भगवान की भूल - 1 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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भगवान की भूल - 1

भगवान की भूल

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-1

मां ने बताया था कि जब मैं गर्भ में तीन माह की थी तभी पापा की करीब पांच वर्ष पुरानी नौकरी चली गई थी। वे एक सरकारी विभाग में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी थे। लखनऊ में किराए का एक कमरा लेकर रहते थे। घर में मां-बाप, भाई-बहन सभी थे लेकिन उन्होंने सभी से रिश्ते खत्म कर लिए थे। ससुराल से भी। मां ने इसके पीछे जो कारण बताया था, देखा जाए तो उसका कोई मतलब ही नहीं था। बिल्कुल निराधार था। मां अंतिम सांस तक यही मानती रही कि उसकी अतिशय सुंदरता उसकी सारी खुशियों की जीवनभर दुश्मन बनी रही। वह आज होतीं, तो मैंने अब तक जितनी भी कठिनाइयां, मान-अपमान झेले वह सारी बातें खोलकर उन्हें बताती और समझाती कि तुम अपने मन से यह भ्रम निकाल दो कि तुम अतिशय सुंदर थीं। तुम पर नजर पड़ते ही देखने वाला ठगा सा ठहर जाता था। और यह खूबसूरती तुम्हारी दुश्मन थी।

मुझे देखो, मैं तो तुम्हारे विपरीत अतिशय बदसूरत हूं। मुझे बस तुम्हारा दुधिया गोरापन ही मिला है। बाकी रही बदसूरती तो वह तो दुनियाभर की मिल गई। फिर मुझे होश संभालने से लेकर प्रौढ़ावस्था करीब-करीब पूरा करने के बाद भी अब तक खुशी नाम की चीज मिली ही नहीं। तुम नाहक ही अपनी सुंदरता को जीवनभर कोसती रही। असल में कई बार हम हालात के आगे विवश हो जाते हैं। या तो हम समझौता कर उसके आगे समर्पण कर देते हैं, जहां वह ले जाए वहां चलते चले जाते हैं। या फिर एकदम अड़ जाते हैं। अपनी क्षमताओं से कहीं ज़्यादा बड़ा मोहड़ा मोल ले लेते हैं। जिससे अंततः टूट कर बिखर जाते हैं। मैं मां की हर बात को बार-बार याद करती हूं। तमाम बातों को डायरी में भी खूब लिखती रही। बहुत बाद में मन में यह योजना आई कि अपने परिवार की पूरी कथा सिलसिलेवार लिखूंगी । चित्रा आंटी, मिनिषा मेरे इस निर्णय के पीछे एक मात्र कारण हैं। दोनों चित्रकार मां-बेटी बरसों-बरस से मेरी ज़िंदगी में कई मोड़ पर अहम रोल अदा करती आ रही हैं। वो मुझे सेलिब्रेटी बनाने की कोशिश बहुत बरसों से करती आ रहीं हैं। उन्हीं की सलाह है कि मैं परिवार के बारे में लिख डालूं । यह और उन मां-बेटी द्वारा बनाई गई मेरी न्यूड पेंटिंग्स लोगों के बीच तहलका मचा देंगी।

असल में उन दोनों ने मुझे बहुत पहले इस बात का बड़ी गहराई से अहसास कराया था, कि मैं इस दुनिया में एक अजूबा हूं। एक ऐसी अजूबा जो जिधर निकल जाए उस पर लोगों की नज़र पड़े और ठहरे बिना नहीं रह पाएगी। देखा जाए तो सच यही है कि मैं एक अजूबा प्राणी ही तो हूं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अजूबों पर दुनिया का ध्यान बड़ी जल्दी जाता है। नज़र उस पर ठहर ही जाती है। इसलिए मुझे आज भी यकीन है कि चित्रा आंटी और मिनिषा की बात एक दिन वाकई सच होगी।

मेरी आप बीती तहलका मचा सकती है। लेखन की बारीकियों से अनजान मैं यही समझ पाई हूं कि मेरे अब तक के जीवन में जो घटा है सब लिख डालूं। मैं जैसी अजूबा हूं मेरे साथ अब तक जीवन में वैसा अजूबा ही तो घटता आ रहा है। मेरी इस जीवन गाथा के मुख्य पात्र मां-बाप के बाद चित्रा आंटी, मिनिषा, डिंपू, ननकई मौसी, सिन्हा आंटी, उप्रेती एवं दयाल अंकल आदि होंगे।

