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गूँगा आसमान

गूँगा आसमान

प़फ़रशीद ने कूरे पर तिरयाक़ का टुकड़ा लगा, लंबा कश खींचा। दरवाज़े पर मेहरअंगीज़ के हाथों की थाप पड़ी, मगर प़फ़रशीद के कान पर जू न रेंगी। वह उसी तरह लंबे-लंबे कश भरता रहा। उसके लिए नशा करना बहुत ज़रूरी था। यह मेहरअंगीज़ क्या जाने? माहपारा भी नहीं समझ सकती है और दिलाराम और शबनूर तो अभी बच्चियाँ थीं।

फ़ूली आँखों से प़फ़रशीद जब हमाम से बाहर निकला तो दस्तरख़ान पर बैठी चारों औरतों ने उसे इस तरह देखा जैसे कहना चाह रही हों, हमारे रहते इसे तिरयाक की लत क्यों लग गई?
फ्खाना निकालूँ?य् मेहअंगीज़ ने पति की तरप़फ़ देखकर पूछा, मगर प़फ़रशीद बिना कुछ जवाब दिए, दूसरे कमरे की तरप़फ़ बढ़ गया।
फ्मैं बुलाकर लाती हूँ।य् महापारा ने तीनों की तरप़फ़ तिरछी चितवन से देखा और पति के पीछे गई।
फ्बहुत भूख लग रही है, मैं शुरू कर दूँ?य् दिलाराम ने ठुनकते हुए कहा।
फ्भूख तो अब मुझसे भी सहन नहीं हो रही है।य् कहकर शबनूर ने अंगूर के चंद दाने मुँह में डाले।
फ्तुम दोनों खाकर सो जाओ।य् मेहरअंगीज़ ने उनके मासूम चेहरों की तरप़फ़ देखकर कहा।
फ्हाँ,य् कहकर दिलराम ने प्लेट में पुलाव निकाला और शबनूर ने सालन और दोनों तेज़ी से खाना खाने में जुट गईं।
मेहरअंगीज़ ने दोनों जवान लड़कियों के चेहरों पर फैले अल्हड़पन को देखा। उसमें गुनाह की जगह मासूम पाकीज़गी थी। उसने एक लंबी साँस खींची ताकि घुटन का बोझ कम हो और सीना फ़टने से बच जाए। दरअसल, वह इन तीनों से बड़ी थी। प़फ़रशीद की असली ब्याहता वही थी। ये तीनों तो बाद में आई थीं। महापारा तीस साल की जवान औरत पति के मरने के बार प़फ़रशीद के हत्थे चढ़ गई और ये दो लड़कियाँ---
फ्वह तो आँख बंद कर पड़ गए।य् माहपारा ने कहा और क़ालीन पर बैठकर अपनी प्लेट में खाना निकालने लगी।
रात का सन्नाटा मोहल्ले में फैल गया था। चारों ने खाना खाकर दस्तरख़ान समेटा और अपने-अपने कमरे की तरफ़ बढ़ीं। मेहरअंगीज़ अपने ख़्वाबगाह में दाखि़ल हो प़फ़रशीद के पास पलँग पर लेट गई। यह उसका अधिकार था, जिसे छीनने या कम करने की प़फ़रशीद ने कभी कोई ज़रूरत नहीं महसूस की और जब ज़रूरत महसूस हुई तो वह रात को उठकर बेधड़क किसी के कमरे में चला जाता था। आखि़र तीनों के साथ उसने निकाह किया था।
पहले दिन से शबनूर और दिलाराम ने एक बिस्तर पर लिपटकर सोना शुरू कर दिया था। वे एक-दूसरी को पल-भर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ती थीं। यही उनका विरोध थाµअपने पति की बेजा हरकतों के खि़लाप़फ़। प़फ़रशीद उनकी इस एकता को देख मन-ही-मन जितना खौला हो, मगर ऊपर से ख़ामोश रहा। मुँह खोलता, हंगामा होता, दुनिया को पता चल जाता कि ये जवान औरतें वास्तव में उसकी लड़कियाँ नहीं बल्कि मनकूहा बीवियाँ हैं।
इस बीच शरारे नाम की औरत भी एक दिन पकड़कर लाई गई थी। मगर निक़ाह से पहले उसने अपने बड़े-बड़े नाख़ूनों से प़फ़रशीद का मुँह नेाचा और पाग़लों की तरह चीख़ी थी। वह बला की हसीन थी। पूरी आतशपारा थी। उसे हाथ लगाने की हिम्मत जब प़फ़रशीद ने की तो उसने अपने तेज़ दाँतों से काट खाया। वह तनप़फ़रोश औरत थी, यही उसका जुर्म था। मगर वह अपना पेशा अपनी मरज़ी से करती थी, किसी की ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं। आखि़र यह उसका ख़ानदानी धंधा था, जिसके अपने उसूल और हिसाब-किताब थे। वह किसी की ताबेदार न थी, इसलिए जब प़फ़रशीद बीमार पड़ गया तो शरारे ने दरवाज़ा खोलकर घर से बाहर क़दम निकाला। पहरेदारों ने दरवाज़े पर रोका नहीं। माहपारा ने पुकारा नहीं। दिलाराम और शबनूर ने उसे इस तरह जाते हुए देख हैरत से पलकें झपकाईं और मेहरअंगीज़ ने ठंडी साँस भरी जैसे कहा हो, चलो किसी के पंख तो फ़ड़फ़ड़ाए!
माहपारा का मियाँ, अब्बास खुर्रम शहर में पेट्रोल-रिफ़ाइनरी में अप़फ़सर था। शाही राज में उसे किसी चीज़ की कमी नहीं थी। वह सत्ता में खड़े लोगाें का दाहिना हाथ था। इस बात का जुर्माना सरकार बदलते ही उसे देना पड़ा। उसके पकड़े जाने और फिर मार डालने के बाद प़फ़रशीद, पुलिस का अप़फ़सर होने के कारण, उसकी ख़ूबसूरत पत्नी उठाने में कामयाब हो गया। माहपारा उस सारे हादसे से आज भी नहीं निकल पाई है। मगर लोक-लाज से ज़्यादा मजबूरी के चलते वह इस घर में रहने को मजबूर है। उसका मायका, ससुराल, पूरा कुनबा-क़बीला जाने कहाँ नए गल्लेबान ने हाँक दिया है। अकेली भेड शिकारियों के जंगल में किधर भटके? जिधर सुस्ताने को खड़ी होगी, किसी की गोली या तीर से घायल होगी। दर-दर भटकन से अच्छा है कि चंद रोज़ जुल्म की छाँव में बसर कर ले।
