ख़ुशबू का रंग Nasira Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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ख़ुशबू का रंग

ख़ुशबू का रंग

परिन्दों के लौटने का मौसम आ गया है। बफ़र् पिघल-पिघल कर पहाड़ों के दामन पर जमा हो गई है और जज्मीन नन्ही-नन्ही हरी कोंपलों से भर गई है। मगर मैं वहीं उसी तरह खड़ी हूँ। तुम्हारे लौटने की कोई ख़बर मुझ तक नहीं पहुँचती है, जबकि बेजज्ुबान परिन्दे बिना पुराने ठिकानाें को भूले लौट रहे हैं। ये घोंसले दुरुस्त करेंगे और रहना शुरू कर देंगे, मगर मैं उसी तरह लुटी तन्हा-सी, तश्ना रह जाऊँगी। मौसम यूँ ही बदल जाएँगे और मैं तिनका-तिनका जोड़कर बस उन्हें सँभालती ही रह जाऊँगी। बहुत चाह कर भी उन्हें घर का रूप न दे सकूँगी।
तुमसे जुदाई के बाद तुम्हारा वह ख़त हजजरों बार पढ़ा था। हर बार गज्ुसलख़ाने के नम माहौल में घंटों बहते नल के नीचे खड़ी होकर बेतहाशा रोई थी। मगर आज भी उस जुदाई की जलन और कसक में कोई कमी नहीं आई है। आज भी तुम्हारा ख़त जैसे नजज्रों के सामने है, ‘तुमसे दूर हर चीजज् जो नजज्रों के सामने है, ऐबदार लग रही है। चूँकि कज्सम खा चुका हूँ कि रोऊँगा नहीं, बल्कि एक बंजारे की तरह जिज्ंदगी के हर पड़ाव पर मेरी नजज्रें, तुम्हारी ही तलाश में, तुम्हें खोज लेने की चाह में भटकती रहेंगी।’ और मैंने पूरी जिज्ंदगी तुम्हारी उस नजज्र के इंतजजर में गुजजर दी।
घर में सब ही पीछे पड़े थे। असलियत मालूम होने पर माँ का रो-रोककर बुरा हाल हो गया था। मगर बढ़ती उम्र की बहार का रुख़ मैंने सबकी मजजर््ी के िख़लाफ़ज् पतझड़ की ओर मोड़ दिया था, इस उम्मीद पर कि मौसम के बदलने के साथ सबकुछ बदल जाएगा।
मुझे घर के सारे लोगों पर गज्ुस्सा था। बुआजी पापा को उलाहना देतीं, ‘देख लिया न लाड़-दुलार का अंत! मना किया था कि अकेले मत भेजो, डिग्री के बिना जिज्ंदगी में कौन-सा दागज् लगा जा रहा था। मगर यह दागज् जो बैठे-बिठाए लगा बैठी है, अब इसका इलाज तुम ही बताओ।’
माँ हमेशा जवानी के तकजजजें, बुढ़ापे के सहारे का ख़ाफ़ैज् दिलातीं पर उन्हें मैं कभी न बता पाई कि माँ! दिमागज्ी तकजजज्े भी तो होते हैं, जो जिस्म से बहुत ऊपर की चीजज् हैं। जिस्म का क्या, कल कुछ भी हो सकता है, यह चलता-फि़लता बदन मिनटों में मिट्टी में मिल जाएगा, सिफ़जर्् उस तन में रनहे वाली रूह, उसका वजूद, उसकी फि़ज्क्र बाकज्ी रह जाएगी। मगर मैं कुछ न कह पाती, बस घुटती रहती और एक-एक साल गिन-गिन कर काटती, जाने कब तुम आओ| दिन तो वे गिनते हैं, जिन्हें साल ख़त्म होने का इंतजजर होता है मगर मुझे तो सालों के गुजज्रने का इंतजजर था। कभी-कभी लगता, शायद जन्म-जन्मान्तर तक राह ही देखती रह जाऊँगी या फि़र इस भय से जम जाती कि कभी तुमको देख भी पाऊँगी या नहीं| माँ ने एक बार मुझे बहुत समझाया था, हजजरों कज्समें, मिन्नतें की थीं जिनका मेरे पास एक