Bhagwan ki Bhool - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

भगवान की भूल - 6

भगवान की भूल

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-6

घर का कोना-कोना मुझे चीत्कार करता नज़र आ रहा था। मुझे छोटा सा अपना घर अचानक बहुत बड़ा भूतहा महल सा नज़र आने लगा। किसके कंधे पर सिर रखकर मां के दुख में आंसू बहाऊं। कहीं कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन उस दिन पहली बार एकदम तड़प उठा, छटपटा उठा कि काश परिवार में और सदस्य होते। काश मां-पापा ने और बच्चे पैदा किए होते। मेरे भी भाई-बहन होते। सब एक दूसरे का सहारा बनते। काश मैं भी किसी को जीवन साथी बना लेती। या कोई मुझे साथ ले लेता। कोई अपंग अपाहिज भी होता तो कम से कम एक कंधा तो होता। मेरी तड़फड़ाहट रात तीन बजे एकदम बेकाबू हो गई। मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी। न जाने कितनी देर रोती रही। कि तभी दरवाजे पर दस्तक और डिंपू की आवाज एक साथ सुनाई दी। उसने दरवाजे पर खड़े-खड़े ही ढांढस बंधाते हुए कहा ‘चुप हो जाइए। भगवान की मर्जी के आगे क्या करा जा सकता है। अम्मा जी की जितनी आयु थी उतना दिन रहीं साथ। आप ऐसे रोएंगी तो उनकी आत्मा को बड़ा कष्ट होगा। शांत होकर आराम कर लें, सवेरे आपको बहुत काम करना है।’

डिंपू ने उस समय मुझे बड़ी हिम्मत बंधाई। बहुत काम करना है यह बात मेरे कान में गरम-गरम शीशे सी पहुंची। मेरा रोना बंद हो गया। दिमाग सवेरे काम पर चला गया। डिंपू के एक वाक्य ने धारा ही बदल दी। तभी मेरा ध्यान इस बात पर भी गया कि रात के तीन बज रहे थे और मैंने घर का दरवाजा तक बंद नहीं किया था। फिर देखते-देखते सवेरा हो गया। सात बजते-बजते पहले सिन्हा आंटी पति के साथ आईं। उनके कुछ देर बाद ही उप्रेती अंकल, ननकई और जायसवाल जी पत्नी संग आ गए। ढांड़स बंधाने का एक दौर और चला, फिर बाकी क्रिया कर्म को लेकर बातें हुईं, पापा का सब कामधाम कर ही चुकी थी सो मुझे सारी बातें मालूम ही थीं। मैंने सनातन परंपरानुसार सारा काम किया।

ऑफ़िस महिने भर बाद गई। जब ऑफिस के लोगों का यह जोर पड़ा कि घर पर अकेली पड़ी रहोगी तो परेशान रहोगी। ऑफ़िस में मन थोड़ा सा बहला रहेगा। ऐसे अकेली तबियत खराब कर लोगी। इस बीच मैंने डिंपू को भी एक महीने की छुट्टी दे दी थी। उसको यह कह दिया था कि जाओ तुम्हें तुम्हारी तन्खवाह मिलेगी। इस एक महीने में मैं घर से बाहर नहीं निकली। कोई आया तभी दरवाजा खुला। उम्मीदों से एकदम विपरीत मिनिषा, चित्रा आंटी दो बार आईं। और पड़ोसी जायसवाल परिवार तीन बार। सिन्हा आंटी, उप्रेती अंकल का फ़ोन सुबह-शाम रोज आता। बड़े स्नेह से यह लोग समझाते-बुझाते। इन्हीं लोगों ने जोर दिया कि मैं ऑफ़िस आऊं।

एक महीने बाद मैंने ऑफ़िस जाना शुरू कर दिया। मुझे अब सारी दुनिया और भी बेगानी, पराई अजीब सी लगने लगी। बाहर निकलते ही सबको अपनी तरफ घूरते पाती। कुछ आंखों में मेरे लिए बेचारी साफ नज़र आता। कुछ में दयाभाव तो और सब में न जाने कैसे-कैसे भाव। मां-पिता में ध्यान कुछ ऐसा लगा हुआ था कि मैं अपना काम-धाम भूलने लगी। ऑफ़िस के काम में सिलसिलेवार गलतियों पर दया की जाने लगी। यही हाल घर के कामों का था। हफ्तों हो जाता झाडू-पोंछा, साफ-सफाई कुछ नहीं। पॉलिथीन में भरा कूड़ा जब बदबू के मारे जीना हराम कर देता तो अगले दिन जमादार के आने पर फेंकती। डिंपू जब था तब उस ने एक-दो बार हिम्मत करके मुझे खुद को संभालने और साफ-सफाई बाकी के कामों में हाथ बंटाने को कहा था लेकिन तब मैंने मना कर दिया था। मेरा व्यवहार शायद काफी रूखा था तो उसने आगे कुछ कहना एकदम बंद कर दिया। उसी के बाद मैंने उसे घर भेज दिया था। मैं घर में जहां इधर-उधर घूमती, कुछ करने लगती, तो ऐसा लगता मानो मां-पिता मुझे मना कर रहे हैं। ‘तू रहने दे, नहीं कर पाएगी। तेरे वश का नहीं है यह सब।’