सुबह नाश्ते पर प़फ़रशीद का चेहरा तरोताज़ा देख मेहरअंगीज़ ने दिल की बात ज़बान पर लाने की ठानी और फि़नज़ान में चाय भरकर एक अदा से पति के सामने रख हलके-से मुसकराई।
फ्कहो क्या कहना है?य् प़फ़रशीद की मख़मूर निगाहें खुलकर चौकस हो गईं।
फ्ख़ुदा ने बहुत दिया है। इन मासूम परिंदों को उड़ा दो, यह गुनाह है, दीन-धर्म भी इसकी इज़ाज़त नहीं देता है।य् मेहरअंगीज़ ने धीरे-धीरे एक-एक शब्द पर ज़ोर देकर कहा।
फ्नामुमकिन है।य् प़फ़रशीद ने कहा और बदले चेहरे के साथ उठ खड़ा हुआ।
फ्इस दुनिया में कुछ भी नामुमकिन नहीं है---इससे तो कहीं अच्छा है कि मर्द बाहर हरामकारी करे और भूल जाए उस राँड को, मगर इन शरीप़फ़ बच्चियों को सारी उम्र क़ै़द कर रखना कहाँ का इनसाप़फ़ है?य् मेहरअंगीज़ की आवाज़ कड़वे बादाम जैसी हो गई।
फ्ख़ामोश!य् प़फ़रशीद के मुँह का मज़ा बदल चुका था। उसके लहजे का चाबुक का चाबुक सड़सड़ाया।
मर्द के जाते ही घर सन्नाटे में डूब गया। मेहरअंगीज़ ग़्ाुस्से से काँपती उसी तरह समावर के पास बैठी रही। पूरी जिं़दगी मर्दों को बाहर मुँह मारते देखती आई थी। इन बेवप़फ़ाइयों की बातें सुनते-सुनते उसके कान आदी हो चुके थे, मगर यह नई रीति थी कि सड़क और गली-कूचे में फि़रती बेकस मज़लूम औरतों को, विधवाओं और बेसहारों को सीनाज़ोरी से उठाकर घर में डाल, उनसे निक़ाह पढ़वाकर अपने गुनाहों को सवाब में बदल, अनैतिक को नैतिक बना, ग़ैरकानूी हरक़त को क़ानून के दायरे में डाल, रोज़ जन्नत में घूमने का दावा करना और हूरों को बेमौत मारना इनका धर्म-ईमान हो गया हैं कहाँ गया वह बेलौस मदद का जज़्बा?
‘मुझे अब कुछ करना होगा---पिंजड़े का दरवाज़ा खोलना होगा और---’
दिलाराम और शबनूर हमामख़ाने से शीशे की तरह दमकती हुई निकल आई थीं। उसकी आँख झपकती थी, वरना अपने शौहर, घर और रिश्तेदारों की यादों में डूबी वह पलक झपकाना भूल जाती थी। मेहरअंगीज़ से उसकी लड़ाई नहीं थी, मगर दोस्ती भी किसलिए होती, शबनूर और दिलाराम अपने में डूबी रहती थीं।
मेहरअंगीज़ ख़ामोशी से उठी। काली चादर सिर पर डाली और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी। बाहर खड़े पुलिस-पहरेदारों की पलटन ने सलाम किया और जाने के लिए रास्ता दिया। ड्राइवर ने कार का इंजन स्टार्ट किया, मगर मेहरअंगीज़ कार के खुले दरवाज़े को बंद करती आगे निकल गई। उसके दिल में पड़ी चिनगारी आग की लपटों में बदलने के लिए काले कोयले को दहकाने में जुट गई थी।
रास्ते में जुलूस, नारे, पोस्टर और जाने कौन-कौन-से पड़ाव पड़े, मगर वह बिना उनकी तरप़फ़ देखे-रुके आगे बढ़ती चली गई। वह एक घर के दरवाज़े पर जाकर रुकी। घंटी बजाई और ऊपर चढ़ गई। यह उसके भाई का घर था, जो सत्ता का विरोधी था। इसलिए उसका संबंध बहन-भाई, माँ-बाप से कटा हुआ था।
फ्कैसे?य् एक-साथ सारा घर सवाल बन गया। माँ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।
फ्कुछ नहीं।य् मेहरअंगीज़ ने जिस तरह कहा उससे सबके चेहरे फिर खिल उठे, वरना उन्हें अकसर वह ख़तरे से आगाह करती थी। उनका घर कई बार उसकी दी गई पूर्व-सूचना के कारण तलाशी के बावजूद बच गया था।
फ्घर में सब ख़ैरियत?य् बड़े भाई ने पूछा।
फ्हाँ, मगर तुम लोगों पर एक जि़म्मेदारी डालना चाहती हूँ। पि़फ़लहाल मेरे घर में तीन और औरतें साँस ले रही हैं।य् मेहरअंगीज़ ने यह कहते-कहते नज़रें भाई पर गाड़ दीं।
फ्समझा!य् भाई की मुट्ठियाँ बँध गईं। यह कोई पहेली नहीं थी जिसे सुलझाने में उसे देर लगती, बल्कि यह खुली और साप़फ़ इबारत थी जिसके अर्थ में पूरी दास्ताँ छिपी थी, जहाँ बेबस औरतें मुरग़ी के टापे के नीचे सुरक्षा के नाम पर बंद की जा रही थीं।
फ्दो लड़कियाँ दिलाराम और शबनूर ऐसी पाक-साप़फ़ कि उनके दामन पर नमाज़ पढ़ लो---चचा से कहो कि वह अब्बास और हैदर के लिए मुनासिब होंगी। दोनों के बाप को मशहद और इस्प़फ़ाहान में नशे के इलज़ाम में फ़ाँसी पर चढ़ाया गया था, मगर उन दोनों का कहना है कि यह केवल आरोप था। बात उनकी धन-दौलत को हथियाने की थी,
जो मोहल्ले के गुंडे ने दीन के नाम पर कर दिखाई और लड़कियाँ इधर हँकाकर लाई गईं तो---।य्
फ्वहाँ से उन्हें निकालोगी कब और कैसे?य् भाई के चेहरे पर तनाव था।
फ्परसों शाम को चार बजे, किसी न्योते में जाने के बहाने से बाहर निकलूँगी।य्
फ्प़फ़रशीद?य् माँ बोली।
फ्वह सुबह ही शिराज़ जाने वाले हैं।य् कहती हुई मेहरअंगीज़ उठी और चादर लपेटकर तेज़ी से सीढि़याँ उतरती सड़क पर चलती भीड़ में गुम हो गई।

