Bhagwan ki Bhool - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

भगवान की भूल - 2

भगवान की भूल

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-2

यह बात मां ने न जाने कितनी बार बताई कि लखनऊ आए दस दिन भी न बीता था कि एक रात वह उनके सौंदर्य में खोए हुए बोले कि ‘जब तक नौकरी स्थाई नहीं होगी तब तक बच्चे नहीं पैदा करेंगे।’ उस समय तो वह कुछ नहीं बोलीं लेकिन जब एक दिन बाद ही वह उन्हें फेमिली प्लानिंग के लिए एक हॉस्पिटल लेकर जाने लगे तब उन्होंने मना किया। ‘देखो इतनी जल्दबाजी मत करो। लोग कहते हैं कि शुरू में ही यह सब करने से फिर आगे कई बार ऐसा भी होता है कि बच्चे नहीं भी होते।’ लेकिन तब पिता जी ने उन्हें सड़क पर ऐसा तरेरा, इस तरह इतना तेज़ घुड़का कि मां सहम कर रह गईं। और पिता जी अपने मन की करवा करके लौटे। हालांकि हॉस्पिटल से लौटने के बाद कई दिन मां को जो पीड़ा, तकलीफ रही उससे पिता जी बहुत परेशान और आतंकित से रहे। इसके बाद फिर नौकरी के नियमित होने के इंतजार में दो साल बीत गए।

दो साल बाद पापा मां की यह बात मान गए कि ‘बच्चा होने दो शायद उसकी किस्मत से ही हमारे दिन बहुरें।’ इस बीच पापा ने तीन मकान बदले। क्योंकि उन्हें हर बार यही शक सताए रहता था कि मकान मालिक मां को देखते हैं। गंदी नज़र डालते हैं। और मां इस सबसे होने वाली परेशानियों, अनावश्यक खर्चों के लिए अपनी सुंदरता को कोसती रहतीं। भगवान से मिले एक तरह से अनुपम वरदान को कोसती थीं। अब मेरी बड़ी इच्छा होती है कि मैं यह सारी बातें, अब मां के सामने बैठ कर करती, कहती कि तुम्हारी और पापा की यह जो सोच थी गलत थी। जिस के चलते तुम दोनों एक निरर्थक, अतिरिक्त तनाव लिए जीवनभर परेशान रहे। लेकिन मुझे अफसोस है कि जब दोनों थे तब इतनी समझ नहीं थी। इतना ही नहीं तब तो मां की बातों से बोर हो जाती थी। अब जब इन विषयों के लिए सोच के स्तर पर परिपक्व हुई तो वह दोनों नहीं हैं।

कहां पाऊं उन्हें। इतनी जल्दी छोड़ कर चल दिए ईश्वर के पास। मेरी छब्बीस- सत्ताईस की उम्र थी जब पापा एवं मात्र नौ महीने बाद ही मां भी चली गईं। मेरे आगे पीछे कोई नहीं। मगर मैं फिर भी यह नहीं कहूंगी कि मेरी शारीरिक स्थिति मेरे लिए एक समस्या थी और है। मैं यही कहूंगी कि मेरा शरीर जैसा भी है, वही मेरे काम आता चला आ रहा है। चित्रा आंटी, मिनिषा मेरे इसी शरीर को देखकर ही तो मुझे बरसों से सेलिब्रिटी बनाने की कोशिश करती आ रही हैं। इन्हीं सब के चलते मैं मां की तरह यह नहीं कहूंगी कि मेरा शरीर मेरी सारी समस्याओं की जड़ है। जब थीं तब मैंने यह सब मां से कुछ-कुछ कहना शुरू ही किया था।

पापा ने मुझसे कभी सीधे मुंह बात की हो यह मुझे ध्यान नहीं आता। पता नहीं यह सच है कि नहीं कि मैंने उनकी आंखों में अपने लिए हमेशा एक अजीब तरह की घृणा, नफरत, उदासी ही देखी। मानो मैं ही उनके सारे दुखों की एक मात्र कारण थी। मुझे पापा को समझने का मौका नहीं मिला।

