भगवान की भूल
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग-3
धीरे-धीरे मां अपने इस मकसद में कामयाब रहीं। मैं भी मां की बात समझ गई और ऐसा कुछ होने पर मां को ही बताती और उन्हीं के आंचल में मुंह छिपाकर रो लेती। कई बार मां समझाती तो कभी मुझे सीने से चिपका कर खुद ही फफ़क कर रो पड़ती थीं। मां की कठिनाई यहीं तक नहीं थी। तनाव बर्दाश्त न कर पाने के चलते पापा ने शराब को अपना लिया। पहले कभी-कभी फिर रोज पीना उनकी आदत बन गई।
जब मैं जान समझ पाई कि वह शराब जैसी कोई चीज पीते हैं तब तक मैं ग्यारह-बारह बरस की हो चुकी थी। मां जहां मेरे बौनेपन और दूसरा कोई बच्चा न पैदा करने के पापा के निर्णय से परेशान और हमेशा दुखी रहती थीं वहीं पापा के दुखों के कारण में इसके साथ-साथ मां की सुंदरता अब भी बराबर बनी रही। अंतिम सांस तक बनी रही। साथ में मैं तो नत्थी थी ही। उन्हें लगा कि मां का रंगरूप मुझे जन्म देने के बाद और भी निखर आया है। लोग उन्हें और भी ज़्यादा देखते हैं। उन्हें सारे मकान मालिक चरित्रहीन नज़र आते थे।
मेरे आठ साल का होने तक उन्होंने छः मकान बदले थे। उन्हें बराबर यह भय सताए रहता था कि कहीं उनकी पत्नी को कोई नुकसान न पहुंचा दे। वह तो ऑफ़िस में रहते हैं, मकान मालिक कहीं अकेले पाकर उनकी पत्नी पर हमला न कर दे। उन्हें मकान मालिकों और उनके परिवार के सारे पुरुष सदस्यों यहां तक कि किशोरवय लड़कों तक की आंखों में अपनी पत्नी के लिए वासना ही नज़र आती थी। अंततः अपनी इस समस्या को दूर करने का रास्ता उन्होंने एल.डी.ए. का एक एम.आई.जी. मकान लेकर निकाल लिया।
इसके लिए बैंक से कर्ज वगैरह से लेकर जहां से जैसे बन सका हर तरह से जुगाड़ किया। मगर शक की उनकी यह बीमारी उनका यह वहम अपने मकान में भी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। पड़ोसी वगैरह कहीं किसी से उन्होंने कोई संबंध नहीं रखे। किसी के यहां कभी भी यहां तक कि शादी ब्याह या ऐसे किसी भी फंक्शन में भी नहीं जाते। या फिर अकेले हो आते। हां उनके चेहरे पर मैं तब कुछ देर को हंसी, मुस्कान पाती थी जब मेरा रिजल्ट आता और मैं क्लास में टॉप करती।
मां तो खैर मां थीं। मुझे वह ऐसे अवसर पर दुध-मुंहे बच्चे की तरह छाती से चिपका लेती थीं। वह चाहती थीं कि और लोगों की तरह वह भी अपने बच्चे की लोगों से बात करें। उन्हें उसकी पढ़ाई के बारे में बताएं, लोगों से तारीफ सुनें, लेकिन पापा के कारण यह संभव ही नहीं था।
बस घर में ही जितना जश्न हम तीनों मिलकर मना सकते थे मनाते थे। उस दिन खाना-पीना पापा किसी बढ़िया होटल से ले आते थे। मेरे लिए अच्छी-अच्छी कई ड्रेस ले आते। हम सब का मन बाहर खुली हवा में और लोगों के साथ खुशी मनाने को तरस जाता। हम उन लोगों में थे जो अपनी सफलता पर खुद ही ताली बजाते, शाबाशी देते, अपने हाथ अपनी पीठ ठोंकते और खा-पी कर सो जाते।
