नई हुकूमत Nasira Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

नई हुकूमत

नई हुकूमत

हाजरा अधेड़ उम्र की दहलीज़ पारकर लुटी-पिटी तन व तन्हा शौहर के घर से जब माँ की चौखट पर पहुँची तो जबानी की दौलत लुटा चुकी थी। खिचड़ी होते बाल, रूखा चेहरा, वीरान आँखें और साथ में थे चंद रंग-उड़े टीन के बक्से जो रिक्शेवाले ने दरवाज़े के अंदर धकेल दिए थे।
आँगन में कबूतरों को दाना डालती हाजरा की माँ ने फ़ीकी आँखों से बेटी को ताका फि़र जज्वात से बिलबिला घुटनों पर हाथ रख बड़ी मुश्किलों से उठी और बेटी की बलाएँ ले, उसे छाती से लिपटा सुबक पड़ी। माँ-बेटी जब गले मिल चुकीं तो एकएक हाजरा की माँ ने टूटे दरवाज़े की तरफ़ नज़रें घुमाकर पूछाµ”नौशाद दूल्हा कहाँ रह गए|“
”मैं अकेली आई हूँ अम्माँ!“ हाजरा ने दरवाज़े की चौखट पर रखे बक्स दालान की तरफ़ घसीटे।
”अकेले|“ बूढ़ी माँ ने उलझे जटा बालों पर दुपट्टा जमाया।
”अकेले और दुकेले क्या|“ कहती हुई हाजरा ने घर पर उचटतीर नज़र डाली। शहतूत और अंजीर की सूखी पत्तियाँ पूरे घर-आँगन में हवा में मचल रही थीं।
”ठहरो! मैं चाय बनती हूँ, सफ़र में थकन हो गई होगी।“
”तुम बैठो अम्माँ, मैं बनाती हूँ।“ कहती हुई हाजरा बावर्चीखाने की तरफ़ बढ़ी। ठंडे चूल्हे पर धुएँ से काली पतीली चढ़ी थी। खोला तो देखा अंदर जली खिचड़ी पड़ी थी।
”परसों खिचड़ी बनाई थी। थोड़ा-थोड़ा खाती हूँ। अब खाना कहाँ हजम होता है।“
हाजरा ने माँ का थका चेहरा देखा और कोने में खड़ी झाडू उठा दालान आँगन बटोरने लगी। कूड़ा समेट उसने टोकरी में डाला और चूल्हे की राख निकाल पतीली को खँगाल चाय का पानी रखा। ताक पर न दियासलाई थी न डिब्बे में चाय की पत्ती थी। हाजरा ने सारे डिब्बे खोल डाले। माँ की िज़ंदगी की तरह सब खाली थे। एक पुड़िया में मूँग की दाल अलबत्ता पड़ी थी और कुछ नमक के ढेले---तभी उसने देखा माँ कूड़े की टोकरी से सूखी पत्तियाँ निकाल रही है।
”यह क्या अम्माँ|“
”चूल्हा नहीं जलाओगी क्या|“
रात का खाना खाकर दोनों माँ-बेटी सोने लेटीं। सारे दिन की थकान ने हाजरा को बिस्तर पर लेटते ही थपकियाँ देनी शुरू कर दीं। हाजरा नींद में डूब ही रही थी कि उसे महसूस हुआ कोई दरवाज़ा खोलकर अंदर दाखि़ल हुआ है। हड़बड़ाकर उठी तो सामने महजबीन को खड़ा पाया। अँधेरे में जेवर उसके बदन पर दीवाली के दीयों की तरह झिलमिला रहे थे। उसके चेहरे पर हल्की मुसकान की छाया-सी थी। हाजरा झँुझला पड़ी।
”अब यहाँ तो मेरा पीछा छोड़ा दो।“
”यहाँ और वहाँ क्या| मैं तो बरछी बन तुम्हारे जिगर में गहरी उतर गई हूँ। तुम्हें छोड़कर अब जाना मुश्किल है।“ महजबीन ने लचके-गोटे लगे दुपट्टे को उँगली में लपेटते हुए बड़ी अदा से कहा।
”या अल्लाह यह कैसा जुल्म है|---“