मां जैसा बताती थीं। उस हिसाब से तो मेरा जन्म ही उन दोनों के लिए एक पीड़ादायी घटना थी। जब मां बताती थी तब दुनियावी बातों की इतनी समझ नहीं थी। उस वक्त सारी बातें मेरे लिए किसी कहानी से ज़्यादा नहीं थीं। मगर जब यह समझ बन पाई है तो उनकी बातें याद कर मन रोता है। मां-पिता होते तो शायद मेरी हालत का अंदाजा लगा सकते। मैं खुद रोती हूं, खुद ही अपने को चुप भी कराती हूं। खुद ही अपने आंसू बहाती हूं और अपने हाथों खुद ही पोंछती भी हूं। मेरे जन्म की कहानी जो मां ने बताई थी वह मुझे बहुत रुलाती है।

मां ने बताया था कि मेरे गर्भ में आने के तीसरे ही महीने बाद जब नौकरी चली गई थी तो पापा उस दिन उनका एबॉर्शन कराने की जिद कर बैठे थे। उनसे खूब झगड़ा तक किया था। प्रिग्नेंसी के बावजूद मां दो दिन तक इस झगड़े के कारण भूखी तड़पती रही थीं, तब मैं मासूम निरीह जान मां के पेट में इन सबसे अनजान थी।

महाभारत के अभिमन्यु जैसी क्षमता नहीं थी कि यह सब गर्भ में ही समझती और जन्म के बाद याद भी रखती। टेम्परेरी नौकरी भी चली जाने से पापा एकदम असहाय, विवश हो अपना आपा खो बैठे थे। घर ससुराल दोनों जगह से सारे संबंध खतम होने के कारण वह अपनी असहाय स्थिति के कारण भयभीत हो उठे थे। मगर इस हाल में भी उनका गुस्सा नफरत कम न हुई थी। अतः मां को इस हालत में भी मायके भेजने को तैयार नहीं हुए। इतने जिद्दी थे कि बोल दिया मजदूरी कर लेंगे, कुछ नहीं बन पड़ेगा तो दोनों आत्महत्या कर लेंगे। मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे। फिर वह आए दिन मां को ताना मारते कि ‘बच्चा होने दो शायद उसी की किस्मत से दिन बहुरें। कितने अच्छे दिन बहुरे। दो जून की रोटी चलाने लायक जो नौकरी थी वह भी चली गई। अभी पेट में है तब यह किस्मत है, पैदा होगा तो न जाने क्या कराएगा।‘

फिर यह किचकिच जब तक वह घर में रहते तब तक होती थी। नौकरी छूटने के बाद मकान मालकिन ने किसी तरह महिने भर खाना-पीना चलाया था। मां बताती थी कि वह बड़ी भली महिला थीं। मां पेट से है यह देखकर वह अपने पति से छिपा कर मां की मदद करती थीं। खाने-पीने की तमाम चीजें मां को किसी न किसी बहाने देती रहती थीं। कि बच्चे को नुकसान न हो। पापा ने मकान मालिक की मदद से गणेशगंज में किसी दुकान में नौकरी कर ली। मगर पापा के अक्खड़ स्वभाव ने उन्हें वहां भी एक हफ्ते से ज़्यादा नहीं रुकने दिया। तब मां घबरा उठी थी। इस बीच मकान का किराया देने की बात सामने आ गई। मकान मालिक इसमें कोई रियायत नहीं करना चाहता था। उसकी जिद, बातचीत के तरीके का पापा ने दूसरा ही अर्थ निकाला। और अपने ऑफ़िस के समय के एक मित्र जो कि पैतृक संपत्ति के चलते बड़े धनाढ्य थे, उनके मकान में रहने लखनऊ शहर छोड़ कर मोहनलालगंज कस्बे में चले गए।