ही जवाब था, अगर मैं उनकी इकलौती आरजज्ू, इकलौती लड़की हूँ तो उस इकलौती आरजज्ू की भी तो इकलौती तमन्ना थी, जिसके लिए वह सबकुछ कर सकती थी। माँ ने परेशान होकर शायद पापा से कहा था, अरसे बाद भटकता इतना बढ़िया पैगजम वह लौटाना नहीं चाहती थीं। इस उम्र में कुछ लड़कियों को तो यह भ्ीा नसीब नहीं होता है। पापा ने मुझे अपने पास बुलाया था। उन्होंने जो भी कहा था, मेरे पास उसबा जवाब था, ‘आपने मुझे जो कुछ सिखाया है, क्या मैं उसे गज्लत समझूँ|
‘पर बेटी, वह न हमारी जाति का, न बिरादरी का, न देश का, फि़र उसका क्या ठीक| कितने साल राह देखोगी|’
‘पापा, मैं एक ही बात जानती हूँ, वह भी आपकी बताई हुई कि जिस पर आस्था रखो, उसके प्रति पूरी तरह ईमानदार रहो। दूसरी रही माँ की बात, उसका जवाब यही है कि आपने मुझे फि़र बचपन में सबकुछ गज्लत क्यों सिखाया था| अब बहुत समय बीत गया है मगर अब भी यदि आप मानते हैं कि आपका अब तक का दिया हुआ वह सबकुछ झूठ है, तो मैं अपने को बदलने को तैयार हूँ।’

माँ और पापा, उस हकज्ीकज्त से इंकार के लिए तैयार न थे, इसलिए मैं तुम्हारी तरफ़ जानेवाले रास्ते पर तन्हा निकल गई। भटकने का सवाल न था, क्योंकि तुम्हारी चाहत का चिरागज् मेरे हाथों में था, बस तुम्हें ढूँढना भर था, जाने तुम जिज्ंदगी के किस मोड़ पर अचानक आ मिलो, इस आशा में हर पड़ाव पर मैं ठहर कर दम लेती, फि़र तुम्हें ढूँढने के लिए दिनों के रास्ते पर चल पड़ती।
एक बार तुमने बहुत घबरा कर कहा था, ”सुनो! अगर कभी तुम सुनना कि मैं जेल में हूँ तो घबराना मत, किसी-न-किसी तरह से वहाँ से निकल आऊँगा।“
‘तुम अपने उसूलों की सच्चाई के लिए लड़ोगे तो मुझे हमेशा अपने साथ पाओगे’, मैंने इतने घमंड, इतने नाजज् से यह बात कही थी कि तुम मुझे देखते ही रह गए थे। लौटना मुझे था, मैं लौट आई इस वायदे के साथ कि हम जल्द ही एक-दूसरे के हो जाएँगे। मगर मैं इंतजार करती रह गई और तुम कोशिश। दूरियाँ इतनी बढ़ीं कि वह शहरों से बढ़ कर जमीन और आसमान में बदल गईं।
मुझे याद आ रहा है कि तुम कमरे में मुझे कहीं नहीं बैठने देते थे, सिवाय अपनी लिखने की मेज़ के। कहते थे कि किताबों के बीच से दिखता तुम्हारा चेहरा मुझे अच्छा लगता है और मैं उस गर्म कोने मे ंलैंप की तेज़ रोशनी की तपिश को सहती हुई सिफ़ऱ़् तुम्हारी ख़ातिर बैठी रहती थी।
चलते समय तुमने अपने को मेरे सामने खड़ा करके कहा था, ”यह घर है, जहाँ तुम्हारी साँसें बसी हुई हैं। ये किताबें हैं जो मुझे जान से ज़्यादा अज़ीज हैं। जो पसंद हो, ले लो। और मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ। इस तन के साथ जो सुलूक चाहो, कर लो।“ मैंने काँपते, लरज़ते हुए तुम्हारी पेशानी का बोसा लिया था, और अपने को सँभालते हुए कहा था, ‘अपनी िफ़क्र, अपने विचार मुझे दे दो। बस! मुझे और कुछ नहीं चाहिए।’