फ़ल-फ़ूल और मिठाई से लदी जब वह घर पहुँची तो तीनों ने उसे ग़ौर से देखा। मेहरअंगीज़ ने चीजे़ं उनकी तरप़फ़ बढ़ाईं और ख़ुद कमरा बंद कर प़फ़रशीद की अलमारी खोलकर प़फ़ाइलें देखने लगीं। तीनों निक़ाहनामे उसने फ़ाड़े और बाथरूम में आग लगा, उन्हें बहा दिया। उसे बहाते हुए दिल-ही-दिल में कहा, ‘यह कैसा निक़ाह हुआ जो लड़की की मरज़ी से न होकर मर्द की हवस से हो?’
जब वह कपड़े बदलकर बाहर निकली तो शबनूर और दिलाराम ने फ़ूलों को बड़े सलीक़े से गुलदानों में सजा दिया था। माहपारा ने गुनगुनाते हुए भाप उड़ाते समावर पर चायदान की केतली नीचे उतार फि़नज़ान भरे और केक-मिठाई से प्लेटें सजा दीं। एक सौग़ात ने कितनी अनकही बातें कहकर इन चारों औरतों को एक चौराहे पर खड़ा कर दिया था। लग रहा था मानो आज महीनों बाद घर की चहारदीवारी में जिं़दगी उतरी हो।
फ्मैंने फ़ाड डाला न आखि़र।य् चाय का आखि़री घूँट भरकर मेहरअंगीज़ ने कहा।
फ्आखि़र क्या?य् माहपारा ने नज़रें उठाईं।
फ्तुम तीनों की कै़द का परवंदा।य् मेहरअंगीज़ धीरे से बोली।
फ्यानी?य् माहपारा वाक्य के ख़त्म होने से पहले ही धैर्य खो बैठी।
फ्अब तुम लोग आज़ाद हो।य् मेहरअंगीज़ ने कहा।
फ्मगर कहाँ जाने के लिए?य् शबनूर की गहरी आँखें भय से फ़ट-सी गईं।
फ्ख़तरा हमारे लिए ज़्यादा बढ़ गया है। बिना किसी रिश्ते और सनद के हम कहाँ जाएँगे?य् दिलाराम एकाएक फ़फ़क पड़ी।
फ्पहले सुनो तो!य् माहपारा की आवाज़ उभरी, मगर उसके दिल की बात चेहरे पर पीले रंग से पुत गई थी कि आखि़र इस औरत ने तीनों सौतों से बदला लेने कीठान ली है। आगे का रास्ता शहद के छत्तों से गुज़रने वाला होगा।
फ्मेरे चचा के दो लड़के हैं। उनसे तुम दोनों का निक़ाह परसों रात को होगा। तुम यहाँ की अपेक्षा वहाँ अधिक सुखी रहोगी और---य् बाक़ी बातें मेहरअंगीज़ के गले के रुँधने से अधूरी रह गईं।
दोनों लड़कियाँ पहले मेहरअंगीज़ को हैरत से ताकती रहीं, फिर सब कुछ समझकर एक-साथ एक आवाज़ में रो पड़ीं। इस पिंजड़े से वह तालमेल बिठा चुकी थीं। बहेलिया के खि़लाप़फ़ मोर्चा भी सँभाल रखा था। अब उन्हें कहाँ, किस घर में, किन लड़कों की पत्नियाँ बनना पड़ेगा? उनके कुँआरे सपनों का क्या होगा? इसे दोस्ती समझें या नई दुश्मनी?
फ्तुम माहपारा! मेरे घर रहोगी। मेरी माँ है, एक भाई जिसने शादी नहीं की, उस पर समाज, देश का भूत सवार रहता है। वह घर एक सियासी घर हैं उसमें जान हथेली पर रखकर जीना पड़ता है। मेरी इच्छा है कि तुम उस घर को अपना समझो, दिल मिले तो सब कुछ अपना लेना( चूँकि तुम जिं़दगी का गरम-सर्द देख चुकी हो, इसलिए फै़सला तुम पर छोड़ा।य् इतना कहकर मेहअंगीज़ ने माहपारा की तरप़फ़ देखा।
माहपारा चंद पल सकते के आलम में बैठी रही, फिर एकाएक मेहरअंगीज़ से लिपटकर रो पड़ी। बरसों का रुका बाँध जैसे अपनी राह तलाश कर बैठा था। चारों जब रो-धोकर हलकी हुईं तो अगली योजना की तैयारी में जुट गईं। मेहरअंगीज़ के पास इनक़लाब के बाद लूटे हुए घरों के सामान से संदूक भरे पड़े थे। क़ीमती सजावटी सामान, हीरे-पन्ने, मोती और सोने के ज़ेवरात---उसने चाबी उठाई और तहख़ाने में तीनों के साथ उतर गई।

