जड़ें Nasira Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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”इंडिया---इंडिया---कैसा होगा इंडिया|“ गुलशन ने बहते आँसुओं को पोंछते हुए अपनी नीग्रो आया से पूछा।
”अच्छा, बहुत अच्छा।“ नीग्रो आया ने उसके आँसू पोंछकर चट-चट उसके दोनों गालों का चुंबन लिया।
”मुझे वहाँ मत भेजो, मुझे अपने से अलग मत करो।“ कहती हुई अट्ठारह वर्ष की गुलशन आया के सीने से लग गई।
”बेबी, तुम इंडिया नहीं ग्रेट ब्रिटेन जाओगी, वहाँ तुम्हारी जान को कोई ख़तरा नहीं है, फि़र जैसे ही यहाँ हालात ठीक हुए मैं तुम्हें ख़त डालकर बुला लूँगी।“ आया ने प्यार से पुचकारा, मगर वह जानती थी कि अब गुलशन का यहाँ लौटना नामुमकिन है।
”सच कह रही हो न|“ गुलशन ने पलकें झपकाईं।
”सच, बिलकुल सच। हाँ, ये कुछ डॉलर हैं। इनको सँभालकर रख लो, काम आएँगे।“ कहकर आया ने छोटा-सा बटुआ गुलशन के हाथ में थमाया और आँखों में भरे पानी को पोंछा। ये सारे नोट उसको इनाम में मिले थे। अब न उसका साहब िज़ंदा है और न उसकी नौकरी बची है, मगर गुलशन का तो कुछ भी नहीं बचा, लाख का घर ख़ाक हो गया है। पता नहीं अकेली गुलशन अब अपने को कैसे सँभालेगी| इससे ज़्यादा कुछ करना उसके बस में भी तो नहीं है।
बाहर से शोर की आवाज़ें आने लगीं। घबराकर आया ने बत्ती बुझा दी। कंपाला शहर में पिछले कई महीनों से सिफ़ऱ् एक नारा गूँज रहा थाµ”इंडियंस, गो बैक।“ इसी के साथ भारतीय मूल के युगांडा निवासियों के घर जलने, हत्या और लूटपाट का ऐसा तफ़ू़ान आया कि गुलशन के मम्मी-डैडी और बूढ़ी दादी के साथ छोटे भाई की गोली मारकर हत्या कर द गई। घर जलकर राख हो गया।
गुलशन को एक ही बात समझ में नहीं आ रही थी कि वह तो युगांडा की निवासी है। यहीं पैदा हुई, यहीं पली-बढ़ी, फि़र वह इंडियन कैसे हो सकती है| मम्मी-डैडी भी तो यहीं पैदा हुए थे और दादी---| यदि दादी िज़ंदा होती तो वह सारा सच जानने की कोशिश करती कि आिख़र हम थे कौन जो इस तरह बर्बाद हुए| इंडियन थे तो यहाँ क्या कर रहे थे| नहीं, नहीं, वह इंडियन नहीं, युगांडा की है। कंपाला शहर उसका अपना शहर है। ये कौन लोग हैं जिन्होंने हमको बर्बाद किया| मेरे मम्मी-डैडी ने उनका क्या बिगाड़ा था| परवीन, मेरा भाई, आह---आया कुछ भी नहीं बताती। कुछ भी नहीं बताती कि उनको किस क़सूर पर मारा गया| आया यहाँ से मुझे क्यों बाहर भेज रही है| मैं यहाँ से कहीं नहीं जाऊँगी। यदि आया ने ज़ोर दिया तो में इस घर से भागकर कहीं छुप जाऊँगी, फि़र अपने घर जाकर रहने लगूँगी। आया मेरे साथ रहेगी और---अगर रास्ते में किसी ने---नहीं-नहीं ---गुलशन भय से रोने लगी। पास लेटी आया सोते से चौंककर उठी और उसको सीने से लगाकर थपकी देना शुरू कर दिया। बाहर से गाली और गोली की आवाज़ें बराबर आ रही थीं।