मुझे पूरा घर सांय-सांय करता नज़र आता। दिल को दहला देने वाले इस सन्नाटे के बीच मैं नन्हीं-मुन्नी साढ़े तीन साल की बच्ची सी डरी-सहमी कहीं इस कोने तो कहीं उस कोने में दुबक जाती। डर से अपने को बचाने के लिए टी.वी. बराबर तेज़ आवाज़ में चलाती रहती। म्यूजिक सिस्टम को दूसरे कमरे में चलने देती। तीन महीने ही बीता होगा कि आखिर मैंने एक दिन तय किया कि सारा सामान बेच डालूंगी। मां-पिता से जुड़ी सारी चीजें बेच डालूंगी। आखिर जब वे ही नहीं रहे तो उनसे जुड़ी चीजों को रखने का क्या मतलब। एक दिन मैंने ननकई को बुला कर उसकी मदद से मां के सारे कपड़े निकाले, और उसे ही दे दिए। पहले उसने मना किया लेकिन मेरे आंसुओं के आगे मान गई। उसकी बेटी तेरह-चौदह की हो रही थी। लंबी भी थी। मेरे किसी काम का कुछ भी नहीं था।

पापा के भी सारे कपड़े उसी को थमा दिए कि जो तुम्हारे समझ में आए करना। उसका एक लड़का भी था जो हाई स्कूल में पढ़ रहा था। जब ननकई जाने लगी तो मैंने ऑटो के किराए के भी दो सौ रुपए दिए। कपड़े काफी थे। पांच एयर बैग, चार सूटकेश भरे थे। मैंने सूटकेश, एयर बैग सहित दे दिया था। यह भी कह दिया था कि किसी को यह सब बताएगी नहीं। फिर उसी दिन रात को मैंने अलमारी के लॉकर्स में से सारे गहने निकाले जिन्हें पापा समय-समय पर बड़े प्यार से मां के लिए लाते रहे थे। और मां बड़े प्यार से उन्हें पहनती थीं। मगर अब सब यहीं धरे रह गए थे। जितना था सब यहीं था। मेरे लिए भी कई गहने खरीदे गए थे वह भी थे। पापा की अंगूठियां, चेन आदि भी। बड़ी देर तक मैं सब देखती रही। गहने उम्मीद से कहीं बहुत ज़्यादा थे। अचानक ही एक बात मन में आई कि पापा रिश्वत की कमाई से यह सब जो इकट्ठा कर गए वह किस काम आ रहा है। कभी इन्हें पहन कर उनको बाहर जाते नहीं देखा। बस लॉकर्स में धरे रहे।

ननकई के साथ इन गहनों को दो दिन में अलग-अलग दुकानों पर बेच आई। जो कई लाख रुपए इक्ट्ठा हुए उन्हें बैंक में जमा कर दिए। लौटते वक्त एक बात और मन में आई कि गहने किसी काम न आए, इन रुपयों का भी क्या करूंगी। ननकई को मैं गहनों में से एक चेन निकाल कर पहले ही दे चुकी थी। मन में आया यह लड़की की शादी की बात करती रहती कि चार-छः साल में शादी करनी है पैसा जोड़ ही नहीं पा रही हूं। क्या करूं समझ में नहीं आ रहा। मन में आया चलो अभी तो टाइम है शादी का मौका आएगा तो देखेंगे।