हाजरा बेहाल-सी बिस्तर पर लेट गई। बार-बार करवटें बदलने के बाद जरा-सी झपकी लगी तो उसके नथुनों में उबटन की तेज़ महक आई और चेहरे पर ठंडा गीला-सा स्पर्श महसूस हुआ। ढोलक और सुहाग गीत उसके कानों में मचलने लगे। हाजरा हड़बड़ाकर उठ बैठी। उसे याद आया, सत्ताईस साल पहले इस घर में वह लाल जोड़ा पहनकर अलताफ़ के साथ बिदा हुई थी। आँचल में गुड़-चावल डालते हुए दादी ने कुरान के साये से निकालते हुए उससे कहा था कि बेटी, लड़की का असली घर शौहर का होता है जहाँ से उसका जनाजा ही उठता है। हाजरा को लगा वह एक जिंदा लाश है जो शौहर के घर से कब्र की तलाश में लौटाई गई है। वह बेकरार-सी उठी और आँगन में आकर खड़ी हो गई। आसमान पर टूज का चाँद बड़ी मक्कारी से मुसकरा रहा था। उसे एकाएक अलताफ़ का चेहरा याद आ गया।
”तलाक तो मुझे अलताफ़ को देनी चाहिए थी। मगर गुजार दी सारी जवानी उस आदमी के साथ, जिसका चेहरा मुझे कभी न भाया और आज उसने किस तरह दूध की मक्खी की तरह मुझे निकाल फ़ेंका|“
”क्या बात है हाजरा|“
”कुछ नहीं अम्माँ!“
”जब से आई है, बिन पानी की मछली की तरह बेकरार है। मियाँ-बीवी में तो मनमुटाव होता रहता है। देखना नौशाद दूल्हा दो दिन बाद तुम्हें लेने आ पहुँचेंगे।“
”अब वह कभी नहीं आएँगे मुझे लेने।“
”आखि़र क्यों भला|“ हँस पड़ी बूढ़ी माँ।
हाजरा ने माँ के क्यों का कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि उसको ख्जुद अलताफ़ की इस चाल का पता नहीं था। वजह ढँूढ़ती है तो कुछ समझ में नहीं आता है। तीन बच्चे उसने पाल-पोसकर बड़े किए। ख़र्च की तंगी में उसने सिलाई कर बच्चों को हर तरह का सुख दिया। अब दोनों लड़कियाँ ससुराल में ख्जुश हैं और बेटा दुबई कमाने गया है।
अब जरा सुख की साँस ली थी। दिल पहनने-ओढ़ने, घूमने-फि़रने को चाहा था। जब सब तरफ़ से इत्मीनान हुआ तो महजबीन ने बिजली की तरह गिरकर आशियाना जला डाला।
”यह तुम्हारी छोटी बहन की तरह है।“ अलताफ़ ने एकाएक नई-नवेली दुलहन के साथ कमरे में दाखिल होकर कहा और वह अकबकायी-सी उन दोनों को देखती रह गई। जब उसे होश आया तो जाने कैसे मुँह से निकल गया, ”बहन| बहनें सौत नहीं बनतीं।“
”मगर सौत को बहन तो समझा जा सकता है।“ अलताफ़ का लहजा बेहद नरम था।
”तुम क्यों नहीं निभाते यह रिश्ता|“ हाजरा का ख़ून खौल उठा।
”यह तुम्हारी बाँदी बनकर रहेगी। मैं भी तुम्हारे सुख में कोई खलल नहीं डालूँगा। सब-कुछ वैसा ही चलेगा जैसा पिछले सत्ताईस सालों से चलता आया है।“
”सच|“
”मेरा यक़ीन करो, हाजरा।“ अलताफ़ मुसीबत में हमेशा हथियार डालने का आदी था।
”तो फि़र हमेशा की तरह हर रात तुम मेरे पहलू में गुजारोगे और सुबह उठकर मैं गरम-गरम नाश्ता तुम्हें पलँग पर खिलाऊँगी|“
”यह कैसे मुमकिन है| आखि़र नई दुल्हन के अरमान---मेरा फ़र्ज---“
”फ़र्ज| पुरानी दुलहन के लिए तुम्हारे फ़र्ज और मेरे अरमान|“
”देखो हाजरा, अब तुम ज्यादती कर रही हो। तुम इस घर की मालकिन हो, कुंजी तुम्हारी हाथ होगी---“