जब मैंने यू.पी. जो कि सबसे टफ बोर्ड माना जाता है के हाई-स्कूल इक्जाम में अपने स्कूल में टॉप किया तो स्कूल में खैर हर बार की तरह मेरा सम्मान किया ही गया, क्योंकि मैं हर क्लास में फर्स्ट आती थी। घर पर भी उस दिन अपने होश संभालने के बाद पहली बार पापा को खुशी के मारे खिल-खिलाते देखा। मैं सोलह बरस पार कर चुकी थी लेकिन मारे खुशी के पापा उस दिन इतने भाव-विह्वल हो उठे थे कि मुझे छोटे बच्चे की तरह उठा लिया, मेरा माथा चूम लिया। जैसे पिता अपने साल डेढ़ साल के बच्चे को गोद में चेहरे तक उठाए एक ही जगह खड़े-खड़े घूम जाता है, वैसे ही वह भी घूम गए थे। और देखा जाए तो मैं किसी पांच-छः साल के बच्चे से ज़्यादा थी ही कहां।
तब मेरी हाइट कुल चालीस इंच ही तो थी। मात्र तीन फिट चार इंच की। हां भरपूर खाने-पीने के चलते वजन ज़रूर कुछ ज़्यादा था। शरीर के उभार ज़रूर रफ्तार में थे, कच्छप चाल से नहीं। स्तनों ने अच्छा खासा भरा पूरा आकार ले लिया था। पापा ने जोश में उठा तो लिया था मुझे दोनों हाथों से पकड़ कर चेहरे तक लेकिन एक चक्कर लगा कर ही उतार दिया नीचे। तीन-चार सेकेंड से ज़्यादा संभाल न सके मुझे।
उस दिन पापा शाम को मुझे, मां को लेकर साल भर पहले ही किस्तों पर ली गई अल्टो कार में घुमाने ले गए। महानगर के एक नामचीन चाइनीज रेस्त्रां में डिनर किया। मेरे लिए कई सारी ड्रेस, कई स्टोरी बुक खरीदी और देर तक शहर में इधर-उधर गाड़ी ड्राइव करते रात करीब ग्यारह बजे घर लौटे। अब तक मैं थक चुकी थी। इसलिए मुंह हाथ धोकर, चेंज कर अपने कमरे में सोने चली गई। जो सामान हम ले आए थे वह ड्रॉइंगरूम में सोफे और टेबिल पर ही पड़ा था। बेड पर लेटते ही मुझे नींद आ गई।
अभी दो ढाई घंटे ही बीते होंगे कि मुझे नींद में ही लगा कि जैसे मां कराह रही हैं। उनकी तकलीफ भरी आवाजे़ं मेरी नींद तोड़ने लगीं। मैं कुनमुना कर करवट ले लेती। लगता जैसे सपना देख रही हूं। मगर यह एक ऐसा सपना था जिसमें सिर्फ़ आवाज़ थी कोई दृश्य नहीं था। कानों में पड़ती उनकी तकलीफ भरी आवाज़ों ने आखिर मेरी नींद पूरी तरह तोड़ दी। मैं उठ बैठी बेड पर। आवाज़ अब भी आ रही थी। अब मैं घबरा कर पसीने-पसीने हो गई। आवाज़ मां-पापा के कमरे से आ रही थी। सो लॉबी क्रॉस कर मैं वहां गई। मां की कराहने की आवाज़ और गाढ़ी हो रही थी।
मैं अजीब सी आशंका से घबराती खिड़की तक पहुंची कि देखूं क्या बात है। मगर उसकी ऊंचाई ज़्यादा थी सो मैंने दरवाजे की झिरी से अंदर देखा। और फिर शर्म से पानी-पानी हो गई। पापा की हरकतों को देख कर गुस्सा आया कि उन्हें मां को ऐसी तकलीफ नहीं देनी चाहिए। अंदर से आती शराब की बदबू से मुझे उबकाई आने लगी थी। इस बदबू का मैं पहले ही न जाने कितनी बार सामना कर चुकी थी। मैं जैसे गई थी फिर वैसे ही आकर अपने बिस्तर पर लेट गई।