मां-बाप होते तो निश्चित ही डिंपू को न शामिल करने देते। तब मैं उनको यही समझाती कि मां ऐसा कैसे कर सकती हूं। आखिर अपने ड्राइवर देवेंद्र को कैसे छोड़ सकती हूँ । वही देवेंद्र मां जिसे तुम डिंपू-डिंपू कहती हो। मैं यह भी मानती हूं कि डिंपू मेरे बीच जो हुआ आगे चलकर उसे जानते ही मां और पापा दोनों ही निश्चित ही मुझे मारते-पीटते घर से निकाल देते। जिस डिंपू को हम लोग कभी नौकर से ज्यादा कोई तवज़्जोह नहीं देते थे वही डिंपू उनका दामाद बन जाता यदि उसने मुझे धोखा नहीं दिया होता। और मैं उसे गुस्से में दुत्कार न देती और फिर कभी शादी न करने का प्रण न करती। मैं पूरे यकीन के साथ कहती हूं कि यह जानते ही मां मुझे ठीक उसी तरह घर से धक्के देकर सड़क पर फेंक देती जैसे उन्हें और पापा को उन के सास-ससुर ने निकाल दिया था। जबकि उन्होंने, पापा ने तो ऐसा कोई काम किया ही नहीं था।

मुझे अच्छी तरह याद है कि मां मौका मिलते ही बार-बार सास-ससुर द्वारा घर से निकाले जाने और मेरे जन्म की घटना बताती थीं। मां की याददाश्त बड़ी अच्छी थी। मां हर बार एक सी ही बात बताती थीं। कभी उसमें कोई परिवर्तन नहीं रहता था। उन्होंने यही बताया था कि शादी की बात चली तो पापा और उनके परिवार ने उन्हें एक नज़र देखते ही हां कर दी थी। यहां तक कह दिया था मां के माता-पिता से कि यदि आप एक पैसा भी नहीं खर्चां करेंगे तो भी रिश्ता यही करेंगे। कोई दिक्कत है तो पैसा हम लगाने को तैयार हैं। पापा की तरफ के इस उतावलेपन का मां के परिवार ने खूब फ़ायदा उठाया। इसमें उनके चाचा भी शामिल थे। सबने एक राय होकर जो कुछ मां की शादी में करने, देने के लिए पहले से तय था उसका भी अधिकांश हिस्सा रोक लिया, नहीं दिया। मगर मां की ससुराल वालों ने इस पर भी क्षणभर को ध्यान नहीं दिया। मां ससुराल पहुंची तो उनकी सुंदरता केवल अपने गांव ही नहीं आस-पास के गांवों में भी चर्चा का विषय बन गई। दादी उनकी सुंदरता, सुघड़ता, उनकी बातों, व्यवहार, शिष्टाचार की चर्चा कर-कर के, सुन-सुन के खुशी के मारे फूली न समाती थीं। रोज ही शाम को वह मां की नज़र उतारती थीं कि किसी की नज़र न लगे। पापा सहित घर के सारे लोगों का यही हाल था।

मां कहती थी कि पापा पहली रात को और बाद में भी कई दिनों तक रात में जब उनके पास पहुंचते तो लालटेन उनके करीब करके देर तक उनको अपलक ही निहारा करते। मां लजा कर सिर नीचे कर लेतीं, तो अपने दोनों हाथों में उनका चेहरा लेकर यूं धीरे-धीरे ऊपर उठाते कि मानो पानी का कोई बुलबुला हाथों में लिए हैं और वह इतना नाजुक है कि हल्की जुंबिश तो क्या सांस लेने की आवाज़ से भी फूट जाएगा।

वह चेहरा ऊपर करके एकदम अपलक, एकदम निःश्वास मां को देखते। पापा को इस बात की बड़ी कोफ्त थी कि घर में क्या गांव में ही बिजली नहीं है। जब कि मां सीतापुर शहर में पली बढ़ीं थीं। हालांकि लाइट का टोटा वहां भी था। लेकिन मां के घर में सुख-सुविधा का हर सामान था। मगर उनकी शादी एक गांव में की गई, जहां माटी, गोबर लीपना-पोतना, कंडा, उपला, खेती किसानी यही सब था। बाबा भी गांव के बहुत बडे़ तो नहीं मगर फिर भी अच्छे खासे खाते-पीते संपन्न किसान माने जाते थे। कच्चा-पक्का मिला कर बड़ा मकान था। कच्चे ही सही मगर करीब-करीब पचीस बीघे खेती थी। घर में गाय, भैंस, बैल मिला कर करीब आठ-नौ जानवर थे, ट्रैक्टर था। मां बड़ा दुखी होकर बताती थी कि मानो परिवार की इन सारी खुशियों को किसी बाहरी की तो नहीं हां परिवार की ही नज़र लग गई थी।