”यह घर, जिसकी आधी गृहस्थी मेरी मेहनत से बनी है, उसकी मालिक तो मैं हूँ, उसमें नई बात क्या है| मगर---इतना बड़ा क़दम तुमने उठाया और मुझे भनक भी नहीं लगने दी| जवान बच्चों के रहते तुमने यह क्या कर डाला|“
हाजरा ने अपने दोनों हाथ सिर पर मारे।
”जो करना था कर डाला। निकाह करके लाया हूँ, भगाकर नहीं।“ अलताफ़ के तेवर बदल गए। लहजा नरम से गरम हो उठा और वह तेज़-तेज़ क़दमों से बाहर निकला। उसके पीछे दुलहन भी पाँयजेब बजाती उसको तलवार से काटती निकल गई। दर्द की ताब न रही तो चीख पड़ी।
”इसके साथ मेरा गुज़र नहीं होगा। यह मेरा घर है मेरा---इसका बँटवारा नहीं होने दूँगी। ईंट-से-ईंट बजाकर रख दूँगी। कल ही तार देती हूँ अनवर को---आओ, देखो बाप की करतूत, बूढ़े मुँह मुँहासे---मुँह पर कालिख पुतेगी तब पता चलेगा, आटे-दाल का
भाव---“ हाजरा बड़बड़ाती रही। रोती-चीख़ती, चीज़ें पटकती रही, मगर अलताफ़ मियाँ के कान पर जूँ न रेंगी। जो पिछवाड़े नया कमरा बनवाया था उसमें वह नई बीवी के साथ दाखिल हो गए। उनकी रात शब-बरात थी। उनको इससे क्या कि कोई कुढ़ रहा है या जल रहा है।
सूखे पेड़ के नीचे बैठे-बैठे हाजरा ने बची रात गुजार दी। पौ फ़टते ही चिड़ियों की चहकार गूँज उठी। उसने घुटनों से सिर उठाया और बेदिली से उठ चूल्हे के पास जा लकड़ियों को जोड़ मिट्टी का तेल डाला। आग जला वह मुँह धोने गई। इस वक़्त उसे अपना घर याद आ रहा था, जहाँ आराम की सारी चीज़ें थीं। गैस पर खाना पकाते हुए रेडियो सुनती। मेज़ पर खाना खाते हुए टीॉवीॉ देखती और कूलर की ठंडी हवा में सोती। सिंक पर खड़ी ब्रश करती मगर यहाँ तो सब उलट गया था। आराम का आदी बदन बुरी तरह टूट चुका था। माँ की गरीबी, बीमारी दूर रहकर सह ली जाती थी मगर यहाँ आँखों के सामने सब घट रहा था। उससे आँखों कैसे बंद कर लेती। एक-दो गहने बदन पर पड़े थे। पर्स के रुपये थे ही कितने, वह भी राशन-पानी में खत्म हो गए। उसे अपनी िज़ंदगी बोझ-सी लगने लगी। दिल में घर छोड़ने का मलाल टीस बनकर उभरा।
”आज हफ्ता गुज़र गया तुम्हें आए, मगर नौशाद दूल्हा नहीं आए|“
”मैं तुम पर बोझ हूँ क्या अम्माँ| हज़ारा चिड़चिड़ा उठी।“
”कैसी बातें करती हो बेटी, तुम्हारे आने से पेट भर रहा है---मगर तेरे घर की िफ़क्र भी तो है। बेटियाँ अपने घर अच्छी लगती हैं।“
हाजरा चुप रही। कैसे कहती कि वह रात अंगारे के बिस्तर पर गुज़र गई थी। सुबह आँगन, दालान, गुसलखाने में गूँजती पाँयजेब की छुन-छुन उसके दिमाग़ में सुई चुभो रही थी। वह चुपचाप लेटी थी। धूप छत से गुज़रती आँगन में उतर आई। उसे अपना वजूद उस घर में बेकार लगा। सारी चीज़ें परायी लगीं। जब मर्द ही पराया बन गया तो इस घर-गृहस्थी को लेकर वह क्या करती| उसने कबाड़ी को देने के लिए अपने जहेज के बक्स निकाले थे। चमड़े, प्लास्टिक के खूबसूरत सूटकेसों के आगे टीन के छापेदार बक्स रखकर वह क्या करती, मगर आप वही बक्स उसे अपने लगे। उठकर उसने उन्हें खोला। फि़र कागज बिछाकर अपने कुछ कपड़े, जो उसे अब छोटे पड़ते थे, निकाल-निकालकर रखने लगी। अपने जहेज की चीज़ों को याद करती, उन्हें ढूँढती बौराई-सी कमरे में यादों के गोले को बेतहाशा खोले जा रही थी। जब वह अपने में पूरी तरह उलझी हुई थी, उस वक़्त अलताफ़ आया और बेहद सपाट लहजे में बोला, ”महजबीन कह रही थी तुमने नाश्ता नहीं किया|“
