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दरमियाना - 9

दरमियाना

भाग - ९

पापा भी इसी वजह से चले गये । उन्हें भी सबसे रोज कुछ न कुछ सुनना पड़ता था । घर आकर वो भी रोते थे, मगर भैया पर कोई असर नहीं होता था... " यह संध्या थी । इसलिए मुझे ज्यादा आश्चर्य हो रहा था । उसने कहा था कि यह समझती है । मुझे भी ऐसा ही लगा था किन्तु अब लग रहा था कि वह दोनों ओर की पीड़ा समझती है शायद । उसकी परवरिश के बारे में भी बहुत सारी बातें सामने आई थीं । वे अपने अनुभव बताये जा रहे थे और मैं चुपचाप सुन रहा था ।

माँ अभी भी नाउम्मीद नहीं थी । होती भी कैसे –- माँ जो थी । वे स्वीकार नहीं करना चाह रही थीं कि जिसे उन्होंने लड़के के रूप में जन्म दिया है, वह संजय है ही नहीं । तभी तो वे कह बैठीं, "आशु, तू ही उसे समझा बेटा । वो तेरी बात मानता है । सोचती हूँ, उसकी शादी करवा दूँ -– शायद सुधर जाए । कई लड़कियाँ भी देखी हैं उसके लिए, मगर किसी के लिए हाँ नहीं करता ।... शोहदों – लफंगों के साथ जनाना बना घूमता रहता है । तेरे बारे में बहुत-सी बातें करता है । इसीलिए मैं यहाँ चली आई बेटा । तू समझाएगा तो शायद मान जाए । उसके काम से निपटूँ तो इस लाली का भी सोचना हैं । रिश्ते तो इसके भी आ रहे हैं, पर मैं सोचती हूँ कि पहले उसे कहीं बाँध दूँ । .... अब मेरा क्या है बेटा, उमर हो चली है । इनके पापा भी नहीं हैं ।... मैं अकेली जान क्या-क्या करूँगी ।..."

संध्या चाय ले आई थी । माँ की बातों से मैं काफी दबाव महसूस कर रहा था । मैं सोच भी रहा था कि अभी तक ये लोग उसे समझ नहीं पाये हैं। ऐसे में चाय के व्यवधान ने राहत पहुँचाई थी । मुझे भी लगा, इस बहाने विषय को बदला जा सकता है । वह चाय रखकर जाने लगी, तो मैंने कहा था, "अरे संध्या, इधर आओ..." वह मेरे पास लौट आई, तो फिर माँ से पूछा था, "क्या मैं संध्या से कुछ बात कर सकता हूँ ?"

"हाँ बेटा, बहन है तेरी..." माँ ने कहा था, "जा पूछ ले, क्या पूछना है ।... और हाँ, जरा इसके मन की भी पूछ लेना –- यह भी कुछ नहीं बोलती ।"

संध्या लजा गई थी । मैं मुस्करा दिया था । फिर मैं और संध्या बालकनी में चले आये थे । चाय भी हम बाहर ही पी रहे थे । मैंने बातों का सिलसिला जोड़ने की कोशिश की थी, "संध्या देखो, अब तुम भी बच्ची नहीं हो, बड़ी हो गई हो । इसलिए मैं तुमसे जो कुछ पूछूँगा, तुम सही-सही जवाब देना ।"

"जी भैया, मैं जो कुछ भी जानती हूँ या समझती हूँ, वह सब बता सकती हूँ । ...यह भी सच है कि संजय भैया से बहुत प्यार करती हूँ मैं । ...मैं उनके साथ खेली हूँ बचपन से । ...मैं कोशिश करूँगी, जो जानती हूँ, वह आपको बता सकूँ । ... "

फिर संध्या से बहुत देर तक बातें होती रहीं । सच पूछें, तो संजय उर्फ संध्या को समझने में मुझे सबसे ज्यादा मदद संध्या से ही मिली थी । हालांकि कुछ कठिन सवालों के जवाब उससे पूछते हुए मुझे अच्छा नहीं लगा था । मगर आश्चर्य कि संध्या मुझे अपेक्षाकृत ज्यादा समझदार नजर आई । उसने मेरे हर सवाल का सधा हुआ जवाब दिया था । कुछ अंतरंग सवालों के जवाब भी उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ दिये थे । मैंने उससे पूछा था, "सचिन तो उसे भाई जैसा नहीं मानता ... पर क्या तुम उसे बहन जैसा मानती हो ?"

