दरमियाना - 27 Subhash Akhil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दरमियाना - 27

दरमियाना

भाग - २७

दया की दया का अंत

रेखा की मौत के बाद भी मैं कुछ समय तक उसके घर जाता रहा था। मोहिनी या गुलाबो और चंदा में से कोर्इ मिल जाता या फिर उसकी माँ और निशा से ही सामान्य जानकारी लेकर मैं लौट आता था। हालाँकि उस केस पर मैंने अपनी पूरी नजर बनाये रखी थी। गवाह और सबूतों की पड़ताल में पुलिस और मीडिया ने भी अहम भूमिका निभार्इ थी। मेरे अपने अखबार के और दूसरे अन्य मीडिया कर्मी साथियों ने भी हमारी मदद की थी। लिहाजा पूरी वारदात के सूत्र जुड़ते चले गये और अंततः उन चारों को सजा भी हो गर्इ।

मोहिनी, गुलाबो और चंदा -- अब भी वहीं रहती थीं और रेखा की माँ तथा बहन निशा की सारी जिम्मेदारी इन्होंने संभाल ली थी। निशा की पढ़ार्इ-लिखार्इ भी जारी रखी गर्इ थी... और सांगली मैस में इन तीनों की दबंगर्इ के चलते उसे कोर्इ असुरक्षा भी नहीं थी।

इसके कुछ समय पश्चात मेरे पिता जी का निधन हो गया, तो मुझे परिवार सहित गाजियाबाद लौटना था। पिता जी के घर में। इसकी सूचना मैंने मोहिनी को भी दी थी कि अब मैं गाजियाबाद शिफ्ट हो रहा हूँ, मगर ऑफिस के फोन और मोबाइल पर मुझसे संपर्क किया जा सकेगा। मेरे यह बताने पर मोहिनी चहक उठी थी, "अच्छा, आप गाजियाबाद जा रहे हैं!... वहाँ तो मेरी दया मौसी रहती हैं!...

"दया मौसी?... मतलब? तुम्हारी कोर्इ दया मौसी हैं?" मैंने आश्चर्य से पूछा था।

"हाँ, मेरी सलमा गुरु की धरम बहन!... वो गाजियाबाद के कैला भट्टा इलाके में रहती

हैं। आप उनसे जरूर मिलना। वो बहुत अच्छी हैं। सारा इलाका उन्हें बहुत मानता है।... गुरु की तो धरम बहन हैं ही, मुझे भी बहुत प्यार करती हैं दया मौसी!"

मोहिनी ने कहा, तो एक छटका-सा लगा था -- लो, अभी से फिर एक संपर्क-सूत्र मिल गया?... और फिर वही सवाल कि आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?... खैर, मैंने उसके इस संपर्क-सूत्र के प्रति उसे धन्यवाद दिया था।

***

गाजियाबाद आ जाने पर काफी समय तो यहाँ के हालात में खुद को ढालने में लग गया। मंडी हाउस भी जाना नहीं हो पाया और मोहिनी या वहाँ किसी अन्य से कोर्इ संपर्क भी नहीं हो सका। यहाँ चले आने पर मोहिनी की उस 'दया मौसी' का ध्यान भी नहीं रहा था।

उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनावों की आहट शुरू हो गर्इ थी। सभी दलों के सम्भावित उम्मीदवार अपने बिलों से बाहर निकल आये थे। अपने समर्थकों के संख्या-बल पर, वे अपने दलों की टिकट के लिए दमखम लगाये हुए थे। जिनके दलों की ओर से उनका टिकट लगभग पक्का था या जिन्हें किसी भी पार्टी के टिकट की दरकार नहीं थी, वे अधिक उत्साह से सक्रिय हो गये थे।... कुछ ऐसे भी थे, जो अपने जातीय समीकरणों के आधार पर, अन्य संभावित टिकटार्थियों पर अपना दबाव बनाने में जुटे हुए थे, ताकि नाम वापसी की तारीख के आसपास किसी से मोलभाव कर, उसके समर्थन में 'बैठा' जा सके।