”वह कौन होती है कहने वाली कि मैंने नाश्ता किया है या नहीं, मैं उसकी पैर की जूती नहीं हूँ, अपनी मर्जी की मालिक हूँ।“
”मानता हूँ, देखो आज चौथी है। महजबीन के भाई आनेवाले हैं। हालात को समझो।“
”मुझे तलाक़ दे दो, फि़र ख़ातिर करना अपने नए ससुरालवालों की। मुझसे उम्मीद मत रखो कि उनके आगे खासा लगाऊँगी।“ हाजरा की जबान इतनी कड़वी भी हो सकती है इसका अंदाजा ख्जुद उसे भी नहीं था। अलताफ़ के अंदर बैठा जानवर भी अब हुमकने लगा था। आखि़र जिस बात की उन्हें इजाजत मिली है, उसी पर वार करना बेकार था। वह हाजरा से छीन क्या रहा था, बस अपने के लिए कुछ खुशियाँ ही तो लाया था| सारे फ़र्ज निभा दिए। अब जो िज़ंदगी बच गई है उसे अपनी तरह जीने का भी उसे कोई अधिकार नहीं है फि़र तो मौत ही भली। थोड़ी देर टकटकी बाँधे हाजरा को घूरता रहा
फि़र नहले पर दहला जड़ दिया, ”तलाक चाहती हो तो ले लो तलाक़---तलाक़, तलाक़, तलाक़,---“ इतना कहकर गुज्स्से में अलताफ़ नए कमरे की तरफ़ लौट गया।
हाजरा पर दूसरा दिमागी सदमा बम के गोले की तरह फ़ूटा। बौखलाई-सी वह नई स्थिति को समझ पाती इससे पहले उसके अंदर से एक तफ़ू़ान उसके सारे वजूद को झिंझोड़ता बाहर निकला। गुज्स्से और गम ने समझ की सारी दीवारें गिरा दीं। घर में समझाने और रोकनेवाला कौन बैठा था जो तफ़ू़ान पर रोक लगाता। यहाँ तो उलटे पाँयजेब की छुन-छुन आग पर तेल का काम कर रही थी।
”वह मुझे तलाक़ देगा---मैं ख्जुद उसे छोड़कर जा रही हूँ। मैं ख्जुद उसे तीन बार नहीं छह बार तलाक़ देती हूँµतलाक़, तलाक़, तलाक़, तलाक़, तलाक़, तलाक़---“ बच्चों की गिनती की तरह बोल गई हाजरा। उसका दिल चाहा कि नए कमरे में जाकर अलताफ़ के बदसूरत चेहरे को नाखूनों से नोच डाले जिससे वह िज़ंदगी भर नफ़रत करती आई थी। आज समझौते का पुराना बाँध टूट चुका था। अंदर का दबा ज्वालामुखी आँख और मुँह के रास्ते फ़ूटकर बाहर निकलने लगा था।
”मैं तलाक़ से डरकर ऐरे-गैरों की जूतियाँ सीधी करनेवाली नहीं हूँ। लो सँभालो अपना घर---“ इतना कहते-कहते बौराई हाजरा की आवाज़ भर्रा गई। फ़ूटकर रो पड़ती अगर सामने से महजबीन शरबत का जग उठाए गुज़र न जाती। अंदर की नरमी िफ़र धधकते लावे की तरह उबल पड़ी।
”इस घर का सारा तामझाम उठा ले जाऊँ तो मियाँ को पता चलेगा कि इनकी कमाई में कितना दम था।“ कहती हुई हाजरा ने तीनों छोटे-बड़े टीन के बक्स घसीटे और दालान तक लाकर छोड़ दिए। तभी नए कमरे के खिड़की-दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ उसके कानों से टकराई जैसे अलताफ़ कह रहा है, ”जाओ मेरी बला से और जो जा रही हो तो फि़र लौटना नहीं।“