रात के खाने पर प़फ़रशीद को माहौल आरामदेह लगा। सबके चेरों पर सहज संतोष और सब्र देखकर उसे अच्छा महसूस हुआ, मगर साथ-ही-साथ बड़ा विचित्र-सा लगा कि शबनूर और दिलाराम ने उसे कई बार नज़र भरकर देखा। माहपारा खाना खाते समय अपने आप एक-दो बार मुसकराई और मेहरअंगीज़ ऐसी ठंडी और विश्वास से भरी थी कि उसे शक-सा होने लगा कि यह वही हअऔरत है या ---माँ भी तो पाँच बच्चों के संग उसके बचपन में इसी तरह बैठकर बिना किसी के कुछ माँगे, उनकी ज़रूरत समझकर सबकी प्लेटों में खाना निकालती, रोटी बाँटती, अजीब ख़ुशी से भरी रहती थीं। उसे सुबह जाना न होता तो वह इन सबको किसी पहाड़ी की तरफ़ पिकनिक पर ले जाता, मगर---
रात ढलने लगी। मेहरअंगीज़ के बरताव ने प़फ़रशीद को बाँधे रखा। उसका दिल चाहा ज़रूर कि एक बार वह शबनूर और दिलाराम को बाँहों में भर ले या माहपारा को किसी हिरनी की तरह कुश्ती में हरा, अपने वश में कर, अपनी रगों में दौड़ती हवस शांत कर ले, मगर मेहरअंगीज़ ने अंदर से दरवाज़ा बंद कर ख़ुद अपने कपड़े कम करने शुरू कर दिए थे, जिसे देखकर उसका इरादा बदल गया और मेहरअंगीज़ की लगाई आग से वह अपने को ज़्यादा देर बचा न सका।