और तुमने जवाब में इतना कहा था, ‘इस दिमाग़ की हर िफ़क्र का दारोमदार तुम ही रहोगी, कोई दूसरा नहीं।’ यह कह कर तुमने मेरे माथे का चुंबन लिया था, जिसकी जलन मुझे आज भी महसूस होती है। उस लम्हे भर की तुम्हारी मर्दाना खज्ुशबू ने मुझे िज़ंदगी पर तृप्ति का एहसास दिलाया।
कभी-कभी मेरा दिल फ़टने लगता, अपने पापा के विचारों में डूबे-झुके व्यक्तित्व को देखकर, जिसे माँ की जुदाई ने तोड़-सा दिया था। उनके पास मुझसे कहने को कुछ भी नहीं रह गया था। हम दोनों एक ही घर में अपनी-अपनी दुनिया में खोये रहते। पापा ने अपने को बाग़वानी में लगा लिया था और मैंने अपने को लिखने में। पापा के पौंधों के फ़ूल माँ की तस्वीर के नीचे सजे होते तो मुरझाने से पहले सुबह-शाम बदल दिए जाते और माँ की तस्वीर के पास की रैक मेरी लिखी किताबों और पेपरों से भरती चली गई। मगर लिखने के बीच में जब कभी नज़रें अपने झुर्रियों से भरे हाथ पर पड़तीं तो उन्हीं पर अटक कर रही जातीं। हर रेखा, हर झुर्री से अतीत झाँकने लगता और सारी रेखाएँ मिल कर तुम्हारे चेहरे में बदल जातीं। और मैं तुम्हारी गहरी आँखों में डूबी तुम्हारी सऱगोशी को सुनती। ‘छोटे मगर ख़ूबसूरत हाथ!’ लगता, चुटकियों में रखकर दिल को किसी ने मसल दिया हो।

एक दिन बाज़ार में घूमते हुए यूँ ही तुम ज़ेवर की दुकान में घुस गए थे। एक अँगूठी ख़रीद ली थी। वहीं दुकान पर मेरी उँगली में पहनाकर बोले थे, ”इसे कभी अपने से जुदा न करना।“ सपनों में बहती-सी मैं बाहर निकली-जैसे किसी ने चलने की ताक़त छीन ली हो। अजीब बात है। कभी यही प्यार एक जोश, एक उबाल बनकर ख़ून में लावे की तरह फ़ूटता है और कभी ऐसी कमज़ोरी का एहसास दिलाता है जैसे एक ठंडी-सी लहर सारे बदन को बेजान बना रही हो। मेरे सफ़ेद पड़ते चेहरे को देखकर तुमने कहा था, ‘क्या बात है|’
‘कुछ नहीं चलो, कहीं और बैठते हैं, मुझे चक्कर आ रहा हैं।’
सामने के रेस्तराँ में हमलोग बैठ गए। तुम आने वाली िज़ंदगी में डूबे थे, ‘हमारे सिफ़ऱ् दो बच्चे हों। लड़का मेरी शक़्ल का और लड़की तुम्हारी। मेरे कहे जानेवाले बच्चों की तुम माँ होगी। यह सोचकर मुतमईन हो जाता हूँ कि उनका भविष्य रोशन होगा, तुम एक अच्छी प्यार करने वाल माँ साबित होगी।’
मगर मैं बंजर धरती की तरह सारी िज़ंदगी वीरान, खाली पड़ी रही और ममता के उबलते सोतों ने भी उस सोंधी ख़ुशबू से मुझे वंचित रखा जो बरसात की बूँदें धरती को बख़्शती हैं। बल्कि जिस दरख़्त की जड़ें मेरे पूरे जिस्म में गहरी उतर कर फ़ैल गई थीं, उसकी शाखाएं उतनी ही खाली और खंखड़ा पूरे नंगे, सूखे दरख़्त पर केवल दो चन्द्राकार रेखाएं थीं या यूँ कहँू कि िज़ंदगी भर तुम्हारी खुशबू सँूघने की लम्हे भर की गुनहगार और माथे पर दूजे के चाँद की मोहर का इल्ज़ाम बस। मगर इन गुज़रे हुए तमाम सालों में, मैं अफ़वाहों की सलीब पर टँगी तुम्हारे विचारों के कवच को पहने हर चोट को निराश कर लौटा देती। इस लंबी सन्नाटी पगडंडी पर बहुत लोग मिले, कुछ अच्छे भी लगे मगर सिफ़ऱ् अच्छे लगने की हद तक। तुम्हारी हद तक पहुँचने का न किसी में दम था, न ही मुझे तुमसे कोई अच्छा दिखा जो मुझसे तुम्हें छीनने का हौसला रखता।