स्टेशन तक पहुँचने और रेलगाड़ी में बैठने तक उसका जोश बदस्तूर कायम था मगर जैसे ही गाड़ी हिली, उसके अंदर कुछ काँपा था। दो घंटे के छोटे-से सफ़र में गुज्स्सा काफ़ूर बन उड़ता गया और उसकी जगह ग़म का चेहरा निखरता गया। भागते पेड़ों, खेतों, पुल और बस्ती को देखकर भी उसकी नज़रें अपनी िज़ंदगी की राह में उलझी हुई थीं। कच्चे मकान की लिपाई से लेकर पक्की दीवारों तक का सफ़र याद आ रहा था। उस घर को घर बनाने में अपना दाँत से पकड़कर पैसा ख़र्च करना याद आ रहा था। गाड़ी जब स्टेशन पर रूकी तो आँखों से गरम सोते उबल पड़े। भीड़ में कुली के पीछे चलती हुई वह अपने को बीमार महसूस कर रही थी, जैसे गिरते आँसू उसके बदन की सारी ताकत निचोड़ रहे हों। रिक्शे पर बैठ उसने अपने को सँभाला। ठंडी हवा ने गीली आँखों पर पंखा झला। जब घर की ड्योढ़ी पर पहुँची तो उसे सिफ़ऱ् अपना अपमान याद रहा। दिल व दिमाग़ में नफ़रत ही नफ़रत थी, महजबीन के लिए कम अलताफ़ के लिए ज़्यादा।
पंद्रह दिन में साथ लाए रुपए चिड़ियों की तरफ़ फ़ुर्र हो गए तो हाजरा नींद से जागी। अनवर ने दो माह पहले पाँच हज़ार उसे भेजे थे, जो पर्स में पड़े थे, जिससे उसने टूटा दरवाज़ा और दालान की टपकती छत ठीक करवाई थी। बावर्चीखाने के खाली डिब्बे भरे थे। अब किसके भरोसे आगे के दिन गुजारेगी| अनवर का पता वह जल्दबाज़ी में वहीं छोड़ आई थी। उसका मनीऑर्डर आएगा वह अलताफ़ रख लेगा। वह बेटे को अपने साथ घअे हादसे की इत्तला भी नहीं दे सकती है। लड़कियों को उसने खत डाल दिया था, मगर उसे यक़ीन नहीं था कि बेटे का पता उनके पास होगा। उनको जो कुछ लिखवाना मँगवाना होता था वह माँ को लिख देती थीं और हाजरा बहनों की फ़रमाइश उसके भाई को लिख भेजती थी। अब तो एक ही रास्ता था कि बदन पर पड़े जेवर को उतारकर बेचे और सिलाई की मशीन ख़रीदकर अपनी रोज़ी-रोटी ख्जुद कमाए। आँखों में पहले जैसी रोशनी न सही तो भी चश्मे से काम तो चलाना पड़ेगा।
”हाजरा, तुम्हारा इरादा क्या अपने घर लौटने का नहीं है, जो यह सारा खडराग पाल रही है|“ मशीन जिस दिन आई माँ का माथा ठनका।
”वहाँ जाकर क्या करूँगी|“
”मतलब---|“
”अलताफ़ ने दूसरी शादी कर ली है।“
”यानी कि---“ माँ को साँप सूँघ गया।
”मुझे तलाक़ देना पड़ा पूरे छह बार---“
”बौरा गई है क्या जो औलफ़ौल बक रही है तू|“
”उन तिलों से अब तेल नहीं निकलेवाला है“, कहती हुई हाजरा ने कटे कपड़ों को उठाया।
”जमाना को आग लग गई है। जब से आई थी, तभी से मेरा दिल धड़क रहा था कि कुछ अनहोनी घटने वाली है।“ माँ बड़बड़ा रही थी।
