दरमियाना - 28 Subhash Akhil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दरमियाना - 28

दरमियाना

भाग - २८

इस बीच वख्त कुछ और गुजर गया। यहाँ कुछ अन्य पत्रकार साथियों से भी मेरा परिचय हो गया था। उन्हीं में से एक साथी सुधीर वर्मा से मैंने एक दिन दयारानी के बारे में ज़िक्र किया, तो उन्होंने बताया कि हाँ वे दयारानी का घर जानते हैं और मेरे साथ चलने के लिए तैयार भी हैं। सो, उन्हीं के साथ एक दिन चलना तय किया गया। उन्होंने ही फोन पर मिलने का समय भी निश्चित कर लिया गया था। हम उन्हीं के वाहन से वहाँ गये थे।

एक मध्यवर्गीय स्तर का दुमंजिला घर था। घर की साज-सज्जा भी ठीक ही थी। घर की बाहरी दीवारों पर 'बुच पत्थर' का इस्तेमाल किया गया था। कॉलबैल बजने पर एक युवक ने दरवाजा खोला था। हमने अपना परिचय दिया, तो उसने अंदर जाकर सूचना दी। फिर हमें भीतर लिवा ले गया। अंदर अनेक दरमियानों तथा सामान्य किस्म के स्त्री-पुरूषों की भी काफी चहल-पहल थी। किन्तु हमारी ओर कोर्इ विशेष ध्यान दिये बिना, वे अपनी व्यस्ताओं में लगे रहे।

अंदर एक ड्राइंग-रूम नुमा कमरे में हमें ले जाया गया। दयारानी ने हमें देखा, तो खड़े हो कर दोनों हाथ जोड़ प्रणाम किया, "आओ बाबू, आओ !... बैठो।"

हमारे बैठने पर शर्बत और मीठा ले आने का हुक्म हुआ। हमने देखा, तो लगा कि वहाँ उपस्थित सभी लोग चुनाव अभियान की तैयारी में ही लगे हुए थे। अतः मैंने समझ लिया कि आज किसी अन्य विषय पर ज्यादा बातचीत नहीं हो पाएगी। इसी लिए सुरेन्द वर्मा को संकेत किया कि आज का विषय चुनाव प्रचार, उनके व्दारा उठाये गये मुद्दों और पूर्व में किये गये सामाजिक कार्यों पर ही केद्रित रखेंगे।

तब तक शर्बत के साथ मिठार्इ भी आ गर्इ थी। उन्होंने अन्य लोगों को कुछ निर्देश देकर बाहर भेज दिया था। हमने भी कागज-कलम निकाल कर अपनी दुकान लगा ली थी।

"कैसा चल रहा है आपका चुनाव प्रचार?" मैंने पूछा था।

"हाँ बाबू, अच्छा चल रहा है। यहाँ के विजय नगर में तो मेरी अच्छी वोटें हैं, बाकी इलाकों में भी हम काफी मेहनत कर रहे हैं।" उन्होंने बताया।

"मुझे बताया सुधीर जी ने कि आप पहले भी चुनाव लड़ चुकी हैं।"

"हाँ बाबू, मैंने मेयर का चुनाव भी लड़ा है, लोकसभा का भी लड़ा है। इस बार विधानसभा की तैयारी है।"

"क्या अनुभव रहे आपके?"

"बाबू, हम किसी पार्टी के बड़े नेता तो हैं नहीं!... न ही हमारे पास हराम का पैसा और गुंडे-बदमाश हैं!... हम तो अपनी र्इमानदारी के बल पर ही लड़ते हैं!"

"आपको क्या लगता है कि लोग आपकी बात सुनते हैं?"

"सुनते तो हैं बाबू!... पर हमारी बात इन नेताओं के झूठे नारों और वादों में दब जाती है।... ऐसा नहीं कि मैं केवल चुनाव के लिए ही सामने आती हूँ!... दो अनाथ आश्रमों, दूधेश्वर नाथ मंदिर और गऊशाला के लिए भी मुझसे जो बन पड़ता है, मैं करती हूँ।... चाहो तो इलाके में किसी से भी पूछ लो!" दया के चेहरे पर यकीनन विश्वसनीयता थी।

