वाली है। शायद बारह बजने से कुछ ही पहले का वक्त रहा होगा, जब वे गाँव से बाहर के लिये निकले थे।

गाँव में जानकार लोग कहते थे कि काली शक्तियों जैसे भूत – प्रेत, चुड़ैल, या ब्रह्मराक्षस आदि के सक्रिय होने का यही उचित समय होता है। इसी समयावधि में ये अदृश्य ताकतें अपनी अधूरी इच्छाएँ पूरी करने, या अन्य जीवों का खून पीकर अपनी भूख मिटाने या किसी से बदला लेने के लिए अधिक सक्रिय हो जाती हैं।

इस समय ऐसी शक्तियों की शक्ति और सक्रियता कई गुना बढ़ जाती है। सो ऐसे समय में घर से बाहर एकांत या सन्नाटे में कभी नहीं जाना चाहिए। किसी अजनबी के साथ तो बिलकुल भी नहीं।

बहरहाल, दुर्गा मौसी को भी समय का ठीक – ठाक अनुमान लगने से ये सारी बातें याद आ गई थी । भले ही ऐसी बातों को ज़्यादातर पढे – लिखे, समझदार लोग और ये मौसी खुद भी अफवाह ही मान लेते रहे हों, किन्तु ऐसी बातें दिमाग में आ जाने से किसी को भी ऐसे माहौल में डर की एक झुरझुरी सी तो आ ही जाती है।

....और बेवजह ही सही, लेकिन किसी अनजाने से भय और सिहरन का अहसास तो दुर्गा मौसी को भी हुआ ही होगा ।

हालाँकि वह ज्यादा डरी नहीं, क्योंकि अक्सर रात –बि-रात उसे इसी तरह दाई के काम से यहाँ – वहाँ जाना ही पड़ता था | ....और वह भी अधिकांशतः अजनबियों के साथ ही |

लेकिन अब तक कभी भी उसके साथ ऐसी वैसी कोई भी अनहोनी घटना नहीं हुई थी। सो, आज भी उसे ऐसी किसी बात की कोई आशंका तक बिलकुल नही हो रही थी।

पचास की उम्र के पेटे में पहुँचने वाली दुर्गा मौसी आम तौर पर काफी दिल गुर्दे वाली महिला थी। वो जल्दी किसी से डरती भी नहीं थी। सिर्फ भगवान को ही मानती थी। किसी भूत-प्रेत जैसी अनहोनी बातों, शक्तियों या घटनाओं में ज्यादा विश्वास नहीं करती थी।

हालांकि ऐसी रहस्य - रोमांच भरी घटनाएँ गाँव के लोगों में खूब नमक मिर्च लगाकर किस्से – कहानियों के रूप में बतायी – सुनायी जाती थी। बहुत से लोग सच्चा झूठा प्रमाण भी प्रस्तुत करने की जबानी और जबर्दस्त कोशिश भी करते रहते थे।

दुर्गा मौसी भी कई बार बैठे – ठाले ऐसे किस्सों में खूब रस लेती थी, किन्तु उन्होंने कभी ऐसे किस्सों में खुद के शामिल होने का कोई दावा नहीं किया था। चूँकि उनके साथ कभी कोई ऐसी घटना हुई भी नहीं थी, इसीलिए दूसरों की ऐसी सुनी - सुनाई बातों को वे बस मनोरंजन के किस्सों तक ही समेट लेती थी।

उनकी प्रतिक्रिया उस समय ठीक वैसी ही होती थी, जिस तरह आज-कल के लोग सिनेमा हाल में डरते, काँपते या सिहरते - रोमांचित होते हुए कोई बेहद डरावनी फिल्म देखने जाते हैं, फिर वहाँ के रहस्यमय कथानक, डरावने मेकअप वाले पात्रों, संवादों व सजीव से लगने वाले फिल्मांकन का ‘भयानक आनंद’ उठाते है।

कभी - कभी डर कर काँप जाते है और चीख भी पड़ते हैं। लेकिन फिर जैसे ही फिल्म खत्म होती है, सिनेमा हाल से बाहर निकलते हैं, तब केवल सतही चर्चा करते हुए बाकी का सारा डर, भय व अनावश्यक चिंता वहीं छोड़कर घर वापस लौट आते हैं |