इस तरह मैंने घर का बहुत सारा सामान या तो ननकई को दे दिया या बेच दिया। कमरों में अब अलमारियों में जगह खाली-खाली नज़र आने लगी। एक अलमारी अभी भी ऐसी थी जिसे खोलना बाकी था। मुझे याद नहीं आता कि पापा या मां ने कभी उसे मेरे सामने खोला हो। गहने वाली अलमारी के लॉकर में मुझे जो चाभियां मिली थीं उन्हीं में से एक उस अलमारी में लग गई। उसमें मुझे आठ-दस फाइलें मिलीं। जिसमें से एक में मकान के पेपर थे। इसके अलावा दो फाइलों से मुझे पहली बार यह मालूम हुआ कि पापा ने दो प्लॉट भी ले रखे हैं। और आज की मार्केट प्राइस के हिसाब से उनकी कीमत करोड़ के करीब हो रही है। क्योंकि शहर के जिस एरिया में हैं वह अब शहर के सबसे पॉश एरिया में गिना जाता है।

मुझे लगा कि मेरे लिए तो यह एक बड़ा सिर दर्द सामने आ गया। बाकी फाइलों में ऑफ़िस के ही तमाम पेपर्स थे। इन आठ-दस फाइलों के अलावा बाकी अलमारी फोटो अलबमों से भरी पड़ी थी। जिन्हें मैं टुकड़ों में कई दिनों में देख पाई। जिसमें सैकड़ों फोटो ऐसी थीं जिन्हें पोलोरॉड कैमरा से खींचकर खुद ही तुरंत प्रिंट लिया गया था। इन फोटुओं के लिए अच्छा यही था कि पापा या मां इन सब को अपने रहते ही जला देते। इन सारी फोटो में मां के सौंदर्य के प्रति पापा की दिवानगी चरम पर दिख रही थी। उसे किसी और के सामने नहीं पड़ना चाहिए था। यह काम फिर मैंने किया। ननकई को मैंने खाली हो जाने पर दो अलमारियां भी दे दीं।

साल बीतते-बीतते मैं काफी हद तक खुद को संभाल चुकी थी। अब घर में नाम मात्र को ज़रूरत भर का सामान था। पूरा घर खाली-खाली था। उससे कहीं ज़्यादा खाली मेरा मन था। क्षण भर को भी अब चैन नहीं था। अकेलापन बेचैनी में घर में टहलते रातें बीतती थीं। ऐसे टहलते-टहलते ही एक दिन दिमाग डिंपू की ओर चला गया। कुछ ही देर में मुझे लगा कि डिंपू पिछले कुछ महीनों से जिस तरह से काम कर रहा है, बल्कि यह कहें कि सेवा कर रहा है वह एक ड्राइवर या घर के नौकर की सीमा से कहीं ज़्यादा था। उसकी भाव भंगिमा भी निस्वार्थ से कहीं कुछ और लगी। यह उधेड़बुन जो मन में उस दिन शुरू हुई तो फिर वह बंद नहीं हुई। रोज ही बार-बार शुरू हो जाती। और अब मैं उसकी हर गतिविधि को बड़ी बारीकी से समझने का प्रयास करती। अंततः मुझे लगा कि लंबे समय तक ऐसे साथ-साथ रोज-रोज काम करते-करते कहीं कोई ऐसा-वैसा संबंध बन जाए इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

और मेरा मन भी तो इसे देखकर जाने कैसे अजीब सा उछल-कूद करने लगता है। अंततः मैंने तय किया कि इससे जल्दी ही छुटकरा पा लूं। दूसरे किसी बुजुर्ग ड्राइवर की तलाश में लग गई। इसी बीच एक दिन चित्रा आंटी मिनिषा के साथ आईं और बोलीं ‘तनु, मेरी और मिनिषा की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगी है। मैं चाहती हूं तुम भी एक बार चलो।’ मैंने हंसते हुए कहा ’मुझे क्यों ले चल रही हैं आंटी ? मैं चलूंगी तो लोग आप दोनों की आर्ट नहीं मुझे देखने लगेंगे।’ मिनिषा ने फट से कहा ‘सही ही तो है, लोग सेलिब्रिटी ही को देखेंगे।’ मैंने कहा ‘मेरा मजाक उड़ाने में तुम्हें बड़ा मजा आता है।’ तो उसने बड़े प्यार से गले से लगा लिया।

वह घुटनों के बल जमीन पर बैठी, अपने चेहरे को मेरे चेहरे तक लाते हुए बोली ‘मेरी प्यारी तनु ऐसा भूल कर भी न सोचा करो। मेरी नज़र में तुम क्या हो हम कह नहीं सकते। तुम अपने को किसी से कम, कमजोर, हीन क्यों समझती हो। तुम जीवन में जिस तरह बढ़ रही हो यह आसान काम नहीं है। सबके वश का नहीं है। मैं तुम्हें अपनी सबसे खास फ्रेंड मानती हूं।’ इस बीच चित्रा आंटी भी बोलीं ‘बेटा हम तुम्हें अपनी दूसरी मिनिषा मानते हैं।’ इसके बाद मां-बेटी दोनों ने ऐसी आत्मीयता भरी बातें कहीं कि मैं इंकार न कर सकी और अगले दिन प्रदर्शनी देखने पहुंची।