जहाज़ के उड़तेे ही गुलशन को लगा था कि वह एक अंधी सुरंग की तरफ़ धकेली जा रही है, जहाँ पर उसे रोशनी के लिए जाने कब तक रास्ता टटोलना पड़ेगा। उसको कुछ टूटता-बिखरता लगा। बड़ी मुश्किल से उसने खिड़की से आिख़री बार कंपाला को देखा और आँखें बंद करके बेदम-सी सीट पर टिक गई। एकाएक उसकी लाल फ़ूली आँखों से गिरते आँसू ख़ुश्क हो गए और भावना की हर नर्म टहनी टूटकर गिर गई। उसने आँखें बंद करके सर खिड़की पर टिका लिया।
”मैं आपने घर जाऊँगी, मैं राज अंकल के घर नहीं जाऊँगी।“ गुलशन ने बिलखते हए कहा।
”अच्छा, ठीक है बेबी, चलो पहले अपने घर चलते हैं, फि़र कहीं और जाएँगे।“ कहती हुई आया ने बैग उठाया और आगे बढ़ी। आँसू पोंछती गुलशन उसके पीछे चली। आया का ड्राइवर भाई बाहर उनके इंतज़ार में टैक्सी लिए खड़ा था।
गुलशन का अपना और अपने पास वाले घरों को जला देखकर आया से सारा शिकवा जाता रहा। वह चुपचाप राज अंकल के पास जाने को राज़ी हो गई थी, जो उसके डैडी इकबाल सिंह के जानने वाले थे। आया उससे लिपटकर रोई और चली गई। दो दिन गुलशन ने राज अंकल के परिवार वालों के साथ गुज़ारे और वहाँ पर उसे बड़े अज़ीब व ग़रीब सच का सामना करना पड़ा था। जैसे भारतीय मूल के युगांडा निवासी ब्रिटिश सत्ता के समय बंधुआ मजदूर बनाकर लाए गए थे। अपनी मेहनत से पैसा जोड़कर सब कुछ बनने लगे और शिक्षा के दम पर बड़ी पदवी पर बैठने लगे और व्यापार द्वारा बाज़ार उनके हाथों नाचने लगा उस समय वे भूल गए कि यह उनका देश नहीं है। वह तो युगांडा में पूरी तरह रच-बसकर उसे ही अपना देश समझने लगे थे। भले ही उनकी नागरिकता ब्रिटिश थी। यह सारा सत्ता का खेल स्थानीय बाशिंदों को सहन न हो सका कि वह ब्रिटिश के हाथों गुलाम बने और विदेशी व्यापारियों द्वारा ग्राहक, सो धरती के बेटे जाग उठे और इन्हें विदेशी समझकर इन पर टूटे ही नहीं बल्कि इन सबके विरोध में हथियारबंद हो उठे।
यह सारा सच किसी सदमे की तरह गुलशन का दिमाग़ सुन्न कर गया था। उसे महसूस हुआ कि वह अब तक कितने बड़े झूठ को अपना सच माने हुए थी। इस सच को जानने के बाद उसे इस बात पर ताज्जुब हो रहा था कि सारे के सारे लोग इंडिया वापस न जाकर ग्रेट ब्रिटेन क्यों जा रहे हैं| हवाई अड्डे पर उसे सारा कंपाला जमा नज़र आया था जिनसे वह घर, स्कूल, सड़क, दुकान, दफ़्तर, सिनेमा इत्यादि में देखती, मिलती रहती थीं आज सबके चेहरे भय से पीले और दुःख से फ़ीके पड़ गए थे। सभी एक बात कह रहे थे कि उनके पास ब्रिटिश पासपोर्ट हैं इसीलिए जाना वहीं होगा। इन सबके बीच ऐसा कोई नहीं था जो इंडिया का नाम ले रहा हो या वहाँ वापस जाना चाह रहा हो। आखि़र क्यों|
हवाई जहाज़ पूरा का पूरा भरा हवाई जहाज़ अब लंदन हवाई अड्डे पर उतरा तो सब एक-दूसरे से जुदा होने लगे थे। कस्टम की िज़ल्लत से निकलकर कोई होटल, कोई दोस्त और कोई अन्य शहर में किसी संबंधी के घर पनाह लेने की बदहवासी में था। सबकी आँखों से वहशत और भय का ऐसा जलप्रपात गिर रहा था कि गुलशन किसी से सहायता माँगने की हिम्मत जुटा नहीं पाई और राज अंकल जाने इस भीड़ में परिवार सहित कहाँ खो गए थे।
गुलशन का दिल बुरी तरह रोने को चाह रहा था, मगर आँसू निकल नहीं रहे थे। धीरे-धीरे करके सारी भीड़ छँट गई। नए देश में पराये लोगों के बीच वह बिलकुल अकेली थी। ड्राइवर, आयार, नौकर, आगे-पीछे घूमने वाले चेहरे पीछे छूट गए थे। मम्मी, डैडी और दादी उसे बुरी तरह याद आए मगर वह उन्हें दोबारा नहीं पा सकती थी। उसकी आँखों में भरे आँसू गालों पर लुढ़कने लगे।