"हाँ भैया, " उसने बेझिझक कहा था, "मैं उसके सामने कपड़े बदल लेती हूँ ...मूझे कोई दिक्कत नहीं होती । ...दरअसल भैया हमेशा मेरे लिए सहेलियों की तरह रहा है । ...और मेरी सहेलियों के लिए भी । ...हमने कभी उनके साथ या उनके सामने होने से परेशानी महसूस नहीं की । संजय भैया की यही बात मुझे और मेरी सभी सहेलियों को अच्छी लगती थी । ...मैं उन्हें डाँटती भी थी कि चलो, बाहर जाओ, पर वे हमेशा कहते--पागल, मैं तो तेरे जैसी ही हूँ । ...हाँ, एक बार ऐसा जरूर हुआ था कि उन्होंने मेरे सामने कपड़े बदले ...मैं तो डर गई थी –- वे मेरे जैसे नहीं थे । ...आई मीन ..." संध्या रोने लगी थी । मैं समझ गया था कि यह ‘अकुआ’ है, इसलिए उसे और ज्यादा नहीं कुरेदा । धीमे से उसके कंधे को थपथपा दिया था । ...मगर संध्या को यह शब्दावली कैसे समझाता ?...उसे यह भी नहीं बताया था कि यहाँ उसका नाम संजय नहीं संध्या है –- और शायद उसी के कारण ।

यह सब उसके बचपन की बातें थीं । अब वह भी युवा हो चुकी थी । इसलिए चाहती थी कि भैया शादी कर ले । तभी वह कहने लगी, "आशु भैया, माँ चाहती हैं कि भाई शादी कर ले । कई लड़कियाँ भी माँ ने देखी हैं । दरअसल, इसीलिए मम्मी ने आपको बुलाया भी था, ताकि आप भैया को समझाएँ । ...मम्मी ने बताया था कि वे आपकी बात मानते हैं । ...ऐसा शायद माँ ने भैया की बातों से ही महसूस किया था ।"

मेरा मन तो हुआ था कि मैं राहुल वाली बात इसे बता दूँ । बता दूँ कि इसका एक ‘गिरिया’ हैं पर क्या ये उसके साथ इसकी शादी करवा पायेंगे ? ...मगर फिर यही सोच कर चुप रह गया कि इन लोगों को अभी उस दुनिया के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है । ...मुझे भी कहाँ होती, यदि रेशमा और ‘संध्या’ के संपर्क में मैं नहीं आया होता । इसलिए उस दिन इन सबको दिलासा देकर मैं लौट आया था ।

***

इधर मैं सोचने लगा था कि उसके लिए क्या कर सकता हूँ । मेरे आसपास कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिससे मैं उसके बारे में बात कर पाता । प्रायः सभी लोग इनसे दूर ही रहा करते... या दूर रहने की ही हिदायत देते । कोई इनके पचड़े, या कहें कि तिलिस्म को समझना नहीं चाहता था । शायद मैं भी एक दूरी बनाये रखता, यदि बचपन में ही तारा माँ के संपर्क में नहीं आया होता –- या मेरे मन की जिज्ञासा मुझे ‘इन तक’ नहीं समेट लाई होती । ...या फिर आगे चल कर मेरा पेशा –- जहाँ हर विषय की तह तक पहुँच कर खोज-खबर ले आना मेरी व्यावसायिक विवशता भी थी और मेरी रूचि भी । विशेष कर ऐसे विषय पर, जहाँ कोई हाथ नहीं डालना चाहता था ।

मुझे मोटे तौर पर इतना तो समझ आने ही लगा था कि ऊपर वाला कुछ मामलों में गड़बड़ी कर जाता है ...मगर उसकी ‘इस भूल’ को कैसे सुधारा जाए –- यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था । ...और ‘इन्होंने’ अपने तईं जो रास्ता खोज लिया था, वह तो मेरे सामने था ही ।

तभी एक दिन मेरे ऑफिस में एक फोन आया था। फोन रेशमा का था, इसलिए मुझे ज्यादा आश्चर्य हुआ था । हालांकि अपना नंबर मैंने रेशमा को तभी दे दिया था, जब मैं मधुर के साथ उससे मिला था । तारा माँ की मौत की खबर भी मुझे रेशमा ने फोन पर ही दी थी । वह कभी मेरे घर नहीं आई थी । जब पहली बार वह तारा माँ के साथ मेरे घर आई थी, तब मैं बहुत छोटा था ...और वह मेरे पिता का सरकारी घर था । मधुर के साथ मैं अलग रह रहा था और यहाँ रेशमा का आगमन कभी नहीं हुआ था। फोन पर रेशमा ने जो कुछ भी कहा, वह मेरे लिए अप्रत्याशित था, फिर भी मैं सोच रहा था कि आखिर रेशमा ने मुझे ही यह सब क्यों कहा ? ...और क्या उसे पता था कि संध्या मेरे संपर्क में है ?