जिन पापा ने अपने मां-बाप से घूंघट, काम-धाम के चलते लड़-भिड़ कर सब से सारे संबंध ही खतम कर लिए थे उन्होंने ही मां से अपने इस मित्र के सामने घूंघट में ही रहने, सामने न पड़ने की सख्त हिदायत दे दी थी। जब कि वह दोस्त पापा से मात्र सात-आठ साल ही बड़े थे। मां पापा के इस फैसले से अचंभित थीं। हालांकि मां पापा के इस निर्णय के लिए यही कहती थीं कि अपने मित्र को सम्मान की दृष्टि से देखने के कारण उन्होंने ऐसा किया था। मां होती तो अब मैं उनसे साफ कहती कि नहीं ऐसा नहीं था मां। उन्होंने अपनी मनोवृत्ति के चलते ऐसा किया। वो नहीं चाहते थे कि उनके वह मित्र तुम को देख पाएं। पापा एक अजीब तरह के भय का शिकार थे मां।

मां कई बार उस कस्बे मोहनलालगंज के बस स्टेशन के करीब की वह दुकान भी मुझे दिखा लाई थी, जहां पापा ने उन्हीं मित्र के सहयोग से दुकान चलाई थी। जिससे गुजर बसर हो रहा था। मां से उनकी चर्चा बराबर बड़ी होने पर भी सुनती रही थी। यह बात तो जस की तस आज भी याद है कि जब मेरे जन्म का वक्त आया, मां को लेबरपेन शुरू हुआ तो उनकी ही जीप से उन्हें जिला अस्पताल तक पहुंचाया गया था।

रात दस बजे सोते से उन्हें उठाया गया था। उनकी पत्नी भी साथ हो ली थीं। पैसे की जबरदस्त तंगी के चलते किसी बढ़िया प्राइवेट नर्सिंग होम का कार्ड पापा नहीं बनवा पाए थे। जिला हॉस्पिटल में मां की हालत बिगड़ रही थी और रात होने के कारण स्टॉफ लापरवाही में सुस्त पड़ा था। तब पापा के उन्हीं मित्र ने अपने स्थानीय होने के प्रभाव का प्रयोग कर सबको झिंझोड़ कर रख दिया था। लेकिन हॉस्पिटल पहुंचने के समय जो लेबरपेन हो रहा था वह डॉक्टर के आने के पहले ही अचानक ठीक हो गया।

डॉक्टर ने कहा कुछ खास बात नहीं है, चाहें तो घर ले जा सकते हैं। सब घर आ गए। अगले दिन दोपहर तक फिर जाना पड़ा। फिर उन्हीं मित्र की जीप और ड्राइवर काम आए। जो इसी अंदेशेे से गाड़ी छोड़ गए थे। ऑफ़िस बस से चले गए थे। शाम चार बजे नॉर्मल डिलीवरी से मेरा जन्म हुआ। मां की यह बात आज भी मुझे पीड़ा देती है कि मेरे लड़की होने पर मां का भी मन खट्टा हो गया था। और पापा ने मेरी एकदम कमजोर नाजुक हालत के बावजूद एकदम उत्साहहीन होकर कहा था कि ‘बहुत कह रही थी न, लो बहुर गए दिन।’ और बेहद उदास चेहरा लिए बाहर चले गए थे।

मगर दो मिनट बाद ही वह एकदम खुशी से उछलते-कूदते अंदर आए। मां का हाथ चूमते हुए बोले ‘हमारी बिटिया वाकई भाग्यशाली है शुभांगी, हमारे दिन बहुर आए। हमें दुबारा नौकरी मिल गई है वह भी स्थाई।’ और फिर दोनों खुशी के मारे रो पड़े थे। पापा के वही मित्र यह सूचना देने के लिए समय से पहले ही ऑफ़िस से चले आए थे। उन्होंने ही बताया कि लंबे समय से टेम्परेरी कार्य करने वाले कुछ लोगों को स्थायी नौकरी दी गई है। उनमें पापा भी हैं। वह ऑर्डर की फोटो कापी भी ले आए थे।