ठीक वैसे ही हमारी दुर्गा मौसी भी ऐसे किस्सों का हाल करती थी।

लेकिन पता नहीं क्यों, दुर्गा मौसी को भी, आज और अभी का माहौल कुछ ज्यादा ही अजीब लग रहा था। कुछ-कुछ अफवाहों, किस्से - कहानियों के बिलकुल करीब का या सचमुच ऐसी बातों के सच होने जैसा।

सचमुच, रात का सन्नाटा तोडती हुई बैलों के चलने की आवाज और लकड़ी के पहियों की चूँ –चपड़ आज बड़ी अजीब लग रही थी। मद्धिम चाँदनी में भी सामने की ओर मुँह करके बैठे हुए बैलगाड़ी चलाने वाले युवक का चेहरा अब भी, दुर्गा मौसी को एक बार भी साफ नहीं दिख पा रहा था।

हालाँकि ऐसी किसी भी चिंता से मानसिक रूप से मुक्त होने के कारण उन्होंने उसका चेहरा देखने की अब भी कोई विशेष कोशिश नहीं की थी | .....और न ही उनको इसकी कोई जरूरत ही महसूस हुई थी।

लेकिन उस युवक की इतने लंबे रास्ते भर की चुप्पी भी अपने आप में बेहद रहस्यमय ही थी।

*****

आखिर, जब बिलकुल भी रहा न गया तो दुर्गा मौसी ने सन्नाटा तोड़ने की गरज से उस युवक से पूछ ही लिया – “ बेटा ! आज से पहले शायद मैंने तुम्हें आस - पास के किसी गाँव में भी कहीं नहीं देखा।”

- “मैंने आपको बताया तो था मौसी ! मैं भी यहाँ से दूर शहर में ही रहता हूँ। इधर तो कुछ ही दिन पहले हम गाँव में आये हैं। दरअसल पिताजी अस्वस्थ रहते हैं और शहर के डॉक्टर ने कहा था कि गाँव की आब–ओ-हवा सेहत के लिए ज्यादा अच्छी होती है। इसलिए हम लोग थोड़े दिनों के लिये यहाँ लौट आये हैं |”

– “हाँ, ये बात तो शहर के डॉक्टर ने एकदम सही कहा था। यहाँ के लोग कम ही बीमार पड़ते है। यहाँ का खान – पान भी अंग्रेज़ी खाद और दवाइयों से अभी तक मुक्त है | हवा और पानी भी यहाँ शहरों से ज्यादा साफ मिलता है।”

– “हाँ इसीलिए तो हम लोग थोड़े दिनों के लिए गाँव आ गये हैं। अन्यथा अपनी गर्भवती पत्नी को इस अवस्था में साथ लेकर आना कहीं से भी उचित नहीं था |”

– “मेरे होते हुए उसकी चिंता तुम बिलकुल ही मत करो | अच्छा हुआ जो तुम ठीक समय पर मुझे यहाँ तक ले आये | अब उसे कोई भी परेशानी नहीं होगी |”

- “जी मौसी ! मुझे आप के ऊपर पूरा भरोसा है | आखिर इतने बड़े इलाके में आपकी इतनी धाक यूँ ही थोड़े है |”

रहस्यमय युवक ने थोड़ी खुशामद के साथ ही बात को जैसे खत्म करने की कोशिश की थी।

लेकिन दुर्गा मौसी तो मानो सफर की थकान व बोरियत से मुक्त होने के लिए बातों का सिलसिला जारी रखने पर आमादा थी।

सो फिर से पूछने लगी – “वैसे बेटा! जब तुम भी गाँव से बाहर ही रहते हो तो मेरा नाम और घर का ठीक – ठाक पता तुम्हें कैसे मालूम हुआ ? रात में तो कोई रास्ता बताने वाला भी नहीं मिला होगा ?”

