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दरमियाना - 1

दरमियाना

भाग - १

तारा और रेशमा की संगत

मैं उसे तब से जानता हूं, जब मैंने उसे पहली बार देखा था। उसके दोनों हाथों की हथेलियों के मध्य भाग, बहुत ही कलात्मक ढंग से टकरा रहे थे, यद्यपि ढोलक की थाप और फटे हुए स्वरों में, उसकी तालियों की कहीं कोई संगत नहीं थी। किन्तु हां! अन्य कर्कश स्वरों में, उसका स्वर सबसे अधिक तीखा और एकरस था -- गीत के आरोह-अवरोह की प्रति़बद्धता से दूर--शास्त्रीय गायन की वर्जनाओं से मुक्त--फटे हुए स्वर और बिगड़ी हुई धुनों में, एक फिल्मी गीत ! 'गीत' अब ठीक-ठीक याद नही है।

मैंने तब ही उसे पहली बार देखा था, जब अपने रेशमी लहंगे के एक छोर को हवा में लहरा कर उसने छोटे-छोटे बच्चों को डरा दिया था... मैं भी डर गया था, किन्तु उसे बहुत समीप-से महसूसने की जिज्ञासा हम सभी को दोबारा उसके पास ले आयी थी। जिस दायरे में वह थिरक रही थी, सिकुड़ कर छोटा हो गया था। तभी वह फिरकी की तरह घूमी और घूम कर बैठ गयी। उसके दोनों हाथों की हथेलियां रह-रह कर अब भी टकरा जाती थीं।

वह अकेली नहीं थी। उसके साथ कुल मिला कर पांच व्यक्ति और थे -- चार औरत नुमा और एक मर्द की तरह का। शायद सब-के-सब दरमियाने! यानी न तो वे जनाने थे और न ही मर्दाने। तब भी यदि मैं उसके लिए स्त्रीवाचक सम्बोधन प्रयोग कर रहा हूं, तो केवल इसलिए कि एक तो वह ’स्त्री’ कहलाना पसंद करती थी और दूसरे वह स्वयं को ’नटराज की भाभी’ कहा करती थी। किसी के भी द्वारा इस सम्बोधन से पुकार लिए जाने पर, वह उसी तरह नाटकीय ढंग से लजा जाया करती थी-- मानो, बिना किसी पूर्व-सूचना के अचानक -- ’नटराज’ के बडे़ भाई उसके सामने आ खड़े हुए हों। किन्तु ’नटराज’ कौन था, यह मैं आज भी नहीं जानता। मेरे बार-बार आग्रह करने पर भी, उसने कभी नहीं बतलाया। वैसे उस ताली बजाने वाले दरमियाने का अपना भी एक नाम था-- तारा !

तारा उस छोटे-से दायरे में टांगें फैला कर बैठ गई थी। पास के झोले से, कपड़े की थैलिया निकाली और थैलिया से बनारसी पान का जोड़ा निकाल कर उसने मुंह में रख लिया था। जिस तरह गाय घास चबाती है या ऊंट नीम के पत्ते, उसी तरह तारा भी पान के उन पत्तों से बनारसी रस निचोड़ रही थी... तभी अचानक नाच और गाना रुक जाने की वजह से भीड़ कुछ पतली जरूर हो गयी थी, किन्तु आस-पड़ोस की मनचली औरतों और बच्चों की संख्या अब भी कम नहीं थी। उसके साथ के अन्य दरमियाने, उस घर की मालकिन से जिरह कर रहे थे, जिसके दरवाजे पर तारा और उसकी मंडली के सदस्यों का धरना था। मैं उनके वार्तालाप की ओर उन्मुख हुआ था...

"न-री-न! इक्यावन से कम नहीं लूँगी, हाँ! पहला लड़का होया है -- और वो भी चाँद-सा । "एक दूसरे दरमियाने ने ताली दे मारी, "खुदा करे, हमरी उमर भी इसे लग जाये... बुरी नजर बाल भी न छू सके इसका।"

"भई! हम जो भी दे रहे हैं, अपनी खुशी से दे रहे हैं। इससे ज्यादा हम नहीं दे सकते। "उस घर की मालकिन ने हाथ के कुछ रुपये उस दरमियाने की ओर बढ़ा दिये, जिसको तारा 'रेशमा' कह रही थी।

रेशमा ने उसी तरह दोनों हाथों की हथेलियों के मध्य-भाग को टकराया और लचकते हुए कहने लगी, "न री बहना ! ये तो शुकर करो कि मैंने जम्फर-साड़ी नहीं माँगी और फिर क्या हम रोज-रोज मांगने आती हैं?...वैसे भी इन शहर के मर्दो में कौन-सा जोर रह गया है, देहातों में होयें तो हम दस-पन्द्रह आस-औलादों का हक पाती हैं... सो बहना ! इक्यावन तो मैं लेके रहूंगी! ”रेशमा ने तीन-चार बार ताली पीटी और इक्यावन के मिलने का इन्तजार करने लगी। उन दिनों परिवार-नियोजन का इतना प्रचार-प्रसार नहीं था, अन्यथा रेशमा ने मर्दों की जवानीं के साथ-साथ, सरकारी षड्यंत्र को भी कोसा होता !

किन्तु घर की उस मालकिन को अपने पति की निंदा शायद अच्छी नहीं लगी थी। उसने बहुत झुंझलाते हुए कहा था, "ये लेने हैं तो लो, नहीं तो दफा हो जाओ यहां से।”

तारा ने बनारसी पत्तों का रस चूस कर एक ओर को थूका और घुटनों पर हाथ रख कर खड़ी हो गयी, "अरी ओ ! मेरे खसम की दिल लगी सौत ! देती है कि दिखाऊं जलवा ?”