मां कहती थी कि इस अप्रत्याशित खुशी से वह दोनों इतने खुश थे कि मानो पूरी दुनिया की खुशी उन्हें मिल गई हो। और पापा ने आनन-फानन में उन्हीं मित्र से एक बड़ी रकम उधार ले ली। पहले जो लोग उन्हें तब सौ-दो सौ रुपए भी देने से कतराते थे कि वापस कहां से करेंगे अब उन लोगों की हिचक खत्म हो गई और उन्हें उधार मिलते देर न लगी। पापा ने दुकान का सारा सामान एक दूसरे दुकान वाले को औने-पौने दाम में बेचकर कुछ और पैसा इकट्ठा किया। फिर आठ-दस दिन में ही लखनऊ आ गए।

एक अच्छा मकान किराए पर लेकर रहने लगे। महानगर का वह एरिया आज भी पॉश एरिया में गिना जाता है। इस बदली स्थिति में पापा मां की ऐसे देखभाल कर रहे थे कि मानों वह छूईमूई का पौधा हैं, जो हल्के स्पर्श से ही मुरझा जाएगा। मां को काम न करना पड़े, मेरी देखभाल में कमी न हो इसके लिए नौकरानी लगा दी। खाने-पीने सुख-सुविधा की ज़्यादा से ज़्यादा व्यवस्था की। कुछ ही दिन में मां और मैं सेब जैसे लाल गोल-मटोल हो गए। मगर साथ ही यह भी हुआ कि पापा रिश्वतखोरी में आकंठ डूब गए। साहबों को साधकर खूब खाते और खिलाते। घर में खुशी हर कोने में मानो बरस रही थी। पापा मुझे मां को इतना लाड़-प्यार देते कि देखने वाले दंग रह जाते।

देखते-देखते मैं छः-सात महीने की हो गई और यहीं से घर की खुशियों पर फिर काली छाया मंडराने लगी। मैं सात महीने की गोल-मटोल हो गई थी लेकिन मेरी लंबाई तीन महीने के बच्चे से ज़्यादा नहीं थी। आठवें महीने में भी जब मैं बैठ भी नहीं पाई तो मुझे डॉक्टरों को दिखाया गया। मगर संतोषजनक जवाब नहीं मिला। चिंता की लकीरें अब मां-पापा के माथे पर उभरने लगी थीं। पापा ने एक से एक डॉक्टरों को दिखाया, दवाएं चलीं और मैं डेढ़ साल की उम्र में कहीं बैठना शुरू कर पाई।

डॉक्टर कुछ साफ नहीं बता पा रहे थे। कुछ बच्चे देर से शुरू करते हैं यही जवाब मिलता था। मगर लंबाई नहीं बढ़ रही इस पर कोई कुछ नहीं बता पा रहा था। अब पापा खीझने लगे थे। बहुत जल्दी हत्थे से उखड़ जाना उनकी आदत बनती जा रही थी। अब दोनों के बीच एक और बच्चा पैदा करने की बात पर टुन्न-भुन्न होने लगी। मां चाहती थी जल्दी से जल्दी एक और बच्चा पैदा हो। मगर पापा का जवाब की अभी दो चार साल नहीं।

फिर मैं अपनी कच्छप चाल से होती ग्रोथ और घर में अगले बच्चे को लेकर पापा-मां में होने वाली टुन्न-भुन्न के साथ चार साल की हो गई। मैं ढाई साल की उम्र में खड़े-खड़े चलने में समर्थ हुई थी। मगर लंबाई मेरी दो साल के बच्चे से ज़्यादा नहीं थी। इस बीच डॉक्टरों के पास भटकते-भटकते यह साफ हो गया कि किसी अज्ञात कारण वश मैं बौनी बनने के लिए अभिशप्त हो चुकी हूं। दिल्ली के एक बड़े हॉस्पिटल से जब कई जांचों के बाद यह कंफर्म हो गया तो मां-पापा एकदम टूट गए। मां कहतीं कि ‘इसके बाद तो घर में हर तरफ खुशियां नहीं एक घुटनभरा, चिड़चिड़ा माहौल पैर पसार चुका था।’