इस सवाल से वह रहस्यमय युवक कुछ पल को अकचका सा गया। लेकिन कुछ तो जवाब देना ही था, सो कहने लगा – “वो क्या है मौसी कि पड़ोसी गाँव के एक व्यक्ति ने आपके बारे में बहुत अच्छी तरह बताया था |”

“उसने आपके घर तक का रास्ता भी बड़ी अच्छी तरह समझा दिया था, इसलिए वहाँ तक पहुँचने में मुझे किसी से पूछने की बिलकुल भी जरूरत महसूस नहीं हुई।”

- “अच्छा ? बड़ी ही अच्छी और तेज समझ है तुम्हारी। अरे हो भी क्यों न ? हवेली वालों के खानदान से जो हो। भई राजे – रजवाड़ों और जमींदारों के परिवार के लोगों की बात ही कुछ विशेष होती है।”

मौसी की बातों में प्रशंसा के भाव थे। उसकी इन अच्छी बातों का असर उस युवक पर भी जरूर पड़ा होगा। लेकिन वह सिर्फ इतना ही बोल कर रह गया – “ नहीं मौसी, ऐसा कुछ भी नहीं है मुझमें।”

युवक के साथ बातचीत शुरू होने से मौसी की बोरियत दूर होने लगी तो उनकी बात करने की इच्छा और भी बढ़ती चली गयी |

अतः आगे पूछने लगी – “तो.....तुम भी शहर में कोई बड़ी नौकरी या बड़ा कारोबार करते होगे ? बेटा ! तुम क्या काम करते हो वहाँ ?”

फिर अचानक से पूछ लिए गए इस सवाल से वह रहस्यमय युवक सचमुच कुछ असहज हो उठा था। पर जवाब देना अब भी जरूरी सा लगा, तो वह अनमना होते हुए भी बोल पड़ा – “हाँ, कुछ ऐसा ही समझ लो मौसी।”

युवक पहले जैसी ही नकनकाती हुई आवाज में अब बोल रहा था |

– “काफी बड़ा कारोबार है मेरा, इसीलिए मैं अक्सर बाहर ही रहता हूँ। गाँव के इस हवेली में आना साल दो साल भर बाद ही हो पाता है। वह भी कुछ ही दिनों के लिए ।”

- “अच्छा बेटा ! तुम्हारी शादी कब हुई थी ? क्या तुम्हारी पत्नी का होने वाला यह पहला बच्चा है?”

- “काफी समय पहले हुई थी मेरी शादी, लेकिन यह मेरा पहला ही बच्चा है।”

- “तो अब तक कोई और बच्चा क्यों नहीं हुआ ? क्या तुम्हारी पत्नी के पेट में कोई दिक्कत या बीमारी थी ?”

जाहिर था कि अब युवक को झल्लाहट होनी स्वाभाविक ही थी | लेकिन सभ्यता के कुछ अंश उसमे जरूर समाये थे थे | तभी तो दुर्गा मौसी को अनिच्छा के बावजूद सवाल करने से मना नहीं कर पाया था |

कहने लगा – “हाँ यूँ ही समझ लो मौसी। बीच में शहर की डाक्टरनी से कुछ दवा इलाज भी करवाना पड़ा था | ईश्वर की कृपा से सफलता के आसार भी दिख रहे हैं |”

उस युवक ने जैसे- तैसे बात को फिर टालने की कोशिश की | लेकिन दुर्गा मौसी तो अब भी बातों पर ही आमादा थी | युवक द्वारा अपनी तरफ से बड़ा संतुलित जवाब देना मौसी को बड़ा अजीब सा लग रहा था ।

सो, वह अधिक कुरेद – कुरेद कर पूछती गयी - “तब तो…..?

अच्छा यह बताओ कि..... संतानहीनता की ये बीमारी किसके शरीर में थी ?

तुम्हें या तुम्हारी पत्नी को ?

किसका और कैसा इलाज हुआ था ?

सुना है शहर में डॉक्टर इलाज के लिये बहुत बड़ी – बड़ी सुइयां चुभोते है शरीर में | बहुत ही दर्द होता होगा न ?”