मोहब्बत का यह मौजूदा पुल जिस पर आज मैं तन्हा खड़ी हूँ, इसकी शुरुआत मेरी एक कहानी से हुई थी। और यही कहानी हमारी दोस्ती के पुल की पहली निशानी थी। जिसे तुम राख में दबी चिंगारी की तरह दिमाग़ में छुपाये छटपटाते हुए सुबह का इंतज़ार कर रहे थे। तुम्हारे दिमाग़ ने मुझे परख लिया था। अपनी तरह टकराने, लड़ने-भड़कने वाला समझ कर अपने को रोक नहीं पाये थे। अपनी किताब जो किताबों के ढेर के पीछे काग़ज में लिपटी, छिपी हुई पड़ी थी और ख़ामोशी से छपी थी और ख़ास लोगों के हाथों में पहुँच गई थी। इसलिए अपनी घुटी आवाज़ को मेरी कहानियों में ललकार की शक्ल में देखकर तुम दीवानावार मेरी हर कहानी पर अपनी पसंद की मोहर लगाते चले गए थे और यही निशानियाँ हमारी चाहत का पुल बन गईं। तुमने बताया कि यदि यह किताब आम लोगों तक पहुँच जाए तो मैं कम-से-कम दस साल कके लिए लोहे के पिजंड़े की नज़र हो जाऊँगा।
आज हम एक-दूसरे की धरोहर बने, माथे पर ज़ख्म खाये अलग-अलग मुल्क़ों में आँसुओं में डूबे पिघल रहे हैं।
कुछ दिन बाद पापा भी मुझे छोड़कर चले गए। मुझे अकेला देखकर एक भीड़-सी जमा रहती जिसमें रिश्तेदारों, दोस्तों के बहुत-से चेहरे याद रह गए हैं, जो मुझे अपनी तरह जीना सिखाना चाहते थे। कुछ ने यह भी कहा, ‘लड़कियों की तरह रहो।’ तो क्या मैं लड़की न थी, औरत न थी| लड़कियाँ कैसी होती हैं| क्या वे किसी का इंतज़ार नहीं कर सकती हैं| क्या वे अपने पैरों पर नहीं खड़ी हो सकती हैं| मगर इन सवालों का जवाब उनके पास नहीं था। मैं ठीक उस पुराने कुएँ की तरह हूँ, जिसमें हर गुज़रने वाला अपनी शक्ल, अपनी आवाज़ की वापसी सुनना पसंद करता है।
और मैं उन ज़बर्दस्ती के हक़ जताने वालों के खि़लाफ़ कुछ भी न कर सकती थी। बस, उस ख़ामोश दर्पण की तरह थी जिसमें चिड़िया अपने को देखकर, हक़ीकत को समझे बिना चोंच मारती है, फि़र उत्तर न मिलने पर थक कर उड़ जाती है। और मैं दिमाग़ी व जिस्मानी तौर पर तेज़, नुकीले नश्तरों के ज़ख्म सहती हुई, इन रिश्तेदारों और दोस्तों के उड़ जाने पर एक लंबी संतोष की साँस खींचती। फि़र वह समय भी आ गया जब मैं तन्हा लोगों की नज़रों में किसी जादूगरनी की तरह उस सुनसान घर में रहने लगी जो चारों तरफ़ से बेशुमार लताओं, पेड़ों और लंबी घासों से घिरा हुआ था।
दिन महीने बने, महीने साल, एकाएक तुम्हारे ख़त आने बंद हो गए थे, जिससे पता लग गया था कि अब तुम आज़ाद नहीं रह गए हो। तुम्हारी नई किताब शायद हुक्म के बादशाह के हाथ लग गई थी।
दस साल बाद आज़ाद किए गए लोगों में भी तुम न थे। आखि़र गए कहाँ| और मैं दुनिया की नज़रों में न सुहागिन बनी, न विधवा, परंतु अंदर ही अंदर इस दौरान गुज़रे सारे हादसों को झेल गई थी।