गुलशन को जल्द ही एक स्टोर में सेल्सगर्ल की नौकरी मिल गई। काम इतना होता कि दुःख मनाने का समय तो दूर, ज़रा-सा ठहरकर दम लेने की भी फ़ुर्सत न मिलती जिसके कारण गुलशन में चुनौती स्वीकार करने की आदत अपने-आप पड़ने लगी और वह दोबारा जिंदगी जीने के क़ाबिल बन गई। ख़सकर तब जब उसके आसपास काम करने वाले जवान लड़के-लड़कियों के माँ-बाप होने के बावजूद वे सब ख़ुद कमा-खा रहे थे और भविष्य के बारे में स्वयं निर्णय लेते थे।
गुलशन के अंदर छाया यह संतुलन उस समय बिगड़ता जब कभी वह रात को सपने में अपने को कंपाला वाले घर में मम्मी-डैडी के बीच, भाई के साथ खेलता पाती। मेज़ पर स्वादिष्ट व्यंजनों से भाप निकलती होती और दादी उसकी प्लेट में उसके न-न करने पर भी खाना निकालती जाती। सुबह उठकर वह नए माहौल से तालमेल बिठा न पाती, ख़ासकर ‘सैंडविच’ और ‘फि़श एंड चिप्स’ तो उसके गले से बिलकुल नहीं उतरता था। इसी के साथ यह प्रश्न मुखर हो उठता कि वह कौन है| कहाँ की है| उसकी सही पहचान क्या है| इस देश में भी वह कब तक ठहर सकती है|

गुलशन ग्रेट ब्रिटेन के विभिन्न शहरों में भटकती आिख़र एडिनबर्ग आकर ठहर गई। छोटा-सा सुंदर मगर शांत शहर था। दुकानों पर सामान बेचते, होटलों में काम करते हुए काफ़ी कड़वे अनुभव हुए थे। उसका रहन-सहन, बोलचाल तो अंग्रेज़ों जैसी कंपाला में भी थी मगर वह जिस गर्मी की तलाश में थी वह यहाँ कहीं मौजूद नहीं थी। बहरहाल ‘इंडिया टी सेंटर’ में नौकरी करते हुए जब उसकी दोस्ती वहाँ के भारतीय कर्मचारियों से हुई तो वह उनके परिवार के आँगन में भरी पत्तियों की डाल-सी झुक गई।