जिन पापा को पहले यह खेती-किसानी घर-द्वार अच्छा लगता था वही शादी के चार-छः दिन बाद ही यह सब देखकर चिढ़ने लगे थे। उनको बहुत बुरा लगता था कि दादी किसी के आने पर मां को बुलातीं और उन्हें खड़ा ही रखतीं, जब कि बाकी लोग तखत, चारपाई, स्टूल आदि पर बैठते। आने वाला मेहमान यदि मां को बैठने को कहता तो उन्हें कोने में लंबा घूंघट काढ़ कर पीढे़ पर ही बैठने की इज़ाज़त थी। इन सबसे चिढ़े पापा तब अपना विरोध दर्ज कराना रोक न पाए, जब चौथी की रस्म के हफ्ते भर बाद ही मां से रसोई घर गोबर से लीपने के लिए कह दिया गया। पहले यह काम दादी खुद करती थीं क्योंकि रसोई घर में काम वाली जा नहीं सकती थी।

उस दिन जब पापा ने देखा कि दादी मां से गोबर से रसोई लिपवा रही हैं, और मां ने क्योंकि पहले कभी यह सब नहीं किया था तो ठीक से लीप नहीं पा रही थीं। हांफ अलग रही थीं, पसीने से तरबरतर थीं और दादी पीढ़े पर थोड़ी दूर बैठी मां को लीपना बता रही थीं। जहां ठीक से नहीं हुआ था वहां दुबारा करवा रही थीं। पापा उस समय तो कुछ नहीं बोले थे। रात में मां की हथेलियों पर उभर आए सुर्ख निशानों को कई बार चूमा था और नाराज होकर कहा था कि ’मुझसे यह सब देखा नहीं जाएगा।’ मां ने तब उन्हें मना किया था कि ‘ससुराल है। घर में तो यह सब होता ही है। अम्मा जी भी तो करती हैं।’ तब पापा बोले थे कि ‘यह तो उनकी आदत है।’ इस पर मां ने कहा कि ‘मेरी भी आदत पड़ जाएगी।’ लेकिन पापा बहस करते रहे। बोले ‘तुम मेरी बीवी हो घर की नौकरानी नहीं।

मजदूर नहीं कि तुम्हें मेहमानों के सामने जमीन पर बैठाया जाए या खड़ा रखा जाए। गोबर लिपवाया जाए, सुबह भोर से लेकर रात तक काम में पीसा जाए। मुझसे यह सहन नहीं होगा।’ मां के लाख कहने पर भी पापा नहीं माने थे, और जब अगले दिन मां फिर चौका लीप रही थीं, दादी पहले की तरह बता रहीं थीं तो पापा ठीक उसी वक्त आ गए। मानो वह पहले ही से ताक लगाए बैठे थे। वो कुछ बोलते कि उसके पहले ही दादी बोल पड़ीं ‘का रे तू मेहरिया के काम का देखा करत है। अरे! घरवे का काम कय रही है। कौउनो बाहर के नाहीं।’ दादी का इतना बोलना था कि पापा फट पड़े थे कि ‘वो तो मैं भी देख रहा हूं कि घर का ही काम कर रही है। लेकिन एकदम मजूरिन बना दिया है। दस दिन भी नहीं हुआ है और कोल्हू के बैल की तरह काम ले रही हो। गोबर लिपवा रही हो।’

दादी अपने सबसे बड़े बेटे से यह अप्रत्याशित बात सुनते ही एकदम सकते में आ गर्इं थीं। उनके सारे सपने, सारी खुशी सुंदर बहू पाने का सारा उछाह, ऊपर से गिरे शीशे की तरह छन्न से टूटकर चूर-चूर हो गए थे। मां यह बताते-बताते खुद भी रो पड़ती थी कि पलभर में दादी के अविरल आंसू बहने लगे थे। वह रोती हुई बोलीं थीं, ‘वाह बेटा चार दिन भः मेहरिया के आए ओके लिए इतना दर्द और ई मां जो बरसों बरस से गोबर, माटी, पानी, लिपाई करती आई, बनाती खिलाती आई, इस लायक बनाया कि ऐसी मेहरिया मिल सके उसका कोई खयाल नहीं। इतनी बड़ी तोहमत, इतना बड़ा कलंक लगा दिया। अरे! मेरे दूध में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि यह ताना मारते तोहार जुबान न कांपी।’

