Bhagwan ki Bhool - 9 - Last Part books and stories free download online pdf in Hindi

भगवान की भूल - 9 - अंतिम भाग

भगवान की भूल

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-9

मैंने हर बाधा का रास्ता निकाला और सारी रस्में पूरी कीं। सिर भी मुंडवा दिया। मैं वहां हर किसी के लिए एक अजूबा थी और अजूबा कर रही थी। मौसी का लड़का, सिर नहीं मुंडवाना चाहता था। उसे अपनी प्यारी हेयर स्टाइल से बिछुड़ना सहन नहीं हो रहा था। मां और मेरे दबाव से माना। वह मुझे दीदी कहता था। मगर सिर तभी मुंड़वाया जब मैंने यह कह दिया कि यदि तुम अपने फादर से प्यार नहीं करते हो तो मत मुंड़वाओ। मेरी इस बात का उस पर बिजली सा असर हुआ। इसके बाद मैं तीस मीटर ऊंचे विष्णु पद मंदिर गई। जो भगवान विष्णु के पद चिह्नों पर बना है और उनके पांव के चालीस सेंटीमीटर लंबे निशान हैं।

इसके बाद बाणासुर के बनवाए शिव मंदिर, मोरहर नदी के किनारे शिव मंदिर कोटेश्वरनाथ, सोन नदी के किनारे सुर्य मंदिर और फिर ब्रह्मयोनि पहाड़ी पर बने शिव मंदिर जाकर भी पिंडदान किया। वहीं पर पता चला कि इसका वर्णन रामायण में भी है। यहां तक पहुंचने के लिए 440 सीढ़ियां चढ़नी पड़ीं। इस के बाद पहाड़ पर ही मंगला गौरी मंदिर भी गई। मगर बराबर गुफा के लिए हिम्मत न कर सकी। क्योंकि यहां कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता। इन सब जगहों पर जाने, रस्मों को निभाने में पैसा तो खूब लगा ही समय भी चार दिन लगा। 440 सीढ़ियां चढ़ने और उतरने के बाद हमने पूरा एक दिन आराम किया था।

दान-पुण्य करने किसी तरह के खर्च में मैंने कहने भर को भी कंजूसी नहीं की। जी खोल कर किया कि किसी को यह न लगे कि साथ ले आई लेकिन हाथ समेट लिया। लेकिन इससे आखिरी दिन एक समस्या खड़ी हो गई। वापसी में रास्ते भर के लिए और आखिर में जिस होटल में रुके थे उसका बिल देने को जितना पैसा चाहिए था मेरे पास उसका आधा भी नहीं था और ए.टी.एम कॉर्ड तीन दिन पहले ही गलती से ब्लॉक हो गया था। सोचा मौसी से कहूं उसके पास इतना है कि अगर दे देंगी तो किसी तरह काम चल जाएगा। मगर डर गई कि मौसी कहीं कुछ और न सोच ले।

होटल के अपने कमरे में इसी उधेड़-बुन में परेशान थी कि अब क्या करूं मगर भगवान ने ज़्यादा देर परेशान नहीं किया, रास्ता सुझा दिया। मेरा हाथ अचानक ही अपनी कमर में सोने की पहनी करधनी पर चला गया। जो मैं बचपन से पहनती आ रही थी। मैंने जल्दी से कपड़े बदले, करधनी रूमाल में लपेट कर पर्स में रखी और मौसी को लिया, गाड़ी निकलवाई और शहर में जौहरी की दुकान ढूंढ़-ढांढ़कर बेच आई। अब मेरे पास जरूरत से ज़्यादा पैसा था। मौसी को करधनी बेचने की बात दुकान में काउंटर पर ही पता चली। दुकानदार की सशंकित नज़रें भी मैं देख रही थी।

मौसी होटल पहुंचने तक बड़बड़ाती रही यह तुमने अच्छा नहीं किया। मुझे पता होता तो कभी न करने देती। मैं उसे चुपचाप सुनती रही। बस मन में इतना ही आया कि मेरे लिए उस करधनी का मतलब भी क्या था। जब घर के सारे गहने पहले ही बेच डाले थे तो एक इसी को क्यों रखती। डिंपू गाड़ी में आगे बैठा था उस पर नज़र जाते ही मन में यह भी आया कि मां-बाप के अलावा एक यही जानता था उस करधनी के बारे में। उन अंतरंग क्षणों में बदन पर तरह-तरह से उलटता-पलटता खेलता था उससे। चलो फुरसत मिली उससे भी। अब यह मेरे बदन पर किसी चीज से खेलकूद नहीं कर पाएगा। मैं एकदम निश्चिंत थी। होटल के सारे पेमेंट वगैरह कर चल दी वापसी के सफर पर।