गुलशन अपने अतीत में भटकते हुए अब पूरे बीस वर्ष की हो चुकी थी। उसके दिल में यह भावना जड़ पकड़ने लगी थी कि इस अतीत को वर्तमान में सिफ़ऱ् एक तरह से बदला जा सकता है कि वह किसी इंडियन से विवाह कर ले और उन पुरानी यादों पर ख़ाक डालकर बिलकुल नई जिंदगी उस घर में गुज़ारे जिसकी जड़ें उसकी अपनी ज़मीन में अंदर तक धँसी हों, जहाँ से उसको या उसके बच्चों को कभी निकाला न जा सके। इस मानसिकता के बन जाने के बाद उसने अपनी ओर बढ़ते दोस्ती के हाथों में से किसी की तरफ़ हाथ नहीं बढ़ाया। उसको ‘डेटिंग’ की हक़ीक़त पता थी। वह तो शादी के प्रस्ताव के इंतज़ार में एक घर का देख रही थी वरना एक बिन बाप के माँ बन जाना यहाँ कोई मुश्किल काम नहीं था।
सिद्धार्थ से उसकी मुलाक़ात ‘इंडिया टी सेंटर’ में हुई। सादा-सी मुलाक़ात कोई रूप धरना चाहती थी। यह अहसास दोनों को हो चला चला था। गुलशन ने बड़ी गंभीरता से सिद्धार्थ को अपनी जिंदगी के तराज़ू पर तौलना शुरू कर दिया, उधर सिद्धार्थ में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह अपने दिल की बात गुलशन से कह सकता, मगर जैसे-जैसे वह गुलशन को हर दिल देखता वह अधिक गंभीर, संतुलित और विवेकशील लगती, उन सारी स्कॉटिश लड़कियों से अलग, जो प्यार का हिसाब पल-भर में चुकाना जानती हैं। गुलशन की यह बेगानगी और लापरवाही-भरा दोस्ताना अंदाज़ सिद्धार्थ को गहरे में कचोटता मगर उसके चेहरे पर छाया भोलापन और ठहराव उसकी ज़बान पर आने वाले शब्दों को रोक लेते थे कि कहीं गुलशन बुरा न मान जाए।

”मैं घर की चहारदीवारी में प्रेम का सपना देखती हूँ, घर से बाहर बनाए संबंध पर मेरा विश्वास नहीं है।“ एक दिन बातों के बीच जब सिद्धार्थ अपने दिल की बात कह गया तो गुलशन को अपनी बात भी कहनी पड़ी, जिसको सुनकर सिद्धार्थ अवाक् रह गया।
”घर तो बहुत बाद में आता है, पहले हम एक-दूसरे को जान लें और---“ सहज होकर सिद्धार्थ ने कहा।
”मैं स्कॉटिश नहीं हूँ, युगांडा से निकाली गई भारतीय मूल की एक लड़की हूँ जिसका घर-परिवार सबकुछ पल-भर में भस्म हो गया। इसलिए घर मेरे लिए पहली ज़रूरत है और प्रेम दूसरी।“ इतना कहकर गुलशन का चेहरा उदास हो गया। वह अनजाने ही कंपाला पहुँच गई।
दोनों ख़ामोशी से कॉफ़ी पीते रहे। सिद्धार्थ के लिए इतना दो-टूक सच निगलना मुश्किल हो रहा था। वह किस बूते पर विवाह के लिए हाँ कर दे| उसने तो दिल में उभरी भावनाओं को दबाने की जगह व्यक्त-भर किया था। उसे तो यह भी पता नहीं था कि यह भावना सच्ची है या माहौल् के कारण है जहाँ जवान लड़के-लड़कियों का साथ घूमना एक आम ज़रूरत हैं पैंट और स्कर्ट पहनने वाली गुलशन क्या उसके छोटे से शहर में घुटकर न रह जाएगी| सीधी-सादी, अनपढ़ माँ के साथ निभा पाएगी| क्या वह गुलशन को कभी क्षमा कर पाएगी|
भावना की पहली फ़ुहार ठोस प्रश्नों के बीच घिर गई और मोहब्बत का चढ़ा जादू धीरे-धीरे करके दम तोड़ने लगा। सिद्धार्थ के चेहरे पर तनाव था। उसका अपना गुज़रा भी गुलशन से अलग नहीं था। बँटवारे से पहले जिस गाँव में उसके दादा रहते थे आज वह पाकिस्तान का हिस्सा है। अपना सबकुछ पीछे छोड़कर जान बचाकर भागने वालों में उसके पिता भी थे। घर की उन्हें तलाश थी। वहीं कैंप में रहने वाली बेसहारा लड़की से उन्होंने विवाह किया और दोनों ने मिलकर एक मज़बूत घर की बुनियाद डाली थी। उस घर की जड़ें वह कैसे हिला सकता है| उनकी सारी उम्मीदों का वही एकमात्र केंद्र है। सारी जमापूँजी लगाकर उन्होंने उसे पढ़ाया और यहाँ तक पहुँचाया था। आज भी वे उस बँटवारे के ज़ख़्म को नहीं भूले हैं जो बीस-पच्चीस वर्ष पहले लगा था।
दोनों ख़ामोशी से कॉफ़ी पीते रहे, फि़र एक-दूसरे से अलग हुए। शायद दोनों को जवाब देने या सुनने की जल्दी नहीं थी।