तारा के दोनों हाथ इस बार टकराये नहीं, बल्कि वह अपने पांवों के पास तक झुक आयी थी कि तभी वह महिला हड़बड़ा उठी, “देखो !... देखो!!... यह सब बद्तमीजी यहां नहीं करना... ठीक है, हम देते हैं, तुम ठहरो... ” घर की मालकिन अन्दर गयी... और बाहर लौटी तो तारा के हाथ में पूरे इक्यावन रुपये थे। उसने गिने और गिनकर बनारसी पत्तों वाली पुटलिया में भर लिये, "अरी मेरी प्यारी ननदिया! अगर पहले ही मान जाती, तो काहे को इतनी जिल्लत उठानी पड़ती... चल--खुश रह!... हर साल फूले-फले, हमारे नन्दोई की जवानी बनी रहे... इस चांद के टुकड़े को भाई मिले... खुदा करे..."तारा इक्यावन रुपये लेकर, बहुत देर तक दुआएँ देती रही थी।

मगर उसकी सभी दुआएँ और अब तक की सारी वार्ता, मेरे लिए तब कोर्इ अर्थ नहीं रखती थी... मैं केवल दस-ग्यारह वर्ष का था, जब मैंने उसे पहली बार देखा था। शायद इसीलिए, उस दरमियाने के विषय में, बहुत-से प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उग आये थे... जिन्होंने तारा को मेरे लिये एक रहस्य बना दिया था।

फिर वह और उसकी मंडली जब मेरे समीप से निकलने लगी तो, मैंने धीमे-से कहा था, "नटराज की भाभी !" और एकदम-से लजाकर जो तारा मेरी ओर लपकी, तो मेरे लिए नेकर सम्भालते हुए भागना कठिन हो गया। मैंने भागते हुए सुना था, "अरे ओ मेरे देवर जी! कहां चले अपनी भाभी को छोड़कर..."किन्तु मुझमें रुक जाने का साहस नहीं था।... और फिर मेरा नेकर भी, आवश्यकता से कुछ अधिक ढीला हो गया था।

****

इसके बाद--तारा जब भी हमारी बस्ती में आती, मुझे लगता कि जैसे मनोरंजन का, इससे बढ़िया और मुफ्त, दूसरा कोई साधन नहीं हो सकता... और जैसे किसी शहरी बस्ती में हाथी या ऊंट जैसा अजूबा आ जाने पर, छोटे-छोटे बच्चे, उसके पीछे दूर तक निकल जाते हैं--मैं तारा और उसकी मंड़ली के पीछे लगा रहता। वह एक दिन में जितने भी घरों पर जाती, मैं हर बार उस नयी भीड़ में शामिल हो जाता। धीरे-धीरे मैंने जान लिया था कि तारा उन्हीं घरों पर जाती है, जिनमें कोई विवाह या बच्चा हुआ होता है। अब मैं इस बात का भी ध्यान रखता कि विवाह या बच्चा किसके घर हुआ है, ताकि बस्ती में घुसते ही सबसे पहले मैं तारा को यह सूचना पहुँचा सकूँ... ताकि हथेलियाँ टकरा कर... गला फाड़ कर उसे न पुकारना पड़े 'अरे ! किसके होया है ?'

और उस दिन तो तारा को तलाशते हुए मैं बुरी तरह से थक गया था। सारी बस्ती में, हर जगह उसको ढूँढ़ा, किन्तु वह नहीं मिली। दौड़ कर चमन चाय वाले की दूकान पर भी पहुंचा, क्योंकि ज्यादा ‘घर' न होने पर, वे सभी दरमियाने वहां बैठ कर चाय पिया करते थे। परन्तु उस दिन तारा वहाँ भी नहीं थी। मैं सारा दिन बेचैन रहा था और अगली सुबह भी उसे तलाशने का निर्णय कर चुका था।

अगले दिन मुझे अधिक कठिनाई नहीं हुई। मैंने उन्हें बस से उतरते हुए देख लिया था। दौड़ कर पहुँचा और तारा के हाथ को स्पर्श करते हुए कहने लगा, "तारा!... तारा!! मेरे घर बच्चा हुआ है।"

सभी दरमियाने खिलखिला कर चुप हुए तो तारा ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रख दिया, "अरे मेरे देवर जी! अभी तो तुम्हारी अम्मा पर, तुम्हारी दफा के पैसे ही बकाया रहते होंगे, फिर तुम्हारे बच्चा कैसे हो गया ?"तारा ने मेरे कंधे से हाथ हटाया और अपनी आदत के अनुसार हथेलियाँ दे मारीं।

मुझे तारा का हाथ हटा लेना अच्छा नहीं लगा, फिर भी मैंने कहा, "नहीं... नहीं, मेरा भाई हुआ है।"

तभी रेशमा को न जाने क्या सूझा, वह ताली पीटती हुई मेरी ओर बढ़ी और मुझे दोनों कंधों से पकड़ कर, उसने अपनी बाँहों में भर लिया। कस कर अपने सीने से लगाया और फिर अलग करते हुए, मेरे दाहिने गाल को चूम लिया, "हाय रे मेरे लल्ला ! खुदा तुझे लम्बी उमर दे। आज तो उतरते ही ध्याड़ी बन गयी।"

रेशमा का बाँहों में जकड़ना, सीने से लगाना और चूम लेना--मुझे बुरा नहीं लगा था, किन्तु फिर भी उसकी जकड़ से छूट कर मैंने राहत अनुभव की। अपने दाहिने गाल पर पड़े पान के निशान को कमीज की बाजू से पोंछा और सभी दरमियानों को साथ लेकर अपने घर की ओर चल दिया।

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