दोपहर को घर पर मौजूद पहरेदारों को शक तो हुआ, मगर वे पूछते क्या? सामान के साथ चारों ख़ुश-ख़ुश निकली थीं। चूँकि घर पर एक ही गाड़ी थी। इसलिए मेहरअंगीज़ ने टैक्सी मँगवाकर सामान लदवाया था। वह दो घंटे बाद सालगिरह की पार्टी से लौटने की बात कहकर निकली थी।
मेहरअंगीज़ शाम के क़रीब लौटी। वे पहरेदार जो उन तीनों पर कड़ी नज़र रखे हुए थे, उसे ख़ाली हाथ अकेले टैक्सी से उतरते देख चौंके। मेहरअंगीज़ के अंदर जाने के बाद उन्होंने टैक्सी वाले से पूछताछ की, मगर उन्हें सिप़फऱ् इतना पता चला कि मेहरअंगीज़ ने सड़क पर चलती टैक्सी रोकी भ। एक पहरेदार को अंदर जाकर मेहरअंगीज़ से पूछना पड़ा और जब उसे पता चला कि तीनों रास्ते में ख़रीदारी के बहाने कहीं भाग गईं तो उसके हाथों के तोते उड़ गए।
फ्किस बाज़ार, कौन-सी दुकान---?य् उसने घबराकर पूछा और पूरे अमले के साथ उन्हें ढूँढ़ने निकल पड़ा। उसको दो तरह की घबराहट थी। एक तो यह कि अप़फ़सर को क्या जवाब देगा? दूसरे यह कि यदि वे किसी के हत्थे चढ़ गईं और कुछ लोगों को असलियत पता चल गई तो ख़ासा नाटक हो जाएगा।