बाग़-ए-शहनशाही’ में घूमते हुए तुमने एक बार बड़े लाड़ में आकर कहा था, ”लो, यह हाथ तोड़ डालो।“
मैं इस लाड़ को समझ न सकी थी, तो भी दूर से उस हाथ के बेशुमार चुंबन लेकर कहा था, ”नहीं! ये हाथ तोड़नेवाले नहीं हैं। मैं तो इनकी क़ीमत का सही अंदाज़ा भी नहीं लगा सकती हूँ।“ यह कहकर मैंने उछलकर सड़क के बीच में आनेवाली नाली को पार किया था मगर पत्थर से ठोकर खाकर मैं लड़खड़ा गई थी। तुम्हारी परेशानी देखने के लायक थी। कभी मुझसे पूछ रहे थे, कभी झुक कर पैर देख रहे थे। आज मेरा सारा वजूद िज़ंदगी की बेशुमार ठोकरों से ज़ख्मी है, जिसे देखकर तुम शायद फ़ूट पड़ो और वह आँसू स्वाति के पानी की तरह मेरे ज़ख्मों को धोता मेरे दामन को मोतियों से भर दे। मगर ऐसा नहीं होगा। यह तो बस एक नाक़ाम-सी आरजू है। जब कभी जीने का दिल चाहता है तो यूँ ही अनहोनी-सी बातें सोचने लगती हूँ।
तुमसे मिलने के कुछ दिन बाद हम बातें कर रहे थे। उन दिनों हम न मर्द थे, न औरत। बस दो ज़बान, दो दिमाग़ थे। एक बार औरतों पर बहस करते हुए तुमने कहा था, ‘औरतें कोई लिबास नहीं हैं जो सुबह-शाम बदली जाएँ और उन्हें उतारे कपड़े की तरह गुसलखाने के एक कोने में गंदी छींटों के हवाले कर दिया जाए। वे भी इंसान हैं, उन्हें देवी के तख़्त और कुलटा के नापदान से निकालकर इंसान की तरह अच्छाई-बुराई के साथ जीने का हक दिया जाए।’ और मैं मंत्रमुग्ध-सी तुम्हें देखती रह गई। लगा, मेरे ही विचार तुम अपने शब्दों में दोहरा रहे हो और मैं अपनी छवि आईने में देख रही हूँ। मगर तब पता नहीं था कि सूरज की किरण की तरह झिलमिलाते इस आईने का दूसरा रुख ठीक सुख की पीठ की तरह दुःखदायी और अंधकारमय है जिसमें डूबी मैं िज़ंदगी भर अपने को दुबारा देखने के लिए बेचैन, छटपाटी रह जाऊँगी।

घर का लंबा सन्नाटा, सिमटती धूप की परछाइयाँ, बंद अँधेरे घर के कोने, उलझन, घबराहट, बेचैनी, तेरी तन्हाई में ऐसा ज़हर भरतीं कि मैं हवा में उछाले सिक्के की तरह कलाबाज़ी खाती हुई यह न समझ पाती कि मेरे पैरों के नीचे ठोस धरती भी है या नहीं| या मैं केवल भावनाओं के काल्पनिक पंखों पर सवार उड़ रही हूँ| ऐसे मौकों पर बस एक सवाल सिर उभारता, आखि़र मेरी िक़स्मत के फ़ूलों को मेरी पहुँच के दायरों के पार क्यों खिलना था। ‘यह सबकुछ, क्या मेरे साथ ही होना था|’ तुम तक पहुँचने के लिए अब तक हर काल्पनिक सवारी पर बैठ चुकी थी। हवाओं, बादलों, चाँद, सूरज-सबसे पैग़ाम भिजवा चुकी थी, पर आज तक किसी पैग़ाम का जवाब नहीं आया था, न किसी सवारी ने मुझे तुम्हारे कूचे तक पहुँचाया था, बल्कि भूल-भुलैया में छोड़ दिया था।