सप्ताह गुज़र गया, सि_ार्थ ‘इंडिया टी सेंटर’ की तरफ़ नहीं गया। जाता तो क्या मुँह लेकर जाता! और यह किस मुँह से कहता कि वह गुलशन को चाहता है मगर शादी वह माँ-बाप की इच्छा के विरु) नहीं कर सकता है! उसकी अपनी भी मजबूरी है!

उधर गुलशन यह सोचकर उदास थी कि जाहँ घर नहीं बल्कि बसेरे बनते हों, वह उस धरती पर स्थयी पनाह की खोज में घर की इच्छा कर बैठी। ठीक है कि उसका घर उजड़ा मगर उसकी क़ीमत दूसरे से माँगना कहाँ का तर्क है| इस पूरे सप्ताह जिस तरह सिद्धार्थ उसे याद आया, वह केवल एक मामूली मुलाक़ात का नाम देकर उसे भुला नहीं पाएगी।

आिख़र कई सप्ताह अपने से लड़ने के बाद सिद्धार्थ ने फ़ै़सला कर लिया कि वह फि़र कभी गुलशन के सामने नहीं जाएगा। कुछ कहकर अपने को छोटा करने से अच्छा है कि गुलशन जो चाहे उसके बारे में साचेकर अपने को शांत कर सकती है।
इधर सिद्धार्थ की पी-एचॉडीॉ टाइप हो रही थी। ब्रिटिश कौंसिल का स्कॉलरशिप ख़त्म होने वाला था। समय रहते ही उसने अपना काम ख़त्म कर लिया था। इस बीच उसे घर से ख़त मिला कि उसके स्वागत की तैयारी में माँ ने एक लड़की पसंद कर ली है, आते ही विवाह-मंडप में उसको बैठना होगा। लड़की अभी बीॉएॉ के आिख़री वर्ष में है। इस पत्र को पढ़ने के बाद सिद्धार्थ की भावनाओं की उथल-पुिाल पर सील-सी लग गई। धीरे-धीरे करके गुलशन की याद की जगह थीसिस की जिल्दसाज़ी, वायवा, वापसी टिकट की बुकिंग और जाने कौन-कौन-सी समस्याओं में डूब गया। मन-मस्तिष्क में छाया मौसम बदल चुका था।

हर दिन के गुज़रने के साथ गुलशन को नया सच ज़्यादा साफ़ नज़र आने लगा था। उसे इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि जब सिद्धार्थ उसको घरौंदा देने का विश्वास नहीं दे सकता तो फि़र उसे याद क्यों आ रहा है| क्या वह बिना घर के भी सिद्धार्थ को पल-भर पाने की लालसा रखती है| क्या इस बार वह सिद्धार्थ को पुकारे| मगर हर बार जवाब नहीं में मिलता।

गुलशन का अतीत उसे मानसिक रूप से कहीं जुड़ने नहीं देता था। एक भय निरंतर उसका पीछा करता रहता था। अकसर उसके इस भय के अँधेरे में एक प्रश्न जल उठता कि आिख़र उस देश ने, जिसको उसने कभी देखा नहीं, कभी उससे प्यार तो दूर उसके बारे में सोचा नहीं, वह क्यों उसकी जिंदगी में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है| क्या इंसान की जड़ें उसका पीछा कभी नहीं छोड़ती हैं| क्या फ़ैलती शाख़ाओं का कोई महत्त्व नहीं|

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