हालाँकि गाजियाबाद के राजनीतिक परिदृश्य से मैं बहुत ज्यादा परिचित तो नहीं था, मगर अपना मूल स्थान होने के कारण, दिल्ली से सटे होने के कारण... और पत्रकार होने के कारण भी मैं यहाँ का कुछ 'गणित' तो समझता ही था। यहाँ के जातीय और व्यावसायिक समीकरणों का मोटा-मोटा अनुमान भी मुझे था ही। मूलतः कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में ही यहाँ सीधे-सीधे राजनीतिक घमासान होता रहा था। यहाँ से अभी तक हुए सभी लोकसभा चुनावों में सर्वप्रिय नेता स्व. प्रकाश वीर शास्त्री तथा विधान सभा चुनावों में पं. प्यारे लाल शर्मा ही रहे हैं। तभी से ये सीटें कांग्रेस और भाजपा को आती-जाती रही हैं। यूँ बीजेपी व कांग्रेस को भी अनेक कद्दावर नेता गाजियाबाद ने दिये हैं। जैसा मैंने कहा कि इस बार फिर चुनावों की आहट पाकर दलीय-निर्दलीय सभी नस्लों के नेताओं में सरसराहट शुरू हो गर्इ थी।... तभी एक दिन मैंने देखा राजनगर के 'हिन्ट चौक' के पास कुछ गाड़ियों का काफिला धीरे-धीरे सरक रहा था। साथ ही कुछ दरमियाने किस्म के लोगों की टोली, अपने बहुत-से अन्य समर्थकों के साथ, अपनी नेता को बीच में लिए चल रहे थे।... तभी एक ने नारा लगा दिया -- 'हमारा नेता कैसा हो?...''दयारानी जैसा हो...' बाकी समर्थकों ने बता दिया।

मुझे एकाएक स्मरण हो आया कि ओहो!... तो ये हैं, मोहिनी की 'दया मौसी'! मैंने एक भरपूर नजर उन पर डाली -- वे इस उम्र में भी बला की खूबसूरत लग रही थीं। ऊपर से नीचे तक बेहद भव्य श्रृगार।... सिर के बाल कुछ कम किन्तु करीने से बँधे हुए। चौड़ा माथा, उसपर तराशी हुर्इ भवें। लाल गोल बड़ी-सी बिंदिया। कानों में लटकते सोने के बड़े-से झुमके। नाक पर लश्कारा मारती हुर्इ लौंग बिराजमान थी। होटों पर सुर्ख लिपिस्टिक चस्पां थी... और उनकी मुस्कराहट उसे और भी मारक बना रही थी। गले में फूलों की मालाएँ पड़ी थीं, महंगी सिल्क की साड़ी के साथ ही हाथों में सोने के कंगन।... आज ये हाथ आपस में टकरा नहीं रहे थे, बल्कि बहुत ही विनम्रता से जुड़े हुए सभी का अभिवादन कर सभी आने-जाने वालों तथा दुकानों के आसपास खड़े लोगों के सम्मान में सिर भी झुका रही थीं।

मैं भी उन्हें देख कर रुक गया था। तभी वे मेरे सामने से गुजरने लगीं, तो मैंने भी उन्हें दोनों हाथ जोड़कर ही नमस्कार किया। फिर अचानक ही मैं पूछ बैठा, "आप ही दयारानी हैं?"

"हाँ बाबू, (दरअसल बाद में पता चला कि वे मुझे बाबू क्यों कह रही थीं...) मैं ही दयारानी हूँ!... आप क्या नये आये हो शहर में, जो मुझे नहीं जानते?"

"जी, शहर में तो मैं नया आया हूँ... मगर आपका जिक्र मैंने आपकी मुंह बोली बहन सलमा, जो दिल्ली में रहती हैं -- उनकी चेली मोहिनी से भी सुना था।" मैंने एक सांस में उन्हें मोहिनी व्दारा दिया गया रेफ्रेन्स दे डाला... और यह भी बताया कि उसने ही मुझे आपसे मिलने के लिए भी कहा था।

"अरे हाँ बाबू!... मोहिनी मेरी बच्ची है दिल्ली में -- सलमा की चेली!... मगर आप कैसे जानते हैं उन्हें?" उनकी सवालिया निगाहें मुझ पर टिक गर्इ थीं।

"दरअसल, मैं पत्रकार हूँ... और आपकी सलमा बहन की एक अन्य चेली, रेखा की मार्फत मैं उनसे मिला था।... उन्होंने ही मुझे आपसे मिलने के लिए कहा था!" मैंने बताया, तो वे प्रसन्न हो उठीं।

फिर बोली, "तो बाबू कभी घर आओ, मिल-बैठ कर बहुत सारी बातें करेंगे।... अभी तो चुनाव की तैयारी में हूँ।... और हाँ, आप तो पत्रकार हैं, आप भी हमारी मदद करें!"

"जी जरूर! मैं जरूर आऊँगा आपसे मिलने!" मैंने वादा किया।

"कैला भट्टा में लालटेन फैक्टरी कंपाउंड के पास आप किसी से भी मेरा नाम पूछ लेना।... वहीं आपको मेरा बोर्ड भी लगा मिल जाएगा!... अच्छा बाबू, नमस्कार!" उन्होंने अपने घर तक पहुँचने का मार्ग मुझे समझा दिया था। मेरे नमस्कार के बाद उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा और आगे बढ़ गर्इं। उनके अन्य समर्थक तथा साथी दरमियाने मुझे गहरी निगाहों से देखते हुए उनके पीछे हो लिये।

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