शाहीन का ख़त आया था। उसने लिखा था, ‘तुम आ जाओ, उसी कमरे में जिसकी दीवारें बनफ़शईं हैं, जिसकी छत पर िज़ंदगी की तरह लुभावनी व भुलावे जैसी रंग-बिरंगी क़ंदील टँगी है, जिसके कोने में किताबों से भरी मेज़ के पीछे रखी कुर्सी खाली है। वहाँ हम दोनों बैठकर गुजरे लम्हों को जिएँगे और जी भर कर रोएँगे। रोने को अरसे से दिल चाह रहा है मगर ऑिफ़स में काम और घर में बाबा की मौजूदगी बाँधे रहती हैµआओ देखो! उस कमरे के दरवाज़े पर बना सवाल का मामूली-सा निशान जिसने हमारी िज़ंदगी को कैसा बेमानी-सा बना दिया है। यह सवाल घर के ज़र्रे-ज़र्रे में डूबा हमसे सवाल करता है कि वह कहाँ है जिसके स्पर्श, जिसकी आवाज़, जिसकी महक की हमें आदत पड़ गई थी| हमारे पास इस सवाल का क्या जवाब है|
तुम आ जाओ। कितनी बार बुला चुकी हूँ। एक बार फि़र मैं तुम्हारे लंबे स्याह बालों में ब्रश करूँगी, साड़ी के रंग की नेल पॉलिश से तुम्हारे गुलाबी नाख़ून रंगूँगी जो तुम सूखने से पहले पोंछ डालोगी। फि़र तुम्हें तुम्हारी पसंद का वह लोकगीत सुनाऊँगी, जिसे सुनकर तुम चुप हो जाती थीं और तुम्हारी आँखें बोलने लगती थीं, मगर उस लोकगीत पर शोरा नाचेगी नहीं। वह तो यहाँ से दूर अपने शौहर के साथ है। वह नाचमा भूल गई है, ढेरों बच्चों को धोबी की लादी की तरह उठाए ज़मीन ही तकती रहती है।’
मैं जाकर वहाँ क्या करती| मेरे पास स्वयं सवालों की क़तारें थीं। एक बार शहर से गुज़रते हुए मैंने यूँ ही तुम्हारा चश्मा लगाकर कहा था, ”आज तुम्हारा मुल्क़ तुम्हारी नज़रों से देखती हूँ।’ ‘देखो मेरी नज़रों से। उसमें शानदार, हसीन इमारतें, म्युिज़यम के सच्चे मोती, पन्ने, लाल, हीरे, सामानों से उबलती दुकानें नहीं दिखेंगी बल्कि कच्चे मिट्टी के घर, गली-कूचों में बोरा ओढ़े बच्चे और सड़क के किनारे तरबूज़ के साथ रोटी निगलने वाले मज़दूर दिखाई देंगे।’
पूरे रास्ते तुम ख़ामोश थे। तुम्हारा चश्मा लगाए मैं हड्डियों के नंगे, भूखे इलाक़े में घूम रही थी, ‘तुम सोचते हो हमलोग बेहतर हाल में हैं| ”नहीं, लेकिन दिखावे का चाबुक सिरों पर नहीं सनसनाता है।’ मगर पिछले माह आए शाहीन के ख़त को मैं भुला न पाई, न उसके बुलावे को टाल ही सकी। लिखा था, ‘बाबा की कोशिशों और आँसुओं ने तुमको पा लिया है और तुम बहिश्ते ज़हरा के एक कोने में सुख की नींद सो रहे हो।’
पढ़कर जैसे दिल को क़रार आ गया कि तुम्हारा पता तो चला। दौड़-भागकर इजाज़तनामा लिया और जहाज़ पर बैठ गई। कितने युगों बाद मंिज़ल की तरफ़़ जाने वाले जहाज़ पर बैठी थी। उड़ान के साथ ही दिल उलटने लगा। नीचे गुज़रती फ़रीज़े की पहाड़ियों पर सिर पटक-पटककर रोने लगी। मगर क्या यूँ सिर पटकने से तक़दीर का लिखा मिटा सकती थी|