अगला दिन छुट्टी का था। पापा को देखते ही मेरे मन में उन को लेकर अजीब सी नफरत उमड़ पड़ी। मां की सूजी हुई आंखें, एक तरफ कुछ ज़्यादा ही सूजे होंठ रात का दृश्य क्षण भर में सामने खड़ा कर देते। मां पर मुझे बड़ी दया आ रही थी। उनकी आए दिन की ऐसी चोटों का मर्म मैं उसी दिन समझ पाई थी। उसी दिन स्त्री-पुरुष के उन अंतरंग क्षणों को मैं जान पाई थी। जिसकी तब तक उथली सी ही जानकारी थी। जो सहेलियों और मां द्वारा अपनी बेटी को जागरूक करने के दृष्टि से दी गई जानकारियों तक ही सीमित थी। उस एक घटना ने ही मुझे कुछ ही घंटों में एकदम से कई साल बड़ा कर बिल्कुल युवा बना दिया था।
वक्त के साथ पापा की बढ़ती शराब, चिड़चिड़ेपन और मां के साथ अब आए दिन बेवजह ही उनकी गाली-गलौज मुझे बहुत तकलीफ देती। मेरा मन करता कि सारी तकलीफों की जड़ मैं हूं तो आखिर मैं मर ही क्यों नहीं जाती। कई बार मन में आत्म-हत्या करने की भी बात आती। मगर मां का ममता से लबालब भरा चेहरा कदम उठनें ही न देता।
मेरे लिए उनकी चिंता और साथ ही उनका हमेशा यह प्रदर्शन करना कि मुझसे उन्हें कोई तकलीफ, चिंता नहीं है। एकांत मिलते ही उनकी आंसुओं से भरी आंखें वह सब देखकर मैं अकेले में रोती थी। मां की तकलीफों का अंदाजा सही मायनों में मैं अब कर पा रही हूं। कि अपने मां-बाप, भाई-बहन, सास-ससुर आदि सभी के होते हुए भी निपट अकेला होना मां के लिए कितना यंत्रणापूर्ण रहा होगा। किस तरह वह पल-पल रोती थीं। जबकि कारण कुछ भी नहीं था।
मैं मां की दर्द पीड़ा से भरी आंखें, चेहरा अंतिम सांस तक भी कैसे भूल सकती हूं। एक बार पापा ने मुझे किसी बात पर डांटते हुए अपने गले का पत्थर कह दिया था। नशे के कारण और भी कई भद्दी बातें कह दी थीं। तब मैं बी.एस.सी. फाइनल इयर में थी। उस दिन पापा से मां ने कड़ा प्रतिवाद किया था। बदले में मार खाई और जब मैं बीच में आई तो पापा ने धकेल दिया मुझे। मैं किसी छोटे बच्चे की तरह लड़खड़ाते हुए दूर दरवाजे से टकरा कर गिरी थी। दरवाजे की कुंडी सीधे नाक से टकराई और मेरा चेहरा और सामने के कपड़े खून से लाल होने लगे थे। चोट कुछ ज़्यादा ही थी तो मैं तुरंत उठ न पाई। मां दौड़ कर आई थी, मुझे उठा कर अपनी बांहों में भर लिया था।
मां के कपड़े भी लाल होने लगे। तब मां ने घबरा कर पापा से तुरंत डॉक्टर के पास चलने की प्रार्थना की। लेकिन पापा निस्तब्ध चुपचाप खड़े रहे। तो वह एकदम गिड़गिड़ा उठीं पर वह फिर भी खड़े रहे। तब मां बिफर पड़ीं कि ‘ठीक है, खड़े रहो तुम यहीं। मैं अकेले ही लेकर जाऊंगी अपनी बच्ची को। मैं इक्कीस साल की हो गई थी लेकिन मां की नज़र में तब भी बच्ची ही थी। मां की करुणा, प्यार और पापा का वैसे ही उन्हें घूरते हुए देखना मुझमें न जाने पलक झपकते कैसी आग भर गया कि मैं मां से अलग होती हुई गुस्से से करीब-करीब चीखती हुई बोली ‘मां मुझे कहीं नहीं जाना। रोज-रोज मरने से अच्छा है कि आज ही मर जाऊं। जिससे पापा की, तुम्हारी तकलीफें दूर हो जाएं। तुम दोनों को लोगों के सामने अपमानित न होना पड़े। मैं भी अब और अपमानित जीवन नहीं जीना चाहती।’