मैंने वहां जितना दान-पुण्य स्नान हो सकता था वह सब किया कुछ भी बचाया नहीं। डिंपू और उससे ज़्यादा गाड़ी के ड्राइवर को मैंने अपनी ओर बार-बार कनखियों से देखते पाया तो मैंने कह दिया ‘मैंने कोई आश्चर्यजनक काम नहीं किया है। मैं भी तो आखिर अपने मां-बाप की ही संतान हूं। लड़की हूं तो क्या आखिर हूं तो उन्हीं की औलाद।’ ड्राइवर मेरी इस बात पर हाथ जोड़ कर बोला ‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। भाग्यशाली हैं आप के मां-बाप जो उन्हें ऐसी संतान मिली।’

वह वास्तव में अब मुझ से डर गया था कि मैं कहीं लौटकर उसकी शिकायत न कर दूं। लेकिन उसकी भाग्यशाली वाली बात मुझे पिंचकर गई। काहे का भाग्य, भगवान की भूल या उनकी दी कोई सजा जिसका परिणाम थी मैं। मेरे मां-बाप इसके कारण हर पल घुट-घुट कर मरते रहे। मेरे सामने ही देखते-देखते बीमारी से लड़ते-जूझते तड़पते उम्र से बहुत पहले ही मर गए। आखिर तक एक पल भी उन्हें चैन, संतोष की एक सांस नसीब नहीं हुई। मैं आखिर यह सब जो कर रही हूं यह उनके कुछ काम आएगा भी यह भला कौन जानता है। यह तो बस मन का एक विश्वास है। श्रद्धा है। और क्या। एक उस बात ने मेरा मन बड़ी देर तक कसैला कर दिया। लेकिन लखनऊ वापस घर पहुंच कर एक संतोष था। कि मैंने जो चाहा पूरा कर दिया। मौसी रास्ते से लेकर घर तक न जाने कितनी बार आशीर्वाद देती रही आभार जताती रही कि बिटिया तुम्हारी वजह से हम अपने आदमी का तर्पण ‘गया’ में करवा पाए। हमने तो कभी सोचा भी नहीं था। आने के बाद सब ने दो-तीन दिन यात्रा की थकान उतारी।

छुट्टियां पहले ही काफी खतम हो चुकी थीं इसलिए चौथे दिन ऑफ़िस पहुँच गई। वहां वह पूरा दिन लोगों के तरह-तरह के प्रश्नों के उत्तर देते ही बीता। किसी ने हिम्मत की दाद दी, किसी ने सराहा। किसी ने कहा ‘औलाद हो तो ऐसी।’ तो सुनने में यह भी आया कि ज़्यादातर ने कहा ‘अरे! पगलिया है पगलिया।’ किसी ने कहा ‘अपने बौनेपन की कुंठा मिटाने का उसका तरीका है।’ पलभर में ही यह बातें दिल को चीरती चली गईं। लेकिन ऐसी और न जाने कैसी-कैसी बातों की आदी तो मैं बचपन से ही हो गयी थी। सो पलभर के दर्द के बाद सब सामान्य हो गया।

आने के हफ्ते भर बाद ही चित्रा आंटी, मिनिषा अमरीका यात्रा की तैयारियों को लेकर कुछ बात करने घर आ गर्इं। मां-बेटी मुझे देखते ही एकदम आवाक् सी रह र्गइं। आंटी बोली ‘तनु तुमने ये क्या किया?’ मैंने पहले उन्हें बैठने को कहा फिर सारी बात बता दी तो उन्होंने अफसोस करते हुए कहा ‘ओह! मुझसे गलती हुई, तुमसे उसी समय बात करनी चाहिए थी। अब अमरीका जाने के लिए वक़्त ही कितना बचा है।’ फिर आंटी ने तमाम बातें कहीं जिनमें अफ़सोस गुस्सा दोनों झलक रहा था। जिनसे मुझे भी थोड़ी झुंझलाहट हो रही थी। फिर भी माहौल को हल्का करने की गरज से मैंने कहा ‘आंटी कुछ पेंटिंग्स इस लुक में भी बना डालिए।’ वह इस बात पर एक उड़ती नजर मुझ पर डालकर बोलीं ‘तुम समझ पा रही हो तनु तुमने क्या कर डाला। खैर देखते हैं कैसे मैनेज किया जाए।’दोनों के जाने के बाद मैंने सोचा कि दोनों इतना पैसा खर्च कर रही हैं। मेहनत कर रही हैं। मुझे ध्यान रखना चाहिए। लेकिन अब तो कुछ नहीं हो सकता। वैसे प्रदर्शनी में मेरे जाने का कोई मतलब है। पता नहीं आंटी मुझे क्यों ले जाना चाहती हैं। यह सनसनी पैदा करने का उनका एक तरीका भी हो सकता है। कुल मिलाकर मैं बड़े तनाव में आ गई। मौसी ‘गया’ से आने के पांच-छः दिन बाद ही अपने बच्चों के संग कुछ दिन के लिए गांव चली गई थी। उन के जाने के बाद खाना-पीना सब होटल से मंगवाती थी। डिंपू ले आता था। मौसी के आने के बाद किचेन में जाने का मन ही नहीं करता था।