तीसरे दिन जब प़फ़रशीद शिराज़ से लौटा तो उपहारों से भरा हुआ था। जिस चहल-पहल की उसे उम्मीद थी, उसकी जगह उसने घर में सन्नाटा देखा। तीनों के कमरों में झाँका तो बिस्तर ख़ाली पाया। अपने कमरे में अलबत्ता मेहरअंगीज़ नमाज़ पढ़ रही थी। उसने बाहर निकलकर दरवाज़े पर यूँ ही नज़र डाली, फिर अंदर मुड़ने लगा। तभी सुरक्षा-गार्ड ने कहा, फ्जनाब, अप़फ़सोस है उन तीनों का कहीं पता नहीं चल पाया।य्
फ्कौन तीनों?य् प़फ़रशीद चौंककर बोला।
फ्चारों एक-साथ सालगिरह में गई थीं, मगर शाम को बड़ी ख़ानम अकेली लौटीं। उन्होंने बताया कि ख़रीदारी के बीच दुकानों की भीड़भाड़ में वे उनसे बिछड़ गईं। बहुत ढूँढ़ा मगर वे न मिलीं, तब शाम ढले उन्हें लौटना पड़ा।य्
फ्ओप़फ़!य् प़फ़रशीद का अधेड़ चेहरा हारे जुआरी की तरह सफ़े़द पड़ गया। थोड़ी देर वह बुत बना खड़ा रहा, फिर एकाएक चौंककर बोला, फ्कोई आया था?य्
फ्नहीं जनाब!य् गार्ड ने मुस्तैदी से जवाब दिया।
फ्किसी का प़फ़ोन आया था?य् प़फ़रशीद की आँखें दूर कहीं कुछ तलाश कर रही थीं।
फ्तीन दिल तक कोई प़फ़ोन किसी ने घर से नहीं किया। आपके जाने के बाद से टेप लगा दिया था जो ख़ाली है।य्
‘हूँ---’ प़फ़रशीद ने गहरी साँस ली। गार्ड को जाने का इशारा कर वह ख़ुद अंदर गया।
फ्तुम कब आए?य् मेहरअंगीज़ जानमाज़ लपेटते हुए मीठे स्वर में बोली।
फ्अभी।य् धीरे-से होंठ भींचकर बोला प़फ़रशीद।
फ्हाथ-मुँह धो लो, मैं फ़ल लाती हूँ।य् कहकर वह बड़े संतोष से उठी।
‘हूँ---’ गरदन हिलाता हुआ प़फ़रशीद मेहरअंगीज़ के चेहरे पर कुछ पढ़ने की कोशिश करने लगा।
मेहरअंगीज़ बाहर निकलकर प़फ़ौरन ही फ़ल उठाए कमरे में दाखि़ल हो गई, फ्लो खाओ!य्
फ्यह हरकत तुम्हारी है न?य् जुर्म उगलवाने में दक्ष पुलिस-अप़फ़सर ने एकाएक पत्नी की कलाई पकड़ ली।
फ्कैसी हरकत?य् मेहरअंगीज़ ने कलाई छुड़ाने की कोशिश की।
फ्तीनों को पिंजड़े से उड़ाने की---य् पकड़ कस गई और आँखों में नाचती वहशत बढ़ गई।
फ्नहीं।य् भयभीत-सी मेहरअंगीज़ कराह उठी।
फ्बोलो---सच बोलो!य् दाँत पीसता हुआ प़फ़रशीद उसका हाथ मरोड़ने लगा।
फ्मुझे नहीं पता।य् मेहरअंगीज़ ने तड़पकर कहा।
फ्वे मेरी मनकूहा पत्नियाँ थीं, समझी? उन पर मेरा हक़ था। उन्हें ढूँढ़ने के लिए पूरा शहर छलनी की तरह छनवा दूँगा।य्
फ्तुम कुछ भी करो, मगर मुझसे इस तरह पेश मत आओ। मेरा भी हक़ है, इज़्ज़त है, मैं तुम्हारी ब्याहता पत्नी हूँ।य्
फ्तुम्हें नहीं छोड़ईँगा। तुमने मेरी गै़रत को ललकारा है। मेरी इज़्ज़त का मज़ाक उड़ाया है। तुम मेरी पत्नी नहीं, मेरे मुक़ाबले पर खड़ी मेरी हरीप़फ़ हो और अपने प्रतिद्वंद्वी को हराना मेरे जीवन का उद्देश्य रहा है।य् कहता हुआ प़फ़रशीद उठा और कमरे से बाहर निकल गया।
मेहरअंगीज़ दर्द से दोहरी हो पलँग पर लोट गई। उसका हाथ शायद उखड़ चुका था। वह बेसुध-सी पड़ी थी। उसे मालूम था कि सबसे पहला हमला उसके मायके पर सत्ता के दुश्मन के नाम पर किया जाएगा, मगर वहाँ कोई नहीं मिलेगा। कार्यक्रम के अनुसार चचा और भाई का कुनबा इस समय मशहद के एक गाँव में लंबी छुट्टियाँ मनाने अपने दोस्त के यहाँ पहुँच गया होगा। उनको पकड़ पाना अब प़फ़रशीद जैसे मुस्तैद अप़फ़सर के लिए भी नामुमकिन है। उसने चैन की साँस ली और किसी तरह उठकर अपने हाथ पर बाम मलना शुरू किया।