मां ने जब-जब यह बताया तब-तब आखिर में यह जोड़ना ना भूलतीं कि सास के यह आंसू ही पापा और उनके लिए शाप बन गए। और उन दोनों को संतान सुख नहीं मिला। अब मैं यह भी इसमें आगे जोड़ना चाहूंगी कि मां मुझसे कहती भले ही न थीं, लेकिन मन में यह जरूर कहती रही होंगी कि संतान दी थी तो मेरी जैसी। ऐसी अजूबा जो उन दोनों के लिए असहनीय बोझ ही रही। मां बहुत भावुक होकर बताती थीं कि ‘सास के आंसू देखकर वह तड़प उठी थीं।’

उसने जल्दी से गोबर सने अपने हाथ धोए और सास को समझाने लगीं, पापा को वहां से तुरंत हट जाने को भी कहा लेकिन तब तक बातें सुनकर बाबा भी आ धमके। दादी से सारी बातें सुनते ही वह आग बबूला हो उठे। उन्होंने पापा को नमक-हराम से लेकर जितना जद्बद् हो सकता था कहना शुरू कर दिया। पापा ने भी जबानदराजी शुरू कर दी थी। जिसने आग में घी का काम किया। मां, बाबा-दादी सब के रो-रोकर हाथ जोड़-जोड़ कर विनती करती रहीं कि ‘शांत हो जाइए। ऐसी कोई बात नहीं है। न जाने ऐसा क्या हुआ कि यह ऐसी गलती कर बैठे।‘ मां इतना ही बोल पाई थी कि पापा फिर बिदक उठे ‘मैंने कोई गलती नहीं की है।’ फिर तो बाबा का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्होंने तुरंत अपना आदेश सुनाते हुए कहा ‘आज से तुम अपना चूल्हा अलग करो। तुम्हें परिवार के बाकी लोगों से कोई लेना देना नहीं। कोई संबंध नहीं रहा अब तुम्हारा बाकी लोगों से।’

घर के बाकी सारे सदस्य, मां की नंदें, देवर आदि सब आ चुके थे। जिन पापा को कभी किसी ने बाबा से तेज़ आवाज़ में बात करते भी नहीं सुना था आज उन्हीं को उनसे इस तरह बिना हिचक लड़ते देख कर सभी सकते में थे। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। दादी भी कुछ-कुछ बुदबुदाती अपनी किस्मत को कोसती रोए जा रही थीं। मां बड़ी गहरी साँस लेकर कहती कि बाबा का आदेश सुनने के बाद पापा नम्र पड़ने के बजाय और बहक गए। उन्होंने छूटते ही कह दिया कि ’जिस घर में परिवार के सदस्य और मजदूर के बीच कोई फर्क ही नहीं वहां मुझे रहना ही नहीं है।’ फिर तो बाबा ने अपना आखिरी महाविस्फोट किया था। साफ कहा था कि ’ठीक है, ठीक है बेटा इतनी ही शान है तो देहरी से अगर क़दम निकालना तो जीवन में कभी मुंह मत दिखाना। हम भी देखेंगे कि कितनी शान, कितनी ऐंठ है तुममें।’

मां जब-जब अपनी यह बात पूरी करती थीं तो आखिर में कभी मेरा हाथ पकड़ कर या कभी कंधे पर हल्के से थपथपा कर कहतीं ‘बस तनु यही वह क्षण थे जब हमारी सारी खुशियों को हमेशा के लिए ग्रहण लग गया।’ मां सच ही कहती थीं। जीवन भर मैंने उसे कभी हंसते खिलखिलाते नहीं देखा था। गाहे-बगाहे कभी हंसी भी तो उसकी वह हंसी हमेशा खोखली एवं नकली ही दिखी। हर हंसी के पीछे मैं आंसू देखती थी। और पापा का भी यही हाल था। मैं पापा-अम्मा के जीवन के उस दिन को उनके जीवन का सबसे मनहूस दिन मानती हूं। जिसकी काली छाया ने मेरे जीवन को भी अंधकारमय बनाया है। वह इतना काला दिन था कि एक बाप की डांट को बेटा बर्दाश्त नहीं कर सका।