हाजरा की सिलाई मशीन खट-खट करती, कटे कपड़ों को जोड़ती, तफ़ू़ानी रफ्तार से बढ़ रही थी। हाजरा ने जहाँ से िज़ंदगी शुरू की थी वहीं पहुँच गई। माँ-बेटी ने बड़ी तकलीफ़ें उठाई थीं। िज़ंदगी कभी खुशियों से भरी थी। हाजरा का बचपन भी बड़ा सुखी गुज़रा था मगर बाप की अचानक मौत ने सबकुछ बदल डाला था। फ़ाके तक करने पड़े थे। जब फ़ंड का रुपया मिला तो दादी ने हाजरा के हाथ पीले कर दिए थे। घर में कुँवारी लड़की बैठी हो तो नींद यूँ ही उड़ी रहती है, फि़र वह भी यतीम और बेसहारा। हाईस्कूल-पास हज़ारा अलताफ़ के साथ ब्याह दी गई थी, जो शीशे काटने का काम करता था। आज वे दानों माँ-बेटी उसी तरह बेसहारा हो गई थीं। उनकी समझ और दूर-अंदेशी काम न आई और समय के घूमते पहिये ने बता दिया कि दुनिया गोल है, जो जहाँ से चला है वहीं लौट आता है।
रात को खा-पीकर जब माँ-बेटी बिस्तर पर लेटीं तो उस फ़ैले अँधेरे में उनकी खुली आँखों के जुगनू काफ़ी देर तक चमकते रहे। सारे दिन घर में आना-जाना लगा रहने से माँ हाजरा से कुछ पूछ नहीं पाती थी। अब जो मौका मिला है तो एक-साथ ढेरों सवाल दिमाग़ में कुलबुला रहे हैं, कौन-सा पूछें| किस सवाल से बात शुरू करें| हाजरा ने जो करवट बदली तो एकाएक माँ कह उठीµ”खाक पड़े इन मर्दों की अक्ल पर---देखना नाकों चने चबवाएगी। बूढ़े और जवान का कभी जोड़ा बैठा है कहीं|“
”पता नहीं कौन किस को चने चबवाएगा।“
”तलाक के साथ कुछ दिया भी या नहीं|“ माँ ने दिल पर पत्थर रखकर पूछ लिया।
”नहीं।“
”तलाक दी थी मर्द की तरह तो ‘मताह’ भी देता। आखि़र औरत खाती-पीती भी है, वह भी इंसान है, उसे भी सरदी-गरमी लगती है। सच है, आज जमाना बदला तो मर्द भी बदल गए, अब पहली वाली बातें कहाँ उनमें|“
”अलताफ़-जेसे मर्द हर दौर में थे।“ नफ़रत से हाजरा बोली।
”माना कि मर्द तोताचश्म होते हैं। उनके प्यार-मोहब्बत की मियाद बहुत छोटी होती है। मगर इंसानियत भी एक चीज़ होती है। शादियाँ करो, मगर इस तरह तलाक़ देकर पहली को बेसहारा तो मत बनओ। सच कहती हूँ, पहले तलाक़ देकर खाली हाथ औरत को वापस भेजना उनकी मर्दाना गैरत के खिलाफ़ था मगर अब---“
”छोड़ो अम्माँ कुछ लाती भी तो कितने दिन चलता|“
”बात चलने की नहीं है बल्कि क़ायदे की है। तुमने अपना हक़ क्यों न लिया| जब तलाक़ ली थी तो फि़र छाती पर चढ़कर गुज़ारा भी तो लेती।“
”नहीं अम्माँ, जिस घर में इतनी बेइज़्ज़ती हुई हो वहाँ से कुछ लेना मुझे कुबूल न था।“
”खुला मैदान छोड़ आई| तुम लड़कियाँ भी अजीब हो! जहाँ हक़ बनता है वह लेती नहीं हो, जहाँ लड़ना होता है वहाँ ख़ामोश रह जाती हो और जहाँ कुछ भी नहीं करना होता है वहाँ तफ़ू़ान उठा देती हो---| कभी-कभी तो लगता है कि जैसे तुमने ही मर्दों को बिगाड़कर रख दिया है अपनी हेकड़ी में---“
”अब इन सब बातों से क्या फ़ायदा! जो गुज़र गया, सो गुज़र गया। अब सो जाओ अम्माँ।“