मैं झटके से उठी और दौड़ती हुई अपने कमरे में बेड पर लेट कर रोने लगी। मेरे पीछे मां भी ‘सुन-सुन बेटा’ कहती दौड़ी आईं। मुझे फिर बाँहों में भर कर रोती हुई बोली थीं ‘ऐसा मत कह बेटा तेरे बिना मैं नहीं जी पाऊंगी। चल बेटा डॉक्टर के पास चल।’ मगर मैंने न जाने की जिद कर ली और रोती रही। मैं तब आश्चर्य में पड़ गई और मां भी जब पापा भी आकर मुझे उठाने लगे। मैं न मानी तो वह भी हम दोनों को पकड़ कर रोने लगे।
मैंने पहली एवं आखिरी बार उन्हें इस प्रकार भावुक और रोते हुए पाया था। वह भी बार-बार डॉक्टर के यहां चलने को कह रहे थे। माफी मांग रहे थे। उनकी यह बात मुझे और दुखी कर गई कि ‘मेरी तकलीफ भी समझा करो तुम लोग।’ मैं तब भी किसी सूरत में न गई तो वह एक डॉक्टर को लेकर आए, मेरी मरहम पट्टी कराई। फिर रात का खाना भी होटल से लाए। अपने हाथों से हम दोनों के लिए खाना निकाल कर मेरे कमरे में ले आए। क्योंकि हम दोनों अपने कमरे से बाहर नहीं आए। मां ने किचेन का रुख ही नहीं किया। उस दिन के बाद मैं अपने जीवन से और भी खीझ गई।
कॉलेज जाने का मन न करता। अपनी किसी भी तकलीफ को अब मैंने मां को भी बताना बंद कर दिया। उन बहुत सी बातों को कहना बंद कर दिया था जिन्हें पहले बताती थी कि कैसे मुझे सहेलियां चिढ़ाती हैं। पापा को तो खैर पहले भी नहीं बताती थी। सोचती कि आखिर क्या बताऊं, मेरी ऐसी कौन सी समस्या है जो वह दोनों नहीं जानते।
बी.एस.सी. में पहुंचने के बाद बीमारियों के चलते मुझे रोज-रोज छोड़ने जाना जब पापा-अम्मा दोनों के लिए मुश्किल हो गया था तो आखिर में मेरे लिए एक रिक्शा लगा दिया था। वह मुझे कॉलेज से लेकर मैं जहां-जहां जाती ले जाता। फिर जाना-आना था भी कितना। कभी-कभी आकाशवाड़ी या फिर शौकिया पेंटिंग सीखने के लिए अपनी सहेली मिनिषा के घर। जिसकी मां जो आगे मेरे लिए चित्रा आंटी बनीं तब तक बतौर पेंटर अपना स्थान बनाने के लिए संघर्षरत थीं। मुंबई के सबसे नामचीन कॉलेज से उन्होंने डिग्री ली थी। घर पर ही सिखाती भी थीं। उनकी पेंटिंग ठीक-ठाक बिकती भी थीं। मगर इन सब जगहों पर मैंने कई बार जो तकलीफें, जो अपमान, ताना झेला पापा से मार खाने के बाद उनको भी कभी नहीं बताया।
यह सब मेरी शारीरिक स्थिति का ही तो तकाजा था कि इक्कीस की उम्र में पापा ने मारा, और हर जगह अपमानित होती रही। मैं समझती हूं कि यदि मैं भी सामान्य लड़कियों की तरह लंबी-चौड़ी होती तो शायद उस दिन पापा से मार न खाती और मां को भी बचा लेती। और बाद में मेरे साथ बार-बार जो हुआ वह भी न होता।
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