वह अपने आवेश पर काबू न कर सका और त्याग दिया सभी को। कुछ ही दिन पहले आई पत्नी के लिए इतना बड़ा फैसला ले लिया। वह पत्नी भी हाथ जोड़ती रही लेकिन नहीं माने। मां कहती थीं कि तुम्हारे पापा से मैंने लाख मिन्नत की, हाथ पैर जोड़े लेकिन वह ऐसा मनहूस क्षण था कि वह नहीं माने। उन्होंने यहां तक कह दिया कि ‘तुम्हें ज़्यादा वो हो तो तुम रहो यहीं। मुझसे संबंध खत्म। मैं नहीं रहूंगा यहां। किसी भी सूरत में नहीं। फिर शाम होते-होते वह मां और दो सूटकेस में कपड़े वगैरह लेकर लखनऊ चले आए थे। नाना-नानी के घर भी कोई सूचना नहीं दी थी। दो दिन बाद जब नाना को पता चला तो वो नानी, मामा को लेकर दौड़े-भागे लखनऊ आए थे। मगर उनकी भी सारी कोशिश नाकाम रही।

वो यहां अपने एक रिश्तेदार के यहां रुक कर कई दिन पापा को समझाते रहे लेकिन वो टस से मस नहीं हुए थे। जिस किराए के कमरे में पापा मां को लेकर रहने आए थे वह इतना बड़ा था ही नहीं कि उसमें मियां-बीवी के अलावा तीसरा कोई रह पाता। आखिर थके हारे नाना जाते-जाते मां को कुछ रुपए दे गए थे। उन्हें जल्दी ही सब ठीक हो जाने की उम्मीद थी। उनको और बाकी सबको भी यह पक्का यकीन था जब गुस्सा कम होगा तो बाप-बेटे एक हो जाएंगे। ऐसा न होने पर नाना के सपनों पर भी तो पानी पड़ रहा था। उन्होंने अपनी लड़की एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी को नहीं बल्कि एक अच्छे-खासे संपन्न खुशहाल परिवार, किसान परिवार के सदस्य को ब्याही थी।

मां इस घटना के लिए सारा दोष केवल अपनी सुंदरता को हमेशा देती रही। बार-बार यही कहती थीं कि ‘न मैं इतनी सुन्दर होती और न ही तुम्हारे पापा मेरी सुंदरता के दिवाने हो ऐसा गलत कदम उठाते कि मां-बाप, भाई-बहन, ससुराल सब से हमेशा के लिए नाता खतम कर लेते। और न ही पापा के भाई इसका गलत फायदा उठाते। दोनों नंदों की शादी हो गई लेकिन पापा को भनक तक न लगने दी गई। साजिशन नाना के यहां से तो दुश्मनी जैसी स्थिति पैदा कर दी गई। और आगे चलकर बाबा के कान भर-भर कर सारी चल-अचल संपत्ति से ही पापा को बेदखल कर दिया गया।’ मां फिर भी इसके लिए जीवन भर अपनी सुंदरता को ही दोषी ठहराती रहीं। उन्होंने यह भी बताया था कि ‘आने के बाद यदि पापा शांत हो जाते, बाबा-दादी सबसे माफी मांग लेते तो चुटकी में सब ठीक हो जाता। बाबा-दादी मन के बड़े खरे और दिल के सच्चे थे।

वह पापा की इस हरकत को क्षणिक उत्तेजना में उठाया गया क़दम मान कर पलभर में माफ कर देते।’ लेकिन पापा तो उनके सौंदर्य के आगे कुछ ऐेसे चुंधियाए हुए थे कि जीवन यापन का एक मात्र सहारा अपनी टेम्परेरी नौकरी के साथ भी खिलवाड़ कर बैठे थे। और तब मां भी बिफर पड़ी थीं। और आत्महत्या की धमकी दे दी थी। उस धमकी का असर यह हुआ कि उसके बाद पापा कुछ भी करते लेकिन नौकरी के साथ चांस नहीं लेते। मगर उनके अगले और फैसलों ने, काम ने उन्हें और परेशान ही किया। मां इन बातों को बताते-बताते कई बार भावुक भी होतीं और कई बार जैसे रोमांचित भी।

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