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दरमियाना - 5

दरमियाना

भाग - ५

कई बार ऐसा तो होता है कि हमारे पूर्व में गढ़े गए प्रतिमान अचानक बदल जाते हैं । कोई छवि या धारणा भरभरा कर बिखर जाती है ।... मगर ऐसा बहुत कम होता है कि हम किसी के बारे में कोई प्रतिमान तय ही नहीं कर पाते ।... विशेषकर ‘इनके’ बारे में । कारण यह भी हो सकता है कि ये खुद ही एक रहस्य का आवरण अपने गिर्द बनाये रखते हैं । शायद इसलिए कि ये हमारे जैसे नहीं होते.... और शायद इसलिए भी कि हम उन्हें समझ ही नहीं पाएंगे, वे ऐसा ही मान कर चलते हैं । यही कारण है कि धीरे-धीरे ‘उनकी दुनिया’, ‘हमारी दुनिया’ से अलग होती चली जाती है... और पहचान का एक संकट उनके सामने आ खड़ा होता है ।

एक दिन फिर वह कुछ इसी तरह मेरे सामने आ खड़ी हुई । या कहें कि वह फिर आया । इस बार वह रेशमा वाली संध्या थी । यानी मर्दाने लिबास में, ‘जनाना नाम’ – मगर इस बार मैं उसे संजय समझ पाता, इसमें भी भ्रम था । वही ढीला-सा पाजामा और कुर्तेनुमा शर्ट । होठों पर वही लाली और झील-सी कजरारी आँखें । वही मुस्कराहट और तराशी गई भवों का आरोह-अवरोह । हाँ, इस बार सिर्फ एक कान में सोने की बाली थी, मगर मेरे तईं यह अब भी कठिन था कि मैं उसे किस रूप में स्वीकार पाता -- ‘संध्या’ या ‘संजय’ ? हाँ उसके ‘सात्रे’ या ‘कड़े ताल में’ होने के संदर्भ मैं समझ पा रहा था -- यानी ‘संध्या’ और ‘संजय’ होने के सीमित अर्थ को । मगर इस महिला और पुरुष वेश के बीच -- वह क्या था, यह अब भी मेरी समझ से परे था । मैं यह भी नहीं समझ पा रहा था कि कब उसे ‘संध्या’ रूप में सम्बोधित करूँ और कब ‘संजय’ ? लिहाजा मैं तय कर रहा हूँ कि समय, संदर्भ और सुविधा के अनुसार मैं उसके वर्ग को विभाजित करता हूआ चलूँगा, जब तक तीनों अर्थों में उसके मायने स्पष्ट नहीं हो जाते । यानी जनाने, मर्दाने और दरमियाने !

शरीर से औरत को गोश्त मानने वाले मर्द... और मर्द को दैहिक जरूरत समझने वाली औरत -- ये दोनों ही, इस ‘तीसरे’ को ठीक-ठीक नहीं समझ सकते । इस ‘तीसरे’ शरीर के बीच बसा मन या अपने मन से इतर जीने को बाध्य एक शरीर -- दरमियाना ! इसी सब के बीच समझने का प्रयास है यह । यह कोई नहीं जानता कि कब, क्यों और कैसे इंसान होने के अर्थ बदल जाते हैं, जो सामान्यतः समझ नहीं आते । कम से कम ‘इनके’ संदर्भ में ।

इस बार जब वह आया, मधुर घर पर थी । उसने उसी बेतकल्लुफी-से अपने हाथों की लय पर उंगलियों को थिरकाया, "हाय !... भाभी हैं घर पर ? आज मैं उन्हीं से मिलने आई हूं । चलो, हटो पीछे -- भाभी !" उसने सीधे मधुर को पुकारा और बेधड़क घर में घुस आया था । मैं रोकता भी कैसे ?... जब वह 'सात्रे' में था, तो मैंने उसे खुद भीतर बुलाया था -- अब, जब 'कड़े ताल' में है, तो मैं इन दोनों रूपों के बीच किसी भी प्रकार का विभेद कैसे कर सकता था ।

वह आया और सीधे मधुर के पास रसोई में चला गया । इससे पहले कि मैं उसे या मधुर को कुछ समझा पाता, उसने मधुर को पीछे से बाँहों में भर लिया था । मधुर ने घड़ी-भर मुझे देखा, फिर अचकचा कर उसे पीछे धकेल दिया था । उसके लिए यह बहुत ही अप्रत्याशित था । वह था भी 'कड़े ताल' में, इसलिए भी मधुर सहज नहीं हो पा रही थी । मगर जब मैंने रेशमा के संदर्भ में, उसकी चेली होने का जिक्र किया, तब मधुर कुछ समझ पाई । हालाँकि पूरी तरह से वह अभी भी सहज नहीं हो पाई थी, इसके बावजूद कि वह मुझे भैया और उसे भाभी कह रहा था ।