हाजरा ने रूखा-सा जवाब देकर माँ को चुप करा दिया, मगर वह ख्जुद जानती है कि उसने बहुत जल्दबाजी से काम लिया है। कुछ दिन सब्र से बैठती, तेल देखती तेल की धार देखती, फि़र तिरिया चरित्र दिखा नई-नवेली को एक किनारे बिठा उसका पत्ता काट देती। मियाँ का दिल ऐसा फ़ेरती कि महजबीन की जवानी उसके बुढ़ापे के आगे गिड़गिड़ाती नज़र आती। उसे खर्चे-पानी की कमी क्या थी, बेटा कमाकर भेज रहा था। ठाठ से रहती, पहनती-ओढ़ती, दोनों को जलाकर खाक कर देती। आखि़र उसकी तीन-तीन औलादें थीं, जिनकी वह माँ थी। उसने तो लड़कियों से उनका मायका ही छीन लिया है, अब वह पहले की तरह किसके भरोसे आएँगी| बेटा भी दोराहे पर खड़ा हो गया है कि लौटे तो किसके पास, जहाँ पैदा हुआ उस घर में बाप के पास या वहाँ जहाँ माँ रूठकर बैठी हैं|
”सब्बो और शम्मो का कोई खत आया|“
”नहीं।“
”नानी को देखने के बहाने ही चली आती। दोनों को ब्याह के बाद देखा कहाँ है| आँखें तरस गई हैं। अब तो मेरे चल-चलाव के दिन पास हैं, जाने कब आँखें बंद हो जाएँ|“
”अम्माँ, तुम बेकार परेशान मत हो, सब ठीक हो जाएगा।“
”अल्लाह पर भरोसा है।“
अँधेरे में चमकते जुगनू बंद हो गए। रात आधे से ज़्यादा ढल चुकी थी। अँधेरे में देखी जानेवाली यह फि़ल्म भी कुछ देर बाद दिल व दिमाग़ को थका देती है। सोच का परिन्दा अंत में बेदम-सा आँखों के बंद घोंसले में समा जाता है।
उस रात माँ सचमुच गहरी नींद में सो गईं। सुबह चाय के वक़्त माँ का साकित बदन देख हाजरा धक से रह गई। दोपहर तक कफ़न-दफ़न हो गया। पुरसा देने वाली औरतें भी हाजरा को दिलासा देकर चली गईं। शाम धीरे-धीरे करके रात की तरफ़ बढ़ रही थी। माँ की लहद पर चिराग जला हाजरा चुपचाप दालान में बिछी दरी पर जाकर बैठ गई। घर का सन्नाटा उसे काटने दौड़ रहा था। खाफ़ै़ का अनकहा हाला उसको चारों तरफ़ से घेर रहा था। उसने उठकर दरवाज़ा बंद किया और बिना खाए-पिए बिस्तर पर जाकर लेट गई। पास का पलँग खाली देख उसकी आँखें भर आईं।
िज़ंदगी एक-दो दिन बाद पहले की तरह गुज़रने लगी। वही औरतों की भीड़, मशीन की खटखट और कपड़ों के रंगों के तागे, बटन ख़रीदती हाजराµसबकुछ भुला देने वाली हाजराµपहले की तरह कुछ भी न भुला पाई। अब तो हरदम उसे एक ही बात परेशान करती रहती थी कि कहीं वह माँ की तरह लंबी उम्र पा गई तो कब तक इस अकेले घर में भटकेगी। उसकी भरी-पूरी िज़ंदगी ने उसे क्यों तन्हा छोड़ दिया, आखि़र उससे खता कहाँ हुई| वह तो अलताफ़ से नाराज थी,---फि़र उसको घर से निकालने की जगह वह ख्जुद क्यों निकल आई| गलती उसने नहीं अलताफ़ ने की थी, फि़र सजा उसने पूरे खानदान को दे डाली। मर्द रिश्ता बनाता है मगर औरत उसे निभाती है, क्योंकि सृष्टि के खेल की सूत्रधार तो औरत है वह रचती है, बनाती है, िज़ंदगी का क्रम पूरा करती है।
”नहीं-नहीं, मेरी गैरत कभी वहाँ मुझे नहीं रहने देती। यह कमज़ोरी-भरी सोच शायद मेरी अकेलेपन की देन है। मैं भला कैसे उस आदमी के साथ रह सकती हूँ, जिसने शीशे की तरह दिल पर भी एक महीन लकीर खींच हलकी-सी ठेस से उसे तोड़ दिया।“ दिन में मशीन चलाती हुई हाजरा बदल जाती। सूरज की तेज़ी और चमक उसे जोश से भर देती थी।