कुछ और लम्बे सवालों-जवाबों का सिलसिला चलता रहा। मैं और सुधीर भी नोट्स बनाते रहे। चलते हुए हमने अच्छे-से उनका इंटरव्यूह छापने का आश्वासन दिया था। हालाँकि यह क्षेत्र मेरी बीट में नहीं आता था, किन्तु विषय मेरी ही बीट का होने के कारण इस इंटरव्यूह के छपने की व्यवस्था हो गर्इ थी। चित्र भी मोबाइल से उपलब्ध हो गये थे। मैंने अपनी ओर से भी इस साक्षात्कार को, अपने अनुभवों के आधार पर और बेहतर बनाने का प्रयास किया था। इसके बाद उनका फोन मुझे धन्यवाद देने के लिए आया था।... चुनाव निपट जाने और नतीजे आ जाने के बाद -- उनके हार जाने पर मैंने अफसोस जताया था।

"कोर्इ बात नहीं बाबू!... जीवन में हार-जीत तो चलती ही रहती है!" उन्होंने अपनी इस चुनावी हार को भी 'जीवन की बहुत बड़ी लड़ार्इ हार जाने की तरह ही -- बहुत सहज रूप से ही स्वीकार किया था।'... यानी, जब स्त्री और पुरुष के मध्य स्थापित हो रहे अपने अस्तित्व को उन्होंने स्वीकार किया होगा -- तब क्या यह हार उसके सामने कुछ मायने रखती है?

***

लेकिन एक पत्रकार के रूप में, उनसे मेरा परिचय हो जाने के बाद, उनसे मिलना मेरे लिए सहज हो गया था। इस बार एक अच्छी बात यह भी थी कि मेरे पूर्व संबंधों में -- केवल मोहिनी ही थी, जिसका संदर्भ मैंने प्रथम परिचय में दिया था। इसके बाद तो सुधीर के माध्यम से मेरा सीधा जुड़ाव उनसे हो गया था।

इस बार तारा माँ से लेकर... रेशमा... संध्या... सुनंदा... और अब तक उनके साथ जिये क्षणों का कोर्इ हीलहवाला देने की जरूरत नहीं थी। अब तक मैं यह भी समझने लगा था कि अपने पुराने संबंधों का ज़िक्र न ही हो, तो ही अच्छा। इस सबकी अब कोर्इ आवश्यकता भी नहीं रह गयी थी।

यूँ भी, मैं इस बार, 'इस गली में' ज्यादा दूर तक नहीं उतरना चाहता था। कारण कि एक दिन दयारानी मेरे बताये हुए पते पर मेरे घर पहुँच गयीं। यह राजनगर में, एक ठीक-ठीक-सा घर था। पिताजी का! वे आर्इ तो थीं मुझे धन्यवाद देने... और भविष्य में भी मिलते रहने का निमंत्रण देने के लिए, किन्तु इस बार मधुर के तेवर कुछ और ही थे।

दया आर्इं, तो उन्होंने मधुर के सिर पर हाथ फेरा, "जुग-जुग जिये मेरी लाडो!... तेरा बन्ना तो बहुत प्यारा है!... भगवान करे, तुझे सारे जहान की खुशी मिले बेटा!... तू नहीं जानती, तेरा बन्ना लाखों में एक है!..." दया इसी तरह देर तक मधुर को दुआएँ दे रही थीं।

...मगर वे नहीं जानती थीं कि मधुर मेरे ऐसे सभी पुराने संबंधों के बारे में जानती है! बस, यहीं से अब हमारे संबंधों में भी एक छिपा हुआ तनाव पनपने लगा था। मधुर को भी लगने लगा था कि आखिर मैं क्यों 'इन लोगों के चक्कर में' पड़ा रहता हूँ!... जाहिर है, यह किसी भी पत्नी की खीज ही नहीं, उससे आगे की परेशानी का सबब भी हो सकती थी।

हालाँकि मधुर बहुत सुलझी हुर्इ, समझदार... और चीजों को बड़े परिपेक्ष्य में देखने की क्षमता रखती है।... मगर, एक रात हुए तनाव के बाद मुझे लगा था कि यह तो हमारे अपने संबंधों की नींव भी हिलने लगी है।... इस बार मधुर की खीज का कारण यह था कि मोहल्ले की महिलाओं ने मधुर को आ घेरा था।... 'कोर्इ अच्छी खबर है क्या?' मधुर के मना करने पर वे महिलाएँ उसे समझाने लगी थीं कि ऐसों से दूर ही रहना चाहिए... वगैरा-वगैरा! बस इसी बात को लेकर थोड़ा तनाव भी पैदा हुआ था, मगर मैंने 'अपनी बीट' (जिस विषय पर पत्रकारों को लिखना होता है।) बता कर बात टाल दी थी। किन्तु मधुर का तर्क था कि यह पिता जी का मकान है और यहाँ उनकी 'प्रतिष्ठा' भी जुड़ी है।

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