वहां प्रदर्शनी देखने वालों की अच्छी खासी भीड़ थी। जिसमें यंग जेनरेशन ज़्यादा थी। वहां मैं पहुंची तो सबको अपनी तरफ घूरता ज़रूर पाया। ऑर्ट प्रदर्शनी में मां-बेटी की ही पेंटिंग्स लगी थीं। यह प्रदर्शनी एक बड़े अधिकारी की ऑर्टिस्ट पत्नी की अपने पैसों, पति के प्रभाव से आयोजित प्रदर्शनी थी। ज़्यादातर पेंटिंग न्यूड थीं। शायद यंग जेनरेशन इसीलिए ज़्यादा आकर्षित थी। दो दिन से इसको लेकर मीडिया में चर्चा थी। मैं कुछ आगे बढ़ी ही थी कि देखा एक पेंटिंग के आगे सबसे ज़्यादा भीड़ है। लोग मोबाइल से उसकी फोटो भी खींच रहे थे।

मुझे हर पेंटिंग जिराफ की तरह सिर ऊपर कर के देखनी पड़ रही थी। उत्सुकतावश मैं भी उस तरफ चल दी। ननकई भी मेरे साथ थी। क्योंकि वही अब मेरी सबसे करीबी बन चुकी थी। डिंपू बाहर कार लिए खड़ा था। पेंटिंग के पास पहुंच कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। वहां अगल-बगल मेरी ही दोनों पेंटिंग लगी थीं, पहली मिनिषा द्वारा बनाया गया मेरा न्यूड स्केच था। दूसरी चित्रा आंटी द्वारा बनाई गई मेरी एक अधूरी ऑयल पेंटिंग थी। मिनिषा ने अपने स्केच को नाम दिया था ‘वंडर्स ऑफ़ गॉड’ और चित्रा आंटी ने अपनी पेंटिंग जिसका चेहरा अधूरा था। उसे नाम दिया था ‘गॉड्स फ़ॉल्ट।’ दुनिया के सामने अपनी नंगी तस्वीर देखकर मैं पानी-पानी हो गई।

शरीर में पसीने का गीलापन जगह-जगह महसूस कर रही थी। ननकई को भी गौर से देखते मैं सहम गई थी। उसे किसी तरह का शक न हो। यह सोच कर मैं सामान्य सी बनी आगे चलने लगी। फिर कई और पेंटिंग देखने की ऐक्टिंग करती हुई बाहर आ गई। कार के पास पहुंची ही थी कि चित्रा आंटी और मिनिषा दोनों आ गर्इं। मुझे रोकना चाह रही थीं लेकिन मैंने उनकी एक सुने बिना ही डिंपू से चलने को कह दिया। रास्ते में ननकई को घर छोड़ते हुए अपने घर पहुंची। कमरे का टी.वी. ऑन कर बेड पर बैठी सोचती रही। मां-बेटी के बहकावे में आकर मैं यह क्या कर बैठी। यह दोनों मुझे शहर में निकलने लायक नहीं छोड़ेंगी। मेरे मन में उनके लिए कई गालियां निकलती रहीं।

शाम काम वाली आई तो उसे और डिंपू जो इस बीच कई बार आया तो उन्हें पढ़ने की कोशिश करती रही कि कहीं इन सब को मालूम तो नहीं हो गया। यह सोच कर और परेशान हो गई कि ननकई और ऑफ़िस का यदि कोई और भी वहां देख कर आया होगा और पहचान गया मुझे तो क्या होगा। ननकई तो निश्चित ही पहचान गई होगी। पेंसिल स्केच तो वह गौर से देख ही रही थी। वह इतनी सजीव है कि कोई भी मुझे एक नज़र में ही पहचान लेगा। रास्ते भर ननकई जैसे कुछ कहने पूछने को व्याकुल लग ही रही थी। हो सकता है आज डिंपू के साथ होने के कारण नहीं पूछा। लेकिन वह चुप रहने वाली नहीं, कल पुछेगी ज़रूर। हो सकता है ऑफ़िस में ही पूछ ले। मैं ऑफ़िस वालों के सामने भी नग्न ही नजर आऊंगी। कैसे फेस करूंगी उन सबको। आने के बाद कई बार चित्रा आंटी और मिनिषा का फ़ोन आया लेकिन मैंने काट दिया।


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