शुरूआती चेतावनी के बाद रेशमा ने कहा था, "...बड़ी हरामजादी है बाबू जी ! ... छिनाल है पूरी ... उसे अपने पास नहीं आने देना । ...कोई रुपया-पैसा माँगे तो मत देना । ...बता रही थी कि बहुरिया से भी मिली है । ...समझा देना कि वो इसे घर में न घुसने दे । ...हीजड़ों पर कलंक है करमजली !... मेरे गिरया के साथ भाग गई... प्रताप गुरू की टोली में। वो भी भड़ुआ है साला, दोगला । ...अर जो छिनाल न होते तो ‘खैरगल्ले’ के होते क्या ? ...जाने किस-किस के इलाके में माँग रहे हैं । ..." रेशमा बिना साँस लिए कहे जा रही थी । मैं उसका आशय भी समझ रहा था –- वह नहीं चाहती थी कि उसकी चेली के कारण मुझे कोई नुकसान पहुंचे । वह मेरे संपर्क में है, यह जानकारी भी शायद रेशमा को उसी से मिली थी।

मैंने जैसे-तैसे उसे शांत करने का प्रयास किया था, "अच्छा सुनो... हाँ ठीक है ...मेरी बात तो सुनो ...जो तुम कह रही हो, मैं मानूँगा । मुझे आराम से बताओ, हुआ क्या है ?"

"तारा गुरू के बाद जब इलाका बंटा, तो उससे कहा था कि मेरे पास रुक जा ।... आप तो जानते हो – गुरू मुझे कितना मानती थी । ...पैसे देने की कोई कमी गुरू ने नहीं छोड़ी थी । ...इलाका भी ऊपर वाले की दया से ठीक ही था ।... मुझे सब जानते ही हैं । ...मैंने कहा था उससे कि तू मेरी चेली बन के रह, ऐश करेगी ...पर नहीं मानी हरामजादी.. भाग गई उस भडुए के साथ... वो भी एक का जाया न निकला -– मोटी कमाई के चक्कर में इलाका बदर हो गया... आजकल ‘खैरगल्ले’ की खा रहा है ।... रैकेटियर है साला... "

"अच्छा ठीक है, मैं ध्यान रखूँगा ।... वैसे मेरे पास आई नहीं है ।... अगर आई तो भगा दूँगा... पैसे भी नहीं दूँगा ... मधुर को मैं समझा दूँगा, तुम चिंता नहीं करना ।" संध्या के अक्सर चले आने की बात में छिपा गया था ...और यह भी कि मैं खुद उसके परिवार से मिला हूँ ।

मैं खुद पूरे संदर्भों को समझना चाहता था –- संध्या या रेशमा के अर्थों में नहीं। इसलिए मैंने उस दिन रेशमा की बात को सुना जरूर था ...मगर संध्या से बात किये बिना मैं कोई धारणा बनाना नहीं चाहता था । ...हाँ, यह विषय अब मेरे लिए कुछ और गंभीर हो गया था । ...विशेषकर प्रताप गुरू के साथ संध्या के संबंधों को लेकर । ...क्यों कि इस रूप में तो मैं राहुल को उसके साथ जोड़ कर देख रहा था –- फिर यह प्रताप गुरू ?... यह पात्र और यह प्रकरण मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था । ...केवल रेशमा के अर्थों में मैं समझना नहीं चाह रहा था । हालांकि वह मेरे लिए कभी भी ...और किसी भी प्रकार अविश्वसनीय नहीं हो सकती थी -– मगर संध्या पर विश्वास न कर पाने का भी कोई कारण मैं समझ नहीं पा रहा था ।... हाँ, प्रताप गुरू -– यह मेरे लिए अभी रहस्य था... और यूँ भी उससे मेरा कोई परिचय या तो था ही नहीं और यदि कभी मिला भी हो, तो मैंने उसके विषय में कभी कुछ विशेष नहीं जाना ।

बहरहाल, रेशमा की बातों को मैंने ध्यान से सुना था और संध्या से पूछे जाने वाले सवाल भी मन में कुलबुला रहे थे । फिर भी उससे जुड़े जो सवाल माँ, संध्या और सचिन से जुड़े थे... या संजय को लेकर, उनके सपनों से -– उन सवालों ने भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा था । हालांकि बहुत कुछ गड़बड़ा भी गया था ।... जाहिर है -– मैंने मधुर से ऐसे किसी भी विषय में कुछ नहीं कहा था । मुझे लगा था कि उसे ऐसे किसी झमेले में शामिल नहीं करना चाहिए । किन्तु मैं खुद नहीं समझ पा रहा था कि क्या करूँ ?... किससे बात करूँ ? क्या बात करूँ ?... एक बार को मन हुआ था कि भाड़ में जाएँ ये साले -– मैंने क्या ठेका लिया है ? आखिर मैं ही क्यूँ सोचता हूँ इनके बारे में ?...

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