दुर्गा मौसी की उत्सुकता बढ़ी हुई थी और वह बात को इतनी जल्दी खत्म करने की मनः स्थिति में नहीं थी | लेकिन युवक ज्यादा बात करने के मूड में बिलकुल भी नहीं लग रहा था |

अतः इसके बाद भी जब दुर्गा मौसी ने कुछ और पूछने के लिये अपना मुँह खोला ही था कि तभी ‘चर्र.....चूँ….’ करके लगातार चलती हुई बैलगाड़ी अचानक ही ‘चेंsssss चूँsssss’ की आवाज करते हुए एक स्थान पर रुक गयी।

......या यूँ समझ लें कि अचानक ही रोक दी गई थी। युवक की वही नकनकाती हुई आवाज गूँजी – “अच्छा, अब नीचे उतर आओ मौसी।”

- “क्यों बेटा ! क्या हो गया ?”

अचानक ही बातचीत रुक जाने और नीचे उतर जाने के फरमान से दुर्गा मौसी मानो हतप्रभ सी रह गयी थी। हालाँकि उसे किसी प्रकार की अनहोनी की कोई शंका अब भी नहीं हुई थी।

- “अरे कुछ नहीं मौसी ! बस हम अपनी हवेली तक पहुँच गये हैं।”

- “अरे! इतनी जल्दी ? हमें तो अभी तक यहाँ किसी गाँव के आसार तक नहीं दिख रहे।”

दुर्गा मौसी फटी – फटी आँखों से आस - पास की स्थिति को घूर – घूर कर देखने की कोशिश करने लगी। लेकिन कुछ समझ में न आया।

यहाँ भी चारों वही घने कुहरे का धुँधलका छाया हुआ था। रास्ते के अगल - बगल लम्बे और घने पेड़ों के झुरमुटों के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था।

दुर्गा मौसी को यहाँ उतर जाने के फरमान से किसी सदमे जैसा आश्चर्य हो रहा था।

उस रहस्यमय युवक से कुछ अधिक बातों को जानने के लिए शुरू हुई वार्ता का सिलसिला अचानक ही बड़ी जल्दी, बड़े आश्चर्यजनक ढंग से टूट गया था।

जाने क्यों उन्हें संदेह हुआ कि अचानक मंजिल पर पहुँच जाने का मतलब ही उस युवक से आगे बातचीत न होने देने का अलौकिक संदेश था। बड़ी अविश्वसनीय सी घटना हो गई थी।

उन्हें यह समझने में असुविधा हो रही थी कि बैलगाड़ी की कछुआ गति से शुरू होने वाला छह कोस का लंबा घंटों का सफर आखिर इतनी जल्दी कैसे समाप्त हो गया था ?

अब तक वह युवक भी मानो दुर्गा मौसी के मन की बात ताड़ गया था।

उसने तत्क्षण ही संदेह दूर करने का प्रयास करते हुए कहा -“ मौसी ! दरअसल हमारी हवेली तो गाँव से एकदम बाहर ही है। इसलिए गाँव शुरू होने के आसार आपको रास्ते में भला कैसे दिखते ? ऊपर से इतना घना कोहरा है और बैलगाड़ी भी तो काफी तेज गति से चल रही थी न ?.....और फिर बातों ही बातों में समय का पता ही कहाँ चलता है ?”

दुर्गा मौसी सफर की दूरी और उसमें लगने वाले समय का कुछ मनगढ़ंत हिसाब लगा पाती, अथवा यह सोच - समझ पाती कि वह कितने लंबे व किस रास्ते से आयी है ?

या आसपास कौन सा गाँव पड़ता होगा ?

या इस युवक से उसने अब तक कितनी लंबी बातें कर डाली होंगी ?

......जिससे दूरी व समय का कुछ तुलनात्मक अंदाजा लगता ?