बहिश्ते ज़हरा ख़ामोश था, दरवाज़े पर के नीले गुंबद जैसे बोलना भूल गए थे। शाहीन मेरे पीछे चल रही थी और मैं इस तरह से तुम तक चलती गई जैसे मुझे तुम्हारे गले में जयमाला डालनी हो। शर्म की जगह मैं ग़म से निढाल आँसुओं के सैलाब को चीरती बढ़ रही थी। तुमसे मेरी यह दूसरी मुलाक़ात थी। तुम मनों मिट्टी के बोझ में दबे हुए थे और मैं बिना मरे ही अँधेरे में छटपटाती रही हूँ, दिल पर एक बड़ा पत्थर जो मन भर मिट्टी से भी कहीं भारी है, मेरे सीने पर रखा हुआ था। ऊदे, नारंगी फ़ूल तुम्हारी पसंद के रंग क़ब्र पर रख देती हूँ। सफ़े़द संगमरमर के नीचे तुम सारे रिश्ते, सारी बग़ावत, सारे इंक़लाब को भूलकर साकित पड़े हो। मेरे साथ मेरे बच्चे नहीं हैं जो दो संस्कृति, दो देशों के मिलन से होनेवाले थे। न लड़का, जो तुम्हारी शक्ल का और न लड़की, जो मेरी तरह होने वाली थी।
वहीं क़ब्र पर शाहीन ने क़ालीन बिछाई और तुम्हारी पसंद के फ़ल सजाए। इस रस्म के मुताबिक़ जिसका मतलब था, तुम भी हमारे बीच हो। तुम्हारी जगह शाहीन मेरी प्लेट में पकी अंजीरें रख रही थी और मैं बीस साल पहले की शाम में खोई जाने क्या-क्या निगलती रही। शाहीन ने बताया कि तुम अपनी हरकतों से बाज नहीं आए थे। जेल में भी ऐसी हरकतें करते कि मजबूरन तुमको गोली से उड़ाने का फ़ैसला किया गया।
मरने से पहले तुमने एक ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी कि गोली सिर पर न मारी जाए और चाहे बदन के सारे हिस्से भूल दिए जाएँ। आखिरी ख़्वाहिश की क़द्र करते हुए गोली सीने पर मारी गई थी। बग़ावत नहीं, शायद इंसानियत के बारे में सोचने का यह इनाम था, जो सीना तान के तुमने सहा होगा।
एक बार तुमने कहा था, ‘जानती हो, बुढ़ापे में अपने दाँत जिस जगह गाडँू़गा, वहाँ से घास उगेगी। यही मेरी पवित्रता की निशानी होगी।’ आज मैं सोच रही हूँ कि जहाँ तुम्हारा ख़ून गिरा होगाµगर्म, उबलता, जोशीला, सुख़र् ख़ून, वहाँ लाल फ़ूल तो ज़रूर खिला होगा। हो सकता है कि उस फ़ूल को हुक़्म की तानाशाही ने रौंद डाला हो। यह भी हो सकता है कि रौंदने के बावजूद दुबारा निकला हो। टपके ख़ून की बँूद धरती के सीने में गहराई से जज़्ब हो गई होगी जिनसे सुर्ख फ़ूल खिलते रहेंगे।
घर के माहौल ने मेरे रहे-सहे हवास भी मुझसे छीन लिए। बाबा की हालत देखी नहीं जाती थी। आँखों में मोतियाबिंद उतर आया था। बस तुम्हारे लिखे काग़जों को सीने से लगाए, उन्हें पागलों की तरह चूमते रहते थे। मुझे देखकर वह ऐसा फ़ूट-फ़ूटकर रोए थे कि मुझे अपने सारे ग़म मरते हुए लगे थे। महसूस हुआµमैंने तो तुम्हें सिफ़ऱ़् कुछ दिन देखा था, बाबा ने बरसों तुम्हें गोदियों में खिलाया था।

शाहीन ने वह कमरा जिसके दरवाज़े पर सवाल का निशान बना था, खोला। जानी-पहचानी खुशबू के ग़ुबार में मैं डूब गई। ऊपर छत पर क़ंदील रौशन थी। टेलीविज़न पर जंगली, हरी नाज़ुक लताओं की सूखी टहनियाँ सजी थीं। शाहीन ने तुम्हारे तकिये के नीचे से पर्चा निकालकर दिया। आखिरी दिन पाँच मिनट की मुलाक़ात में मरने से पहले तुमने यह लाइनें मेरे लिए लिखी थीं।
”पढ़ लो न|“ शाहीन ने ताज्जुब से मुझे देखा।