शाम तक घर में चंद जवान औरतें और पाँच-छह लड़कियाँ पकड़कर लाई गईं। उसी के बाद पुलिस-अप़फ़सर प़फ़रशीद की तरप़फ़ से मेहरअंगीज़ की गिरफ़्तारी का वारंट जारी हुआ जिसमें उस पर औरतों से धंधा कराने का आरोप था। अख़बार वालों से घर भर गया। मेहरअंगीज़ की तसवीरें खिंचीं। वहाँ जमा लड़कियों को उनके घर वापस भेजने की अपील अख़बार के जरिए छपी। हर जगह प़फ़रशीद की तारीप़फ़ थी। उन अपहरण की गई लड़कियों और औरतों के माँ, बाप, शौहर, भाई जाते-जाते मेहरअंगीज़ पर आँखों से नप़फ़रत और मुँह से थूकना न भूलते थे।
फ्पुलिस के घर में यह अंधेर?य्
फ्हम समझते थे कि पुलिस ज़ालिम होती है, मगर यह गुनाहगार औरत---सच कहा है किसी नेµबद अच्छा बदनाम बुरा।य्
फ्ऐसे शरीप़फ़ मर्द की बदचलन बीवी, ख़ुदा इसे कभी माप़फ़ नहीं करेगा।य्
फ्इसे तो तलाक़ देकर, उस प़फ़रिश्ते को दूसरी शादी कर लेनी चाहिए।य्
मेहरअंगीज़ चुपचाप सारे ताने सुनती रही। अंदर-अंदर ख़ुश थी कि वह बदनाम हुई तो क्या, गुनाहगार तो नहीं है वह। उसने जुल्म के पंजे से किसी को नजात दिलाई, यह क्या कम बहादुरी का कमा है?

कई दिन गुज़र गए। मेहरअंगीज़ चुपचाप घर में एक उदास जिं़दगी गुज़ार रही थी। बाहर निकलने और मिलने-जुलने पर रोक लग गई थी। प़फ़रशीद भी उससे सीधे मुँह बात नहीं कर रहा था। अब वह बाहर से खा-पीकर आता और अलग कमरे में पड़कर सो जाता था। मेहरअंगीज़ रात-दिन तनहाई में घुटने लगी थी। वह तीनों की ख़ैरियत के लिए भी बेचैन थी। समय पंख लगाकर भाग रहा था।

एक रात उसने दूसरे कमरे से रोने और चीख़ने की आवाज़ सुनी। वह हड़बड़ाकर उठी, जैसे कोई डरावना ख़्वाब देख रही हो। नींद का ख़ुमार जब टूटा तो उसे कोई आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी। उसने घबराकर जानमाज़ बिछाई और सिजदे में गिर गई। शायद इस दर उसे सुकून मिल जाए। पौ फ़टते ही वह कमरे से बाहर निकली, मगर आगे बढ़ते क़दम वहीं जम गए।