लेकिन उनके कुछ सोच - समझ कर बोल पाने से पहले ही वह युवक जल्दी से कहने लगा – “आइये मौसी ! पहले मरीज देख लीजिये, बाकी बातें हम लौटते समय भी कर लेंगे।”
- “हाँ – हाँ |” दुर्गा मौसी को मजबूरन सारे तात्कालिक विचार अपने मन- मस्तिष्क से बाहर झटक देने पड़े |

वह भी जल्दी से बोल पड़ी –“ हाँ – हाँ, चलो- चलो । पहले मरीज को देखना ज्यादा जरूरी है।”

युवक आगे बढ़ता हुआ बोला - “आइये ! इधर को आइये |”

अब तक युवक उन्हें हाथ से इशारा करता हुआ सामने वाले रास्ते पर सीधा आगे- आगे चल पड़ा था | दुर्गा मौसी भी बिना कुछ बोले मन्त्रमुग्ध सी उस युवक के पीछे – पीछे चल पड़ी। जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे चुपचाप खींचे लिये चली जा रही हो।

सामने देखते हुए दुर्गा मौसी को इस समय फिर वही अहसास हुआ कि उस युवक मानो जमीन से एकाध बित्ता ऊपर हवा मे ही तेजी से उड़ता हुआ चला जा रहा है | धुंधलके में दुबे हुए उसके पैर अब भी नहीं दिख पा रहे हैं |

फिर मौसी स्वयं भी यह यह अनुभव करने लगी कि उसके भी कदम अचानक ही मानो धरती पर नहीं हवा में ही पड़ते जा रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो मौसी के पैरों में भी अचानक ही कोई तेज कदम पैदल चलाने वाली मशीन फिट हो गई हो।

एक निश्चित दूरी के नपे तुले कदम और सुनिश्चित गति चाल के साथ। पैरों के नीचे की जमीन भी समझ में नहीं आ रही थी। लग रहा था वे खुद भी कुहरे की रुई जैसी हवा पर तैरती हुई जा रही हों।

हालाँकि सामने और आसपास उन्हें ज्यादा कुछ साफ नहीं दिख पा रहा था। सिर्फ आगे – आगे गुजरते हुए उस युवक का काला साया ही नजर आ रहा था।

पर मौसी की हालत भी इस समय कुछ ऐसी थी कि जैसे उसकी बुद्धि ही उसे कुछ और देखने समझने का मौका नहीं देना चाहती थी।

और फिर......., बैलगाड़ी के पास से दस कदम सामने तक भी कुछ न देख पाने वाली दुर्गा मौसी ने पलक झपकते ही अपने आपको एक महल जैसी बड़ी और पुरानी हवेली के सामने खड़ा पाया ।

******

घने कुहासे के धुन्ध भरे वातावरण में दुर्गा मौसी उस भव्य हवेली के भरे पूरे ऐश्वर्य को अपनी आँखें फैला – फैलाकर अच्छी तरह देखने की असफल कोशिश करने से अपने आपको रोक ही नहीं पा रही थी |

वही पुरानी कहानियों में सुनी – सुनायी हुई, जमींदारों की शान और बुलंदी के रुआब के साथ खड़ी ऊँची हवेली ।

ऊँचे – ऊँचे मेहराबदार कंगूरे, मोटे – मोटे खंभों पर टिकी चौड़ी और विशाल छतें तथा सजावट के लिये बनायी गयी छतरियाँ | हवेली के भीतर तक साफ हवा जाने के लिये बाहर से बड़े – बड़े जालीदार झरोखे थे, तो भीतर के हाल में बड़ा सा झाड़ - फानूस इस अंधेरे में भी अपने को जाहिर करने से बाज नहीं आ रहा था ।

ऐसी भव्य हवेली इस समय ज्यादा चमक तो नहीं रही थी, लेकिन अपनी शानो शौकत को पुरानी भव्यता के साथ मटमैले रंग के कुहरे में दर्शाने की साफ कोशिश जरूर कर रही थी।

इस धुँधली चाँदनी के प्रकाश में भी यह अंदाजा लगाया जा सकता था कि शायद काफी दिनों से उसकी रंगाई - पुताई भी नहीं की गयी होगी। इसका कारण यह हो सकता था कि युवक के बताने के मुताबिक वह लोग ज़्यादातर बाहर ही रहते थे और इस तरफ बहुत ही कम आ पाते थे ।

शायद कुछ आर्थिक तंगी भी लगी रही हो। आखिर इतनी बड़ी महल जैसी हवेली को आज के जमाने में पहले जैसा साज – संवार कर रखना भी तो बेहद खर्चीला था।