पर हाँ, हर औरत के पास, हर स्पर्श के अर्थ समझने की तीक्ष्ण क्षमता होती है । मधुर भी औरत ही थी -- यानी मेरी तरह स्पष्ट रूप से किसी एक वर्ग में । इस ‘तीसरे’ को वह कुछ समझ नहीं पाई थी... फिर भी धीरे-धीरे सहज हो रही थी । कुछ देर बाद मैंने महसूस किया कि मधुर और संध्या काफी सहज हो गये थे... हालांकि मैं उन दोनों को लेकर अभी तक सहज नहीं हो पाया था । यह शायद मेरी कमजोरी थी और इसी वजह से शायद मैं उन दोनों के बीच रसोई में भी शामिल नहीं हो पाया था । सुबह के पढ़ चुके अखबार में बेवजह बाजार भाव देख रहा था, जिसमें मेरी कोई रूची नहीं थी । फिर सर्राफा, मौसम, भविष्यफल... और ताजा लगी फिल्मों के थियेटर भी पढ़ गया था । बे मतलब, बे वजह !... या, शायद मैंने कुछ नहीं पढ़ा और उन दोनों के सहज होने का इंतजार कर रहा था ।

काफी देर बाद मुझे मधुर ने खाने के लिए बुलाया था । मैं देख रहा था -- वे दोनों अब काफी सहज थे । उनके बीच क्या कुछ कहा-सुना गया, मुझे नहीं मालूम । तब तक बच्चे भी स्कूल से आ गये थे । आया उन्हें ले आई थी । बच्चों ने उसे ‘अंकल’ सम्बोधित किया था, नमस्ते करते समय ।... फिर सबने साथ ही खाना खाया था । उसने बच्चों को बहुत प्यार किया था । मेरी तरफ उसका फोकस इस बार कुछ कम था । उसने खाना खाया और सौ रुपये का नोट मुझे थमाकर कहने लगा, "अभी रख लो, फिर जरूरत पड़ी तो ले लूँगी... " अपनी ‘भाभी’ के माथे पर लगे सिंदूर को चूम कर वह चुपचाप लौट गया था ।

***

धीरे-धीरे मेरे यहाँ उसका आना-जाना सहज होने लगा था । कभी सात्रे में, तो कभी कड़े ताल में । मेरे लिए भी उसके मायने समय-समय पर बदलने लगे थे । मधुर घर पर होती तो वह ज्यादातर समय मधुर के साथ ही बिताता । दुनिया जहान की बातें उससे करता या बच्चों से खेलने लगता । वह अक्सर आता और मधुर को बाँहों में भर लेता । मधुर भी महिलाओं में होने वाली ‘निजि बातें’ तक उससे कर लिया करती । वह जितना उसके साथ सहज हो रही थी, मैं उतना असहज हो जाता । कभी-कभी ईर्ष्शा भी होती । एक दिन मैंने मधुर से पूछा भी था, "यह तुमसे इतना प्रवलेज लेता है, तुम डाँटती क्यों नहीं इसे... तुम्हें बुरा नहीं लगता ?"

"नहीं तो... " मधुर सब्जी काट रही थीं । उन्होंने मेरी तरफ देखे बिना ही कहा था, जैसे यह कोई बड़ी बात न हो ।

"फिर भी... " शायद यह मेरी कमजोरी थी ।

"फिर भी क्या... " अब मधुर ने मेरी तरफ देखा था-- सीधे-सीधे, "तुम गलत समझ रहे हो । यह तो बहुत मासूम है । मैं नहीं जानती कि लड़का है या लड़की... पर है मासूम ।... मैंने पूछा भी था इससे, मगर यह टाल गई थी ।... इसके कपड़ों या हाव-भाव पर मत जाओ, यह जो भी है, उससे मुझे कोर्इ दिक्कत नहीं होती ।"

फिर कुछ रुक कर मधुर ने कहा, "दुनिया की हर लड़की पैदा होते ही, हर स्पर्श को समझने लगती है । मासूम हो तब भी... बड़ी होने लगे, तो और भी ज्यादा अच्छी तरह से ।... मगर तुम्हें क्यों जलन हो रही है ?... लड़का भी है, तो देवर है मेरा, भाभी कहता है मुझे... और कहता ही नहीं, मानता भी है ।"

मधुर कांन्फिडेंट थीं । यह शायद मेरे मन की ही कुछ असजता थी ।... या कहिए कि मेरे भीतर ही कुछ कुलबुला रहा था । तारा या रेशमा की संगत में मैं ‘इनके’ इतना करीब नहीं आ पाया था । रेशमा की चुहल मुझे अच्छी जरूर लगती थी, मगर उसका वह व्यवहार भी उसी के मूड पर निर्भर था । मैं अपनी ओर से कुछ भी ऐसा नहीं कर सकता था... पर कुछ था जरूर, जो मुझे संध्या की ओर खींच रहा था ।

एक दिन हुआ भी ऐसा ही । मधुर ऑफिस गई थीं । उनकी रूटीन शिफ्ट हुआ करती थी । सुबह की... और मेरी देर शाम की । उस दिन भी मैं घर पर अकेला था । तभी घंटी बजी । खोला, तो देखा कि संध्या खड़ी थी -- सात्रे में ।... गजब की खूबसूरत लग रही थी । गुलाबी साड़ी के साथ मैचिंग ब्लाउज । लिपिस्टिक भी संगत कर रही थी । वही तराशी हुई भवें, झील-सी वही गहरी आँखें । कजरारे तट पलकों के आरोह-अवरोह के बीच मुझे फिर हटाने की कोशिश की थी, मगर मैंने उसे और कसते हुए, उसके होठों के निमंत्रण को अपनी स्वीकृति देनी चाही थी ।

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