मेरे इलाज के लिए दोनों इसके बाद भी हाथ पैर मारते रहे। कभी होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, युनानी तो कभी एलोपैथी से लेकर झाड़-फूंक, पूजा-पाठ मंदिर तीर्थ जहां भी आशा की किरण नज़र आई वहां गए। जो कहा गया किया। मगर ग्रोथ के मामले में मैं कच्छप गति को शर्मिंदा करती ही रही। निराश हो मां ने अगले बच्चे के लिए अपना आग्रह बढ़ाया लेकिन पापा किसी डॉक्टर की इस आशंका से भयभीत हो उठे थे कि जींस में कुछ गड़बड़ी है, जिससे यह संभावना पूरी है कि अगली संतान भी ऐसी ही कुछ समस्या के साथ पैदा हो।

मंगोल चाइल्ड की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। तब मां, पापा के अगला कोई बच्चा न पैदा करने के अंतिम निर्णय को मान गई। मगर अब दोनों मेरे भविष्य, अपने बुढ़ापे की लाठी की चिंता में भी घुलने लगे। मेरे जन्म के समय जो खुशियां बरस रही थीं उसमें छः-सात माह के अंदर जो ग्रहण लगा था वह धीरे-धीरे गहराता गया।

जब छः वर्ष की उम्र में स्कूल में मेरा एडमिशन कराया गया तब तक घर की सारी खुशियां समाप्त हो चुकी थीं। परिवार घिसटती हुई ज़िन्दगी जीने लगा था। मैं इन चीजों के लिए इतनी समझदार नहीं थी सो हंसती, खेलती, उछलती, कूदती रही। मगर मां-बाप दोनों हंसना बोलना भूल गए थे। किसी रिश्तेदार, दोस्त या कहीं घूमने फिरने जाना बंद हो गया था।

घर में कोई आता तो कोशिश होती कि मैं किसी के सामने न पडूँ । क्योंकि लोगों के तरह-तरह के प्रश्नों से मां-बाप खीझ उठते थे। अंततः लोगों ने भी आना बंद कर दिया। अब घूमने फिरने के नाम पर यही होता था कि स्कूटर पर किसी पार्क या किसी बाज़ार वगैरह आधे एक घंटे यूं ही घूम-घाम चले आते थे। कुछ खा-पीकर या कोई खिलौना-सिलोना लेकर।

पापा का चिड़चिड़ापन उनका स्थाई स्वभाव बन चुका था। मैं उनके साथ खेलना-कूदना चाहती तो वह अब मुझे किसी न किसी बहाने दूसरे कमरे में भेज देते। मगर मां मेरा साथ देती थीं। बड़ी होने पर जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि मां भी सिर्फ़ साथ ही देती थीं। अंदर ही अंदर उनका भी मन टूटता दरकता रहता था। स्कूल में बच्चे मुझे मेरे कद को लेकर चिढ़ाते थे। एक बार तो एक बच्चे ने जब मुझे मेरा नाम तनु बुलाने के बजाय गोली कहना शुरू किया तो मैं रो पड़ी थी। उससे झगड़ा किया तो लंबा होने का फ़ायदा उठाकर उसने मुझे पीट भी दिया। पापा को शाम को पता चला कि मुझे गोली कहकर चिढ़ाया गया और पिटाई भी हुई तो अगले दिन स्कूल में उन्होंने हंगामा खड़ा कर दिया। किसी तरह प्रिंसिपल और उस बच्चे के पैरेंट्स ने बात संभाली। इस तरह की घटनाएं अब मेरे जीवन की हिस्सा बनती जा रही थीं। पापा कहीं झगड़ा न करें इसका रास्ता मां ने यह निकाला कि मैं पापा से यह बातें बताऊं ही न।

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