सामने एक ख़ूबसूरत जवान औरत प़फ़रशीद के कमरे से निकल रही थी। वह उसे देखकर ऐसी भयभीत हुई कि उलटे पैर कमरे में भाग गई। मेहरअंगीज़ को काटो तो ख़ून नहीं। उसे हलका-सा चक्कर महसूस हुआ और वह दरवाज़ा थाम वहीं टिक गई। उसके कानों में उसक औरत की लरज़ती आवाज़ गूँज रही थी।

फ्वह तुम्हारी औरत---मुझे पकड़ ले जाएगी, मुझे घर छुड़वा दो आग़ा---तुमने एक रात की बात की थी। मेरे साथ धोखा मत करो! मुझे मेरे भाई की आज़ादी चाहिए
थी---मेरे साथ दुश्मनी मत करो!य् कहते-कहते औरत प़फ़रशीद के क़दमों पर अपना सिर रखकर वहीं रोते-रोते नीम बेहोश-सी हो गई।
फ्उठो, डरो मत! मैं अभी तुम्हें सीधे तुम्हारे भाई के पास भेजता हूँ। उसके संग ख़ुशी-ख़ुशी घर लौटना।य् कहकर प़फ़रशीद ने उस औरत को उठाना चाहा।
फ्यह सब क्या है?य् दहकता आतशक़दा बनी मेहरअंगीज़ दरवाज़े पर खड़ी थी।
फ्हरामकारी---इसी की बात तो तुम जब-तब दोहराती रहती थीं। कम-से-कम यह निक़ाह कर, घर के कै़दख़ाने में डालने वाला जुल्म तो नहीं है न?य् प़फ़रशीद ने घृणा से कहा।
फ्उसे अपने नापाक हाथ मत लगाना।य् मेहरअंगीज़ ने पति को ललकारा।
फ्नहीं-नहीं।य् वह औरत होश में आकर अपनी तरप़फ़ बढ़ती मेहरअंगीज़ को देखकर डर से चीख़ी और प़फ़रशीद के सीने से लिपट गई।

फ्अजीब बात है! यह तुमसे डर रही है?य् प़फ़रशीद ने हँसकर कहा और औरत को चुमकारा।

इस समय प्रतिद्वंद्वी को पछाड़कर उसके सीने पर विजेता की तरह पैर रखकर खड़े होने का सुख प़फ़रशीद की आँखों में नप़फ़रत के सैलाब के वावजूद साप़फ़ छलक रहा था। एक औरत को दूसरी औरत के खि़लाफ़ खड़ा कर देने का यह षड्यंत्र मेहरअंगीज़ की समझ में पूरी तरह आ चुका था। आखि़र उसकी आदमक़द तसवीरें यूँ ही तो अख़बर में नहीं छपवाई गई थीं। उसके दोनों हाथों की तनी मुट्ठियाँ धीरे-धीरे करके ढीली पड़ गईं। प़फ़रशीद सीने से लिपटी औरत को बाँहों के घेरे में बाँधे कमरे से निकल गया।

जाने किस अनजानी ताक़त के तहत उसके दोनों पैर प़फ़रशीद के पीछे उसे ले गए। घर के खुले दरवाज़े से उसने जैसे ही पोर्टिको में क़दम रखा, दो क्रॉस बंदूकों ने उसका रास्ता रोक लिया, जैसे शरीप़फ़ औरतों की इज़्ज़त बचाना, वह भी उस जैसी औरत से, इन रखवालों का सबसे बड़ा धर्म हो।

वह बेबस-सी खड़ी रह गई। पुलिस की गाड़ी प़फ़रशीद और उस औरत को लेकर तेज़ी से निकल गई। मेहरअंगीज़ के होंठ सब कुछ जानने के बाद इस औरत की वक़ालत में खुल न सके। पि़फ़लहाल खुलते भी तो अब उसका विश्वास कौन करता? उसने जंगले से बाहर झाँका, जहाँ गूँगे आसमान पर सूरज का गोला निकलने वाला था।

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