इसको बनवाने वाले रहे होंगे किसी जमाने के राजे – रजवाड़े और रईस, लेकिन अब राज-काज खत्म जाने के बाद सबकी हराम की कमाई बंद हो चुकी थी और अच्छे – अच्छों को आटा – दाल – चावल का भाव मालूम हो गया था |

क्या राजा क्या रंक ? इस मंहगाई में सबकी वही कहानी हो रही थी।

दुर्गा मौसी की सोच अपनी जगह सही ही रही होगी, क्योंकि यदि ऐसा न हुआ होता तो इतनी बड़ी हवेली में रहने वाले लोग दूर किसी शहर में क्यों जाकर बसते ? जैसा कि साथ आए युवक ने बताया था।

लोग रोजी - रोटी के लिए ही तो घर – बार छोडकर परदेश या दूसरे शहर की ओर भागते हैं।....अक्सर ऐसा ही सुना जाता है कि राजे या जमींदारों के वैसे दिन अब नहीं रहे। निश्चित रूप से इन लोगों की दशा भी शायद या पक्के तौर पर कुछ ऐसी ही हो चुकी होगी।

बहरहाल, दुर्गा मौसी को इन सब बातों से कुछ अधिक लेना देना नहीं था | सो, उसने इस सोच को भी जल्दी ही सिर से झटक दिया। उसके पास इस समय इन बातों के बारे में ज्यादा सोचने का मौका भी नहीं था | क्योंकि पता नहीं उसके मरीज की क्या हालत हो रही होगी ?

वह जल्द से जल्द उस मरीज के पास पहुँचना चाहती थी। उस समय मौसी की प्राथमिकता में सिर्फ और सिर्फ उसके मरीज का इलाज ही था | वह भी एकदम सही और वक्त रहते बेहतर इलाज ही करना था। इसलिए वह किसी भी जायज या नाजायज चिंता को अपने दूर ही रखती जा रही थी।

शायद इस जल्दबाज़ी की वजह से ही उसको ऐसा लग रहा था कि वह भी हवा में उड़ती हुई सी तेज चाल से चलती जा रही है |

बहरहाल, पलक झपकते ही एक बार फिर उसके उड़ते हुए पैरों की तेज गति को विराम लगा तो उसने सामने की ओर सिर उठाकर देखा | उसने पाया कि अब वह हवेली के विशालकाय मुख्य प्रवेश द्वार पर है | वह बड़े गोल फाटक के ऊपर बने बेहद खूबसूरत लग रहे मेहराब के ठीक नीचे खड़ी थी।

बैलगाड़ी से उतरकर इस दरवाजे तक पहुँचने में भी उसे सिर्फ पलक झपकने में लगने वाले समय जितना ही अहसास हुआ था। सब कुछ बड़ा अजीब और सचमुच रहस्यमय ही घट रहा था।

हवेली के मेहराब की खूबसूरती पर वह प्रशंसा भरी भरपूर नजर डाल भी नहीं पायी थी किसी अनजान प्रेरणा से मजबूर वह फिर उड़ती हुई सी आगे बढ़ चली |

“आओ मौसी ! आगे बढ़ती चली आओ।”

– उस रहस्यमय युवक की आवाज जैसे किन्ही अँधेरी घाटियों से गूँजती हुई आ रही थी। आवाज के सहारे आगे बढ़ती हुई दुर्गा मौसी अचानक एक नए दरवाजे पर पहुँचते ही फिर रुक गयी।

यहाँ भी मुख्य द्वार से थोड़ा छोटा किन्तु वैसा ही एक आलीशान मेहराबदार दरवाजा और बना हुआ था।

“आओ दुर्गा मौसी ! तुम्हारा स्वागत है इस पुरानी हवेली में ।”

– इस रुआबदार आवाज के साथ ही यहाँ एक और रहस्यमयी काले साये जैसा ही बूढ़ा व्यक्ति उनका स्वागत करने के लिए खड़ा मिला |

वह भी किसी भूत की तरह ही अचानक दुर्गा मौसी के सामने प्रकट हो गया था।

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