उस दिन आंटी की बातों से मन बहुत खराब हो गया था। मौसी ने शाम को अगले दिन आने की सूचना दी थी। उस रात को डिंपू को मैंने साथ सोने के लिए फिर अपने कमरे में बुला लिया था। वह इस रिश्ते ही के कारण तो उस करधनी के बारे में जानता था। उसके साथ यह रिश्ता मां की मौत के डेढ़ दो बरस बाद ही बन गया था। जब यह रिश्ता बना था तो उसके कुछ महिने पहले ही मैं इसी डर से उसे निकालकर बुजुर्ग ड्राइवर रखने की सोच रही थी कि घर में अकेले उसके साथ रहते ऐसा कुछ न हो जाए। लेकिन जो डर था आखिर वह हो ही गया और मौसी भी यहां आने के कुछ समय बाद ही यह जान गई थीं।

डिंपू से पहली बार जब रिश्ता बनाया था वह आज भी ज्यों का त्यों याद है। हर तरह से हैरान परेशान मैं, काटने को दौड़ता घर और भावनाओं के ज्वार के चरम पर पहुंचने पर उसे बुला लिया था कमरे में। कई बार कहने पर भी उसे हिचकते देख कर मैंने उसका हाथ पकड़ कर बैठाया था बेड पर। फिर दो मिनट भी खुद को रोकना मुश्किल हुआ था। मुझे ऐसा लगा था कि डिंपू को सहारा बनाने में कोई खतरा नहीं है। मैंने वैसे ही अपने में समा लिया था उसे। उसने मुझे नाजुक फूल सा ऐसे संभाला था कि मैं सुध-बुध खो बैठी थी। पहली बार की आक्रमता, उतावलापन कहीं कुछ नहीं था। वह इतना मैच्योर, इतना समझदार होगा इसकी मुझे कल्पना भी न थी।

उस पूरी रात मैंने उसे अपने साथ रखा था। फिर यह सिलसिला चल निकला था। उसके साथ ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैंने बीच-बीच में कई बार सोचा कि बना लूं इसे अपना जीवन साथी। कब तक छिपती-छिपाती रहूंगी। मगर यह सारा सपना पलक झपकते टूट कर बिखर जाता। ज्यों ही अपनी हालत का ख़याल आता। फिर एक दिन तयकर लिया कि जब तक चल रहा है ऐसे तब तक चलाऊंगी, नहीं तो जो होगा देखा जाएगा। फिर मैंने एक सीमा बना ली कि जब मैं चाहूंगी तभी डिंपू मेरे कमरे में आ सकेगा। मुझे पा सकेगा नहीं तो नहीं। उसने एक दो बार जब मुझे मेरी इच्छा के खिलाफ भी पा लिया तो अगले दिन उसके साथ किसी और बहाने से बड़ी सख्ती से पेश आई।

गीता का सहारा ले कर उसे इतना टाइट किया कि उसकी आत्मा भी कांप उठी। फिर तो वह उस मशीन की तरह हो गया जो सिर्फ़ मेरे इशारे पर सक्रिय होती। ऐसी मशीन जिसे मैं अपनी सुविधानुसार प्रयोग करती। मौसी भी उससे बराबर सतर्क रहने और इसका ध्यान रखने की सलाह देना न भूलती कि बच्चे-वच्चे का ध्यान रखना। वह भी धोखे से उस रात आ पहुंची थी कमरे में जब मैं डिंपू के साथ थी। उस रात सालों बाद घर में मैं और डिंपू ही थे। तो मुझे मशीन की जरूरत पड़ी और मैंने बुला लिया था रात भर के लिए कमरे में।