कई माह गुज़र गए। हाजरा ने ऊपरी तौर से हालात से समझौता कर लिया। चंद उठने-बैठने वालियाँ मिल गईं, जिनके साथ सिनेमा देख आती, हँसी-मजाक, खाना-पीना कर अपने को ख्जुश रखने लगी थी। यह घर भी धीरे-धीरे सजने लगता था। ज़रूरत का सामान आने लगा था। पेड़ की जड़ों में पानी जाने से उसमें पत्तियाँ निकल आई थीं और उसी की एक शाख पर उसने तीतर का पिंजड़ा यह सोचकर टाँग दिया था कि एक से भले दो। ख्जुद खाना खाती तो तीतर को भी दाना डाल देती थी। उससे इस तरह बातें करती जैसे वह सबकुछ समझ रहा हो।
सालभर बाद एक सुबह जब वह आँगन में झाड़ू दे रंगीन कपड़ों की कतरनें बटोर रही थी, उस वक़्त दरवाज़े की कुंडी खड़क उठी। झाड़ू छोड़ जो दरवाज़ा खोला तो धक से रह गई, सामने अनवर खड़ा था। बेटे को छाती से लगाने की जगह वह ख्जुद उसकी छाती से लग बिलख उठी। माँ के सिर पर हाथ फ़ेरता अनवर कुछ पल वहीं खड़ा रहा, फि़र माघ् को कंधे से पकड़ अंदर आया और पलँग पर बिठाकर ख्जुद गिलास में पानी उड़ेलने लगा। पानी पीकर हाजरा सँभल गई। हमदर्दी पाकर उसकी जबान अलताफ़ के खिलाफ़ बोलने के लिए कुलबुलाने लगी, मगर बेटे के चेहरे पर छाई संजीदगी को देखकर वह दम साध गई। दोनों कुछ देर ख़ामोश बैठे रहे। अनवर ने उचटती नज़र से घर को देखा।
”अम्माँ को मरे छह माह गुज़र गए।“
अनवर कुछ बोला नहीं। चुपचाप उठा और साथ लाया बैग खोलने लगा। हाजरा ने उठकर चाय का पानी चढ़ा आटा गूँधना शुरू कर दिया। उसके दिल में पंखे लगे थे। वह सब कुछ बताना चाहती थी कि क्या कुछ घटा, परायी औरत की ख़ातिर वह बेघर-बार हुई। इस बुढ़ापे में रोटी कमाने के लिए कपड़े सिलने बैठी। अनवर जब मुँह-हाथ धोकर आया तो नाश्ता तिपाई पर लग चुका था।
”अम्माँ, जल्दी से सामान समेटो। गाड़ी ठीक बाहर बजे छूट जाएगी।“ कहता हुआ अनवर अपनी पसंद का नाश्ता रौगनी टिकियाँ और अंडा खाने लगा। बरसों बाद जैसे उसकी भूख शांत हुई हो, ऐसा हाजरा को लगा हो या नहीं, मगर अनवर को जरूर महसूस हुआ। पूरे पाँच साल का कांट्रेक्ट खत्म कर वह लौटा है। रेगिस्तान से अपने साथ कमाया धन ही नहीं, बल्कि कुछ सपने भी साथ लाया है। उस सपने में माँ भी है। बचपन का वह घर भी है, जहाँ नए समीकरण की कोई गुंजाइश नहीं है। यह सारी बातें वह बाप से कहकर आया है। घर माँ को नहीं, बाप को अपनी नई दुलहन के संग छोड़ना होगा, क्योंकि वह कटे हैं परिवार की इकाई से। यह सब वह माँ को नहीं बताना चाहता है, न यह कहना चाहता है कि उसने माँ की ख़ातिर बाप से लड़ाई कर ली है।
बेटे के हुक्म को हाजरा ने बिना किसी हील-हुज्जत के मान लिया और सामान बाँधा। आखि़र उसका दूसरा वारिस आया था उसे लेने, जिसको उसने ख्जुद पैदा किया था। इस नई हुकूमत की बागडोर अब वह छोड़ना नहीं चाहती थी।

***