दरमियाना - 10 Subhash Akhil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दरमियाना - 10

दरमियाना

भाग - १०

तभी एक दिन संजय घर आ गया । वह कड़े ताल में था, इसलिए मैं संजय कह रहा हूँ । ...या शायद अपने गुस्से की वजह से, जो मेरे भीतर वजह-बेवजह कुलबुला रहा था । मैंने सारी की सारी भड़ास इस पर निकाल दी । ...मेरे लगातार सवालों से वह अचकचा गया था । कुछ नहीं बोला । मेरे किसी भी सवाल का सही या गलत जवाब उसने नहीं दिया था । ...उसकी वे बड़ी-सी, सुंदर-सी ...गहरी और कजरारी झीलें डबडबा आई थीं । मधुर घर पर ही थीं । उसने मुझे शांत किया और चुपचाप ऑफिस चले जाने को कहा ।... मैं उन दोनों को -– और उन सभी सवालों को वहीं, अधूरा छोड़कर चला गया था ।

अगली सुबह मधुर मेरे पास आई । उस सुबह उसने ग्रीन टी बनाई थी । अन्यथा मैं ही बना कर उसे जगाया करता था । सुबह के सारे अखबार वह उठा लार्इ थी, मगर मुझे दिये नहीं थे। सामने टेबल पर रख दिये थे। चाय मुझे पकड़ार्इ और मेरे पास बैठ गर्इ।

"एक बात पूछूँ ?..." उसने बातो में एक समा बाधनें का प्रयास किया था, "तुम क्या कर सकते हो इसके लिए ?"

"मतलब?"

"मतलब कि तुम जानते हो, वह पुरूष के शरीर में एक औरत हैं !"

"मगर वो तो ..." मैंने उसे टोकना चाहा।

"छोड़ो सब बातों को ...जो मैं पूछ रही हूँ, वही बताओ ! ...यदि कुछ कर सकते हो, तो जरूर करो... वरना उसे यहाँ आने के लिए मना कर दो।" मधुर स्पष्ट थी और मुखर भी।

"हाँ मैने मालुम किया हैं.. एम्स में । एक परिचित डाक्टर हैं।... उन्होंने ने कहा हैं कि देखना पड़ेगा, केस क्या हैं!" मैंने पिछले दिनों की कोशिशों के बारे में मधुर को बताया। फिर जानना चाहा कि वो रेशमा का वह सब कहना, प्रताप गुरू का प्रकरण -- वो सब क्या है?... मगर मधुर ने मुझे टाल दिया।

उसका सुझाव था कि तुम जो कर सकते हो, वह करो -- बेकार के पचड़ों में न पड़ों।... और यदि सचमुच तुम कुछ कर सकते हो, तो मैं चाहुगी जरूर करो। इस 'जरूर' पर मधुर का कुछ खास फोकस था, ऐसा मैंने महसूस किया।... स्पष्ट था कि मेरे चले जाने के बाद संध्या और मधुर में काफी बातें हुर्इ थीं। शायद उन सभी सवालों पर -- जो मैं संध्या और मधुर के बीच छोड़ गया था।... यह मधुर का मेरे प्रति विश्वास था और उसके प्रति स्ऩेह कि वह मुझे अन्यान्य प्रश्नों में नहीं उलझने देना चाहती थी। वह केवल इतना चाहती थी कि यदि मैं उसके लिए कुछ कर सकता हुँ तो अवश्य करूँ।

***

उसे लेकर एम्स में मैंने काफी पड़ताल की थी। पहले अपने परिचित डॉक्टर से काफी जानकारियाँ इकट्ठा की थीं। फिर उसके कुछ टेस्ट करावायें जाने अनिवार्य थे, इसलिए उसे बुलवा लिया था... लगभग महीने भर उसके सारे टेस्ट होते रहे कर्इ प्रकार के परीक्षणों ले उसे गुजरना पड़ा था। जब सारी रिपोर्ट आ गर्इं, तब मैं फिर डॉक्टर साहब से मिला था।... मोटे तौर पर मुझे बताया गया था कि हारमोंस में गड़बड़ी के चलते न तो ये पुरूष बन पाया औऱ ना ही स्त्री रह सका था। आगे की प्रक्रीया पूछने पर मुझे बताया गया कि इसका 'सेक्स ट्रान्सप्लांट' सम्भव हैं, क्योंकि वह स्त्री होने के काफी करीब है -- शारीरिक और मानसिक तौर पर भी।... पहले कुछ दवाओं और इंजेक्शन आदि से उपचार होना था और उसके बाद शल्य क्रिया तथा काउंसलिंग। मगर मुझे यह भी बताया गया था कि उस समय तक यह तकनीक भारत में उपलब्ध नहीं है। इसके लिये विदेश जाने की आवश्यकता थी, जिस पर काफी पैसा खर्च होने के साथ ही सम्पर्क तलाशने भी जरूरी थे।

फिर एक दिन जब अपनी जाँच की प्रकिया जानने वह आया, तो मैंने उसे विस्तार से समझा दिया था। सुनकर कुछ क्षण वह शांत रहा... फिर जैसे उसने कुछ मन बना लिया था। फिर मेरे सामने हाथ जोड़ दिये थे, "भैया, आप कुछ भी करो, मगर मुझे इस जिन्दगी से निजात दिलवा दो । ...आप जो भी कहोगे, मैं करूँगा -- बस मुझे ऐसे शरीर से मुक्ती दिला दो ।... मैं जिंदगी भर आपका यह अहसान नहीं भूलूँगा । ..." वह कुछ देर तक इसी तरह भावुक होता रहा । मैंने उसे आश्वासन दिया था कि मैं कोशिश करूँगा । ...पता नहीं क्यों उसे मुझ पर इतना भरोसा हो गया था ।

मेरे एक सहपाठी मित्र विदेश में थे । जर्मनी में – प्रो. दयानंद अरोड़ा । मैंने उनकी राय जानने और मदद माँगने के लिए खत लिखा था । खत को इधर से उधर या उधर से इधर आने-जाने में लगभग एक माह का समय लग गया था ।

एक माह बाद मुझे उनका खत मिला था, जिसमें उन्होंने अपनी असमर्थता जता दी थी । मैं, संजय और मधुर तीनों ही निराश हो गये थे । मगर तभी फिर एक माह बाद मुझे उनका दूसरा पत्र मिला था । तब मुझे पता चला था कि उनकी पत्नी ने उनसे विशेष आग्रह किया था, इस मामले में मदद करने के लिए । उन्होंने यहाँ किये गये उसके सभी टेस्ट की रिपोर्ट भेजने के लिए भी कहा था... और यह भी कि जल्दी से जल्दी हमें छह से आठ लाख रुपये का प्रबंध भी करना होगा । यदि उसकी सभी टेस्ट रिपोर्ट को अनुकूल पाया गया, तो वीजा आदि का प्रबंध करने में वे हमारी मदद करेंगे । ...एम्स से भी मैंने मालूम किया था कि इस विषय में जरूरत पड़ने पर हमें वहाँ से मेडिकल-रिपोर्ट के आधार पर, वीज़ा दिये जाने का अनुमति-पत्र मिल जाएगा।

मैंने उसे बताया तो वह खुशी से भर उठा था । उसकी आँखों में नमी तैर गई थी । मैंने उसे बाँहों में लिया और उसकी पीठ को थपथपा दिया । तभी वह कहने लगा, "भैया, आप तैयारी करो, मैं पैसों का जुगाड़ कर लूँगा... "

"पागल हो गया है, इतना पैसा कहाँ से लाएगा ? " मैंने पूछा था ।

"मकान बेच दूँगा ...कुछ माँ के पास भी हैं । आप भी कुछ देख लेना, मैं बाद में लौटा दूँगा ।... " मैंने महसूस किया -– उसकी आँखें सपनीली हो उठी थीं । उसके इन्हीं सपनों में रंग भरने के प्रयास मैंने भी शुरू कर दिये थे और उसने भी । उसका पासपोर्ट बनवा लिया गया था । एम्स के कागजात जमा कर लिए गये थे, रेफर किये जाने वाले पत्र सहित । उसे प्रायोजित किये जाने वाले पेपर्स भी जर्मनी से आ गये थे, जिसके बाद वीजा मिलने में आसानी थी ...और आगरा से भी कुछ ऐसे ही संकेत मिल रहे थे ।

***

तभी एक दिन मैं ऑफिस में था कि उसके भाई सचिन का फोन मेरे पास आया । वह फोन पर ही रोने लगा था, "भैया, आप जल्दी आ जाओ... भाई की हालत बहुत खराब है .. प्लीज भैया !"

"क्या बात है ?... क्या हुआ ?... " मैंने हड़बड़ी मैं पूछा था ।

"पता नहीं भैया ...इसकी मंडली वाले आये थे, एक मारुति वैन में । ...इसे यहाँ घर के बाहर एक खाट पर डाल कर भाग गये । .... इसे बहुत खून बह रहा है ।... भाई ने कुछ पैसे मंगाये थे, मैं तो वही लेकर आया था ... " सचिन फोन पर रोये जा रहा था ।

मैंने अपना सिर पीट लिया –- ओफ !... यह क्या हो गया ?... हालांकि मैं समझ चुका था, मगर सचिन को क्या समझाता ? फिर भी उसे सान्त्वना दी, "तू चिंता मत कर मैं आता हूँ ।... " ऑफिस से तत्काल छुट्टी ली और ऑटो पकड़ कर उसके घर भागा ।

देखा-तो वह वहीं घर के बाहर खाट पर पड़ा कराह रहा था । ...उसके निचले हिस्से में एक पाइप डालकर, दूसरा सिरा एक प्लास्टिक की थैली में डाला हुआ था । उसमें यूरिन के साथ काफी खून भी था । ...आसपास कुछ लोग जमा जरूर हो गये थे, मगर कोई कुछ करने की स्थिति में नहीं था ...या करना नहीं चाह रहा था । मैं जिस ऑटों से गया था, उसी में सचिन और उसे साथ लेकर विलिंग्डन अस्पताल आ गया था । यहाँ मेरा पत्रकार होना भी काम आया और बिना किसी कानूनी पेचीदगी के, उसे आपातकालीन विभाग में ले जाया गया था ।

काफी खून बह जाने की स्थिति में उसे खून चढ़ाया जाना जरूरी लगा था । डॅाक्टर ने उसके ब्लड का सैम्पल लिया और जाँच के लिए भेज दिया । जांच रिपोर्ट से ही पता चला कि उसे तो हेमोफिलिया (फैक्टर-8 की डेफीशेंसी) की समस्या भी है । डॅाक्टर्स ने बताया कि इस केस में यदि किसी पेशेंट को खून निकल आये, तो फिर वह आसानी से बंद नहीं होता । शायद इसी वजह से उसे कापी रक्तस्राव हो चुका था । डॅाक्टर्स ने अपने प्रयास तेज कर दिये । उनकी पहली कोशिश थी कि किसी तरह खून का बहना बंद हो, ताकि बाकी उपचार शुरू किया जा सके ।

उस रात मैं उसी के पास रुका था अस्पताल में । सचिन को मैंने घर भेज दिया था । यह सोच कर कि वह सुबह आ जाएगा । माँ और बहन को सूचित भी कर देगा । ...सचिन को भेजने के बाद मैं उसके सिरहाने बैठ गया था । ...धीरे से अपना हाथ उसके माथे पर रखा और उसके बालों को सहलाने लगा । ...उसकी दोनों आँखों के कोरों से पीड़ा बह कर निकल रही थी । फटी-सी आँखों से उसने मुझे देखा था -– फिर एक सिसकी के साथ उसने अपनी आँखे बंद कर ली थीं । उसका चेहरा सूख कर जर्द पड़ गया था । धीरे-से उसके बालों को सहलाते हुए मैंने पूछा था, "पागल ! यह तूने क्या कर लिया, हम तो तेरे लिए कुछ औऱ ही सोच रहे थे । ...क्या तुझे मुझ पर भरोसा नहीं था ?" वह मुझे चुपचाप सुनता रहा । बोला कुछ नहीं ।

थोड़ी राहत महसूस करने के बाद उसने जो कुछ बताया, वह सब सुनकर मैं अवाक् रह गया था ।

*****