अगली सुबह ऑफ़िस जाने के लिए बेमन से तैयार हो रही थी। मौसी के दोपहर तक आने की सूचना थी। कमरे में कपड़े पहन रही थी कि तभी फोन की घंटी बजी। मन खिन्न था सो फ़ोन रिसीव नहीं किया। कपड़े पहन चुकी थी कि तभी घंटी फिर बजी, यह सोचते हुए मैंने फ़ोन उठा लिया कि कहीं मौसी का फ़ोन तो नहीं है, उसका प्रोग्राम चेंज हुआ हो। घर जाने के बाद वह अक्सर यही करती हैं। फ़ोन उठाते ही उधर से पांच-छः वर्ष के बच्चे की आवाज़ आई ‘पापा कहां हो ?’ मैंने कहा ‘पापा .... यहां कोई पापा नहीं हैं।’ उसके पीछे भी कोई बच्ची बोल रही थी वह फिर बोला ‘पापा से बात करनी है। मम्मी को चोट लग गई है। रो रही हैं।’ तो मैंने कहा ‘पापा का नाम क्या है ?’ तो उसने कहा ‘देवेंद्र’ तो मुझे एक झटका सा लगा। देवेंद्र ....। उसकी तो शादी ही नहीं हुई है।उससे बार-बार पूछा तो उसने यही बताया। कंफर्म हो जाने पर कि देवेंद्र शादी-शुदा है कई बच्चों का पिता है, मेरा खून खौल उठा।

मैं चीख पड़ी ‘डिंपू ... ।’ वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया। मेरे तमतमाए चेहरे को देख सहमता हुआ बोला ‘जी...’ मैंने कहा ‘लो अपने बेटे से बात करो। तुम्हारी बीवी को चोट लगी है।’ मेरी बात सुनते ही उसे काटो तो जैसे खून नहीं। बीवी के घायल होने की सूचना और झूठ पकड़े जाने की एक साथ दोहरी मार से वह पस्त हो गया। रिसीवर लेकर हां हूं में कुछ बात की और फ़ोन रख दिया। उसके फ़ोन रखते ही मैं दांत पीसते हुए चीखी। कमीने, धोखेबाज, नीच इतने सालों से ठगता रहा है मुझे, लूटता रहा है मुझे।

झूठ बोलता रहा कि मेरी शादी नहीं हुई। मेरा गुस्सा देखकर वह हाथ जोड़कर माफी मांगने लगा। मगर मैं आपे से बाहर हुई तो हो गई। कहा इसके पहले कि मैं पुलिस बुलाकर चोरी, रेप आदि के केस में तुझे अंदर करा कर तेरी ज़िंदगी जेल में सड़ा दूं। तू अपना टंडीला बटोर कर चला जा यहां से। दोबारा मेरी नजरों के सामने मत पड़ना। वह डर के मारे कांप रहा था। गीता से उसकी आत्मा पहले ही कांपती थी। जब वह चला गया तो मैं अपने कमरे में पड़ी रोती रही।

मैं इस तरह ठगी जाऊंगी इसकी कल्पना भी न की थी। ऑफ़िस नहीं गई और कुछ खाया-पिया भी नहीं। दोपहर होने तक मौसी आ गई। उसने मेरी सूजी आंखें, चेहरा देखा तो बच्चों को ऊपर भेज चिपका लिया अपनी छाती से। जैसे कभी मां चिपका लिया करती थी। मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। सब बता दिया उन्हें जिसे सुनकर वो भी अचंभे में पड़ गर्इं। ‘अच्छा किया निकाल दिया। कमीने की नजर मुझे कभी अच्छी नहीं लगी।’ करीब तीन बजे शाम को उन्होंने खाना बनाया तब उनकी बड़ी जिद के बाद थोड़ा सा खाया।

मैं अगले तीन-चार दिन ऑफ़िस नहीं गई। मौसी जाती रही। तबियत खराब होने की सूचना भेज दी थी। दो दिन बाद मुझे एक और दिल दुखा देने वाली खबर अखबार में मिली कि मिनिषा के फादर सहित कई और आला अफ़सर अनियमितताओं के चलते निलंबित कर दिए गए हैं। मतलब साफ था कि अमरीका यात्रा कैंसिल। मेरे अनाथालय वाले प्रोजेक्ट पर भी असर पड़ना था। जल्दी-जल्दी इन दो आघातों ने मुझे हिला कर रख दिया। मैं एकदम अपने खोल में सिमटकर रह गई। मगर अनाथालय के काम पर रेंगती ही सही बढ़ती ही रही।