”अब जल्दी क्या है|“ खिड़की से सामने घरों के पिछवाड़ों को देखते हुए मैंने कहा। नन्हा-सा पर्चा मुट्ठी की छोटी-सी दुनिया में क़ैद हो गया। उस हल्की फ़ालसाही दीवारों वाले कमरे में हम सुरमई फ़ूलदार क़ालीन पर बैठ गए। ऐसा लगा कि मैं पानी से भरे सुरमई बादलों पर सवार हूँ और कभी किसी लम्हे झम-झम कर बरस पडँ़ूगी। शाहीन उठी, दराज़ खोलकर उसने तुम्हारा कंघा निकाला। मेरे बाल खोल दिए जो बजाय क़ालीन पर लौटने के मेरे कंधों से चिपक गए। शाहीन ने बातें शुरू कर दीं। थोड़ी ही देर बाद शहनाज़, मरयम और बतूल भी आ गईं। माहौल वही था, बस ज़रा-सा फ़र्क़ था। बालों की लंबाई और स्याही सफ़ेदी में बदल गई थी और यादों की सफ़ेदी वक़्त के स्याह पहियों में ऐसी उलझ गई थी कि उन तारों को सँभाल-सँभालकर निकालना था।
शाहीन उठी और चाय बना लाई। चाय से भरा फि़नजान और शक्कर के दो क्यूब तुम्हारी मेज़ पर रखकर उसने सबको चाय दी। ‘आज हम सब ठीक बीस साल बाद दुबारा दूध की चाय पी रहे हैं,“ यह कह कर शाहीन ने बिस्कुट की प्लेट आगे बढ़ाई। लुका-छुपी के खेल की तरह कई साये चेहरों से गुज़र कर घर के कोनों में समा गए।
रात को बाबा के सो जाने पर मैंने और शाहीन ने बड़ी ख़ामोशी से उनके सीने से काग़ज़ उठाए और सारी रात में उन्हें दूसरे काग़जों पर नक़ल करती रही। शाहीन ख़ामोश, घुटनों पर ठुड्डी रखे मुझे देखती रही।

तुम्हारी क़ब्र के पास मैं सुबह से बैठी हूँ। उठने का दिल नहीं चाह रहा है। फि़र जाने कब मुलाक़ात हो| अगले जन्म में| या शायद कभी नहीं।
एक लंबे सफ़र के हर पेंचो-ख़म को मैं सिफ़ऱ् चंद घंटों में दोहरा गई जिसे जीने के लिए मैंने सारी उमर गुज़ार दी। घुटनों पर से पेशानी उठाती हूँ। हाथों में तुम्हारा लिखा पर्चा है। खोल कर पढ़ती हूँµ
‘इस घटना को कहानी का अंत समझकर उदास मत होना। अभी दास्तान को मंिज़ल तक पहुँचने के लिए बहुत रंग चाहिए। जानती हो, तुम्हें भी रंग भरना है। इस दास्तान का सफ़र लंबा ज़रूर है मगर अंतहीन नहीं।’
सामने नज़र डालती हूँ, सूरज दोबारा उगने की उम्मीद लिए डूबने की तैयारी कर रहा है। सामने से बेशुमार परिन्दों के झुंड चले आ रहे हैं। कुछ बीच में उतर कर ज़मीन से बिखरे तिनके चुन रहे हैं। सबको बसने की जल्दी है। बरसों से देखते आए इस दृश्य में खो जाती हूँ। जाने कहाँ से शोला लपकता है! उम्मीद का आखि़री तिनका उठाती हूँ। ‘काश! मैं तुम्हारे करीब दफ़न हो सकूँ!’ क्या ऐसा हो सकता है| क्यों नहीं| िज़ंदगी में न सही, मर कर तुम्हारी कुरबत तो पा सकती हूँ।
बहुत दिनों से ख़ामोश दिए की लौ धीमे-धीमे रोशन होती है। एक संतोषभरी रौशनी का हाला मेरे चारों तरफ़ खिंच जाता है। संदल का कलम तुम्हारे सिरहाने रख देती हूँ, ‘मेरी तरफ़ से क़बूल करो।’ ग़म की सारी परछाइयाँ जाने कहाँ छुप गईं। बस आखिरी उम्मीद के शोले की गर्मी मेरा सारा वजूद जलाये दे रही है।
शाम ढल गई है। पेड़ों के साये बहिश्ते ज़ेहरा की क़ब्रों पर झुक गए हैं। तुम्हें उन्हीं सायों के सुपुर्द पर क़ब्र के अँधेरे को सीने में छुपाये बाहर आती हूँ।

***