एक-एक कर बाधाएं पार करती गई। और जीवन के छः-साल और पार कर गई। इस बीच मौसी का बेटा ग्रेजुएशन के दौरान ही संयोग से सिपाही भर्ती में सफल हो गया। फिर उसकी शादी हो गई और वह अपनी तैनाती वाले जिले में रहने लगा। लड़की पढ़ने-लिखने में तो तेज नहीं थी लेकिन इश्कबाजी के चक्कर में पड़ गई तो मौसी ने गांव में ही खाता-पीता घर देखकर उसकी शादी कर छुट्टी पा ली। मतलब सब अपनी-अपनी राह लग गए थे लेकिन मैं अधर में थी। मौसी भी। अब बार-बार रिटायरमेंट के बाद लड़के के पास जा कर रहने की बात करने लगी थी।

दुनिया भर की कोशिशें करके मैंने घर के सन्नाटे, जीवन के सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश में जो सब को इक्ट्ठा किया था, सब एक-एक कर मुझे उसी हाल में छोड़ चले गए।

अब बची थी तो सिर्फ़ मौसी। जिसके रिटायरमेंट के दो साल रह गए थे। जिसका बेटा बार-बार नौकरी से मुक्ति पा लेने के लिए दबाव डाल रहा था। मौसी बड़ी भाग्यशाली थी। अपने बेटे का गुण बता-बता का निहाल हो जाती थी। मगर अब तक किसी हालत में हार न मानने की मेरी आदत पड़ चुकी थी। सो अनाथालय खोलने का एक समयबद्ध कार्यक्रम बना डाला कि जिस दिन मौसी रिटायर होगी उसी दिन अनाथालय खुलेगा। मौसी ही उसका उद्घाटन करेगी। फिर बेचने के लिए जो प्लाट था उसे बेचकर फंड इकट्ठा किया। जी जान से समय रहते अनाथालय तैयार कर लिया। इस बीच गीता ने जिस ड्राइवर को डिंपू के बाद भेजा था उसने वाकई निस्वार्थ बड़ी सेवा की।

मौसी ने, उसके बेटे ने जो मदद की वह तो खैर असाधारण थी। एक बार गिरने से हाथ टूटने पर उसने जो सेवा कि उसे भुला नहीं सकती। आखिर वह दिन भी आया जब मौसी रिटायर हुई और मैं स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की अपलीकेशन दे आई। मौसी ने उद्घाटन किया। उसके बेटे-बेटी भी अपने बच्चों संग आए थे। उनके बच्चे मुझे बुवा-मौसी कहते थे। भविष्य में कोई परेशान न करे इसलिए गीता, चित्रा आंटी आदि की मदद से पुलिस, ऑर्टिस्ट, मीडिया का मैंने बड़ा जमावड़ा किया था। ठीक उसी समय मैंने मौसी को अनाथालय का संरक्षक, और उसकी बहू को अनाथालय से संबद्ध करने की घोषणा कर सबको अचंभित कर दिया।

मैंने अपना सपना पूरा करने के साथ-साथ इस बात की भी पुख्ता स्थाई व्यवस्था कर ली थी कि सन्नाटा अकेलापन मुझे फिर डराने न आए। अनाथालय के बच्चे, मौसी उसके बच्चे उन बच्चों के बच्चे सबको जोड़ दिया था। मैं खुश थी कि मैं अपने मां-बाप के नाम पर एक ऐसी संस्था खोल सकी जहां तमाम, अनाथ, अपाहिज, वंचित बच्चों को आसरा मिल सकेगा। उनको अच्छा भविष्य देने की नींव पड़ सकेगी।

हां एक सपना अभी अधूरा रह गया था। जिसे पूरा होने की उम्मीद अब कम थी। मगर मन में आशा का दिया टिम-टिमाता ही सही अब भी जल रहा था। पेंटिंग प्रदर्शनी का। मेरा, चित्रा आंटी और मिनिषा का संयुक्त सपना। अमरीका में मेरी न्यूड पेंटिंग्स की प्रदर्शनी का। अंकल रिटायर हो चुके थे। रिटायरमेंट से सालभर पहले ही उनका निलंबन खत्म हुआ था। मिनिषा शादी कर दो बच्चों की मगर फिर भी बेहद खूबसूरत मां बन चुकी थी। मगर आंटी उस दिन बोली ‘तनु कोशिश में हूं जल्दी ही प्रदर्शनी भी आयोजित होगी।’ मैंने कहा ‘ज़रूर आंटी।’ सच कहूं तो मुझे भी अब इस प्रदर्शनी को लेकर कुछ ज़्यादा ही उत्सुकता बन पड़ी है। देखें कब पूरी होती है यह आखिरी इच्छा।

समाप्त

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED